युक्त्यनुशासन - गाथा 49: Difference between revisions
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Revision as of 11:56, 17 May 2021
नानात्मतामप्रजहत्तदेक-
मेकात्मतामप्रजहच्च नाना ।
भंगाविभावात्तव वस्तु तद्यत्
क्रमेण वाग्वाच्यमनंतरूपम् ।।49।।
(165) नानात्मता व एकात्मता को प्राप्त सत् की वस्तुता―हे प्रभो ! आपके शासन में बतायी गई जो एक वस्तु है वह अनेकरूपता का त्याग न करती हुई स्ववस्तुत्व को धारण करती है, क्योंकि जिसमें नानारूप नहीं है, पर्यायें नहीं हैं वह वस्तु ही नहीं । जैसे सत्ताद्वैत, ब्रह्माद्वैत आदिक मात्र सामान्य तत्त्ववादी के मंतव्य वे केवल कल्पना से ही उद᳭भूत हैं, वहाँं वह सद᳭भूत पदार्थ नहीं प्राप्त होता, इसी प्रकार हे वीर जिनेंद्र ! जो वस्तु नानात्मक प्रसिद्ध है वह एकात्मता को न छोड़ती हुई वस्तुरूप से अभिमत है । यदि नाना स्वरूप एकत्वपन को छोड़ दे तो वह भी वस्तु नहीं रहती । जिन दार्शनिकों ने निरन्वय नाना क्षणरूप वस्तु माना है उनका एकत्व न होने से वे भी कर्ता कर्म आदिक से रहित होकर अवस्तु ही ठहरते हैं, इस कारण पदार्थ का यह स्वरूप है कि एक दूसरे का त्याग न करने से समस्त पदार्थ एकानेक स्वभावरूप हैं । एक तो मूल में है ही सत् और वह नाना पर्यायों में चलता रहता है, इस कारण पदार्थ एकानेकात्मक है ।
(166) शब्द की नानारूपत्व के प्रतिपादन की क्षमता के विषय में आरेका व समाधान―अब यहाँ शंकाकार कहता है कि जो वस्तु अनेकांतात्मक है याने अनंतरूप है उस वस्तु का प्रतिपादन कैसे हो सकता क्योंकि कोई ऐसा शब्द नहीं है जो शब्द अनंतरूप का वाची हो । प्रत्येक शब्द का अपना-अपना सीमित अर्थ है । तो शब्द तो एक धर्म का वाची होगा । अनंत धर्मात्मक तत्त्व का वाचक शब्द कैसे हो सकता है? इस शंका का समाधान यह है कि वस्तु जो अनंतरूप है इसमें अंग और अंगी भाव की विवक्षा है अर्थात् उनमें गौण और मुख्य की विवक्षा होने से वे पदार्थ क्रम से वचनगोचर होते हैं, हाँ, एक साथ तो वचनगोचर नहीं हैं । तब ही तो सप्तभंगी में एक अवक्तव्य भंग आता है । क्योंकि अनेकांतात्मक वस्तु के सभी धर्म एक साथ एक वचन के द्वारा कहे नहीं जा सकते । वचनों में ऐसी शक्ति ही नहीं है । फिर भी वस्तु में रहने वाले सभी धर्मों का जिनको बोध है व विवेकी पुरुष क्रम से वचन बोलते हैं और उनके वचन सत्य होते हैं, क्योंकि उनकी प्रतीति में अविविक्षित धर्मों की भी सत्ता है । तो इस प्रकार पदार्थ में नानापन और एकरूप के विषय में अंग-अंगी भाव से प्रवृत्ति होती है । जो मुख्य है वह वचन द्वारा कहा गया है । उसके साथ शेष समस्त स्वरूप गौणरूप से उसी वचन द्वारा कहे गए माने जाते हैं ।
(167) उपरोक्त विषय के संबंध में एक उदाहरण―अब इसी विषय में एक उदाहरण लें―जैसे कहा कि स्यात् एक वस्तु, याने वस्तु कथंचित् एक है तो इस वचन द्वारा प्रधानता से एकत्व वाच्य है, पर गौणरूप से अनेकत्व वाच्य है, यह प्रकाश स्यात् शब्द से मिलता है । जब किसी दृष्टि से वस्तु को एक कहा तो उसी से ही यह सिद्ध है कि उसके प्रतिपक्ष दृष्टि से वस्तु अनेकरूप है । इसी प्रकार जिस समय कह कहा कि ‘स्यात् अनेकं एव वस्तु,’ कथंचित् वस्तु अनेक है । तो जिस अपेक्षा से वस्तु को अनेक कहा जा रहा है उस दृष्टि से वस्तु का अनेकपना प्रधान है, किंतु जब कथंचित् अनेक बताया है तो उस ही से यह सिद्ध है कि उसके प्रतिपक्ष की दृष्टि से वस्तु एकरूप है, इस प्रकार एकत्व और अनेकत्व के कहने में असत्यता नहीं हो सकती । यदि सर्वथा एकत्व कहा जाये तो उससे अनेकत्व का निराकरण किया गया । तो जिस वस्तु में अनेकत्व का निराकरण हो उसमें एकत्व भी नहीं ठहरता, क्योंकि एक-अनेकपना अविनाभावी है । द्रव्यदृष्टि से वस्तु एक है तो पर्यायदृष्टि से वस्तु अनेक है । द्रव्यशून्य पर्यायमात्र वस्तु नहीं हुआ करती, इसी प्रकार पर्यायशून्य द्रव्यमात्र वस्तु नहीं हुआ करती । तो ये दो दृष्टियां समझने के लिए आवश्यक ही हैं । किसी भी वस्तु का कथन होगा तो द्रव्यदृष्टि और पर्यायदृष्टि से होगा । तो इस तरह द्रव्यदृष्टि से वस्तु एकरूप है वह एकरूपपना अनेकता को छोड़कर नहीं है, याने जिसमें पर्यायों से अनेकपना न हो वहाँ द्रव्य का एकत्व भी नहीं रहता, इसी प्रकार यदि कोई सर्वथा अनेक ही माने तो उसके इस सर्वथा वचन से एकत्व का निराकरण हुआ । जहाँ एकत्व नहीं है वहाँ अनेकत्व भी नहीं रह सकता । जैसे जो द्रव्य नहीं, सत् नहीं वहाँं पर्याय कैसे आयेगी? इस कारण सर्वथा वचन अयुक्त हैं । वस्तु अनेकांतात्मक है और उसको प्रधान-अप्रधान करके वचन द्वारा समझ लेना चाहिए ।