कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 292: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:32, 2 July 2021
अह धण-सहिदों होदि हु इंदिय-परिपुण्णदा तदो दुलहा ।
अह इंदिय-संपुण्णो तह वि सरोओ हवे देहो ।।292।।
धनसहित होने पर भी दृंद्रियपरिपूर्णता की दुर्लभता―अब यह जीव धनसहित भी हो गया, मगर इंद्रिय की परिपूर्णता न हुई तो क्या लाभ? मान लो कोई इंद्रिय ठीक नहीं, आँखें न हों, या हाथ पैर वगैरह ही कट जाये, या लकवा वगैरह हो जाने से कोई शारीरिक अंग खराब हो जायें तो यह भी एक बहुत बड़ी कमी है । अगर इंद्रिय की परिपूर्णता नहीं है और धनिक विशेष हो गए तो भी उससे क्या लाभ? तो शरीर का आरोग्य होना भी बड़ी मुश्किल से मिलता है । ज्वर, खासी आदिक अनेक ऐसे उपद्रव होते हैं जो कि इस मनुष्य को हैरान करते रहते हैं । अगर कोई आधि व्याधियां, बीमारियां चलती रहती हैं तब फिर इस मनुष्य को उस व्यथा का आर्तध्यान बना रहता है । तो मनुष्य होने पर भी यदि रोगों से (बीमारियों से) भरा हुआ जीवन रहा तब कुछ लाभ तो न उठाया जा सका । अब अपने आपकी बात देख लीजिए―हम आप आर्यक्षेत्र में उत्पन्न हुए है, धनहीन भी नहीं हैं, इंद्रियों की परिपूर्णता है और देह भी निरोग है । यों तो प्रत्येक देह में रोग हैं । कोई भी देह रोग बिना नहीं फिर भी जरा-जरा से रोगों से हम आपको घबड़ाना न चाहिए । उन रोगों की तरफ विशेष न देना चाहिए, उनके प्रति उपेक्षा का जैसा भाव रहना चाहिए । और यह ध्यान रखे ध्यान रखें कि यह वही शरीर हैं जो किसी दिन जला दिया जायगा, उस शरीर की ओर विशेष ध्यान रखने से क्या लाभ? अथवा उस शरीर के पीछे रोना क्या? तो यों यह जीव इतनी-इतनी स्थितियों को पार करके आज इतनी अच्छी स्थिति में है कि
संज्ञी पंचेंद्रिय मनुष्य हुआ । उत्तम कुल भी मिल गया, धन भी आवश्यकतानुसार मिल गया, वैसे तो आवश्यकता की बातपर यदि विचार किया जाय तब तो फिर सभी लोग यह अनुभव कर सकते हैं कि वास्तव में आवश्यकता से अधिक धन हम सबको मिला है । यदि दृष्टि बदल गई हो, धर्मपालन का भाव है, सम्यक्त्व उत्पन्न करने की धुन बनी हो, आत्मा के सहज ज्ञानस्वरूप पर दृष्टि रखने का अभ्यास बनाया हो तब तो उस व्यक्ति की दृष्टि ऐसी बन जायगी कि वास्तवमें यहाँ की समस्त परवस्तुवें मेरे से अत्यंत भिन्न हैं, मेरे लिए ये सब विडंबनारूप हैं, अगर ऐसा भाव आ गया तो उसकी बहुतसी चिंतायें स्वत: ही खतम हो जायेंगी । यहाँ यह बताया जा रहा है कि इंद्रिय परिपूर्णता की प्राप्ति भी बहुत दुर्लभ है । बाह्यकरण व अंतःकरण की परिपूर्णता होने पर ही तो चिंता विनाशक उपयोग किया जा सकता है ।
वर्तमान दुर्लभ समागम के अवसर पर अपना उत्तरदायित्व―लोक में जो भी पदार्थ हैं वे पहिले से थे तब ही अब हैं । ऐसा कोई पदार्थ नहीं जो पहिले तो कुछ भी न हो और हो गया हो । अर्थात् जो भी है वह अनादि से है । अपने आपके संबंध में विचारें कि हम हैं तो अनादि से हैं और जब अनादि से हैं, किसी दिन हमारी नई सत्ता नहीं बनी, किसी न किसीरूप में हम अनादि से चले आये हैं तो किस रूप से चले आये हैं और आज हमने अपना क्या रूप पाया है, इस विषय का यहाँ विचार करना है । यह जीव सबसे पहिले निगोद अवस्था में था । वहाँ से निकला तो अन्य एकेंद्रिय जीव हुआ, फिर दो इंद्रिय, तीनइंद्रिय, चारइंद्रिय पंचेंद्रिय आदि हुआ । फिर असैनी सैनी हुआ तो तिर्यंच नारकी आदि हुआ । और, अब हुआ मनुष्य । तो यहाँ यह बात देखना है कि हम कितनी खोटी योनियों को पार करके आज मनुष्य हुए हैं । अब इस मनुष्य पर्याय को पाकर हमें क्या करना चाहिए? हमें अच्छे ही काम करना चाहिए और उनमें दृढ़ता रखनी चाहिए ताकि आगे उन्नति होती रहे । जब हम इतनी खोटी स्थितियों को पार करके आज मनुष्य हुए हैं तो हमें ऐसे ही कार्य करने चाहिए कि जिससे इस मनुष्य भव से नीचे तो न गिर जायें । आत्मा का उत्कर्ष बनाये रहें, व्यर्थ का जो मोहजाल है उसमें बेसुध न हों । कितने दिनों के लिए यह संबंध है? थोड़े दिनों के लिए यह मोहजाल बनायें तो उससे जीव को क्या लाभ मिलेगा? उससे तो जीवको खोटी योनियों में ही जन्म लेना होगा । तो बहुत बड़ी जिम्मेदारी है इस मनुष्यभव को पाकर आत्मा की । तो इसी प्रसंग में यह कहा जा रहा है ।