समयसार कलश - कलश 32: Difference between revisions
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Latest revision as of 10:21, 6 August 2021
मज्जंतु निर्भरममी सममेव लोका
आलोकमुच्छलति शांतरसे समस्ता: ।
आप्लाव्य विभ्रमतिरस्करिणीं भरेण
प्रोन्मग्न एष भगवानवबोधसिंधु: ।।32।।
309―अंतस्तत्त्व के रूचिया ज्ञानी संत के उपयोग में अनात्मत्व की अप्रतिष्ठा―अंतस्तत्त्व का रुचिया ज्ञानी संत अपने आपके निरुपाधि निरपेक्ष सहज चैतन्यस्वभाव की दृष्टि करता हुआ यह सब परख रहा है कि मैं हूँ एक चेतना मात्र । प्रत्येक चीज अपनी ही यूनिट में होनी है । कभी भी दो सत्त्व मिलने के अर्थ नहीं हुआ करते । चाहे कितनी ही संकरता आ जाये, एक में दूसरे का मिलान हो जाये तिस पर भी प्रत्येक सत् शाश्वत अपने आपके स्वरूप में ही हुआ करते हैं । यह मैं अपने ही स्वरूप में हूँ । मेरे प्रदेश में अन्य का प्रवेश है और विकार रागद्वेष की परिणतियां भी बनती हैं, लेकिन स्वरूप में प्रवेश किसी का नहीं है । जैसे कोई पुरुष दर्पण को देख रहा, सामने की चीज प्रतिबिंबित हो रही याने सम्मुख स्थित पदार्थ का सन्निधान पाकर दर्पण प्रतिबिंबरूप परिणम गया है फिर भी यह सब देखते हैं आप सब लोग कि यह प्रतिबिंब तो बाहर-बाहर लोट रहा है, दर्पण के स्वरूप में प्रवेश न करेगा । अर्थात् यह प्रतिबिंब दर्पण के साथ सदा तन्मय रहे, उस दर्पण के साथ सदा काल रहे, उस दर्पण का निज का स्वभाव बन जाये सो यह नहीं है । ऐसा सबको विदित है, यह सब परखना है और तब ही तो यदि विकट प्रतिबिंब न चाहिए, तो उस सन्निधान की वस्तु से उपेक्षाभाव द्वारा निमित्त को हटा दें । यहाँ दो द्रव्यों में बराबर अपनी-अपनी क्रिया चल रही हैं । सम्मुख रहने वाले लाल, पीले कपड़े में उसका ही परिणमन चल रहा । वे दर्पण में कुछ परिणमन करने नहीं जाते और दर्पण में दर्पण की योग्यता से दर्पण में काम चल रहा, मगर निमित्त सन्निधान को मिथ्या, निमित्त नैमित्तिक योग को मिथ्या बिल्कुल अगर मान लिया जाये कि दर्पण की ही योग्यता मात्र से परसन्निधान पाये बिना प्रतिबिंब हो रहा है तो उसकी कोई व्यवस्था नहीं बन सकती । जब चाहे हो जाये प्रतिबिंब । वहाँ जब चाहे परिणम जाये । तो वह जानता है कि दर्पण में जो प्रतिबिंब है यह बाहर-बाहर लोटता है । यह स्वरूप में प्रवेश न करेगा । ऐसे ही कर्मरस जो कुछ झलक रहा है, जो कुछ छा रहा है उसके प्रति ज्ञानी के सम्यक् श्रद्धा है कि यह कर्मरस छा रहा है । मैं तो इसके अंत: एक चैतन्यमात्र हूँ । मोही जीवों ने अब तक इस ज्ञानसुधा का पान नहीं किया, आपने आपके ज्ञानस्वरूप के ज्ञान का अमृतपान नहीं किया । अपने आपके ज्ञानस्वरूप के ज्ञान का अमृतपान नहीं किया इसी कारण निरंतर ऐसा अनुभव रहता अनात्मतत्त्व में कि मैं यह हूँ । मैं मैं कहने से निर्णय थोड़े ही बनता । मैं सहज निरपेक्ष चैतन्यमात्र हूँ, ऐसी भीतर दृष्टि जगे तो उसके निर्णय बने । जब यह निर्णय बन जाता है तो बाहरी बातें, बाहरी घटना उसके लिए कुछ महत्त्व नहीं रखती । जैसा होता है होय, जैसे कोई ज्ञानी सेठ जिसने कि अंतस्तत्त्व का अनुभव किया है उसके लिए मुनीम खबर दे कि आज तो बड़ा दुःखद समाचार है, आपके उस शहर के मित्र में 10 लाख का नुकसान हो गया है तो वह सेठ सुन तो लेगा क्योंकि उसके कान हैं, आवाज है, घर में है, पर हाँ होने दो, ठीक है, जान लिया, यह आंतरिक उत्तर होता । कदाचित् यह समाचार दे कि आज तो बड़ा सुखद समाचार है कि अमुक शहर में इस माह में 15 लाख का फायदा हुआ, हाँ हुआ ठीक है, यह उपेक्षा का उत्तर मिलेगा । जिसने अपने ज्ञानस्वरूप को ज्ञान में लिया उसके लिए ये बाहर के ढेला पत्थर सोना, चांदी कोई चीज ये उसके लिए कुछ महत्त्व रखते हैं क्या? उसकी दुनिया अलौकिक है । उसकी दुनिया उसकी सर्वस्वनिधि अपने आपमें है ।
310―ज्ञानी संत का पूज्य एवं आदर्श फकीराना―लोग कहते हैं कि मुनि महाराज को शर्म नहीं आती, नंगे फिरते हैं,....हाँ ठीक है, उनके अब किसी प्रकार का शर्म संकोच नहीं है, जिसने चिदेक ज्ञायक नीरंग, निस्तरंग, निष्क्रिय, इस स्वरूप को पहिचाना है, यहाँ ही यह मैं हूँ ऐसा दृढ़तम अभ्यास बना है, उसके लिए तो अन्य पदार्थ कुछ महत्त्व ही नहीं रखते । लाज, विकार, संकोच या अन्य बात उसके लिए क्या है? वह एक धुनिया है । जैसे कोई पाप की धुन में रहने वाले पुरुष को बाहर की बात कुछ असर नहीं करती, लाज नहीं होती, संकोच नहीं होता, जो मन में आया स्वच्छंद करता है, तो यह तो एक धुन का लक्षण है । अंतस्तत्त्व ज्ञानमात्र निज स्वभाव के धुनिया मुनि को बाहर से क्या मतलब? बाहर में जो लोग जो करे सो ठीक । एक वेदांत की जागदीशी टीका में उदाहरण दिया है, उस उदाहरण से अपने लिए उपलब्ध शिक्षा ले लेना चाहिए । उदाहरण वह लौकिक है । कोई संन्यासी गुरु शिष्य थे, बड़े विरक्त थे किसी से कुछ संबंध न रखने वाले, सब आशाओं से दूर, एकांत ही पसंद करने वाले । तो गुरु शिष्य आकर एक छोटीसी पहाड़ी पर ठहरे । वे यह चाहते थे कि मेरे पास कोई न आये । देखो जिसको अपने आपके स्वरूप की धुन होती है उसको यह ही चाह रहती है कि मेरे पास कोई मत आओ । और, जिसने आत्मकल्याण का भाव तो नहीं रखा किंतु त्यागमार्ग में अपना भेष किया उसके यह चाह रहती है कि मेरे पास कोई आता ही नहीं, मैं अकेला ही रहता हूँ, उसे यह कमी मालूम होती है, और जो अपने ज्ञानस्वरूप का धुनिया है उसके लिए आवागमन प्रसंगों में, उठना, बैठना, पर का प्रसंग ये उसके लिए बाधक मालूम होते हैं । तो वह संन्यासी एकांत पसंद था, दोनों वहीं ठहर गए । एक दिन दूर से देखा कि बहुत से लोग दर्शनार्थ आ रहे हैं, राजा भी आ रहा है तो गुरु ने सोचा कि यह तो बहुत बड़ी विडंबना हो जायेगी, फिर तो लोगों का ताँता ही लगा रहेगा, ऐसा उपाय बनावें कि आज से ही लोगों का आना जाना खतम हो जाये । तो अपने शिष्य को समझा दिया कि देखो वह राजा आ रहा है, हम तुम दोनों रोटियों की बात करके आपस में लड़ेंगे । उसका मतलब क्या था सो आप पीछे जानेंगे । जैसे ही राजा आया तो वह संन्यासी अपने शिष्य से झगड़ने लगा, तूने आज मुझे दो ही रोटियाँ क्यों दी, तूने तो 5 रोटियाँ खायी होंगी तो शिष्य बोला―तुमने भी तो कल 5 रोटियाँ खा ली थीं, हमने तो दो ही खाई थीं, इसीलिए आज हमने 5 रोटियां खा ली हैं । इस प्रकार से रोटियों के प्रति झगड़ते देखकर राजा बड़ा हैरान हुआ, सोचा कि अरे यह काहे के सन्यासी जो रोटियों के प्रति झगड़ते । राजा ने झट उनकी उपेक्षा कर दी और वापिस लौट गया । संन्यासी ने अपने शिष्य से कहा―देखो बेटा कितना अच्छा हो गया । बड़ी भारी फजीहत मिट गई । अब यहाँ कोई न आयेगा । शांतिपूर्वक अपनी धर्मसाधना करेंगे । तो इस दृष्टांत से यह शिक्षा ले कि अपना काम, अपने अंतस्तत्त्व की साधना का काम अपने में हो, इसका महत्त्व है । बाह्य बातों में, बाह्य प्रसंगों में, इसके लिए क्या महत्त्व?
311―कर्मरस से विविक्त ज्ञानरस के आस्वादन का अनुरोध―एक बात सदा ध्यान में रखें कि जो कुछ अंधेरा है, विकल्प है, विचार है, कल्पना है, यह सब कर्मरस है, चैतन्यरस नहीं, यह कर्मछाया है, चैतन्यरस नहीं, लेकिन यह स्वच्छ है चित्प्रकाशरूप है,सो यह झलके बिना कैसे रहेगा? झलकेगा । जैसे बाहरी पदार्थ झलकते हैं तो उनके बारे में हम जानते हैं ना कि ये तो भिन्न चीजें हैं । यह झलक इस ओर उत्साह दिलाती है कि ये भिन्न चीजें है जिनका विषय कर यह झलक हुई । तो ऐसे ही ये जो राग द्वेषादिक विकार हैं यह कर्मरस है, चैतन्यरस नहीं । इन सबसे निराला याने भावकभाव्य और ज्ञेयज्ञायक दोनों संकर दोषों से रहित हैं । यह मैं चैतन्यस्वरूप हूँ, जिस किसी पदार्थ को जान रहे, जान कर कहा―अहा कैसा अच्छा, अथवा उसके प्रति अरति द्वेष घृणा, सो ठीक नहीं । जैसे इस तरह के विचार बाह्य पदार्थों में जो चित्त रखकर होते हैं तो यह ही हो गया ज्ञेयज्ञायकसंकर । उसने इस ज्ञेय को, इस ज्ञेयाकार को ऐसा आसक्त होकर देखा कि बाह्य के ज्ञेय के बारे में उसको बहुत रति अरति उत्पन्न होती है, यह ज्ञेयज्ञायकसंकर विडंबना है कर्म में, उस कर्म के द्वारा रचा गया विकार है । कर्म का विकार कर्म में है, पर उसका जो प्रतिफलन है उपयोग में, तो यह प्रतिफलन जीव की परिणति है । उसके प्रतिफलन में प्रतिफलन तक ही देखे तहां तो जीव की रक्षा है और जहां उसे अपनाया, यह मैं हूं, इस तरह की बुद्धि की तो समझिये कि वह इसकी आपत्ति के लिए है । हम आप जीवों को कहां जाना, कहां रहना, कहाँ रमना, कितना अलग स्थान हैं, सबसे निराला कैसा एक निज धाम है, और वहाँ न रहकर क्या किया जा रहा है बाहर में उस पर खेद होना चाहिए । क्या बन रही विडंबना ? महा विडंबना । मिथ्यात्व मोह, ममता विकार, रति, अरति, घृणा प्रीति, इष्ट अनिष्ट ये जो भीतर कल्पनायें चल रही हैं और जो कल्पना पकड़ी है उस कल्पना को फेकना नहीं चाहते, उस कल्पना का स्वाद ले रहे हैं, उस कल्पना को रखकर मौज मान रहे हैं, भीतर में चित्त खुश हो रहा है, ऐसी स्थिति है तो वह आत्मानुभूति का पात्र नहीं ।
312―आत्मानुभूतिरूप महनीय देवता―सर्वोत्कृष्ट चीज है आत्मानुभूति । यह ही है देवताओं का सिरताज । लोक कहते हैं दुर्गा, तो वह दुर्गा कहीं बाहर नहीं है, दुःखेन गम्यते प्राप्यते या सा दुर्गा, जो बड़ी कठिनाई से प्राप्त हो सके उसका नाम है दुर्गा । ऐसी चीज कौन हैं? यह ज्ञानानुभूति । लोग कहते हैं चंद्रघंटा देवी, तो उसका अर्थ क्या है? अमृतस्रावणे चंर्द्रं घंटयति इति चंद्रघंटा । जो अलौकिक अमृत बरसाने में चंद्र को भी लज्जित कर दे, धक्का दे दे वह है चंद्रघंटा । ऐसा कौन है? वह स्वानुभूति । लोक में प्रसिद्धि है कि चंद्र में से अमृत झरता है, लेकिन यहाँ देखो तो सही कि जब यह ज्ञान सबसे विविक्त ज्ञानस्वरूप निज अंतस्तत्त्व को ही ज्ञेय करता है और जब इस विधि से ज्ञान ज्ञेय की एकता बनती है, वही-वही ज्ञान ज्ञेय की बनती है, वही-वही ज्ञान जानने में आ रहा उस स्थिति में बाहर का कोई विकल्प नहीं । वहाँ जो लौकिक आनंद है वह है अमृत का झरना, ऐसे अमृत के झरने में जो चंद्र को भी लज्जित कर दे वह है चंद्रघंटा याने ज्ञानानुभूति । दो-दो रूप कहते हैं लोग दुर्गा के । काली और सरस्वती । तभी कुछ लोग दुर्गा के कभी सरस्वती के रूप में जुलूस निकालते हैं कभी काली के रूप में । बंगाल में इसकी बहुत प्रथा है, जैसे बरसात के दिनों में लोग काली के रूप में जुलूस निकालते हैं, जिसका विकराल काला रूप एक हाथ में नंगी तलवार एक हाथ में ढाल । और माह के महीने में सरस्वती के रूप में निकालते हैं, जिसके पास में बैठा हुआ हंस, एक हाथ में वीणा, एक हाथ में माला, बड़ी सौम्य मुद्रा । उसका भी नाम दुर्गा है । तो यह सब किसका रूप है? इस ही स्वानुभूति के दो रूप हैं एक साथ, अलग-अलग नहीं । यह स्वानुभूति अनेक कर्मों का विनाश करती है, भक्षण करती है । कलयति भक्षयति रागादि शत्रुन् इति काली, जो रागादिक शत्रुओं का भक्षण करें उसका नाम है काली । अहा कितना विकराल रूप है इस काली का । ये रागादिक भाव नहीं रह पा रहे । 10 वर्ष का परिचय हो तो इसमें बड़ी आत्मीयता जगती है और जहाँ अनादि काल से परिचय किया जा रहा हो, जिसमें रमा जा रहा हो ऐसे रागादिक का यहाँ विनाश हो रहा, विच्छेद हो रहा, बड़ी बुरी तरह से रागादिक मर रहे । किसने किया ऐसा? स्वानुभूति ने, तो इसका तो बड़ा विकरालरूप हो गया, बस यही अलंकार काली का रूप है और सरस्वती क्या है? सर:प्रसरणं यस्या:सा सरस्वती जिसका बहुत बड़ा प्रसार है, जिसका परिणाम बहुत विस्तृत है वह कौन है? ज्ञानानुभूति, ज्ञान में ज्ञान समाना । बड़ी सौम्य मुद्रा है इस ज्ञानानुभूति की । कार्य को निरखकर मुद्रा की बात कही जा रही है । बताओ कहाँ है देवी देवता बाहर जो उपास्य हो?
313―एकजातीय होने से परमात्मत्वविकास के उमंग के आश्रयभूत आराध्य परमात्मा की अंत: आराधना―अच्छा जो अपना आराध्य देव है परमेष्ठी अरहंत सिद्ध अरे ये भी कहाँ हैं? व्यक्तिश: तो बाहर हैं मगर उनका अपने आपके स्वरूप से जातीयता का नाता न हो तो भगवान की भक्ति करना बिल्कुल बेकार है । जैसे यहाँ किसी बड़े धनिक से कोई मिन्नत करना, आशा करना, समझ में आता कि बेकार है । मनस्वी लोग कहाँ करते हैं? तो ऐसे कोई लोग जो बड़े ऐश्वर्य संपन्न हैं और जिनसे मेरे स्वरूप से कोई मतलब नहीं है, भिन्न चीज हैं हम संसारी प्राणी ऐसे ही दुखिया हैं, हमारी जाति अलग, ईश्वर की जाति अलग, वे बड़े हैं, धनी हैं तो फिर हमको उनकी भक्ति करने का क्या प्रयोजन? मेरे से क्या बात मिलती है, क्या संबंध है, वह तो उसकी मर्जी की बात हो गई । जब चाहे दुःख दें, जब चाहे सुख दें । तो यह देव इसी कारण आराध्य है कि इनके व मेरे सर्वस्व में मिलान है । पर्यायकृत अंतर है । गुण, स्वभाव,द्रव्यत्व, इनमें मिलान है, इसीलिए प्रभु के स्वरूप का जब भली प्रकार ध्यान होता है तो वह अपना ही ध्यान है ।
314―उपादान में हितभाव का उप आदान―फिर एक बात और समझिये―तीन बातें होती है―अर्थ, ज्ञान, शब्द । जैसे मानो अर्थ घर, शब्द घर, ज्ञान घर । पुत्र लो, घड़ी लो, कुछ लो, सबके तीन-तीन रूप हैं । पुत्र को लो जिससे बड़ी ममता है, उसके भी तीन रूप हैं―अर्थपुत्र, शब्दपुत्र, ज्ञानपुत्र । शब्दपुत्र क्या? पू त्र ये दो अक्षर लिखकर कहो, बोलकर कहो, वह शब्दपुत्र है । अर्थपुत्र क्या? वह अपना पुत्र जो घर में रहता, दो हाथ दो पैर वाला । ज्ञान पुत्र क्या? उस पुत्र के बारे में जो ज्ञान किया जा रहा है, कल्पनायें की जा रही हैं―यह है, मेरा है, अच्छा है । ज्ञान में पुत्र का फोटो खिंचा हुआ है वह है ज्ञानपुत्र । अब यह बतलाओ कि आप ममता किससे करते हैं? शब्दपुत्र से कोई ममता करता क्या? किसी का मानो पुत्र गुजर गया तो पुत्र लिखकर उसे जेब में धरे रहे तो बन जायेगी क्या ममता ! अथवा अर्थ पुत्र में कोई ममता करता है क्या? इस जीव की शक्ति नहीं, सामर्थ्य नहीं, स्वरूप नहीं, प्रकृति नहीं कि यह अपने प्रदेशों से बाहर किसी भी वस्तु में अपनी कोई परिणति डाल सके । अर्थपुत्र में भी कोई ममता नहीं करता । जरा भीतर ज्ञान नेत्र को खोलकर निरख लो, कोई भी मनुष्य दूसरे पदार्थ में मोह नहीं करता, कर ही नहीं सकता, तो फिर हो क्या रहा? उस पुत्र को विषय बनाकर कर्मानुभाग के रस को मिलाकर उसमें अपनायत की जा रही है यहाँ कल्पना मचायी जा रही । बाहर में कोई मोह नहीं करता, सबका ऐसा ही हाल है । जितने भी जीव हैं जो राग करते, द्वेष करते, उनका अपने आपमें यह नंगा नाच चल रहा है । बाहरी चीज में कोई न राग करता, न द्वेष, न मोह, वह अपने आप पड़ी है, वहाँं चीज विषय होती है । यहाँ कर्मानुभाग का अंधकार छाया है, उस रस में इस विषय को एकमेक मिलाकर यह स्वाद लिया करता है, बस यही अविवेक है, इस रहस्य को जिसने समझा वह सदा अपने में प्रतीति रख रहा है कि यह सब जैसे दर्पण में झलका तो यह झलक दर्पण की नहीं है, यह बाहर की है । हाँं झलका, तो वह दर्पण की आदत है, दर्पण की कला है तो इसी तरह इस ज्ञान में कर्मरूप झलका तो यह झलक तो इस जीव की कला है, योग्यता है, वह ऐसे कर्मानुभाग का सन्निधान पाकर इस रूप अपनी कला खेल जाये यह उपादान की एक योग्यता है । निमित्त उपादान में कुछ नहीं करता, किंतु उपादान में ही ऐसी कला है कि योग्य उपादान अनुकूल निमित्त का सन्निधान पाकर अपनी कला से विकाररूप परिणम जाता है । यह बात सर्वत्र जगत में चल रही है । ज्ञानी जीव यह परख करता है कि मैं यह हूँ । देखा उसने कि यह तो चैतन्यमात्र, शांतरस है, यहाँ व्यग्रता कहाँ? जो व्यग्रता है वह कर्मरस की झलक है, मेरे स्वरूप की बात नहीं है । यह तो मैं एक शुद्ध चित्प्रकाश मात्र हूँ । दर्पण के सामने कांच के सामने बहुत बड़ा पर्दा डाल दिया बाहर निकट, सारा दर्पण रंगीन हो गया, जिस पर भी समझदार व्यक्ति जानता ही है कि दर्पण का स्वरूप तो, स्वभाव तो दर्पण में दर्पण की ही निज रश्मियों का एक तरंग रूप है । इस प्रतिबिंब रूप दर्पण का स्वभाव नहीं । ज्ञानी भी अपने आपको मुकरुंदवत् निरख रहा है । मेरा तो एकमात्र चैतन्यस्वरूप है । आप परखिये स्वभावदृष्टि के लिए इस निमित्तनैमित्तिक योग के सही परिचय ने कितनी मदद की । विभाव की उपेक्षा हो गई । मेरे उपयोग में न आओ, मैं तो अपने स्वरूप में ही रहूँगा ।
315―ज्ञान पौरुष के बल से ज्ञान सागर में मग्न होकर सफल संताप नष्ट कर देने का अनुरोध―असहयोग व सत्याग्रह दोनों ही चलाने पड़ेंगे तब आजादी मिलेगी । विभावों से असहयोग और अपने चैतन्यस्वरूप का आग्रह―मैं यह हूँ, मैं यह नहीं हूँ, यह मेरा नहीं, मैं इसका नहीं, मैं तो अपने अंत: केवल चैतन्य रस से अपने आपमें अर्थ पर्याय के रूप में चल रहा जो कुछ हूँ सो मैं यह हूँ । यह तो सब विडंबना है । बाहर की बात है, इतना जिसने निर्णय किया, ऐसे भीतर के नेत्र जिसके खुले और इस शांत रस में डूबकर जिसने अलौकिक आनंद पाया वह एक साथ कह देता है कि समस्त लोक के समस्त प्राणी इस शांतरस में निर्भय होकर वेग पूर्वक एक साथ डूब जावें, कष्ट न रहेगा । जिस बात से दुःख होता है उसके लिए तो वृद्ध महिलायें भी कह देती हैं कि ऐसा दुःख तो दुश्मन को भी न हो । जैसे घर में आग लगी तो लोग कहते हैं कि ऐसा तो किसी दुश्मन को भी न हो, कितना प्यार है उस बुढ़िया के शब्दों में, याने किसी को ऐसी बरबादी न हो, और जब कोई भली बात हो, मान लो बड़ा सुख है, नाती पोते सब अच्छी पूछ करते हैं तो वह बुढ़िया महिला कह बैठती है कि बड़ा अच्छा सुख है, ऐसा सुख सबको हो । तो आचार्य महाराज जब निज निर्लेप, निस्तरंग चिद᳭ज्ञायक स्वरूप का, अलौकिक आनंद का अनुभव पा चुके हैं, तब उनकी वाणी में आया कि समस्त लोक इस आनंदरस में डूब जाओ । कोई असुविधा नहीं है इस ज्ञानरस में मग्न होने के लिए, केवल एक श्रम की चादर आड़े पड़ी है, इस भ्रम की चादर को डुबो दो फिर तो यह भगवान तेरे लिए प्रकट है । अनात्मतत्त्व से उपेक्षा कर । यह मेरा कुछ नहीं, जो झलक रहा यह सब बाहरी चीजें है, ये विभाव, ये विकार मेरे कुछ नहीं, ये बाहर झलक रहे तो बात क्या होती है खास, वस्तु की बात । जैसे कपड़े में रंग है और दर्पण में प्रतिबिंब है तो जैसे प्रतिबिंब है, लोग समझते हैं कि इसमें ऐसा रंग है पर ऐसा रंग दोनों जगह है, दर्पण में भी आया, कपड़े में भी है । इसी तरह जितने विकार हैं ये विकार दोनों जगह हैं, कर्म में हैं, जीव में हैं । अगर कपड़े में रंग नहीं तो दर्पण में वह रंग प्रतिबिंब नहीं । तो जैसे यहाँ निरखकर समझते हैं कि विकार दर्पण की चीज नहीं, ऐसे ही जीवविकार को देखकर ज्ञानी समझता है कि यह कर्म का विकार है, मुझमें विकार नहीं, इसके लिए एकदम स्पष्ट कह दिया कुंदकुंदाचार्य ने “मिच्छत्तं पुण दुविहं जीवमजीवं तहेव अण्णाणं । जोगो अविरदि मोहो कोहादीया इमे भावा ।” कषाय मिथ्यात्व सब चीजें दो-दो प्रकार की हैं, जीवरूप, अजीवरूप । जीव कषाय, अजीव कषाय । तो आप यहाँ परख लो, ये विकार जितने हैं वह सब कर्मरस का प्रतिफलन है, मेरा स्वरूप नहीं । उससे उपेक्षा करता है ज्ञानी और अपने आपके स्वभाव को निरखकर उससे बल पाता है शुद्ध स्वभाव को पहचानने का । सो आचार्य कहते हैं कि विभ्रम की चादर हटाकर जिसमें सर्व लोक उछल रहा है ऐसे ज्ञान समुद्र में समस्त लोक प्रवेश करो और एक ही साथ समस्त लोक इस ही आनंदरस में मग्न हो जाओ ।
इति समयसार कलश प्रवचन प्रथम भाग समाप्त