युक्त्यनुशासन - गाथा 15: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(No difference)
|
Latest revision as of 11:56, 17 May 2021
न बंध-मोक्षौ क्षणिकैक-सस्थौ
न संवृति: साऽपि मृषा-स्वभावा ।
मुख्यादृते गौण-विधिर्न दृष्टो
विभ्रांत-दृष्टिस्तव दृष्टितोऽन्या ।।15।।
(54) क्षणिकवाद में किसी भी एक चित्त के बंधमोक्ष की सिद्धि की असंभवता―शंकाकार के मंतव्य पर
विचार चल रहा है कि प्रत्येक पदार्थ अपने ही स्वभाव से दूसरे क्षण नहीं रहता । उसका प्रलय स्वभाव है । तो यों पदार्थ अकारण नष्ट हो जाता । तो क्षणभर को ठहरने वाले एक चित्त में बंध और मोक्ष नहीं बन सकता, क्योंकि जिस चित्त का बंध हुआ वह तो उसी समय नष्ट हो गया । उसका कुछ लगार भी आगे नहीं रहता याने निरन्वय विनाश हो जाता । अब आगामी जो चित्त है उसने तो बंध किया नहीं और मोक्ष उसका बन बैठेगा ꠰ अब न्याय तो यह था कि जिस चित्त ने बंध किया उसी चित्त का ही बंध मिटे तो उसको बंध की उत्पत्ति आपत्ति दूर हुई, मगर बंध तो किया दूसरे ने और बिना काम फाल्तू ही मुक्त हो बैठे दूसरे । तो एक ही चित्त के बंध और मोक्ष दोनों बनें, ऐसा न हो सकेगा । जैसा कि सब लोग यह ही समझते हैं और चाहते हैं कि जिस जीव को दुःख हुआ है, संसार में बंधन हुआ है उस जीव का दुःख दूर हो, उसका बंधन दूर हो ।
(55) भिन्न चित्तक्षणों में कल्पना से एकत्व का आरोप कर बंधमोक्ष की व्यवस्था बना लेने का शंकाकार का एक सुझाव―यहां शंकाकार कहता है कि बात तो यह नहीं है कि प्रत्येक चित्त क्षणिक है, एक क्षण ही ठहरता है, अगले क्षण नहीं ठहरता, मगर लगातार उत्पन्न होने वाले चित्तों में एकत्व का आरोप कर लिया जाता है मायने वह सब एक है जैसे कि तेल का दीपक जलता है तो बहा, एक-एक बूंद जलता रहता है । तो जो 8 बजे दीपक बना वही तो 8 बजकर एक सेकेंड पर नहीं है । वह तो दूसरे तेल की बूंद जल रहो है, दूसरे सेकेंड में तीसरी बूंद जल रही है । तो प्रत्येक सेकेंड में तैल की नई बूंद जल रही है तो दीपक भी नया-नया बनता जाता है और प्रलयस्वभाव के कारण मिटता जाता है, मगर एक जगह लगातार जो बूंद जलकर दीपक बनती जा रही हैं उन अनेक दीपकों में एकत्व का आरोप होता है व्यवहार में कि यह वही दीपक है, तो ऐसे ही एक देह में लगातार अनेक चित्त उत्पन्न होते जाते हैं और नष्ट होते जाते हैं, पर उन लगातार उत्पन्न होने वाले चित्तो में एकत्व का आरोप कर लिया जाता है, इसे कहते हैं कल्पना अथवा संवृति । तो संवृति से क्षणिक चित्तों में एकत्व का आरोप किया, फिर यह मान लिया कि जिसने बंध किया उसी को मोक्ष हुआ । यद्यपि हैं वे चित्त नाना, मगर उन अनेक चित्तों में जब एकपने का व्यवहार कर लिया तो अब यह कहा जा सकता है कि एक ने ही बंध किया और उस एक का ही मोक्ष हुआ ।
(56) शंकाकार द्वारा प्रस्तुत संवृति की अविचारितरमणीयता व असंगतता―शंकाकार का उक्त सुझाव आया, पर उस पर बहुत कुछ विचार करना पड़ेगा और विचार करने पर वह असंगत हो जायेगा । यहाँ पहले यही प्रश्न होता है कि वह संवृति जिस कल्पना के द्वारा भिन्न-भिन्न अनेक चित्तों में एकत्व का आरोप किया है वह मृषा स्वभाव वाली है या गौणविधिरूप है अर्थात् वह कल्पना बिल्कुल असत्य है या है तो सही, पर उसमें गौण मुख्य की कल्पना की गई है; ये दो विकल्प उस संवृति के बारे मे उत्पन्न होते हैं । जिस संवृति ने लगातार उत्पन्न होने वाले चित्त में एकत्व का आरोप किया है और जिसके बल पर यह सिद्ध करने की कोशिश की गई है कि जिसने बंध किया उसी को मोक्ष हो गया वह संवृति असत्य है या गौण है? यदि कहा जाये कि यह संवृति असत्य है तो असत्य कल्पना यह व्यवस्था करने में समर्थ नहीं हो सकती कि क्षणिक एक चित्त में उस ही ने बंध किया, उस ही को मोक्ष हो गया । यह कैसे सिद्ध कर लिया जायेगा, क्योंकि उन नाना जीवों में एकत्व की कल्पना असत्य हो गई । तो अब असत्य कल्पना कोई सत्य निर्णय नहीं हो सकती है, तब उस एक का बंध हुआ, उस एक का मोक्ष हुआ, यह बात मिथ्या ठहरती है । यदि दूसरा विकल्प लिया जाये कि वह संवृति गौणरूप है तो देखो किसी को गौण कहना मुख्य के बिना नहीं हो सकता ।
(57) शंकाकार की शंका का समाधान एक उदाहरण द्वारा―जैसे किसी पुरुष का नाम सिंह रख दिया तो वह पुरुषसिंह के समान क्रूर, खूंखार, मांसभक्षी जानवर तो है नहीं और नाम जो सिंह रख दिया, तब लोग कहते हैं कि यह तो उपचार से नाम धरा गया है, इसके मायने यह हुआ कि वास्तव में सिंह कोई हुआ करता है, तो वह सिंह तो नहीं है, मगर इसका नाम कुछ थोड़ा बहुत स्वभाव क्रूर होने से सिंह धर दिया या लोकव्यवहार चलाने के लिए कोई नाम धर दिया तो यहाँ गौण बात कहना किसी मुख्य बात को सिद्ध करती है तो क्षणिक एकांत चित्तों में एकत्व का आरोप करने वाली कल्पना है उसको यदि गौण कहा जाता तो अपने आप सिद्ध हो जाता कि कहीं ऐसा अनेक समयों का एकत्व मुख्य है तो मुख्य विधि के अभाव में गौण विधि नहीं कहला सकती सो बतलायें ये क्षणिकवादी कि एकत्व की मुख्य विधि कहीं है या नहीं? यदि यह जैनदर्शन की भांति जीव को तो एक मान लें और उसमें प्रतिसमय होने वाली पर्याय को ये नाना मानें तो उन नाना पर्यायों में एक जीव चल ही रहा है तो वही मुख्य और गौण की बात बन जाती है । तो ऐसे ही उस संवृति को गौण मानने वाले ये शंकाकार यदि किसी एकत्व को मुख्य नहीं करते तो गौण भी नहीं सिद्ध होता । तो यों एक चित्त में बंधमोक्ष की व्यवस्था ये क्षणिकवादी नहीं बना सकते कि जिस जीव ने बंध किया उस ही जीव को मोक्ष होगा । सो हे वीर जिनेंद्र ! आपके दर्शन से जो पृथक् हो गए हैं, ऐसे क्षणिकवादियों का यह सर्वथा एकांतरूप दर्शन विभ्रांत दर्शन है और सब ओर से इसके वर्णन में दोष आ रहे हैं । सो यह क्षणिकवाद वस्तु के यथार्थ स्वरूप को कहने में समर्थ नहीं है ।