प्रज्ञापरीषह: Difference between revisions
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1. <span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि /9/9/427/4 </span><span class="SanskritText">अंगपूर्वप्रकीर्णकविशारदस्य शब्दन्यायाध्यात्मनिुपणस्य मम पुरस्तादितरे भास्करप्रभाभिभूतखद्योतोद्योतवन्नितरां नावभासंत इति विज्ञानमदनिरासः प्रज्ञापरिषहजयः प्रत्येतव्य: । </span>= <span class="HindiText">मैं अंग, पूर्व और प्रकीर्णक शास्त्रों में विशारद हूँ तथा शब्दशास्त्र, न्यायशास्त्र और अध्यात्मशास्त्र में निपुण हूँ । मेरे आगे दूसरे जन सूर्य की प्रभा से अभिभूत हुए खद्योत के उद्योत के समान बिलकुल नहीं सुशोभित होते हैं इस प्रकार विज्ञानमद का निरास होना प्रज्ञापरिषह जय मानना चाहिए । <span class="GRef">( राजवार्तिक/9/9/26/612/11 )</span>, <span class="GRef">( चारित्रसार/127/4 )</span> ।<br /> | |||
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<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/9/17/435/7 </span><span class="SanskritText">प्रज्ञाज्ञानयोरपि विरोधाद्युगपदसंभवः । श्रुतज्ञानापेक्षया प्रज्ञापरिषह: अवधिज्ञानाद्यभावापेक्षयाअज्ञानपरिषह इति नास्ति विरोधः ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न </strong>- प्रज्ञा और अज्ञान परीषह में भी विरोध है, इसलिए इन दोनों का एक साथ होना असंभव है ? <strong>उत्तर -</strong> एक साथ एक आत्मा में श्रुतज्ञान की अपेक्षा प्रज्ञापरीषह और अवधि ज्ञान आदि के अभाव की अपेक्षा अज्ञान परीषह रह सकते हैं, इसलिए कोई विरोध नहीं है । <span class="GRef">( राजवार्तिक/9/17/3/615/28 )</span> ।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="3" id="3"><strong> प्रज्ञा व अदर्शन परीषह में | <li><span class="HindiText" name="3" id="3"><strong> प्रज्ञा व अदर्शन परीषह में अंतर</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/9/9/31/613/2 </span><span class="SanskritText"> यद्येवं श्रद्धानदर्शनमपि ज्ञानाविनाभावीति प्रज्ञापरीषहे तस्यांतर्भावः प्राप्तनोतीतिः; नैष दोषः; प्रज्ञायां सत्यामपि क्वचित्तत्त्वार्थश्रद्धानाभावाद् व्यभिचारोपलब्धेः ।</span> =<strong> <span class="HindiText">प्रश्न -</span></strong><span class="HindiText"> श्रद्धानरूप दर्शन को ज्ञानाविनाभावी मानकर उसका प्रज्ञा परीषह में अंतर्भाव किया जा सकता है ? <strong>उत्तर -</strong> नहीं, क्योंकि कभी-कभी प्रज्ञा के होने पर भी तत्त्वार्थ श्रद्धान का अभाव देखा जाता है, अतः व्यभिचारी है ।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="4" id="4"><strong> प्रज्ञा व अज्ञान दोनों का एक ही कारण क्यों ?</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="4" id="4"><strong> प्रज्ञा व अज्ञान दोनों का एक ही कारण क्यों ?</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/9/13/1-2/614/14 </span><span class="SanskritText">ज्ञानावरणे अज्ञानं न प्रज्ञेति; न; अन्य ज्ञानावरणसद्भावे तद्भावात् ।1। ... प्रज्ञा हि क्षायोपशमिकी अन्यस्मिन् ज्ञानावरणे सति मदं जनयति न सकलावरणक्षय इति प्रज्ञाज्ञाने ज्ञानावरणे सति प्रादुःस्त इत्यभिसंबध्यते ॥ मोहादिति चेत्; न; तद्भेदानां परिगणितत्वात् ।2। ... मोहभेदा हि परिगणिता दर्शनचारित्रव्याघातहेतुभावेन, तत्र नायमंतर्भवति, चारित्रवतोऽपि प्रज्ञापरीषहसदभावात्, ततो ज्ञानावरण एवेति निश्चयः कर्तव्यः । </span>= | |||
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<li> <span class="HindiText">ज्ञानावरण के उदय से प्रज्ञा और अज्ञान परीषह होती हैं । क्षायोपशमिकी की प्रज्ञा अन्य ज्ञानावरण के उदय में मद उत्पन्न करती है, समस्त ज्ञानावरण का क्षय होने पर मद नहीं होता । अतः प्रज्ञा और अज्ञान दोनों ज्ञानावरण से उत्पन्नहोते हैं । </span></li> | <li> <span class="HindiText">ज्ञानावरण के उदय से प्रज्ञा और अज्ञान परीषह होती हैं । क्षायोपशमिकी की प्रज्ञा अन्य ज्ञानावरण के उदय में मद उत्पन्न करती है, समस्त ज्ञानावरण का क्षय होने पर मद नहीं होता । अतः प्रज्ञा और अज्ञान दोनों ज्ञानावरण से उत्पन्नहोते हैं । </span></li> | ||
<li class="HindiText"> मोहनीयकर्म के भेद गिने हुए हैं और उनके कार्य भी दर्शन चारित्र आदि का नाश करना सुनिश्चित है अतः ‘मैं | <li class="HindiText"> मोहनीयकर्म के भेद गिने हुए हैं और उनके कार्य भी दर्शन चारित्र आदि का नाश करना सुनिश्चित है अतः ‘मैं बड़ा विद्वान् हूँ । अतः यह प्रज्ञामदमोह का कार्य न होकर ज्ञानावरण का कार्य है । क्योंकिचारित्रवालों के भी प्रज्ञापरिषह होती है ।</li> | ||
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Latest revision as of 15:15, 27 November 2023
- लक्षण
1. सर्वार्थसिद्धि /9/9/427/4 अंगपूर्वप्रकीर्णकविशारदस्य शब्दन्यायाध्यात्मनिुपणस्य मम पुरस्तादितरे भास्करप्रभाभिभूतखद्योतोद्योतवन्नितरां नावभासंत इति विज्ञानमदनिरासः प्रज्ञापरिषहजयः प्रत्येतव्य: । = मैं अंग, पूर्व और प्रकीर्णक शास्त्रों में विशारद हूँ तथा शब्दशास्त्र, न्यायशास्त्र और अध्यात्मशास्त्र में निपुण हूँ । मेरे आगे दूसरे जन सूर्य की प्रभा से अभिभूत हुए खद्योत के उद्योत के समान बिलकुल नहीं सुशोभित होते हैं इस प्रकार विज्ञानमद का निरास होना प्रज्ञापरिषह जय मानना चाहिए । ( राजवार्तिक/9/9/26/612/11 ), ( चारित्रसार/127/4 ) ।
- प्रज्ञा व अज्ञान परीषह में अंतर
सर्वार्थसिद्धि/9/17/435/7 प्रज्ञाज्ञानयोरपि विरोधाद्युगपदसंभवः । श्रुतज्ञानापेक्षया प्रज्ञापरिषह: अवधिज्ञानाद्यभावापेक्षयाअज्ञानपरिषह इति नास्ति विरोधः । = प्रश्न - प्रज्ञा और अज्ञान परीषह में भी विरोध है, इसलिए इन दोनों का एक साथ होना असंभव है ? उत्तर - एक साथ एक आत्मा में श्रुतज्ञान की अपेक्षा प्रज्ञापरीषह और अवधि ज्ञान आदि के अभाव की अपेक्षा अज्ञान परीषह रह सकते हैं, इसलिए कोई विरोध नहीं है । ( राजवार्तिक/9/17/3/615/28 ) ।
- प्रज्ञा व अदर्शन परीषह में अंतर
राजवार्तिक/9/9/31/613/2 यद्येवं श्रद्धानदर्शनमपि ज्ञानाविनाभावीति प्रज्ञापरीषहे तस्यांतर्भावः प्राप्तनोतीतिः; नैष दोषः; प्रज्ञायां सत्यामपि क्वचित्तत्त्वार्थश्रद्धानाभावाद् व्यभिचारोपलब्धेः । = प्रश्न - श्रद्धानरूप दर्शन को ज्ञानाविनाभावी मानकर उसका प्रज्ञा परीषह में अंतर्भाव किया जा सकता है ? उत्तर - नहीं, क्योंकि कभी-कभी प्रज्ञा के होने पर भी तत्त्वार्थ श्रद्धान का अभाव देखा जाता है, अतः व्यभिचारी है ।
- प्रज्ञा व अज्ञान दोनों का एक ही कारण क्यों ?
राजवार्तिक/9/13/1-2/614/14 ज्ञानावरणे अज्ञानं न प्रज्ञेति; न; अन्य ज्ञानावरणसद्भावे तद्भावात् ।1। ... प्रज्ञा हि क्षायोपशमिकी अन्यस्मिन् ज्ञानावरणे सति मदं जनयति न सकलावरणक्षय इति प्रज्ञाज्ञाने ज्ञानावरणे सति प्रादुःस्त इत्यभिसंबध्यते ॥ मोहादिति चेत्; न; तद्भेदानां परिगणितत्वात् ।2। ... मोहभेदा हि परिगणिता दर्शनचारित्रव्याघातहेतुभावेन, तत्र नायमंतर्भवति, चारित्रवतोऽपि प्रज्ञापरीषहसदभावात्, ततो ज्ञानावरण एवेति निश्चयः कर्तव्यः । =- ज्ञानावरण के उदय से प्रज्ञा और अज्ञान परीषह होती हैं । क्षायोपशमिकी की प्रज्ञा अन्य ज्ञानावरण के उदय में मद उत्पन्न करती है, समस्त ज्ञानावरण का क्षय होने पर मद नहीं होता । अतः प्रज्ञा और अज्ञान दोनों ज्ञानावरण से उत्पन्नहोते हैं ।
- मोहनीयकर्म के भेद गिने हुए हैं और उनके कार्य भी दर्शन चारित्र आदि का नाश करना सुनिश्चित है अतः ‘मैं बड़ा विद्वान् हूँ । अतः यह प्रज्ञामदमोह का कार्य न होकर ज्ञानावरण का कार्य है । क्योंकिचारित्रवालों के भी प्रज्ञापरिषह होती है ।