हरिवंश पुराण - सर्ग 21: Difference between revisions
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<div class="G_HindiText"> <p>अथानंतर जिन्हें उत्तमोत्तम गोष्ठियों के सुख का स्वाद था, जो स्वयं उदार चरित के धारक थे और उदारचरित के धारक मनुष्यों के लिए अत्यंत प्रिय थे,ऐसे यदुवंश शिरोमणि वसुदेव, किसी तरह विद्याधरों के कुल में उत्पन्न गांधर्व सेना को एवं राजाओं की विभूति को तिरस्कृत करने वाले । चारुदत्त को देखकर उनसे पूछने लगे कि हे पूज्य ! जो अपनी तुलना नहीं रखती तथा जो आपके भाग्य और पुरुषार्थ दोनों को सूचित करने वाली हैं ऐसी ये संपदाएं आपने किस तरह प्राप्त की ? कहिए कि यह प्रशंसनीय विद्याधरी, धन-धान्य से परिपूर्ण आपके भवन में निवास करती हुई मेरे कानों में अमृत की वर्षा क्यों कर रही है <em>? </em>॥1-4॥ वसुदेव के द्वारा इस प्रकार पूछे जाने पर चारुदत्त बहुत ही प्रसन्न हुआ और आदर के साथ कहने लगा कि हे धीर ! तुमने यह ठीक पूछा है । अच्छा, ध्यान से सुनो में तुम्हारे लिए अपना वृत्तांत कहता हूँ ॥5॥</p> | <span id="1" /><span id="2" /><span id="3" /><span id="4" /><div class="G_HindiText"> <p>अथानंतर जिन्हें उत्तमोत्तम गोष्ठियों के सुख का स्वाद था, जो स्वयं उदार चरित के धारक थे और उदारचरित के धारक मनुष्यों के लिए अत्यंत प्रिय थे,ऐसे यदुवंश शिरोमणि वसुदेव, किसी तरह विद्याधरों के कुल में उत्पन्न गांधर्व सेना को एवं राजाओं की विभूति को तिरस्कृत करने वाले । चारुदत्त को देखकर उनसे पूछने लगे कि हे पूज्य ! जो अपनी तुलना नहीं रखती तथा जो आपके भाग्य और पुरुषार्थ दोनों को सूचित करने वाली हैं ऐसी ये संपदाएं आपने किस तरह प्राप्त की ? कहिए कि यह प्रशंसनीय विद्याधरी, धन-धान्य से परिपूर्ण आपके भवन में निवास करती हुई मेरे कानों में अमृत की वर्षा क्यों कर रही है <em>? </em>॥1-4॥<span id="5" /> वसुदेव के द्वारा इस प्रकार पूछे जाने पर चारुदत्त बहुत ही प्रसन्न हुआ और आदर के साथ कहने लगा कि हे धीर ! तुमने यह ठीक पूछा है । अच्छा, ध्यान से सुनो में तुम्हारे लिए अपना वृत्तांत कहता हूँ ॥5॥<span id="6" /></p> | ||
<p>इसी चंपापुरी में अतिशय धनाढय भानुदत्त नामक वैश्य शिरोमणि रहता था । उसकी स्त्री का नाम सुभद्रा था ॥6॥ | <p>इसी चंपापुरी में अतिशय धनाढय भानुदत्त नामक वैश्य शिरोमणि रहता था । उसकी स्त्री का नाम सुभद्रा था ॥6॥<span id="7" /> सम्यग्दर्शन की विशुद्धता के साथ नाना अणुव्रतों को धारण करने वाले सुखरूपी सागर में निमग्न एवं पूर्ण यौवन से सुशोभित उन दोनों का समय सुखपूर्वक बीत रहा था ॥7॥<span id="79" /><span id="8" /><span id="9" /> तदनंतर किसी समय जब कि उन दोनों के चित्त और नेत्रों के लिए अमृत बरसाने वाला एवं गृहस्थी का साक्षात् फलस्वरूप, भाग्यशाली पुत्र का मुख कमल विलंब कर रहा था अर्थात् उन दोनों के जब पुत्र उत्पन्न होने में विलंब दिखा तब वे दोनों मंदिर में पूजा कर रहे थे उसी समय चारणऋद्धिधारी मुनि के दर्शन कर उन्होंने उनसे पुत्रोत्पत्ति की बात पूछी ॥8-9॥<span id="10" /> पूछते ही उन मुनिराज ने दोनों दंपतियों पर दया कर कहा कि तुम्हारे शीघ्र ही उत्तम पुत्र की प्राप्ति होगी ॥10॥<span id="11" /> और कुछ ही समय बाद उन दोनों दंपतियों के आनंद को बढ़ाने वाला मैं पुत्र हुआ । मेरा चारुदत्त नाम रखा गया तथा मेरे जन्म का बड़ा उत्सव मनाया गया ॥11॥<span id="92" /><span id="12" /> अणुव्रतों की दीक्षा के साथ-साथ जिसे समस्त कलाएँ ग्रहण करायी गयी थीं ऐसा वह बालकरूपी चंद्रमा परिवाररूपी समुद्र की वृद्धि करने लगा । भावार्थ― वह बालक ज्यों-ज्यों कलाओं को ग्रहण करता जाता था त्यों-त्यों बंधुजनों का हर्षरूपी सागर वृद्धिंगत होता जाता था ॥12॥<span id="13" /></p> | ||
<p> उस समय वराह, गोमुख, हरिसिंह, तमोऽंतक और मरुभूति ये पांच मेरे मित्र थे जो मुझे अतिशय प्रिय थे ॥13॥ एक बार उन मित्रों के साथ क्रीड़ा करता हुआ मैं रत्नमालिनी नदी गया । वहाँ मैंने किनारे पर किसी दंपती का एक ऐसा स्थान देखा जिस पर पहुंचने के लिए पैरों के चिह्न नहीं उछले थे ॥14॥ हम लोगों को विद्याधर दंपती की आशंका हुई इसलिए कुछ और आगे गये । वहाँ जाकर हम लोगों ने हरे-भरे कदली गृह में उस विद्याधर दंपती की रति-शय्या देखी | <p> उस समय वराह, गोमुख, हरिसिंह, तमोऽंतक और मरुभूति ये पांच मेरे मित्र थे जो मुझे अतिशय प्रिय थे ॥13॥<span id="14" /> एक बार उन मित्रों के साथ क्रीड़ा करता हुआ मैं रत्नमालिनी नदी गया । वहाँ मैंने किनारे पर किसी दंपती का एक ऐसा स्थान देखा जिस पर पहुंचने के लिए पैरों के चिह्न नहीं उछले थे ॥14॥<span id="16" /> हम लोगों को विद्याधर दंपती की आशंका हुई इसलिए कुछ और आगे गये । वहाँ जाकर हम लोगों ने हरे-भरे कदली गृह में उस विद्याधर दंपती की रति-शय्या देखी ꠰꠰15॥ रति संबंधी कार्य से जिसके फूल और पल्लव मुरझा रहे थे ऐसी उस रति शय्या से कुछ दूर आगे चलने पर एक बड़ा सघन वन दिखा ॥16 ॥<span id="17" /> वहाँ एक वृक्ष पर लोह को कीलों से कीलित एक विद्याधर दिखाई दिया । उस विद्याधर के लाल-लाल नेत्र समीप में पड़ी हुई ढाल और तलवार के अग्रभाग में व्यग्र थे अर्थात् वह बार-बार उन्हीं की ओर देख रहा था ॥17॥<span id="18" /> उसके इस संकेत से मैंने ढाल के नीचे छिपी हुई चालन, उत्कीलन और उन्मूल व्रणरोह नामक तीन दिव्य औषधियां उठा लीं और चालन नामक औषधि से मैंने उस विद्याधर को चलाया, उत्कीलन नामक औषधि से उसे कीलरहित किया तथा उन्मूलन व्रणरोह नामक ओषधि से कील निकालने का घाव भर दिया ॥18॥<span id="19" /> ज्यों ही वह विद्याधर कीलरहित एवं घाव रहित हुआ त्यों ही ढाल और तलवार लेकर चुपचाप आकाश में उड़ा और उत्तर दिशा की ओर दौड़ा ॥19॥<span id="20" /><span id="21" /> जिस ओर से रोने का शब्द आ रहा था वह उसी ओर दौड़ता गया और शत्रु के द्वारा हरी हुई अपनी प्रिया को छुड़ा लाया । प्रिया को लाकर वह वहीं आया और बड़े आदर के साथ मुझ से बोला कि हे भद्र ! जिस प्रकार आज मुझ मरते हुए के लिए आपने प्राण दिये हैं उसी प्रकार आज्ञा दीजिए । कहिए मैं आपका क्या प्रत्युपकार करूँ ? ॥20-21॥<span id="22" /><span id="23" /> </p> | ||
<p> विजयार्ध पर्वत को दक्षिण श्रेणी में एक शिवमंदिर नाम का नगर है । उसमें महेंद्रविक्रम नाम का सरल राजा है । उसी महेंद्रविक्रम राजा का मैं अतिशय प्यारा अमितगति नाम का पुत्र हूँ । धूमसिंह और गौरमुंड नाम के दो विद्याधर मेरे मित्र हैं ॥22-23 | <p> विजयार्ध पर्वत को दक्षिण श्रेणी में एक शिवमंदिर नाम का नगर है । उसमें महेंद्रविक्रम नाम का सरल राजा है । उसी महेंद्रविक्रम राजा का मैं अतिशय प्यारा अमितगति नाम का पुत्र हूँ । धूमसिंह और गौरमुंड नाम के दो विद्याधर मेरे मित्र हैं ॥22-23 ॥<span id="24" /><span id="25" /> किसी समय उन दोनों मित्रों के साथ मैं ह्रीमंत नामक पर्वतपर आया । वहाँ एक हिरण्यरोम नाम का तापस रहता था । उसकी पूर्ण यौवनवती एवं शिरीष के फूल के समान सुकुमार सुकुमारिका नाम की सुंदर कन्या थी । वह मेरे देखने में आयो और देखते ही साथ उसने मेरा मन हर लिया ॥24-25 ॥<span id="26" /> मैं वहाँ से चला तो आया परंतु उसकी प्राप्ति की उत्कंठारूप शल्य मेरे मन में बहुत गहरी लग गयी । अंत में पिता ने मेरे लिए उस कन्या की याचना की और शीघ्र ही दोनों का बड़े उत्सव के साथ विवाह हो गया ॥26॥<span id="27" /> चूंकि मुझे दिखा कि मेरा मित्र धूमसिंह भी इस सुकुमारिका को पाने की अभिलाषा रखता है इसलिए मैं सदा प्रमादरहित होकर इसके साथ विहार करता हूँ ॥27॥<span id="28" /> परंतु आज मैं इसके साथ रमण कर रहा था कि वह धूमसिंह मुझे कीलित कर इस सुकुमारिका को हर ले गया । आपने मुझे छुड़ाया और मैं इसे शत्रु से छुड़ा लाया हूँ ॥28॥<span id="29" /> इसलिए आज इस जन को (मुझे) इच्छित कार्य में लगाइए । क्योंकि आप मेरे प्राणदाता हैं इसलिए अवस्था में ज्येष्ठ होने पर भी मैं आपकी सेवा करूँगा ॥29॥<span id="30" /> यद्यपि आपने मेरी शल्य निकालकर मुझे जीवित किया है तथापि यथार्थ में मेरी शल्य तभी निकलेगी जब मैं आपका प्रत्युपकार कर लूँगा ॥30॥<span id="31" /><span id="32" /> </p> | ||
<p> इस प्रकार स्त्रीसहित मधुर वचन बोलने वाले उस विद्याधर से मैंने कहा कि जब आप मेरे प्रति इस तरह शुभ भाव दिखला रहे हैं तब मेरा सब काम हो चुका । कहिए शुद्ध अभिप्राय को दिखाते हुए आपने मेरा क्या नहीं किया है ? मनुष्यों को जो शुभ भाव को दिखाना है वही तो उनका उपकार है ॥31-32 | <p> इस प्रकार स्त्रीसहित मधुर वचन बोलने वाले उस विद्याधर से मैंने कहा कि जब आप मेरे प्रति इस तरह शुभ भाव दिखला रहे हैं तब मेरा सब काम हो चुका । कहिए शुद्ध अभिप्राय को दिखाते हुए आपने मेरा क्या नहीं किया है ? मनुष्यों को जो शुभ भाव को दिखाना है वही तो उनका उपकार है ॥31-32 ॥<span id="33" /> हे निष्पाप ! निश्चय से मैं आज पुण्यवान् और पूज्य हुआ हूँ क्योंकि संसार में अन्य सामान्य मनुष्यों के लिए दुर्लभ आपका दर्शन मुझे सुलभ हुआ है ॥33॥<span id="34" /> मनुष्यों की अवस्थाओं का पलटना सर्वसाधारण बात है इसलिए मैं शत्रु के द्वारा कीलित हुआ । यह सोचकर आप खिन्न चित्त न हों ॥34॥<span id="35" /><span id="36" /> हे तात ! यदि आपकी मेरे प्रति उपकार करने की भावना ही है तो आप मुझे सदा अपना पुत्र समझिए । इस प्रकार मेरे कहने पर उसने कहा कि बहुत ठीक है । तदनंतर वह मेरा नाम और गोत्र पूछकर स्त्री सहित आकाश में उड़ गया ॥35-36 ॥<span id="37" /> और हम लोग उसी विद्याधर की कथा करते हुए चंपा नगरी में प्रविष्ट हुए सो ठीक ही है क्योंकि देखी सुनी और अनुभव में आयी नूतन वस्तु ही मनुष्यों को सुखदायक होती है ॥37॥<span id="38" /> </p> | ||
<p> तरुण होने पर मैंने अपने मामा सर्वार्थ की सुमित्रा स्त्री से उत्पन्न मित्रवती नामक कन्या के साथ विवाह किया ॥38 | <p> तरुण होने पर मैंने अपने मामा सर्वार्थ की सुमित्रा स्त्री से उत्पन्न मित्रवती नामक कन्या के साथ विवाह किया ॥38 ॥<span id="39" /> क्योंकि मुझे शास्त्र का व्यसन अधिक था इसलिए अपनी स्त्री के विषय में मेरी कुछ भी रुचि नहीं थी सो ठीक ही है क्योंकि शास्त्र का व्यसन अन्य व्यसनों का बाधक है ॥39॥<span id="40" /> मेरा एक रुद्रदत्त नाम का काका था जो अनेक व्यसनों में आसक्त था तथा कामीजनों के समस्त व्यवहार को जानने वाला था । मेरी माता ने उसे मेरे साथ लगा दिया ॥40॥<span id="41" /> इसी चंपा नगरी में एक कलिंगसेना नाम की वेश्या थी जो समस्त वेश्याओं की शिरोमणि थी और उसकी वसंतसेना नाम की पुत्री थी जो शोभा में वसंत की लक्ष्म के समान जान पड़ती थी ॥41॥<span id="42" /> वह वसंतसेना नृत्य-गीत आदि कलाओं संबंधी कौशल से सुशोभित थी, सौंदर्य की परम सीमा थी और यौवन की नूतन उन्नति थी ॥42॥<span id="43" /> किसी एक दिन वसंतसेना का नृत्य प्रारंभ होने वाला था । उसके लिए मैं भी रुद्रदत्त के साथ साहित्यिक जनों से भरे हुए नृत्य-मंडप में बैठा था ॥ 43 ॥<span id="44" /><span id="45" /><span id="46" /><span id="47" /><span id="48" /><span id="49" /> वह सूची नृत्य करना चाहती थी । उसके लिए उसने सुइयों के अग्रभाग पर अंजलि भरकर जाति पुष्पों की बोंड़ियाँ बिखेर दी और गायन के प्रभाव से जब सब बोंड़ियाँ खिल गयीं तो सभा में बैठे हुए कितने ही लोग उसकी प्रशंसा करने लगे । मैं जानता था कि पुष्पों के खिलने से कौन-सा राग होता है, इसलिए मैंने उसे मालाकार राग का संकेत कर दिया । सूची-नृत्य के बाद उसने अंगुष्ठ नृत्य किया तो सभा के विद्वान् उसकी प्रशंसा करने लगे परंतु मैंने नखमंडल को शुद्ध करने वाले नापित राग का संकेत कर दिया । तदनंतर उसने गौ और मक्षिका की कुक्षि का अभिनय किया तो अन्य लोग उसकी प्रशंसा करने लगे परंतु मैंने गोपाल राग का संकेत कर दिया । इस प्रकार रस और भाव के विवेक को प्रकट करने वाली उस वसंतसेना ने प्रसन्न हो अपनी अंगुलियां चटकाती हुई मेरी बहुत प्रशंसा की । तदनंतर अनुराग से भरी हुई उक्त वेश्या ने सब लोगों के देखते-देखते मेरे सामने सुंदर नृत्य किया ॥44-49॥<span id="50" /><span id="51" /> </p> | ||
<p>नृत्य समाप्त कर वह अपने घर गयी और तीव्र उत्कंठा से आतुर हो अपनी माता से कहने लगी कि हे माता ! इस जन्म में मेरा चारुदत्त के सिवाय किसी दूसरे के साथ समागम का संकल्प नहीं है इसलिए मुझे शीघ्र ही चारुदत्त के साथ मिलाने के योग्य हो ॥50-51 | <p>नृत्य समाप्त कर वह अपने घर गयी और तीव्र उत्कंठा से आतुर हो अपनी माता से कहने लगी कि हे माता ! इस जन्म में मेरा चारुदत्त के सिवाय किसी दूसरे के साथ समागम का संकल्प नहीं है इसलिए मुझे शीघ्र ही चारुदत्त के साथ मिलाने के योग्य हो ॥50-51 ॥<span id="52" /> माता ने पुत्री का अभिप्राय जानकर चारुदत्त के साथ मिलाने के लिए दान-सम्मान आदि से संतुष्ट कर रुद्रदत्त को नियुक्त किया अर्थात् इस कार्य का भार उसने रुद्रदत्त के लिए सौंप दिया ॥52॥<span id="53" /> किसी दिन मैं रुद्रदत्त के साथ मार्ग में जा रहा था कि उसने उपाय कर मेरे आगे और पीछे दो-दो हाथियों को लड़ा दिया और सुरक्षा पाने के लिए मुझे उस वेश्या के घर प्रविष्ट करा दिया ॥53॥<span id="54" /> कलिंग सेना वेश्या को इस बात का पहले से ही संकेत कर दिया गया । इसलिए उसने स्वागत तथा आसन आदि के द्वारा हम दोनों का सत्कार किया ॥54॥<span id="55" /></p> | ||
<p>तदनंतर कलिंग सेना और रुद्रदत्त का जुआ प्रारंभ हुआ सो कलिंगसेना ने जुआ में रुद्रदत्त का दुपट्टा तक जीत लिया । तब मैं रुद्रदत्त को हटाकर कलिंगसेना के साथ जुआ खेलने के लिए उद्यत हुआ ॥55॥ मुझे उद्यत देख वसंतसेना से भी नहीं रहा गया । इसलिए वह चतुरा अपनी माता को अलग कर मेरे साथ जुआ खेलने लगी ॥56॥ मैं जुआ खेलने में चिरकाल आसक्त रहा । इसी बीच मुझे जोर की प्यास लगी तो उसने बुद्धि को मोहित करने वाले योग से सुवासित ठंडा पानी मुझे पिलाया | <p>तदनंतर कलिंग सेना और रुद्रदत्त का जुआ प्रारंभ हुआ सो कलिंगसेना ने जुआ में रुद्रदत्त का दुपट्टा तक जीत लिया । तब मैं रुद्रदत्त को हटाकर कलिंगसेना के साथ जुआ खेलने के लिए उद्यत हुआ ॥55॥<span id="56" /> मुझे उद्यत देख वसंतसेना से भी नहीं रहा गया । इसलिए वह चतुरा अपनी माता को अलग कर मेरे साथ जुआ खेलने लगी ॥56॥<span id="57" /> मैं जुआ खेलने में चिरकाल आसक्त रहा । इसी बीच मुझे जोर की प्यास लगी तो उसने बुद्धि को मोहित करने वाले योग से सुवासित ठंडा पानी मुझे पिलाया ॥57॥<span id="58" /> अतिशय विश्वास के कारण जब उस पर मेरा अनुराग बढ़ गया तब उसकी माता ने मुझे उसका हाथ पकड़ा दिया ॥ 58॥<span id="59" /> मैं उसमें इतना आसक्त हुआ कि उसके घर बारह वर्ष तक रहा । इस बीच में मैंने अपने माता-पिता तथा प्रिय स्त्री मित्रवती को भी भुला दिया । फिर अन्य कार्यों की तो कथा ही क्या थी ? ॥59॥<span id="60" /> </p> | ||
<p>वृद्धजनों की सेवा से पहले जो मेरे गुणवृद्धि को प्राप्त हुए थे वे तरुणी की सेवा से उत्पन्न हुए दोषों से उस तरह आच्छादित हो गये जिस तरह कि दुर्जनों से सज्जन आच्छादित हो जाते हैं ॥60॥ | <p>वृद्धजनों की सेवा से पहले जो मेरे गुणवृद्धि को प्राप्त हुए थे वे तरुणी की सेवा से उत्पन्न हुए दोषों से उस तरह आच्छादित हो गये जिस तरह कि दुर्जनों से सज्जन आच्छादित हो जाते हैं ॥60॥<span id="61" /><span id="62" /> हमारे पिता सोलह करोड़ दीनार के धनी थे । सो जब सब धन क्रम-क्रम से कलिंगसेना के घर आ गया और अंत में मित्रवती के आभूषण भी आने लगे तब यह देख मंत्र करने में निपुण कलिंगसेना एक दिन एकांत में वसंतसेना से बोली कि बेटी ! मैं हित की बात कहती हूँ सो मेरे वचन कान में धर ॥61-62 ॥<span id="63" /> जो मनुष्य गुरुजनों के वचनामृतरूप मंत्र का सदा अभ्यास करता है अनर्थरूपी ग्रह सदा उससे दूर रहते हैं, कभी उसके पास नहीं आते ॥63॥<span id="64" /> तू हम लोगों की इस जघन्य वृत्ति को जानती ही है कि धनवान् मनुष्य ही हमारा प्रिय है । जिसका धन खींच लिया है ऐसा मनुष्य ईख के छिलके के समान छोड़ने योग्य होता है ॥64॥<span id="65" /> आज चारुदत्त की भार्या ने अपने शरीर का आभूषण उतारकर भेजा था सो उसे देख मैंने दयावश वापस कर दिया है ॥65 ॥<span id="66" /> इसलिए अब सारहीन (निर्धन) चारुदत्त का साथ छोड़ और नयी ईख के समान किसी दूसरे सारवान् (सधर) मनुष्य का उपभोग कर ॥66॥<span id="67" /></p> | ||
<p>कलिंगसेना की बात सुनकर वसंतसेना को इतना तो दुःख हुआ मानो उसके कान में कीला ही ठोक दिया हो । उसने माता से कहा कि हे मातः ! तूने यह क्या कहा ? ॥67॥ कुमारकाल से जिसे स्वीकार किया तथा चिरकाल तक जिसके साथ वास किया उस चारुदत्त को छोड़कर मुझे कुबेर से भी क्या प्रयोजन है ? फिर दूसरे धनाढ्य मनुष्य को तो बात ही क्या है ? ॥68॥ अधिक क्या कहूँ चारुदत्त के साथ वियोग कराने वाले इन प्राणों से भी <u>मु</u>झे प्रयोजन नहीं है । हे मातः ! यदि मेरा जीवन प्रिय है तो अब पुनः ऐसे वचन नहीं कह ॥69 | <p>कलिंगसेना की बात सुनकर वसंतसेना को इतना तो दुःख हुआ मानो उसके कान में कीला ही ठोक दिया हो । उसने माता से कहा कि हे मातः ! तूने यह क्या कहा ? ॥67॥<span id="68" /> कुमारकाल से जिसे स्वीकार किया तथा चिरकाल तक जिसके साथ वास किया उस चारुदत्त को छोड़कर मुझे कुबेर से भी क्या प्रयोजन है ? फिर दूसरे धनाढ्य मनुष्य को तो बात ही क्या है ? ॥68॥<span id="69" /> अधिक क्या कहूँ चारुदत्त के साथ वियोग कराने वाले इन प्राणों से भी <u>मु</u>झे प्रयोजन नहीं है । हे मातः ! यदि मेरा जीवन प्रिय है तो अब पुनः ऐसे वचन नहीं कह ॥69 ॥<span id="70" /> अरे! उसके घर से आये हुए करोड़ों दीनारों से तेरा घर भर गया फिर भी तुझे उसके छोड़ने की इच्छा हुई सो ठीक ही है क्योंकि स्त्रियाँ अकृतज्ञ होती हैं ॥70॥<span id="71" /> हे माता ! जो कलाओं का पारगामी है, अत्यंत रूपवान् है, समीचीन धर्म को जानने वाला है एवं अतिशय त्यागी-उदार है, उस चारुदत्त का त्याग में कैसे कर सकती हूँ ? ॥71॥<span id="72" /> इस प्रकार वसंतसेना को मुझ में अत्यंत आसक्त जान कलिंगसेना उस समय तो कुछ नहीं कह सकी, उसी की हां में हाँ मिलाती रही परंतु मन में हम दोनों को वियुक्त करने का उपाय सोचती रही ॥72॥<span id="73" /> हम दोनों आसन पर बैठते समय, शय्या पर सोते समय, स्नान करते समय और भोजन करते समय साथ-साथ रहते थे इसलिए उसे वियुक्त करने का अवसर नहीं मिलता था । एक दिन उसने किसी योग ( तंत्र ) द्वारा हम दोनों को निद्रा में निमग्न कर रात्रि के समय मुझे घर से बाहर कर दिया ॥73॥<span id="74" /></p> | ||
<p>निद्रा दूर होने पर मैं घर गया । मेरे पिता मुनिदीक्षा ले चुके थे इसलिए मेरी माता और स्त्री बहुत दुःखी थीं । वे विलख-विलख कर रोने लगीं उन्हें देख मैं भी बहुत दुःखी हुआ | <p>निद्रा दूर होने पर मैं घर गया । मेरे पिता मुनिदीक्षा ले चुके थे इसलिए मेरी माता और स्त्री बहुत दुःखी थीं । वे विलख-विलख कर रोने लगीं उन्हें देख मैं भी बहुत दुःखी हुआ ॥ 74 ॥<span id="75" /> तदनंतर माता और स्त्री को धैर्य बंधा कर तथा स्त्री के आभूषण हाथ में ले व्यापार के निमित्त मैं अपने मामा के साथ उशीरावर्त देश आया ॥75॥<span id="76" /> वहाँ कपास खरीदकर बेचने के लिए मैं ताम्रलिप्त नगर को ओर जा रहा था कि भाग्य और समय की प्रतिकूलता के कारण वह कपास दावानल से बीच में ही जल गया ॥76॥<span id="77" /> मैंने, मामा को वहीं छोड़ा और घोड़े पर सवार हो मैं पूर्व दिशा को ओर चला परंतु घोड़ा बीच में ही मर गया इसलिए पैदल चलकर थका-मांदा प्रियंगुनगर पहुँचा ॥77॥<span id="7" /> उस समय प्रियंगुनगर में मेरे पिता का मित्र सुरेंद्रदत्त नाम का सेठ रहता था । उसने मुझे देखकर बड़े सुख से रखा और कुछ दिन तक मैंने वहाँ विश्राम किया ॥7॥<span id="79" /><span id="8" /><span id="9" /> वहाँ से मैं समुद्रयात्रा के लिए गया सो छह बार मेरा जहाज फट गया । अंत में जिस किसी तरह मैं आठ करोड़ का स्वामी होकर लौट रहा था कि फिर भी जहाज फट गया और सारा धन समुद्र में डूब गया ॥ 79 ॥<span id="80" /> भाग्यवश एक तख्ता पाकर बड़े कष्ट से मैंने समुद्र को पार किया । समुद्र पार कर मैं राजपुर नगर आया और वहाँ एक संन्यासी को मैंने देखा ॥80॥<span id="81" /> मैं थका हुआ था इसलिए शांत वेष को धारण करने वाले उस संन्यासी ने मुझे विश्राम कराया । तदनंतर रस का लोभ देकर एवं विश्वास दिलाकर वह मुझे एक सघन अटवी में ले गया ॥81॥<span id="82" /> मैं भोला-भाला था इसलिए उस संन्यासी ने एक तूमड़ी देकर मुझे रस्सी के सहारे नीचे उतारा जिससे मैं रस को तृष्णा से एक भयंकर कुएं में जा घुसा ॥82 ॥<span id="83" /> पृथिवी के तल में पहुंचकर रस्सी पर अपना दृढ़ आसन जमाये हुए जब मैं रस भरने लगा तब वहाँ स्थित किसी पुरुष ने मुझे रोका ॥83॥<span id="84" /> उसने कहा कि हे भद्र ! यदि तू जीवित रहना चाहता है तो इस भयंकर रस का स्पर्श मत कर । यदि किसी तरह इसका स्पर्श हो जाता है तो क्षयरोग को तरह यह जीवित नहीं छोड़ता ॥84॥<span id="85" /><span id="86" /> तदनंतर आश्चर्यचकित हो मैंने उससे शीघ्र ही इस प्रकार पूछा कि महाशय ! तुम कौन हो ? और किसने तुम्हें यहाँ डाल दिया है ? मेरे यह कहने पर वह बोला कि मैं उज्जयिनी का एक वणिक हूँ । मेरा जहाज फट गया था इसलिए एक अपात्र साधु ने रस लेकर मुझे रसरूपी राक्षस के वक्षःस्थल पर गिरा दिया है ॥ 85-86॥<span id="87" /> रस के उपभोग से मेरी चमड़ी तथा हड्डी ही शेष रह गयी है । हे भद्र ! मेरा तो यहाँ से निकलना तभी होगा जब मैं मर जाऊँगा । जीवित रहते मेरा निकलना नहीं हो सकता ॥87॥<span id="88" /> उस मनुष्य ने मुझसे भी पूछा कि तुम कौन हो? तब मैंने कहा कि मैं चारुदत्त नाम का वणिक् हूँ और जो तुम्हारा शत्रु था उसी संन्यासी ने मुझे यहाँ गिराया है । 88 ॥<span id="89" /> </p> | ||
<p>यह प्रियवादी है इसलिए बगले के समान मायाचारी दुष्ट मनुष्य का विश्वास कर उसके पीछे-पीछे चलने वाला मूढ़ मनुष्य यदि नीचे-नीचे गिरता है तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? ॥89 | <p>यह प्रियवादी है इसलिए बगले के समान मायाचारी दुष्ट मनुष्य का विश्वास कर उसके पीछे-पीछे चलने वाला मूढ़ मनुष्य यदि नीचे-नीचे गिरता है तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? ॥89 ॥<span id="90" /> अंत में मैंने तुमड़ी में रस भरकर तथा रस्सी में बाँधकर उसे चलाया । जिस रस्सी में रस की तूमड़ी बंधी थी उस रस्सी को तो उस संन्यासी ने खींच लिया और जिसके सहारे मुझे ऊपर चढ़ना था उसे काट दिया । इस प्रकार अपने मनोरथ को सिद्ध कर वह दुष्ट वहाँ से चला गया॥90॥<span id="11" /> जब मैं किनारे पर जा पड़ा तब उस सज्जन पुरुष ने दया युक्त हो मेरे लिए निकलने का मार्ग बतलाया ॥11॥<span id="92" /><span id="12" /></p> | ||
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<p>उसने कहा कि हे सत्पुरुष ! रस पीने के लिए यहाँ एक गोह आवेगी सो तुम सरककर यदि शीघ्र ही उसकी पूंछ पकड़ लोगे तो निश्चय ही बाहर निकल जाओगे ॥92॥ वह उस पुरुष का अंतिम समय था इसलिए इस प्रकार निकलने का मार्ग बतलाने वाले उस पुरुष के लिए मैंने सम्यग्दर्शन पूर्वक विस्तार के साथ धर्म का उपदेश दिया और पंच नमस्कार मंत्र भी सुनाया ॥93॥ दूसरे दिन रस पीकर जब गोह जाने लगी तब मैंने दोनों हाथों से शीघ्र ही उसकी पूंछ पकड़ ली और वह मुझे बाहर खींच लायी ॥94॥ किनारों की रगड़ से मेरा शरीर छिन्न-भिन्न हो गया था इसलिए उस गोह ने जब मुझे बाहर छोड़ा तब मैं अत्यंत मूर्च्छित हो गया । सचेत होने पर मैंने विचार किया कि मेरा पुनर्जन्म ही हुआ है | <p>उसने कहा कि हे सत्पुरुष ! रस पीने के लिए यहाँ एक गोह आवेगी सो तुम सरककर यदि शीघ्र ही उसकी पूंछ पकड़ लोगे तो निश्चय ही बाहर निकल जाओगे ॥92॥<span id="93" /> वह उस पुरुष का अंतिम समय था इसलिए इस प्रकार निकलने का मार्ग बतलाने वाले उस पुरुष के लिए मैंने सम्यग्दर्शन पूर्वक विस्तार के साथ धर्म का उपदेश दिया और पंच नमस्कार मंत्र भी सुनाया ॥93॥<span id="94" /> दूसरे दिन रस पीकर जब गोह जाने लगी तब मैंने दोनों हाथों से शीघ्र ही उसकी पूंछ पकड़ ली और वह मुझे बाहर खींच लायी ॥94॥<span id="95" /> किनारों की रगड़ से मेरा शरीर छिन्न-भिन्न हो गया था इसलिए उस गोह ने जब मुझे बाहर छोड़ा तब मैं अत्यंत मूर्च्छित हो गया । सचेत होने पर मैंने विचार किया कि मेरा पुनर्जन्म ही हुआ है ॥ 95 ॥<span id="96" /></p> | ||
<p> धीरे-धीरे उठकर मैं आगे चला तो वन के बीच में यमराज के समान भयंकर भैंसा ने मेरा पीछा किया । अवसर देख मैं एक गुहा में घुस गया | <p> धीरे-धीरे उठकर मैं आगे चला तो वन के बीच में यमराज के समान भयंकर भैंसा ने मेरा पीछा किया । अवसर देख मैं एक गुहा में घुस गया ॥ 96॥<span id="97" /> उस गुफा में एक अजगर सो रहा था । मेरा पैर पड़ने पर वह जाग उठा और सामने दौड़ते हुए उस भयंकर भैंसे को उसने अपने मुख से पकड़ लिया ॥97 ।<span id="98" /> भैंसा और अजगर दोनों ही अत्यंत उद्धत थे इसलिए जब तक उन दोनों में युद्ध हुआ तब तक मैं उसकी पीठ पर चढ़कर बड़ी शीघ्रता से बाहर निकल आया ॥98॥<span id="99" /> उस महावन से निकलकर मैं समीपवर्ती एक गांव में पहुंचा तो काकतालीय न्याय से (अचानक) मैंने वहाँ अपने काका रुद्रदत्त को देखा ॥99 ॥<span id="100" /> मैं कई दिन का भूखा-प्यासा था इसलिए रुद्रदत्त ने मेरी भूख-प्यास की बाधा दूर कर मुझ से कहा कि चारुदत्त ! खेद मत करो मेरे वचन सुनो ॥100॥<span id="101" /> हम दोनों सुवर्णद्वीप चलकर तथा बहुत भारी धन कमाकर चंपापुरी वापस आवेंगे जिससे अपने कुल की रक्षा होगी ॥101॥<span id="104" /><span id="105" /></p> | ||
< | <p>तदनंतर रुद्रदत्त के साथ एक सलाह हो जाने पर दोनों वहाँ से चले और ऐरावती नदी को उतरकर तथा गिरिकूट नामक पर्वत और वेत्रवन को उल्लंघकर टंकणदेश में जा पहुंचे । वहाँ मार्ग अत्यंत विषम था इसलिए चलने में चतुर दो बकरा खरीदकर तथा उन पर सवार हो धीरे<strong>-</strong>धीरे आगे गये ॥102<strong>-</strong>103॥ तदनंतर समभूमि को उल्लंघकर रुद्रदत्त ने बड़े आदर के साथ मुझसे कहा कि चारुदत्त ! अब आगे मार्ग नहीं है इसलिए इन बकरों को मारकर तथा इनकी भस्त्रा<strong> (</strong>भाथड़ी<strong>) </strong>बनाकर उनमें हम दोनों बैठ जावें । तीक्ष्ण चोंचों वाले भारुंड पक्षी मांस के लोभ से हम दोनों उठाकर सुवर्णद्वीप में डाल देंगे ॥104-105 ॥<span id="106" /> रुद्रदत्त बड़ी दुष्ट प्रकृति का था इसलिए मेरे रोकने पर भी उसने अपना बकरा मार डाला और विनय से च्युत हो मेरे बकरा का भी अंत कर दिया ॥106 ॥<span id="107" /> मेरा बकरा जब तक मारा नहीं गया तब तक मैंने पहले उसके मारने का पूर्ण प्रतिकार किया रुद्रदत्त को मारने से रो का परंतु जब मारा हो जाने लगा तब मैंने उसे पंचनमस्कार मंत्र ग्रहण करा दिया ॥ 107॥<span id="108" /></p> | ||
<p>रुद्रदत्त ने मृत बकरों की भाथड़ियां बनायीं और एक के भीतर छुरी देकर मुझे बैठा दिया तथा दूसरी में वह स्वयं हाथ में छुरी लेकर बैठ गया ॥108 | <p>रुद्रदत्त ने मृत बकरों की भाथड़ियां बनायीं और एक के भीतर छुरी देकर मुझे बैठा दिया तथा दूसरी में वह स्वयं हाथ में छुरी लेकर बैठ गया ॥108 ॥<span id="109" /> तदनंतर भारुंड पक्षी पैनी चोंचों से दबाकर दोनों भस्त्राओं को आकाश में ले गये । मेरी भाथड़ी एक काना भारुंड पक्षी ले गया था इसलिए उसने दूसरी जगह ले जाकर पृथिवी पर गिरा दी ॥109 ॥<span id="110" /> मैं वेग से उस भाथड़ी को चीरकर जब बाहर निकला तो मैंने रत्नों की किरणों से देदीप्यमान स्वर्ग के समान एक विस्तृत द्वीप देखा ॥110॥<span id="111" /> उस द्वीप को सुंदर दिशाओं को देखते हुए मैंने पर्वत के अग्रभाग पर एक जिनमंदिर देखा जो हवा से उड़ती हुई पताकाओं से ऐसा जान पड़ता था मानो नृत्य ही कर रहा हो ॥111॥<span id="112" /> उसी जिनमंदिर के समीप मैंने आतापन योग से स्थित एक चारण ऋद्धिधारी मुनिराज को देखा । उन मुनिराज को देखकर मुझे ऐसा उत्तम सुख प्राप्त हुआ जैसा कि पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ था ॥112॥<span id="113" /></p> | ||
<p>तदनंतर पर्वत पर चढ़कर मैंने जिनमंदिर की तीन प्रदक्षिणाएँ दी और श्री जिनेंद्र भगवान् की कृत्रिम प्रतिमाओं की वंदना की ॥113॥ | <p>तदनंतर पर्वत पर चढ़कर मैंने जिनमंदिर की तीन प्रदक्षिणाएँ दी और श्री जिनेंद्र भगवान् की कृत्रिम प्रतिमाओं की वंदना की ॥113॥<span id="118" /> प्रतिमाओं की वंदना के बाद मैंने ध्यान में लीन मुनिराज को भी मुनिभक्ति के कारण वंदना की । जब मुनिराज का नियम समाप्त हुआ तब वे मेरे लिए आशीर्वाद देकर वहीं बैठ गये और मुझ से कहने लगे कि चारुदत्त ! कुशल तो हो ? यहाँ स्वप्न की तरह तुम्हारा आगमन कैसे हुआ ? तुम एक साधारण पुरुष की तरह हो तथा कोई तुम्हारा सहायक भी नहीं दिखाई देता ॥114<strong>-</strong>115॥ हे नाथ ! आपके प्रसाद से कुशल है यह कहकर मैंने उन्हें नमस्कार किया । तदनंतर आश्चर्य से चकित होते हुए मैंने उन उत्तम मुनिराज से पूछा कि हे नाथ ! आपको मेरी पहचान कैसे हुई? हे माननीयों के माननीय ! मैं तो आपके इस पवित्र दर्शन को अपूर्व ही मानता हूँ ॥116<strong>-</strong>117꠰। इस प्रकार पूछने पर मुनिराज ने कहा कि मैं वही अमितगति नाम का विद्याधर हूँ जिसे चंपापुरी में उस समय शत्रु ने कील दिया था और तुमने जिसे छुड़ाया था ॥118॥<span id="119" /> उस घटना ने मेरे हृदय में सम्यग्दर्शन का भाव भर दिया था । कुछ समय बाद हमारे पिता ने विशाल राज्य पर मुझे बैठाकर हिरण्यकुंभ नामक गुरु के पास दीक्षा ले ली ॥119॥<span id="120" /><span id="121" /> मेरी विजयसेना और मनोरमा नाम की दो स्त्रियां थीं उनमें पहली विजयसेना के गांधर्वसेना नाम की पुत्री हुई और दूसरी मनोरमा के सिंहयश नाम का बड़ा और वाराहग्रीव नाम का छोटा इस प्रकार दो पुत्र हुए । ये दोनों ही पुत्र विनय आदि गुणों की खान थे ॥120-121॥<span id="122" /> एक दिन मैंने क्रम से बड़े पुत्र को राज्य पर और छोटे पुत्र को युवराज पद पर आरूढ़ कर अपने पितारूप गुरु के समीप ही दीक्षा धारण कर ली ॥ 122 ॥<span id="123" /></p> | ||
<p>हे चारुदत्त ! यह समुद्र से घिरा हुआ कुंभकंटक नाम का द्वीप है और यह कर्कोटक नाम का पर्वत है यहाँ तुम कैसे आये ? ॥123॥ मुनिराज के ऐसा कहने पर मैंने आदि से लेकर अंत तक सुख-दुःख से मिली हुई अपनी समस्त कथा जिस-किसी तरह उनके लिए कह सुनायी ॥124 | <p>हे चारुदत्त ! यह समुद्र से घिरा हुआ कुंभकंटक नाम का द्वीप है और यह कर्कोटक नाम का पर्वत है यहाँ तुम कैसे आये ? ॥123॥<span id="124" /> मुनिराज के ऐसा कहने पर मैंने आदि से लेकर अंत तक सुख-दुःख से मिली हुई अपनी समस्त कथा जिस-किसी तरह उनके लिए कह सुनायी ॥124 ॥<span id="125" /> उसी समय मुनिराज के दोनों उत्तम विद्याधर पुत्रों ने आकाश से नीचे उतरकर उन वंदनीय मुनिराज को वंदना की― उन्हें नमस्कार किया ॥125 ॥<span id="126" /> मुनिराज ने दोनों पुत्रों को संबोधते हुए कहा कि हे कुमारों ! जिसका पहले मैंने कथन किया था यह वही<strong>,</strong> तुम्हारा भाई चारुदत्त है । मुनिराज के ऐसा कहने पर दोनों विद्याधर मेरा आलिंगन कर प्रिय वचन कहते हुए समीप हो बैठ गये ॥126 ॥<span id="127" /> उसी समय दो देव विमान के अग्रभाग से उतरकर पहले मुझे और बाद में मुनिराज को नमस्कार कर मेरे आगे बैठ गये ॥127॥<span id="128" /> विद्याधरों ने उस समय इस अक्रम का कारण पूछा कि हे देवो ! तुम दोनों ने मुनिराज को छोड़कर श्रावक को पहले नमस्कार क्यों किया ? ॥128॥<span id="129" /> देवों ने इसका कारण कहा कि इस चारुदत्त ने हम दोनों को जिनधर्म का उपदेश दिया है इसलिए यह हमारा साक्षात् गुरु है यह समझिए ॥129 ॥<span id="130" /> यह कैसे ? इस प्रकार कहने पर जो पहले बकरा का जीव था वह देव बोला कि हे विद्याधरो ! सुनिए<strong>, </strong>मैं अपनी कथा स्पष्ट कहता हूँ ॥130॥<span id="131" /></p> | ||
<p>किसी समय बनारस में पुराणों के अर्थ<strong>, </strong>वेद तथा व्याकरण के रहस्य को जानने वाला एक सोमशर्मा नाम का ब्राह्मण रहता था उसकी ब्राह्मणी का नाम सोमिला था ॥131 | <p>किसी समय बनारस में पुराणों के अर्थ<strong>, </strong>वेद तथा व्याकरण के रहस्य को जानने वाला एक सोमशर्मा नाम का ब्राह्मण रहता था उसकी ब्राह्मणी का नाम सोमिला था ॥131 ॥<span id="132" /> उन दोनों के भद्रा और सुलसा नाम की दो यौवनवती पुत्रियां थीं । जो वेद<strong>, </strong>व्याकरण आदि शास्त्रों की परम पारगामिनी थीं ॥132॥<span id="133" /> उन दोनों पुत्रियों ने कुमारी अवस्था में ही वैराग्य वश परिव्राजक की दीक्षा ले ली और दोनों शास्त्रार्थ में अनेक वादियों को जीतकर पृथिवी में परम प्रसिद्धि को प्राप्त हुई ॥133 ॥<span id="134" /> किसी समय पृथिवी पर घूमता हुआ याज्ञवल्क्य नाम का परिव्राजक उन्हें जीतने की इच्छा से बनारस आया ॥134॥<span id="136" /> शास्त्रार्थ के समय अहंकार से भरी सुलसा ने सभा के बीच यह प्रतिज्ञा की कि जो मुझे शास्त्रार्थ में जीतेगा मैं उसी की सेविका (स्त्री) बन जाऊंगी ॥135꠰꠰ शास्त्रार्थ शुरू होने पर सुलसा ने न्याय विद्या के जानकार विद्वानों के आगे पूर्व पक्ष रखा परंतु याज्ञवल्क्य ने उसे दूषित कर अपना पक्ष स्थापित कर दिया ॥136॥<span id="137" /> सुलसा शास्त्रार्थ में हार गयी इसलिए उसने याज्ञवल्क्य को वर लिया-अपना पति बना लिया । याज्ञवल्क्य विषयरूपी मांस का बड़ा लोभी था तथा सुलसा को भी कामेच्छा जागत हो उठी इसलिए दोनों मनमानी क्रीड़ा करने लगे ॥137॥<span id="138" /></p> | ||
<p>सुलसा और याज्ञवल्क्य ने एक उत्तम पुत्र को जन्म दिया परंतु वे इतने निर्दयी निकले कि उस सद्योजात पुत्र को पीपल के वृक्ष के नीचे रखकर कहीं चले गये ॥138॥ वह पुत्र पीपल के नीचे चित्त पड़ा था तथा मुख में पड़े हुए पीपल के फल को खा रहा था । सुलसा की बड़ी बहन भद्रा उसे इस दशा में देख उठा लायी और उसका पिप्पलाद नाम रखकर उसका पोषण करने लगी ॥139॥ समय पाकर पिप्पलाद समस्त शाखों का पारगामी हो गया । एक दिन उसने भद्रा से पूछा कि माता ! मेरे पिता का क्या नाम है ? वे जीवित हैं या नहीं ? ॥140॥ | <p>सुलसा और याज्ञवल्क्य ने एक उत्तम पुत्र को जन्म दिया परंतु वे इतने निर्दयी निकले कि उस सद्योजात पुत्र को पीपल के वृक्ष के नीचे रखकर कहीं चले गये ॥138॥<span id="139" /> वह पुत्र पीपल के नीचे चित्त पड़ा था तथा मुख में पड़े हुए पीपल के फल को खा रहा था । सुलसा की बड़ी बहन भद्रा उसे इस दशा में देख उठा लायी और उसका पिप्पलाद नाम रखकर उसका पोषण करने लगी ॥139॥<span id="140" /> समय पाकर पिप्पलाद समस्त शाखों का पारगामी हो गया । एक दिन उसने भद्रा से पूछा कि माता ! मेरे पिता का क्या नाम है ? वे जीवित हैं या नहीं ? ॥140॥<span id="141" /> भद्रा ने कहा कि बेटा ! याज्ञवल्क्य तेरा पिता है । उसने मेरी छोटी बहन सुलसा को शास्त्रार्थ में जीत लिया था वही तेरी माता है ॥141॥<span id="142" /> हे बेटा ! जब तू पैदा ही हुआ था तथा कोई तेरा रक्षक नहीं था तब तुझे एक वृक्ष के नीचे छोड़कर वे दोनों दयाहीन पापी चले गये थे और आज तक जीवित हैं ॥142 ॥<span id="143" /> मैंने दूसरी स्त्री के स्तन पिला पिलाकर तुझे बड़े क्लेश से बड़ा किया है । हे पुत्र ! तूने पहले ऐसा ही कम किया होगा यह ठीक है परंतु कहना पड़ेगा कि तेरे माता-पिता बड़े कामी निकले ॥143॥<span id="144" /> उस समय कानों में दाह उत्पन्न करने वाले भद्रा के पूर्वोक्त वचन सुनकर विद्वान् पिप्पलाद को बड़ा क्रोध आया और उसकी बात सुनकर उसके कान खड़े हो गये ॥144 ॥<span id="145" /></p> | ||
<p>पता चलाकर वह अपने पिता याज्ञवल्क्य के पास गया और रोष पूर्वक उसे शास्त्रार्थ में जीतकर झूठ-मूठ की विनय दिखाता हुआ माता पिता की सेवा करने लगा | <p>पता चलाकर वह अपने पिता याज्ञवल्क्य के पास गया और रोष पूर्वक उसे शास्त्रार्थ में जीतकर झूठ-मूठ की विनय दिखाता हुआ माता पिता की सेवा करने लगा ॥145॥<span id="146" /> पिप्पलाद माता-पिता के प्रति क्रोध से भरा था इसलिए उसने मातृ-पितृ सेवा नाम का एक यज्ञ स्वयं चलाया और उसे कराकर दोनों को मृत्यु के अधीन कर दिया ॥ 146 ॥<span id="147" /> मैं उसी पिप्पलाद का वाग्वलि नाम का शिष्य था । उससे शास्त्र पढ़कर मैं जड़-विवेकहीन हो गया था और उसी के मत का समर्थन कर घोर वेदनाओं से भरे नरक में उत्पन्न हुआ ॥147॥<span id="148" /> नरक से निकलकर मैं छह बार बकरा का बच्चा हुआ और छहों बार यज्ञ विद्या के जानने वाले लोगों ने मुझे पर्वत द्वारा दिखाये हुए यज्ञ में होम दिया ॥148॥<span id="149" /> सातवीं बार भी मैं प्राणिघात से उत्पन्न हुए अपने पापों से प्रेरित हो टंकणक देश में बकरा ही हुआ ॥149 ॥<span id="150" /> उस समय दयालु चारुदत्त ने मुझे पापरहित जैनधर्म दिखलाया तथा मरणकाल में पंच नमस्कार मंत्र दिया ॥150॥<span id="151" /> जिनधर्म के प्रभाव से मैं सौधर्म स्वर्ग में उत्तम देव हुआ हूं । इस प्रकार चारुदत्त मेरा साक्षात् गुरु है और इसीलिए मैंने उसे पहले नमस्कार किया है ॥ 151॥<span id="152" /> यह कहकर जब वह देव चुप हो गया तब दूसरा देव बोला कि सुनिए चारुदत्त जिस तरह मेरा धर्मोपदेशक है<strong>,</strong> वह मैं कहता हूँ ॥152॥<span id="153" /></p> | ||
<p>मैं पहले वणिक् था । एक परिव्राजक ने मुझे रसकूप में गिरा दिया । पीछे चलकर उसी परिव्राजक ने चारुदत्त को भी उसी रसकूप में गिरा दिया । मेरी दशा मरणासन्न थी इसलिए चारुदत्त ने यहाँ दया युक्त होकर मुझे समीचीन धर्म का उपदेश दिया ॥153॥ चारुदत्त के द्वारा बताये हुए उस समीचीन धर्म को ग्रहणकर मैं मरा और मरकर सौधर्म स्वर्ग में उत्तम देव हुआ । इस तरह चारुदत्त मेरा साक्षात् गुरु है और इसीलिए मैंने उसे पहले नमस्कार किया है ॥154॥ जो पापरूपी कुएँ में डूबे हुए मनुष्यों के लिए धर्मरूपी हाथ का सहारा देता है तथा संसार<strong>-</strong>सागर से पार करने वाला है उस मनुष्य के समान संसार में मनुष्यों के बीच दूसरा कौन है ? ॥155 | <p>मैं पहले वणिक् था । एक परिव्राजक ने मुझे रसकूप में गिरा दिया । पीछे चलकर उसी परिव्राजक ने चारुदत्त को भी उसी रसकूप में गिरा दिया । मेरी दशा मरणासन्न थी इसलिए चारुदत्त ने यहाँ दया युक्त होकर मुझे समीचीन धर्म का उपदेश दिया ॥153॥<span id="154" /> चारुदत्त के द्वारा बताये हुए उस समीचीन धर्म को ग्रहणकर मैं मरा और मरकर सौधर्म स्वर्ग में उत्तम देव हुआ । इस तरह चारुदत्त मेरा साक्षात् गुरु है और इसीलिए मैंने उसे पहले नमस्कार किया है ॥154॥<span id="155" /> जो पापरूपी कुएँ में डूबे हुए मनुष्यों के लिए धर्मरूपी हाथ का सहारा देता है तथा संसार<strong>-</strong>सागर से पार करने वाला है उस मनुष्य के समान संसार में मनुष्यों के बीच दूसरा कौन है ? ॥155 ॥<span id="156" /> एक अक्षर<strong>, </strong>आधे पद अथवा एक पद को भी देने वाले गुरु को जो भूल जाता है वह भी जब पापी है तब धर्मोपदेश के दाता को भूल जाने वाले मनुष्य का तो कहना ही क्या है ? ॥156॥<span id="157" /> जिसका पहले उपकार किया गया है ऐसे उप कार्य मनुष्य की कृतकृत्यता प्रत्युपकार से ही होती है अन्य प्रकार से नहीं<strong>, </strong>ऐसा विद्वान् लोग जानते हैं ॥157॥<span id="158" /> प्रत्युपकार की शक्ति का अभाव होने पर जो अहंकार रहित होता हुआ अपने उपकारों के प्रति अपना शुभ अभिप्राय नहीं दिखलाता है वह कुलीन कैसे हो सकता है ? भावार्थ― प्रथमपक्ष तो यही है कि अपना उपकार करने वाले मनुष्य का अवसर आने पर प्रत्युपकार किया जावे । यदि कदाचित् प्रत्युपकार करने की सामर्थ्य न हो तो उपकारकर्ता के प्रति नम्रता का भाव अवश्य ही दिखलाना उचित है ॥158॥<span id="162" /></p> | ||
<p>इस प्रकार कहकर उन दोनों देवों ने उस समय मुनिराज तथा विद्याधरों के समीप देव<strong>-</strong>देवियों तथा विमान आदि के द्वारा अपनी बड़ी भारी ऋद्धि दिखलाकर अग्नि में शुद्ध किये हुए वस्त्र<strong>, </strong>आभूषण<strong>, </strong>माला<strong>, </strong>विलेपन आदि से मेरा बहुत सत्कार किया तथा उत्तमोत्तम आभूषणों से विभूषित कर मुझसे कहा कि हे स्वामिन् ! जो भी कार्य करने योग्य हो उसके लिए आप आज्ञा दीजिए । क्या आज शीघ्र ही आपको बहुत भारी धन<strong>-</strong>संपदा के साथ चंपापुरी भेज दिया जाये ? ॥159<strong>-</strong>161 | <p>इस प्रकार कहकर उन दोनों देवों ने उस समय मुनिराज तथा विद्याधरों के समीप देव<strong>-</strong>देवियों तथा विमान आदि के द्वारा अपनी बड़ी भारी ऋद्धि दिखलाकर अग्नि में शुद्ध किये हुए वस्त्र<strong>, </strong>आभूषण<strong>, </strong>माला<strong>, </strong>विलेपन आदि से मेरा बहुत सत्कार किया तथा उत्तमोत्तम आभूषणों से विभूषित कर मुझसे कहा कि हे स्वामिन् ! जो भी कार्य करने योग्य हो उसके लिए आप आज्ञा दीजिए । क्या आज शीघ्र ही आपको बहुत भारी धन<strong>-</strong>संपदा के साथ चंपापुरी भेज दिया जाये ? ॥159<strong>-</strong>161 ॥ इसके उत्तर में मैंने कहा कि इस समय आप अपने<strong>-</strong>अपने स्थान पर जाइए । जब मैं आपका स्मरण करूँ तब पुनः आइए ॥162 ॥<span id="163" /> देवों ने जो आज्ञा यह कहकर मुझे तथा मुनिराज को हाथ जोड़कर नमस्कार किया एवं मुझ से तथा मुनिराज से पूछकर वे अपने स्वर्ग चले गये ॥163 ॥<span id="164" /> देवों के चले जाने पर मैंने भी मुनिराज को नमस्कार किया और विद्याधरों के साथ विमान पर बैठकर उनके शिवमंदिर नगर में प्रवेश किया ॥164॥<span id="165" /> शिवमंदिर नगर स्वर्ग के समान जान पड़ता था । मैं उसमें सुख से रहने लगा । अनेक विद्याधर मेरी सेवा करते थे । वहाँ रहते हुए मुझे ऐसा जान पड़ता था मानो दूसरे ही जन्म को प्राप्त हुआ हूँ । वहाँ प्रत्येक मनुष्य से मेरा यश सुनाई पड़ता था ॥165॥<span id="167" /></p> | ||
<p>एक दिन वे दोनों कुमार अपनी माता के साथ मेरे पास आये तथा मेरे लिए कुमारी गांधर्वसेना को दिखाकर मेरे साथ इस प्रकार सलाह करने लगे ॥166 ꠰। उन्होंने कहा कि हे चारुदत्त ! सुनो<strong>, </strong>एक समय लक्ष्मी से सुशोभित राजा अमितगति ने अवधिज्ञानी मुनिराज से पूछा था कि आपके दिव्यज्ञान में हमारी पुत्री गांधर्वसेना का स्वामी कौन दिखाई देता है ? ॥167 | <p>एक दिन वे दोनों कुमार अपनी माता के साथ मेरे पास आये तथा मेरे लिए कुमारी गांधर्वसेना को दिखाकर मेरे साथ इस प्रकार सलाह करने लगे ॥166 ꠰। उन्होंने कहा कि हे चारुदत्त ! सुनो<strong>, </strong>एक समय लक्ष्मी से सुशोभित राजा अमितगति ने अवधिज्ञानी मुनिराज से पूछा था कि आपके दिव्यज्ञान में हमारी पुत्री गांधर्वसेना का स्वामी कौन दिखाई देता है ? ॥167 ॥<span id="168" /> मुनिराज ने कहा था कि चारुदत्त के घर गांधर्व विद्या का पंडित यदुवंशी राजा आवेगा वही इस कन्या को गंधर्व विद्या में जीतेगा तथा वही इसका पति होगा ॥168॥<span id="170" /> मुनिराज के वचन सुनकर राजा ने उस समय इस कार्य का निश्चय कर लिया था । यद्यपि राजा अमितगति इस समय दीक्षा लेकर मुनि हो गये हैं तथापि उस समय उन्होंने इसका पूर्ण भार आपके ही ऊपर रखने का निश्चय किया था इसलिए हम लोगों को आप ही प्रमाणभूत हैं ॥169 ꠰। इसके उत्तर में भाग्यवश प्राप्त हुए इस भाई के कार्य को मैंने स्वीकृत कर लिया । तदनंतर धाय आदि परिवार के साथ यह कन्या मेरे लिए सौंप दी गयी ॥170॥<span id="171" /> नाना रत्न तथा सुवर्णादि संपदा से युक्त कन्या के दोनों भाई विद्याधरों की सेना साथ लेकर चंपानगरी के प्रति आने के लिए तैयार हो गये ॥171॥<span id="172" /> उसी समय मित्र का कार्य करने के लिए उद्यत दोनों मित्र देवों का मैंने स्मरण किया और स्मरण के बाद ही वे दोनों देव निधियाँ हाथ में लिये हुए मेरे पास आ पहुंचे ॥172॥<span id="173" /><span id="174" /> वे देव गांधर्वसेना के साथ मुझे सुंदर हंस विमान में बैठाकर आश्चर्य उत्पन्न करने वाली संपदा सहित चंपानगरी ले आये । यहाँ आकर अक्षय निधियों के द्वारा उन्होंने मेरी सब व्यवस्था की । तदनंतर नमस्कार कर देव स्वर्ग चले गये और दोनों विद्याधर अपने स्थान पर गये ॥173-174 ॥<span id="175" /> मैं मामा<strong>, </strong>माता<strong>, </strong>पत्नी तथा अन्य से बड़े आदर से मिला<strong>, </strong>सबको बड़ा संतोष हुआ और मैं भी बहुत सुखी हुआ ॥175॥<span id="176" /> वसंतसेना वेश्या<strong>, </strong>अपनी माँ के घर से आकर सास की सेवा करती रही है तथा अणुव्रतों से विभूषित हो गयी है यह सुनकर मैंने बड़ी प्रसन्नता से उसे स्वीकृत कर लिया-अपना बना लिया ॥176॥<span id="177" /> मैंने दीन तथा अनाथ मनुष्यों को संतुष्ट करने वाला क्रिमिच्छक दान दिया और समस्त कुटुंबी जनों के लिए भी उनकी इच्छानुसार वस्तुएँ दी ॥ 177 ॥<span id="178" /> इस प्रकार हे यादव ! विद्याधर कुमारी का मेरे साथ जो संबंध है तथा इस विभव की जो मुझे प्राप्ति हुई है वह सब मैंने आप से कहा है ॥178॥<span id="179" /></p> | ||
<p>हे यदुनंदन ! जिनके लिए यह कन्या रखी गयी थी इस भाग्यशालिनी कन्या ने उन्हीं तुम को प्राप्त किया है इसलिए कहना पड़ता है कि आपने मुझे कृतकृत्य किया है | <p>हे यदुनंदन ! जिनके लिए यह कन्या रखी गयी थी इस भाग्यशालिनी कन्या ने उन्हीं तुम को प्राप्त किया है इसलिए कहना पड़ता है कि आपने मुझे कृतकृत्य किया है ॥ 179 ॥<span id="180" /> तपस्वियों ने बताया है कि मेरा मोक्ष निकट है और तप धारण करने से इस भव के बाद तुझे स्वर्ग प्राप्त होगा इसलिए अब मैं निश्चिंत होकर तप के लिए ही यत्न करूँगा ॥180॥<span id="181" /><span id="182" /><span id="183" /> इस प्रकार वसुदेव<strong>, </strong>गांधर्व सेना का आदि से लेकर अंत तक संबंध तथा चारुदत्त का उत्साह सुनकर बहुत संतुष्ट हुए और चारुदत्त की इस तरह स्तुति करने लगे कि अहो ! आपकी चेष्टा अत्यधिक उदारता से सहित है<strong>, </strong>अहो ! आपका असाधारण पुण्यबल भी प्रशंसनीय है । बिना भाग्य बल के ऐसा पौरुष होना कठिन है और बिना भाग्य बल के साधारण मनुष्यों की तो बात ही क्या है देव तथा विद्याधर भी ऐसे । वैभव को प्राप्त नहीं हो सकते ॥181-183 ॥<span id="184" /> </p> | ||
<p>इस प्रकार चारुदत्त का वृत्तांत सुनकर वसुदेव ने उसके लिए गांधर्वसेना आदि की प्राप्ति पर्यंत अपना भी समस्त वृत्तांत कह सुनाया ॥184॥</p> | <p>इस प्रकार चारुदत्त का वृत्तांत सुनकर वसुदेव ने उसके लिए गांधर्वसेना आदि की प्राप्ति पर्यंत अपना भी समस्त वृत्तांत कह सुनाया ॥184॥<span id="185" /></p> | ||
<p>इस प्रकार आपस में एक दूसरे के स्वरूप को जानने वाले रूप तथा विज्ञान के सागर और त्रिवर्ग के अनुभव से प्रसन्न चारुदत्त आदि सुख से रहने लगे ॥185॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! धर्मात्मा मनुष्य भले ही अत्यंत निर्धन हो गया हो<strong>, </strong>समुद्र में भी गिर गया हो<strong>, </strong>कुए में भी उतर गया हो<strong>, </strong>पर्वत के अलंघ्य तट पर भी विचरण करने लगा हो और दूसरे द्वीप में भी जा पहुंचा हो तो भी पाप नष्ट हो जाने से संपूर्ण लक्ष्मी को प्राप्त होता है इसलिए हे विद्वज्जनो! जिनेंद्रदेव के द्वारा प्रतिपादित धर्मरूपी चिंतामणि रत्न का संचय करो ॥186 | <p>इस प्रकार आपस में एक दूसरे के स्वरूप को जानने वाले रूप तथा विज्ञान के सागर और त्रिवर्ग के अनुभव से प्रसन्न चारुदत्त आदि सुख से रहने लगे ॥185॥<span id="186" /> गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! धर्मात्मा मनुष्य भले ही अत्यंत निर्धन हो गया हो<strong>, </strong>समुद्र में भी गिर गया हो<strong>, </strong>कुए में भी उतर गया हो<strong>, </strong>पर्वत के अलंघ्य तट पर भी विचरण करने लगा हो और दूसरे द्वीप में भी जा पहुंचा हो तो भी पाप नष्ट हो जाने से संपूर्ण लक्ष्मी को प्राप्त होता है इसलिए हे विद्वज्जनो! जिनेंद्रदेव के द्वारा प्रतिपादित धर्मरूपी चिंतामणि रत्न का संचय करो ॥186 ॥<span id="21" /></p> | ||
<p><strong>इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त</strong>, <strong>जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में</strong> <strong>चारुदत्त के चरित्र का वर्णन करने वाला इक्कीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥21॥</strong></p> | <p><strong>इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त</strong>, <strong>जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में</strong> <strong>चारुदत्त के चरित्र का वर्णन करने वाला इक्कीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥21॥</strong></p> | ||
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Latest revision as of 10:58, 18 September 2023
अथानंतर जिन्हें उत्तमोत्तम गोष्ठियों के सुख का स्वाद था, जो स्वयं उदार चरित के धारक थे और उदारचरित के धारक मनुष्यों के लिए अत्यंत प्रिय थे,ऐसे यदुवंश शिरोमणि वसुदेव, किसी तरह विद्याधरों के कुल में उत्पन्न गांधर्व सेना को एवं राजाओं की विभूति को तिरस्कृत करने वाले । चारुदत्त को देखकर उनसे पूछने लगे कि हे पूज्य ! जो अपनी तुलना नहीं रखती तथा जो आपके भाग्य और पुरुषार्थ दोनों को सूचित करने वाली हैं ऐसी ये संपदाएं आपने किस तरह प्राप्त की ? कहिए कि यह प्रशंसनीय विद्याधरी, धन-धान्य से परिपूर्ण आपके भवन में निवास करती हुई मेरे कानों में अमृत की वर्षा क्यों कर रही है ? ॥1-4॥ वसुदेव के द्वारा इस प्रकार पूछे जाने पर चारुदत्त बहुत ही प्रसन्न हुआ और आदर के साथ कहने लगा कि हे धीर ! तुमने यह ठीक पूछा है । अच्छा, ध्यान से सुनो में तुम्हारे लिए अपना वृत्तांत कहता हूँ ॥5॥
इसी चंपापुरी में अतिशय धनाढय भानुदत्त नामक वैश्य शिरोमणि रहता था । उसकी स्त्री का नाम सुभद्रा था ॥6॥ सम्यग्दर्शन की विशुद्धता के साथ नाना अणुव्रतों को धारण करने वाले सुखरूपी सागर में निमग्न एवं पूर्ण यौवन से सुशोभित उन दोनों का समय सुखपूर्वक बीत रहा था ॥7॥ तदनंतर किसी समय जब कि उन दोनों के चित्त और नेत्रों के लिए अमृत बरसाने वाला एवं गृहस्थी का साक्षात् फलस्वरूप, भाग्यशाली पुत्र का मुख कमल विलंब कर रहा था अर्थात् उन दोनों के जब पुत्र उत्पन्न होने में विलंब दिखा तब वे दोनों मंदिर में पूजा कर रहे थे उसी समय चारणऋद्धिधारी मुनि के दर्शन कर उन्होंने उनसे पुत्रोत्पत्ति की बात पूछी ॥8-9॥ पूछते ही उन मुनिराज ने दोनों दंपतियों पर दया कर कहा कि तुम्हारे शीघ्र ही उत्तम पुत्र की प्राप्ति होगी ॥10॥ और कुछ ही समय बाद उन दोनों दंपतियों के आनंद को बढ़ाने वाला मैं पुत्र हुआ । मेरा चारुदत्त नाम रखा गया तथा मेरे जन्म का बड़ा उत्सव मनाया गया ॥11॥ अणुव्रतों की दीक्षा के साथ-साथ जिसे समस्त कलाएँ ग्रहण करायी गयी थीं ऐसा वह बालकरूपी चंद्रमा परिवाररूपी समुद्र की वृद्धि करने लगा । भावार्थ― वह बालक ज्यों-ज्यों कलाओं को ग्रहण करता जाता था त्यों-त्यों बंधुजनों का हर्षरूपी सागर वृद्धिंगत होता जाता था ॥12॥
उस समय वराह, गोमुख, हरिसिंह, तमोऽंतक और मरुभूति ये पांच मेरे मित्र थे जो मुझे अतिशय प्रिय थे ॥13॥ एक बार उन मित्रों के साथ क्रीड़ा करता हुआ मैं रत्नमालिनी नदी गया । वहाँ मैंने किनारे पर किसी दंपती का एक ऐसा स्थान देखा जिस पर पहुंचने के लिए पैरों के चिह्न नहीं उछले थे ॥14॥ हम लोगों को विद्याधर दंपती की आशंका हुई इसलिए कुछ और आगे गये । वहाँ जाकर हम लोगों ने हरे-भरे कदली गृह में उस विद्याधर दंपती की रति-शय्या देखी ꠰꠰15॥ रति संबंधी कार्य से जिसके फूल और पल्लव मुरझा रहे थे ऐसी उस रति शय्या से कुछ दूर आगे चलने पर एक बड़ा सघन वन दिखा ॥16 ॥ वहाँ एक वृक्ष पर लोह को कीलों से कीलित एक विद्याधर दिखाई दिया । उस विद्याधर के लाल-लाल नेत्र समीप में पड़ी हुई ढाल और तलवार के अग्रभाग में व्यग्र थे अर्थात् वह बार-बार उन्हीं की ओर देख रहा था ॥17॥ उसके इस संकेत से मैंने ढाल के नीचे छिपी हुई चालन, उत्कीलन और उन्मूल व्रणरोह नामक तीन दिव्य औषधियां उठा लीं और चालन नामक औषधि से मैंने उस विद्याधर को चलाया, उत्कीलन नामक औषधि से उसे कीलरहित किया तथा उन्मूलन व्रणरोह नामक ओषधि से कील निकालने का घाव भर दिया ॥18॥ ज्यों ही वह विद्याधर कीलरहित एवं घाव रहित हुआ त्यों ही ढाल और तलवार लेकर चुपचाप आकाश में उड़ा और उत्तर दिशा की ओर दौड़ा ॥19॥ जिस ओर से रोने का शब्द आ रहा था वह उसी ओर दौड़ता गया और शत्रु के द्वारा हरी हुई अपनी प्रिया को छुड़ा लाया । प्रिया को लाकर वह वहीं आया और बड़े आदर के साथ मुझ से बोला कि हे भद्र ! जिस प्रकार आज मुझ मरते हुए के लिए आपने प्राण दिये हैं उसी प्रकार आज्ञा दीजिए । कहिए मैं आपका क्या प्रत्युपकार करूँ ? ॥20-21॥
विजयार्ध पर्वत को दक्षिण श्रेणी में एक शिवमंदिर नाम का नगर है । उसमें महेंद्रविक्रम नाम का सरल राजा है । उसी महेंद्रविक्रम राजा का मैं अतिशय प्यारा अमितगति नाम का पुत्र हूँ । धूमसिंह और गौरमुंड नाम के दो विद्याधर मेरे मित्र हैं ॥22-23 ॥ किसी समय उन दोनों मित्रों के साथ मैं ह्रीमंत नामक पर्वतपर आया । वहाँ एक हिरण्यरोम नाम का तापस रहता था । उसकी पूर्ण यौवनवती एवं शिरीष के फूल के समान सुकुमार सुकुमारिका नाम की सुंदर कन्या थी । वह मेरे देखने में आयो और देखते ही साथ उसने मेरा मन हर लिया ॥24-25 ॥ मैं वहाँ से चला तो आया परंतु उसकी प्राप्ति की उत्कंठारूप शल्य मेरे मन में बहुत गहरी लग गयी । अंत में पिता ने मेरे लिए उस कन्या की याचना की और शीघ्र ही दोनों का बड़े उत्सव के साथ विवाह हो गया ॥26॥ चूंकि मुझे दिखा कि मेरा मित्र धूमसिंह भी इस सुकुमारिका को पाने की अभिलाषा रखता है इसलिए मैं सदा प्रमादरहित होकर इसके साथ विहार करता हूँ ॥27॥ परंतु आज मैं इसके साथ रमण कर रहा था कि वह धूमसिंह मुझे कीलित कर इस सुकुमारिका को हर ले गया । आपने मुझे छुड़ाया और मैं इसे शत्रु से छुड़ा लाया हूँ ॥28॥ इसलिए आज इस जन को (मुझे) इच्छित कार्य में लगाइए । क्योंकि आप मेरे प्राणदाता हैं इसलिए अवस्था में ज्येष्ठ होने पर भी मैं आपकी सेवा करूँगा ॥29॥ यद्यपि आपने मेरी शल्य निकालकर मुझे जीवित किया है तथापि यथार्थ में मेरी शल्य तभी निकलेगी जब मैं आपका प्रत्युपकार कर लूँगा ॥30॥
इस प्रकार स्त्रीसहित मधुर वचन बोलने वाले उस विद्याधर से मैंने कहा कि जब आप मेरे प्रति इस तरह शुभ भाव दिखला रहे हैं तब मेरा सब काम हो चुका । कहिए शुद्ध अभिप्राय को दिखाते हुए आपने मेरा क्या नहीं किया है ? मनुष्यों को जो शुभ भाव को दिखाना है वही तो उनका उपकार है ॥31-32 ॥ हे निष्पाप ! निश्चय से मैं आज पुण्यवान् और पूज्य हुआ हूँ क्योंकि संसार में अन्य सामान्य मनुष्यों के लिए दुर्लभ आपका दर्शन मुझे सुलभ हुआ है ॥33॥ मनुष्यों की अवस्थाओं का पलटना सर्वसाधारण बात है इसलिए मैं शत्रु के द्वारा कीलित हुआ । यह सोचकर आप खिन्न चित्त न हों ॥34॥ हे तात ! यदि आपकी मेरे प्रति उपकार करने की भावना ही है तो आप मुझे सदा अपना पुत्र समझिए । इस प्रकार मेरे कहने पर उसने कहा कि बहुत ठीक है । तदनंतर वह मेरा नाम और गोत्र पूछकर स्त्री सहित आकाश में उड़ गया ॥35-36 ॥ और हम लोग उसी विद्याधर की कथा करते हुए चंपा नगरी में प्रविष्ट हुए सो ठीक ही है क्योंकि देखी सुनी और अनुभव में आयी नूतन वस्तु ही मनुष्यों को सुखदायक होती है ॥37॥
तरुण होने पर मैंने अपने मामा सर्वार्थ की सुमित्रा स्त्री से उत्पन्न मित्रवती नामक कन्या के साथ विवाह किया ॥38 ॥ क्योंकि मुझे शास्त्र का व्यसन अधिक था इसलिए अपनी स्त्री के विषय में मेरी कुछ भी रुचि नहीं थी सो ठीक ही है क्योंकि शास्त्र का व्यसन अन्य व्यसनों का बाधक है ॥39॥ मेरा एक रुद्रदत्त नाम का काका था जो अनेक व्यसनों में आसक्त था तथा कामीजनों के समस्त व्यवहार को जानने वाला था । मेरी माता ने उसे मेरे साथ लगा दिया ॥40॥ इसी चंपा नगरी में एक कलिंगसेना नाम की वेश्या थी जो समस्त वेश्याओं की शिरोमणि थी और उसकी वसंतसेना नाम की पुत्री थी जो शोभा में वसंत की लक्ष्म के समान जान पड़ती थी ॥41॥ वह वसंतसेना नृत्य-गीत आदि कलाओं संबंधी कौशल से सुशोभित थी, सौंदर्य की परम सीमा थी और यौवन की नूतन उन्नति थी ॥42॥ किसी एक दिन वसंतसेना का नृत्य प्रारंभ होने वाला था । उसके लिए मैं भी रुद्रदत्त के साथ साहित्यिक जनों से भरे हुए नृत्य-मंडप में बैठा था ॥ 43 ॥ वह सूची नृत्य करना चाहती थी । उसके लिए उसने सुइयों के अग्रभाग पर अंजलि भरकर जाति पुष्पों की बोंड़ियाँ बिखेर दी और गायन के प्रभाव से जब सब बोंड़ियाँ खिल गयीं तो सभा में बैठे हुए कितने ही लोग उसकी प्रशंसा करने लगे । मैं जानता था कि पुष्पों के खिलने से कौन-सा राग होता है, इसलिए मैंने उसे मालाकार राग का संकेत कर दिया । सूची-नृत्य के बाद उसने अंगुष्ठ नृत्य किया तो सभा के विद्वान् उसकी प्रशंसा करने लगे परंतु मैंने नखमंडल को शुद्ध करने वाले नापित राग का संकेत कर दिया । तदनंतर उसने गौ और मक्षिका की कुक्षि का अभिनय किया तो अन्य लोग उसकी प्रशंसा करने लगे परंतु मैंने गोपाल राग का संकेत कर दिया । इस प्रकार रस और भाव के विवेक को प्रकट करने वाली उस वसंतसेना ने प्रसन्न हो अपनी अंगुलियां चटकाती हुई मेरी बहुत प्रशंसा की । तदनंतर अनुराग से भरी हुई उक्त वेश्या ने सब लोगों के देखते-देखते मेरे सामने सुंदर नृत्य किया ॥44-49॥
नृत्य समाप्त कर वह अपने घर गयी और तीव्र उत्कंठा से आतुर हो अपनी माता से कहने लगी कि हे माता ! इस जन्म में मेरा चारुदत्त के सिवाय किसी दूसरे के साथ समागम का संकल्प नहीं है इसलिए मुझे शीघ्र ही चारुदत्त के साथ मिलाने के योग्य हो ॥50-51 ॥ माता ने पुत्री का अभिप्राय जानकर चारुदत्त के साथ मिलाने के लिए दान-सम्मान आदि से संतुष्ट कर रुद्रदत्त को नियुक्त किया अर्थात् इस कार्य का भार उसने रुद्रदत्त के लिए सौंप दिया ॥52॥ किसी दिन मैं रुद्रदत्त के साथ मार्ग में जा रहा था कि उसने उपाय कर मेरे आगे और पीछे दो-दो हाथियों को लड़ा दिया और सुरक्षा पाने के लिए मुझे उस वेश्या के घर प्रविष्ट करा दिया ॥53॥ कलिंग सेना वेश्या को इस बात का पहले से ही संकेत कर दिया गया । इसलिए उसने स्वागत तथा आसन आदि के द्वारा हम दोनों का सत्कार किया ॥54॥
तदनंतर कलिंग सेना और रुद्रदत्त का जुआ प्रारंभ हुआ सो कलिंगसेना ने जुआ में रुद्रदत्त का दुपट्टा तक जीत लिया । तब मैं रुद्रदत्त को हटाकर कलिंगसेना के साथ जुआ खेलने के लिए उद्यत हुआ ॥55॥ मुझे उद्यत देख वसंतसेना से भी नहीं रहा गया । इसलिए वह चतुरा अपनी माता को अलग कर मेरे साथ जुआ खेलने लगी ॥56॥ मैं जुआ खेलने में चिरकाल आसक्त रहा । इसी बीच मुझे जोर की प्यास लगी तो उसने बुद्धि को मोहित करने वाले योग से सुवासित ठंडा पानी मुझे पिलाया ॥57॥ अतिशय विश्वास के कारण जब उस पर मेरा अनुराग बढ़ गया तब उसकी माता ने मुझे उसका हाथ पकड़ा दिया ॥ 58॥ मैं उसमें इतना आसक्त हुआ कि उसके घर बारह वर्ष तक रहा । इस बीच में मैंने अपने माता-पिता तथा प्रिय स्त्री मित्रवती को भी भुला दिया । फिर अन्य कार्यों की तो कथा ही क्या थी ? ॥59॥
वृद्धजनों की सेवा से पहले जो मेरे गुणवृद्धि को प्राप्त हुए थे वे तरुणी की सेवा से उत्पन्न हुए दोषों से उस तरह आच्छादित हो गये जिस तरह कि दुर्जनों से सज्जन आच्छादित हो जाते हैं ॥60॥ हमारे पिता सोलह करोड़ दीनार के धनी थे । सो जब सब धन क्रम-क्रम से कलिंगसेना के घर आ गया और अंत में मित्रवती के आभूषण भी आने लगे तब यह देख मंत्र करने में निपुण कलिंगसेना एक दिन एकांत में वसंतसेना से बोली कि बेटी ! मैं हित की बात कहती हूँ सो मेरे वचन कान में धर ॥61-62 ॥ जो मनुष्य गुरुजनों के वचनामृतरूप मंत्र का सदा अभ्यास करता है अनर्थरूपी ग्रह सदा उससे दूर रहते हैं, कभी उसके पास नहीं आते ॥63॥ तू हम लोगों की इस जघन्य वृत्ति को जानती ही है कि धनवान् मनुष्य ही हमारा प्रिय है । जिसका धन खींच लिया है ऐसा मनुष्य ईख के छिलके के समान छोड़ने योग्य होता है ॥64॥ आज चारुदत्त की भार्या ने अपने शरीर का आभूषण उतारकर भेजा था सो उसे देख मैंने दयावश वापस कर दिया है ॥65 ॥ इसलिए अब सारहीन (निर्धन) चारुदत्त का साथ छोड़ और नयी ईख के समान किसी दूसरे सारवान् (सधर) मनुष्य का उपभोग कर ॥66॥
कलिंगसेना की बात सुनकर वसंतसेना को इतना तो दुःख हुआ मानो उसके कान में कीला ही ठोक दिया हो । उसने माता से कहा कि हे मातः ! तूने यह क्या कहा ? ॥67॥ कुमारकाल से जिसे स्वीकार किया तथा चिरकाल तक जिसके साथ वास किया उस चारुदत्त को छोड़कर मुझे कुबेर से भी क्या प्रयोजन है ? फिर दूसरे धनाढ्य मनुष्य को तो बात ही क्या है ? ॥68॥ अधिक क्या कहूँ चारुदत्त के साथ वियोग कराने वाले इन प्राणों से भी मुझे प्रयोजन नहीं है । हे मातः ! यदि मेरा जीवन प्रिय है तो अब पुनः ऐसे वचन नहीं कह ॥69 ॥ अरे! उसके घर से आये हुए करोड़ों दीनारों से तेरा घर भर गया फिर भी तुझे उसके छोड़ने की इच्छा हुई सो ठीक ही है क्योंकि स्त्रियाँ अकृतज्ञ होती हैं ॥70॥ हे माता ! जो कलाओं का पारगामी है, अत्यंत रूपवान् है, समीचीन धर्म को जानने वाला है एवं अतिशय त्यागी-उदार है, उस चारुदत्त का त्याग में कैसे कर सकती हूँ ? ॥71॥ इस प्रकार वसंतसेना को मुझ में अत्यंत आसक्त जान कलिंगसेना उस समय तो कुछ नहीं कह सकी, उसी की हां में हाँ मिलाती रही परंतु मन में हम दोनों को वियुक्त करने का उपाय सोचती रही ॥72॥ हम दोनों आसन पर बैठते समय, शय्या पर सोते समय, स्नान करते समय और भोजन करते समय साथ-साथ रहते थे इसलिए उसे वियुक्त करने का अवसर नहीं मिलता था । एक दिन उसने किसी योग ( तंत्र ) द्वारा हम दोनों को निद्रा में निमग्न कर रात्रि के समय मुझे घर से बाहर कर दिया ॥73॥
निद्रा दूर होने पर मैं घर गया । मेरे पिता मुनिदीक्षा ले चुके थे इसलिए मेरी माता और स्त्री बहुत दुःखी थीं । वे विलख-विलख कर रोने लगीं उन्हें देख मैं भी बहुत दुःखी हुआ ॥ 74 ॥ तदनंतर माता और स्त्री को धैर्य बंधा कर तथा स्त्री के आभूषण हाथ में ले व्यापार के निमित्त मैं अपने मामा के साथ उशीरावर्त देश आया ॥75॥ वहाँ कपास खरीदकर बेचने के लिए मैं ताम्रलिप्त नगर को ओर जा रहा था कि भाग्य और समय की प्रतिकूलता के कारण वह कपास दावानल से बीच में ही जल गया ॥76॥ मैंने, मामा को वहीं छोड़ा और घोड़े पर सवार हो मैं पूर्व दिशा को ओर चला परंतु घोड़ा बीच में ही मर गया इसलिए पैदल चलकर थका-मांदा प्रियंगुनगर पहुँचा ॥77॥ उस समय प्रियंगुनगर में मेरे पिता का मित्र सुरेंद्रदत्त नाम का सेठ रहता था । उसने मुझे देखकर बड़े सुख से रखा और कुछ दिन तक मैंने वहाँ विश्राम किया ॥7॥ वहाँ से मैं समुद्रयात्रा के लिए गया सो छह बार मेरा जहाज फट गया । अंत में जिस किसी तरह मैं आठ करोड़ का स्वामी होकर लौट रहा था कि फिर भी जहाज फट गया और सारा धन समुद्र में डूब गया ॥ 79 ॥ भाग्यवश एक तख्ता पाकर बड़े कष्ट से मैंने समुद्र को पार किया । समुद्र पार कर मैं राजपुर नगर आया और वहाँ एक संन्यासी को मैंने देखा ॥80॥ मैं थका हुआ था इसलिए शांत वेष को धारण करने वाले उस संन्यासी ने मुझे विश्राम कराया । तदनंतर रस का लोभ देकर एवं विश्वास दिलाकर वह मुझे एक सघन अटवी में ले गया ॥81॥ मैं भोला-भाला था इसलिए उस संन्यासी ने एक तूमड़ी देकर मुझे रस्सी के सहारे नीचे उतारा जिससे मैं रस को तृष्णा से एक भयंकर कुएं में जा घुसा ॥82 ॥ पृथिवी के तल में पहुंचकर रस्सी पर अपना दृढ़ आसन जमाये हुए जब मैं रस भरने लगा तब वहाँ स्थित किसी पुरुष ने मुझे रोका ॥83॥ उसने कहा कि हे भद्र ! यदि तू जीवित रहना चाहता है तो इस भयंकर रस का स्पर्श मत कर । यदि किसी तरह इसका स्पर्श हो जाता है तो क्षयरोग को तरह यह जीवित नहीं छोड़ता ॥84॥ तदनंतर आश्चर्यचकित हो मैंने उससे शीघ्र ही इस प्रकार पूछा कि महाशय ! तुम कौन हो ? और किसने तुम्हें यहाँ डाल दिया है ? मेरे यह कहने पर वह बोला कि मैं उज्जयिनी का एक वणिक हूँ । मेरा जहाज फट गया था इसलिए एक अपात्र साधु ने रस लेकर मुझे रसरूपी राक्षस के वक्षःस्थल पर गिरा दिया है ॥ 85-86॥ रस के उपभोग से मेरी चमड़ी तथा हड्डी ही शेष रह गयी है । हे भद्र ! मेरा तो यहाँ से निकलना तभी होगा जब मैं मर जाऊँगा । जीवित रहते मेरा निकलना नहीं हो सकता ॥87॥ उस मनुष्य ने मुझसे भी पूछा कि तुम कौन हो? तब मैंने कहा कि मैं चारुदत्त नाम का वणिक् हूँ और जो तुम्हारा शत्रु था उसी संन्यासी ने मुझे यहाँ गिराया है । 88 ॥
यह प्रियवादी है इसलिए बगले के समान मायाचारी दुष्ट मनुष्य का विश्वास कर उसके पीछे-पीछे चलने वाला मूढ़ मनुष्य यदि नीचे-नीचे गिरता है तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? ॥89 ॥ अंत में मैंने तुमड़ी में रस भरकर तथा रस्सी में बाँधकर उसे चलाया । जिस रस्सी में रस की तूमड़ी बंधी थी उस रस्सी को तो उस संन्यासी ने खींच लिया और जिसके सहारे मुझे ऊपर चढ़ना था उसे काट दिया । इस प्रकार अपने मनोरथ को सिद्ध कर वह दुष्ट वहाँ से चला गया॥90॥ जब मैं किनारे पर जा पड़ा तब उस सज्जन पुरुष ने दया युक्त हो मेरे लिए निकलने का मार्ग बतलाया ॥11॥
उसने कहा कि हे सत्पुरुष ! रस पीने के लिए यहाँ एक गोह आवेगी सो तुम सरककर यदि शीघ्र ही उसकी पूंछ पकड़ लोगे तो निश्चय ही बाहर निकल जाओगे ॥92॥ वह उस पुरुष का अंतिम समय था इसलिए इस प्रकार निकलने का मार्ग बतलाने वाले उस पुरुष के लिए मैंने सम्यग्दर्शन पूर्वक विस्तार के साथ धर्म का उपदेश दिया और पंच नमस्कार मंत्र भी सुनाया ॥93॥ दूसरे दिन रस पीकर जब गोह जाने लगी तब मैंने दोनों हाथों से शीघ्र ही उसकी पूंछ पकड़ ली और वह मुझे बाहर खींच लायी ॥94॥ किनारों की रगड़ से मेरा शरीर छिन्न-भिन्न हो गया था इसलिए उस गोह ने जब मुझे बाहर छोड़ा तब मैं अत्यंत मूर्च्छित हो गया । सचेत होने पर मैंने विचार किया कि मेरा पुनर्जन्म ही हुआ है ॥ 95 ॥
धीरे-धीरे उठकर मैं आगे चला तो वन के बीच में यमराज के समान भयंकर भैंसा ने मेरा पीछा किया । अवसर देख मैं एक गुहा में घुस गया ॥ 96॥ उस गुफा में एक अजगर सो रहा था । मेरा पैर पड़ने पर वह जाग उठा और सामने दौड़ते हुए उस भयंकर भैंसे को उसने अपने मुख से पकड़ लिया ॥97 । भैंसा और अजगर दोनों ही अत्यंत उद्धत थे इसलिए जब तक उन दोनों में युद्ध हुआ तब तक मैं उसकी पीठ पर चढ़कर बड़ी शीघ्रता से बाहर निकल आया ॥98॥ उस महावन से निकलकर मैं समीपवर्ती एक गांव में पहुंचा तो काकतालीय न्याय से (अचानक) मैंने वहाँ अपने काका रुद्रदत्त को देखा ॥99 ॥ मैं कई दिन का भूखा-प्यासा था इसलिए रुद्रदत्त ने मेरी भूख-प्यास की बाधा दूर कर मुझ से कहा कि चारुदत्त ! खेद मत करो मेरे वचन सुनो ॥100॥ हम दोनों सुवर्णद्वीप चलकर तथा बहुत भारी धन कमाकर चंपापुरी वापस आवेंगे जिससे अपने कुल की रक्षा होगी ॥101॥
तदनंतर रुद्रदत्त के साथ एक सलाह हो जाने पर दोनों वहाँ से चले और ऐरावती नदी को उतरकर तथा गिरिकूट नामक पर्वत और वेत्रवन को उल्लंघकर टंकणदेश में जा पहुंचे । वहाँ मार्ग अत्यंत विषम था इसलिए चलने में चतुर दो बकरा खरीदकर तथा उन पर सवार हो धीरे-धीरे आगे गये ॥102-103॥ तदनंतर समभूमि को उल्लंघकर रुद्रदत्त ने बड़े आदर के साथ मुझसे कहा कि चारुदत्त ! अब आगे मार्ग नहीं है इसलिए इन बकरों को मारकर तथा इनकी भस्त्रा (भाथड़ी) बनाकर उनमें हम दोनों बैठ जावें । तीक्ष्ण चोंचों वाले भारुंड पक्षी मांस के लोभ से हम दोनों उठाकर सुवर्णद्वीप में डाल देंगे ॥104-105 ॥ रुद्रदत्त बड़ी दुष्ट प्रकृति का था इसलिए मेरे रोकने पर भी उसने अपना बकरा मार डाला और विनय से च्युत हो मेरे बकरा का भी अंत कर दिया ॥106 ॥ मेरा बकरा जब तक मारा नहीं गया तब तक मैंने पहले उसके मारने का पूर्ण प्रतिकार किया रुद्रदत्त को मारने से रो का परंतु जब मारा हो जाने लगा तब मैंने उसे पंचनमस्कार मंत्र ग्रहण करा दिया ॥ 107॥
रुद्रदत्त ने मृत बकरों की भाथड़ियां बनायीं और एक के भीतर छुरी देकर मुझे बैठा दिया तथा दूसरी में वह स्वयं हाथ में छुरी लेकर बैठ गया ॥108 ॥ तदनंतर भारुंड पक्षी पैनी चोंचों से दबाकर दोनों भस्त्राओं को आकाश में ले गये । मेरी भाथड़ी एक काना भारुंड पक्षी ले गया था इसलिए उसने दूसरी जगह ले जाकर पृथिवी पर गिरा दी ॥109 ॥ मैं वेग से उस भाथड़ी को चीरकर जब बाहर निकला तो मैंने रत्नों की किरणों से देदीप्यमान स्वर्ग के समान एक विस्तृत द्वीप देखा ॥110॥ उस द्वीप को सुंदर दिशाओं को देखते हुए मैंने पर्वत के अग्रभाग पर एक जिनमंदिर देखा जो हवा से उड़ती हुई पताकाओं से ऐसा जान पड़ता था मानो नृत्य ही कर रहा हो ॥111॥ उसी जिनमंदिर के समीप मैंने आतापन योग से स्थित एक चारण ऋद्धिधारी मुनिराज को देखा । उन मुनिराज को देखकर मुझे ऐसा उत्तम सुख प्राप्त हुआ जैसा कि पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ था ॥112॥
तदनंतर पर्वत पर चढ़कर मैंने जिनमंदिर की तीन प्रदक्षिणाएँ दी और श्री जिनेंद्र भगवान् की कृत्रिम प्रतिमाओं की वंदना की ॥113॥ प्रतिमाओं की वंदना के बाद मैंने ध्यान में लीन मुनिराज को भी मुनिभक्ति के कारण वंदना की । जब मुनिराज का नियम समाप्त हुआ तब वे मेरे लिए आशीर्वाद देकर वहीं बैठ गये और मुझ से कहने लगे कि चारुदत्त ! कुशल तो हो ? यहाँ स्वप्न की तरह तुम्हारा आगमन कैसे हुआ ? तुम एक साधारण पुरुष की तरह हो तथा कोई तुम्हारा सहायक भी नहीं दिखाई देता ॥114-115॥ हे नाथ ! आपके प्रसाद से कुशल है यह कहकर मैंने उन्हें नमस्कार किया । तदनंतर आश्चर्य से चकित होते हुए मैंने उन उत्तम मुनिराज से पूछा कि हे नाथ ! आपको मेरी पहचान कैसे हुई? हे माननीयों के माननीय ! मैं तो आपके इस पवित्र दर्शन को अपूर्व ही मानता हूँ ॥116-117꠰। इस प्रकार पूछने पर मुनिराज ने कहा कि मैं वही अमितगति नाम का विद्याधर हूँ जिसे चंपापुरी में उस समय शत्रु ने कील दिया था और तुमने जिसे छुड़ाया था ॥118॥ उस घटना ने मेरे हृदय में सम्यग्दर्शन का भाव भर दिया था । कुछ समय बाद हमारे पिता ने विशाल राज्य पर मुझे बैठाकर हिरण्यकुंभ नामक गुरु के पास दीक्षा ले ली ॥119॥ मेरी विजयसेना और मनोरमा नाम की दो स्त्रियां थीं उनमें पहली विजयसेना के गांधर्वसेना नाम की पुत्री हुई और दूसरी मनोरमा के सिंहयश नाम का बड़ा और वाराहग्रीव नाम का छोटा इस प्रकार दो पुत्र हुए । ये दोनों ही पुत्र विनय आदि गुणों की खान थे ॥120-121॥ एक दिन मैंने क्रम से बड़े पुत्र को राज्य पर और छोटे पुत्र को युवराज पद पर आरूढ़ कर अपने पितारूप गुरु के समीप ही दीक्षा धारण कर ली ॥ 122 ॥
हे चारुदत्त ! यह समुद्र से घिरा हुआ कुंभकंटक नाम का द्वीप है और यह कर्कोटक नाम का पर्वत है यहाँ तुम कैसे आये ? ॥123॥ मुनिराज के ऐसा कहने पर मैंने आदि से लेकर अंत तक सुख-दुःख से मिली हुई अपनी समस्त कथा जिस-किसी तरह उनके लिए कह सुनायी ॥124 ॥ उसी समय मुनिराज के दोनों उत्तम विद्याधर पुत्रों ने आकाश से नीचे उतरकर उन वंदनीय मुनिराज को वंदना की― उन्हें नमस्कार किया ॥125 ॥ मुनिराज ने दोनों पुत्रों को संबोधते हुए कहा कि हे कुमारों ! जिसका पहले मैंने कथन किया था यह वही, तुम्हारा भाई चारुदत्त है । मुनिराज के ऐसा कहने पर दोनों विद्याधर मेरा आलिंगन कर प्रिय वचन कहते हुए समीप हो बैठ गये ॥126 ॥ उसी समय दो देव विमान के अग्रभाग से उतरकर पहले मुझे और बाद में मुनिराज को नमस्कार कर मेरे आगे बैठ गये ॥127॥ विद्याधरों ने उस समय इस अक्रम का कारण पूछा कि हे देवो ! तुम दोनों ने मुनिराज को छोड़कर श्रावक को पहले नमस्कार क्यों किया ? ॥128॥ देवों ने इसका कारण कहा कि इस चारुदत्त ने हम दोनों को जिनधर्म का उपदेश दिया है इसलिए यह हमारा साक्षात् गुरु है यह समझिए ॥129 ॥ यह कैसे ? इस प्रकार कहने पर जो पहले बकरा का जीव था वह देव बोला कि हे विद्याधरो ! सुनिए, मैं अपनी कथा स्पष्ट कहता हूँ ॥130॥
किसी समय बनारस में पुराणों के अर्थ, वेद तथा व्याकरण के रहस्य को जानने वाला एक सोमशर्मा नाम का ब्राह्मण रहता था उसकी ब्राह्मणी का नाम सोमिला था ॥131 ॥ उन दोनों के भद्रा और सुलसा नाम की दो यौवनवती पुत्रियां थीं । जो वेद, व्याकरण आदि शास्त्रों की परम पारगामिनी थीं ॥132॥ उन दोनों पुत्रियों ने कुमारी अवस्था में ही वैराग्य वश परिव्राजक की दीक्षा ले ली और दोनों शास्त्रार्थ में अनेक वादियों को जीतकर पृथिवी में परम प्रसिद्धि को प्राप्त हुई ॥133 ॥ किसी समय पृथिवी पर घूमता हुआ याज्ञवल्क्य नाम का परिव्राजक उन्हें जीतने की इच्छा से बनारस आया ॥134॥ शास्त्रार्थ के समय अहंकार से भरी सुलसा ने सभा के बीच यह प्रतिज्ञा की कि जो मुझे शास्त्रार्थ में जीतेगा मैं उसी की सेविका (स्त्री) बन जाऊंगी ॥135꠰꠰ शास्त्रार्थ शुरू होने पर सुलसा ने न्याय विद्या के जानकार विद्वानों के आगे पूर्व पक्ष रखा परंतु याज्ञवल्क्य ने उसे दूषित कर अपना पक्ष स्थापित कर दिया ॥136॥ सुलसा शास्त्रार्थ में हार गयी इसलिए उसने याज्ञवल्क्य को वर लिया-अपना पति बना लिया । याज्ञवल्क्य विषयरूपी मांस का बड़ा लोभी था तथा सुलसा को भी कामेच्छा जागत हो उठी इसलिए दोनों मनमानी क्रीड़ा करने लगे ॥137॥
सुलसा और याज्ञवल्क्य ने एक उत्तम पुत्र को जन्म दिया परंतु वे इतने निर्दयी निकले कि उस सद्योजात पुत्र को पीपल के वृक्ष के नीचे रखकर कहीं चले गये ॥138॥ वह पुत्र पीपल के नीचे चित्त पड़ा था तथा मुख में पड़े हुए पीपल के फल को खा रहा था । सुलसा की बड़ी बहन भद्रा उसे इस दशा में देख उठा लायी और उसका पिप्पलाद नाम रखकर उसका पोषण करने लगी ॥139॥ समय पाकर पिप्पलाद समस्त शाखों का पारगामी हो गया । एक दिन उसने भद्रा से पूछा कि माता ! मेरे पिता का क्या नाम है ? वे जीवित हैं या नहीं ? ॥140॥ भद्रा ने कहा कि बेटा ! याज्ञवल्क्य तेरा पिता है । उसने मेरी छोटी बहन सुलसा को शास्त्रार्थ में जीत लिया था वही तेरी माता है ॥141॥ हे बेटा ! जब तू पैदा ही हुआ था तथा कोई तेरा रक्षक नहीं था तब तुझे एक वृक्ष के नीचे छोड़कर वे दोनों दयाहीन पापी चले गये थे और आज तक जीवित हैं ॥142 ॥ मैंने दूसरी स्त्री के स्तन पिला पिलाकर तुझे बड़े क्लेश से बड़ा किया है । हे पुत्र ! तूने पहले ऐसा ही कम किया होगा यह ठीक है परंतु कहना पड़ेगा कि तेरे माता-पिता बड़े कामी निकले ॥143॥ उस समय कानों में दाह उत्पन्न करने वाले भद्रा के पूर्वोक्त वचन सुनकर विद्वान् पिप्पलाद को बड़ा क्रोध आया और उसकी बात सुनकर उसके कान खड़े हो गये ॥144 ॥
पता चलाकर वह अपने पिता याज्ञवल्क्य के पास गया और रोष पूर्वक उसे शास्त्रार्थ में जीतकर झूठ-मूठ की विनय दिखाता हुआ माता पिता की सेवा करने लगा ॥145॥ पिप्पलाद माता-पिता के प्रति क्रोध से भरा था इसलिए उसने मातृ-पितृ सेवा नाम का एक यज्ञ स्वयं चलाया और उसे कराकर दोनों को मृत्यु के अधीन कर दिया ॥ 146 ॥ मैं उसी पिप्पलाद का वाग्वलि नाम का शिष्य था । उससे शास्त्र पढ़कर मैं जड़-विवेकहीन हो गया था और उसी के मत का समर्थन कर घोर वेदनाओं से भरे नरक में उत्पन्न हुआ ॥147॥ नरक से निकलकर मैं छह बार बकरा का बच्चा हुआ और छहों बार यज्ञ विद्या के जानने वाले लोगों ने मुझे पर्वत द्वारा दिखाये हुए यज्ञ में होम दिया ॥148॥ सातवीं बार भी मैं प्राणिघात से उत्पन्न हुए अपने पापों से प्रेरित हो टंकणक देश में बकरा ही हुआ ॥149 ॥ उस समय दयालु चारुदत्त ने मुझे पापरहित जैनधर्म दिखलाया तथा मरणकाल में पंच नमस्कार मंत्र दिया ॥150॥ जिनधर्म के प्रभाव से मैं सौधर्म स्वर्ग में उत्तम देव हुआ हूं । इस प्रकार चारुदत्त मेरा साक्षात् गुरु है और इसीलिए मैंने उसे पहले नमस्कार किया है ॥ 151॥ यह कहकर जब वह देव चुप हो गया तब दूसरा देव बोला कि सुनिए चारुदत्त जिस तरह मेरा धर्मोपदेशक है, वह मैं कहता हूँ ॥152॥
मैं पहले वणिक् था । एक परिव्राजक ने मुझे रसकूप में गिरा दिया । पीछे चलकर उसी परिव्राजक ने चारुदत्त को भी उसी रसकूप में गिरा दिया । मेरी दशा मरणासन्न थी इसलिए चारुदत्त ने यहाँ दया युक्त होकर मुझे समीचीन धर्म का उपदेश दिया ॥153॥ चारुदत्त के द्वारा बताये हुए उस समीचीन धर्म को ग्रहणकर मैं मरा और मरकर सौधर्म स्वर्ग में उत्तम देव हुआ । इस तरह चारुदत्त मेरा साक्षात् गुरु है और इसीलिए मैंने उसे पहले नमस्कार किया है ॥154॥ जो पापरूपी कुएँ में डूबे हुए मनुष्यों के लिए धर्मरूपी हाथ का सहारा देता है तथा संसार-सागर से पार करने वाला है उस मनुष्य के समान संसार में मनुष्यों के बीच दूसरा कौन है ? ॥155 ॥ एक अक्षर, आधे पद अथवा एक पद को भी देने वाले गुरु को जो भूल जाता है वह भी जब पापी है तब धर्मोपदेश के दाता को भूल जाने वाले मनुष्य का तो कहना ही क्या है ? ॥156॥ जिसका पहले उपकार किया गया है ऐसे उप कार्य मनुष्य की कृतकृत्यता प्रत्युपकार से ही होती है अन्य प्रकार से नहीं, ऐसा विद्वान् लोग जानते हैं ॥157॥ प्रत्युपकार की शक्ति का अभाव होने पर जो अहंकार रहित होता हुआ अपने उपकारों के प्रति अपना शुभ अभिप्राय नहीं दिखलाता है वह कुलीन कैसे हो सकता है ? भावार्थ― प्रथमपक्ष तो यही है कि अपना उपकार करने वाले मनुष्य का अवसर आने पर प्रत्युपकार किया जावे । यदि कदाचित् प्रत्युपकार करने की सामर्थ्य न हो तो उपकारकर्ता के प्रति नम्रता का भाव अवश्य ही दिखलाना उचित है ॥158॥
इस प्रकार कहकर उन दोनों देवों ने उस समय मुनिराज तथा विद्याधरों के समीप देव-देवियों तथा विमान आदि के द्वारा अपनी बड़ी भारी ऋद्धि दिखलाकर अग्नि में शुद्ध किये हुए वस्त्र, आभूषण, माला, विलेपन आदि से मेरा बहुत सत्कार किया तथा उत्तमोत्तम आभूषणों से विभूषित कर मुझसे कहा कि हे स्वामिन् ! जो भी कार्य करने योग्य हो उसके लिए आप आज्ञा दीजिए । क्या आज शीघ्र ही आपको बहुत भारी धन-संपदा के साथ चंपापुरी भेज दिया जाये ? ॥159-161 ॥ इसके उत्तर में मैंने कहा कि इस समय आप अपने-अपने स्थान पर जाइए । जब मैं आपका स्मरण करूँ तब पुनः आइए ॥162 ॥ देवों ने जो आज्ञा यह कहकर मुझे तथा मुनिराज को हाथ जोड़कर नमस्कार किया एवं मुझ से तथा मुनिराज से पूछकर वे अपने स्वर्ग चले गये ॥163 ॥ देवों के चले जाने पर मैंने भी मुनिराज को नमस्कार किया और विद्याधरों के साथ विमान पर बैठकर उनके शिवमंदिर नगर में प्रवेश किया ॥164॥ शिवमंदिर नगर स्वर्ग के समान जान पड़ता था । मैं उसमें सुख से रहने लगा । अनेक विद्याधर मेरी सेवा करते थे । वहाँ रहते हुए मुझे ऐसा जान पड़ता था मानो दूसरे ही जन्म को प्राप्त हुआ हूँ । वहाँ प्रत्येक मनुष्य से मेरा यश सुनाई पड़ता था ॥165॥
एक दिन वे दोनों कुमार अपनी माता के साथ मेरे पास आये तथा मेरे लिए कुमारी गांधर्वसेना को दिखाकर मेरे साथ इस प्रकार सलाह करने लगे ॥166 ꠰। उन्होंने कहा कि हे चारुदत्त ! सुनो, एक समय लक्ष्मी से सुशोभित राजा अमितगति ने अवधिज्ञानी मुनिराज से पूछा था कि आपके दिव्यज्ञान में हमारी पुत्री गांधर्वसेना का स्वामी कौन दिखाई देता है ? ॥167 ॥ मुनिराज ने कहा था कि चारुदत्त के घर गांधर्व विद्या का पंडित यदुवंशी राजा आवेगा वही इस कन्या को गंधर्व विद्या में जीतेगा तथा वही इसका पति होगा ॥168॥ मुनिराज के वचन सुनकर राजा ने उस समय इस कार्य का निश्चय कर लिया था । यद्यपि राजा अमितगति इस समय दीक्षा लेकर मुनि हो गये हैं तथापि उस समय उन्होंने इसका पूर्ण भार आपके ही ऊपर रखने का निश्चय किया था इसलिए हम लोगों को आप ही प्रमाणभूत हैं ॥169 ꠰। इसके उत्तर में भाग्यवश प्राप्त हुए इस भाई के कार्य को मैंने स्वीकृत कर लिया । तदनंतर धाय आदि परिवार के साथ यह कन्या मेरे लिए सौंप दी गयी ॥170॥ नाना रत्न तथा सुवर्णादि संपदा से युक्त कन्या के दोनों भाई विद्याधरों की सेना साथ लेकर चंपानगरी के प्रति आने के लिए तैयार हो गये ॥171॥ उसी समय मित्र का कार्य करने के लिए उद्यत दोनों मित्र देवों का मैंने स्मरण किया और स्मरण के बाद ही वे दोनों देव निधियाँ हाथ में लिये हुए मेरे पास आ पहुंचे ॥172॥ वे देव गांधर्वसेना के साथ मुझे सुंदर हंस विमान में बैठाकर आश्चर्य उत्पन्न करने वाली संपदा सहित चंपानगरी ले आये । यहाँ आकर अक्षय निधियों के द्वारा उन्होंने मेरी सब व्यवस्था की । तदनंतर नमस्कार कर देव स्वर्ग चले गये और दोनों विद्याधर अपने स्थान पर गये ॥173-174 ॥ मैं मामा, माता, पत्नी तथा अन्य से बड़े आदर से मिला, सबको बड़ा संतोष हुआ और मैं भी बहुत सुखी हुआ ॥175॥ वसंतसेना वेश्या, अपनी माँ के घर से आकर सास की सेवा करती रही है तथा अणुव्रतों से विभूषित हो गयी है यह सुनकर मैंने बड़ी प्रसन्नता से उसे स्वीकृत कर लिया-अपना बना लिया ॥176॥ मैंने दीन तथा अनाथ मनुष्यों को संतुष्ट करने वाला क्रिमिच्छक दान दिया और समस्त कुटुंबी जनों के लिए भी उनकी इच्छानुसार वस्तुएँ दी ॥ 177 ॥ इस प्रकार हे यादव ! विद्याधर कुमारी का मेरे साथ जो संबंध है तथा इस विभव की जो मुझे प्राप्ति हुई है वह सब मैंने आप से कहा है ॥178॥
हे यदुनंदन ! जिनके लिए यह कन्या रखी गयी थी इस भाग्यशालिनी कन्या ने उन्हीं तुम को प्राप्त किया है इसलिए कहना पड़ता है कि आपने मुझे कृतकृत्य किया है ॥ 179 ॥ तपस्वियों ने बताया है कि मेरा मोक्ष निकट है और तप धारण करने से इस भव के बाद तुझे स्वर्ग प्राप्त होगा इसलिए अब मैं निश्चिंत होकर तप के लिए ही यत्न करूँगा ॥180॥ इस प्रकार वसुदेव, गांधर्व सेना का आदि से लेकर अंत तक संबंध तथा चारुदत्त का उत्साह सुनकर बहुत संतुष्ट हुए और चारुदत्त की इस तरह स्तुति करने लगे कि अहो ! आपकी चेष्टा अत्यधिक उदारता से सहित है, अहो ! आपका असाधारण पुण्यबल भी प्रशंसनीय है । बिना भाग्य बल के ऐसा पौरुष होना कठिन है और बिना भाग्य बल के साधारण मनुष्यों की तो बात ही क्या है देव तथा विद्याधर भी ऐसे । वैभव को प्राप्त नहीं हो सकते ॥181-183 ॥
इस प्रकार चारुदत्त का वृत्तांत सुनकर वसुदेव ने उसके लिए गांधर्वसेना आदि की प्राप्ति पर्यंत अपना भी समस्त वृत्तांत कह सुनाया ॥184॥
इस प्रकार आपस में एक दूसरे के स्वरूप को जानने वाले रूप तथा विज्ञान के सागर और त्रिवर्ग के अनुभव से प्रसन्न चारुदत्त आदि सुख से रहने लगे ॥185॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! धर्मात्मा मनुष्य भले ही अत्यंत निर्धन हो गया हो, समुद्र में भी गिर गया हो, कुए में भी उतर गया हो, पर्वत के अलंघ्य तट पर भी विचरण करने लगा हो और दूसरे द्वीप में भी जा पहुंचा हो तो भी पाप नष्ट हो जाने से संपूर्ण लक्ष्मी को प्राप्त होता है इसलिए हे विद्वज्जनो! जिनेंद्रदेव के द्वारा प्रतिपादित धर्मरूपी चिंतामणि रत्न का संचय करो ॥186 ॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में चारुदत्त के चरित्र का वर्णन करने वाला इक्कीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥21॥