ओम्: Difference between revisions
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< | <span class="GRef">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 49/207/11</span> <p class="SanskritText">`ओं' एकाक्षरं पंचपरमेष्ठिनामादिपदम्। तत्कथमिति चेत् "अरिहंता असरीरा आयरिया तह उवज्झया मुणिणा। पढमक्खरणिप्पणो ॐकारो पंच परमेट्ठी ।9।" इति गाथाकथितप्रथमाक्षराणां `समानः सवर्णे दीर्घीभवति' `परश्च लोपम्' `उवर्णे ओ' इति स्वरसंधिविधानेन ओं शब्दो निष्पद्यते।</p> | ||
<p>= `ओं' यह एक अक्षर पाँचों | <p class="HindiText">= `ओं' यह एक अक्षर पाँचों परमेष्ठियों के आदि पदस्वरूप है। प्रश्न-`ओं' यह परमेष्ठियों के आदि पदरूप कैसे है? उत्तर-अरहंत का प्रथम अक्षर `अ', सिद्ध यानि अशरीरी का प्रथम अक्षर `अ', आचार्य का प्रथम अक्षर `आ', उपाध्याय का प्रथम अक्षर `उ', साधु यानि मुनि का प्रथम अक्षर `म्' इस प्रकार इन पाँचों परमेष्ठियों के प्रथम अक्षरों से सिद्ध जो ओंकार है वही पंच परमेष्ठियों के समान है। इस प्रकार गाथा में कहे हुए जो प्रथम अक्षर (अ अ आ उ म्) हैं। इनमें पहले `समानः सवर्णे दीर्घीभवति' इस सूत्र से `अ अ' मिलकर दीर्घ `आ' बनाकर `परश्च लोपम्' इससे अक्षर `आ' का लोप करके अ अ आ इन तीनों के स्थान में एक `आ' सिद्ध किया। फिर `उवर्णे ओ' इस सूत्र से `आ उ' के स्थान में `ओ' बनाया। ऐसे स्वर-संधि करने से `ओम्' यह शब्द सिद्ध होता है।</p> | ||
<p>2. परं | <p class="HindiText"><b>2. परं ब्रह्म के अर्थ में</b></p> | ||
<p>वैदिक | <p class="HindiText">वैदिक साहित्य में अ+उ+ँ इस प्रकार अढाई मात्रा से निष्पन्न यह पद सर्वोपरि व सर्वस्व माना गया है। सृष्टि का कारण शब्द है और शब्दों की जननी मातृकाओं (क. ख. आदि) का मूल होने से यह सर्व सृष्टि का मूल है। अतः परब्रह्म स्वरूप है।</p> | ||
<p>3. | <p class="HindiText"><b>3. भगवद्वाणी के अर्थ में</b></p> | ||
<p>उपरोक्त | <p class="HindiText">उपरोक्त कारण से ही अर्हंत वाणी को जो कि ॐकार ध्वनि मात्र है, सर्व भाषामयी माना गया है। (देखें [[ दिव्यध्वनि ]]) ।</p> | ||
<p> | <p class="HindiText">प्रणव मंत्र-पद्मस्थ ध्यान में इस मंत्र को दो भौंहों के बीच में व अन्यत्र विराजमान करके ध्यान किया जाता है। - देखें बृहत् जैन शब्दार्णव., द्वितीय खंड ।</p> | ||
<p>4. तीन | <p class="HindiText"><b>4. तीन लोक के अर्थ में</b></p> | ||
<p>अ= अधोलोक, उ= ऊर्ध्वलोक और म= मध्यलोक। इस | <p class="HindiText">अ= अधोलोक, उ= ऊर्ध्वलोक और म= मध्यलोक। इस प्रकार की व्याख्या के द्वारा वैदिक साहित्य में इसे तीन लोक का प्रतीक माना गया है।</p> | ||
<p>(Kosh1_P0370_Fig0028)</p> | <p class="HindiText">(Kosh1_P0370_Fig0028)</p> | ||
<p> | <p class="HindiText">जैनाम्नाय के अनुसार भी ॐकार त्रिलोकाकार घटित होता है। आगम में तीन लोक का आकार चित्र जैसा है, अर्थात् तीन वातवलयों से वेष्टित पुरुषाकार, जिसके ललाट पर अर्द्धचंद्राकार में बिंदुरूप सिद्ध लोक शोभित होता है। बीचों बीच हाथी के सूंड़वत् त्रसनाली है। यदि उसी आकार को जल्दी से लिखने में आवे तो ऐसा लिखा जाता है। इसी को कलापूर्ण बना दिया जाये तो `ॐ' ऐसा ओंकार त्रिलोक का प्रतिनिधि स्वयं सिद्ध हो जाता है। यही कारण है कि भेदभाव से रहित भारत के सर्व ही धर्म इसको समान रूप से उपास्य मानते हैं।</p> | ||
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<p>= ( | <p class="HindiText">= (ज्ञानावरण कर्म का द्रव्य) स्यात् `ओम्' है, क्योंकि कदाचित् प्रदेशों का अपचय देखा जाता है।</p> | ||
<p>6. नो ओम् नो विशिष्ट</p> | <p class="HindiText"><b>6. नो ओम् नो विशिष्ट</b></p> | ||
< | <span class="GRef">धवला पुस्तक 10/4,2,4,3/23/7</span> <p class=" PrakritText ">सिया णोमणोविसिट्ठापादेक्कं पदावयवे णिरुद्धे हाणीणमभावादो।</p> | ||
<p>= ( | <p class="HindiText">= (ज्ञानावरण का द्रव्य) स्यात् नो ओम् नोविशिष्ट है; क्योंकि, प्रत्येक पद भेद की विवक्षा होने पर वृद्धि-हानि नहीं देखी जाती है।</p> | ||
<p>7. ओंकार मुद्रा</p> | <p class="HindiText"><b>7. ओंकार मुद्रा</b></p> | ||
<p>अनामिका, कनिष्ठा और | <p class="HindiText">अनामिका, कनिष्ठा और अंगूठे से नाक पकड़ना। (क्रियामंत्र पृष्ठ 87 नोट) - देखें बृहत् जैन शब्दार्णव., द्वितीय खंड ।</p> | ||
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Latest revision as of 13:35, 7 February 2023
1. पंच परमेष्ठी के अर्थ में
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 49/207/11
`ओं' एकाक्षरं पंचपरमेष्ठिनामादिपदम्। तत्कथमिति चेत् "अरिहंता असरीरा आयरिया तह उवज्झया मुणिणा। पढमक्खरणिप्पणो ॐकारो पंच परमेट्ठी ।9।" इति गाथाकथितप्रथमाक्षराणां `समानः सवर्णे दीर्घीभवति' `परश्च लोपम्' `उवर्णे ओ' इति स्वरसंधिविधानेन ओं शब्दो निष्पद्यते।
= `ओं' यह एक अक्षर पाँचों परमेष्ठियों के आदि पदस्वरूप है। प्रश्न-`ओं' यह परमेष्ठियों के आदि पदरूप कैसे है? उत्तर-अरहंत का प्रथम अक्षर `अ', सिद्ध यानि अशरीरी का प्रथम अक्षर `अ', आचार्य का प्रथम अक्षर `आ', उपाध्याय का प्रथम अक्षर `उ', साधु यानि मुनि का प्रथम अक्षर `म्' इस प्रकार इन पाँचों परमेष्ठियों के प्रथम अक्षरों से सिद्ध जो ओंकार है वही पंच परमेष्ठियों के समान है। इस प्रकार गाथा में कहे हुए जो प्रथम अक्षर (अ अ आ उ म्) हैं। इनमें पहले `समानः सवर्णे दीर्घीभवति' इस सूत्र से `अ अ' मिलकर दीर्घ `आ' बनाकर `परश्च लोपम्' इससे अक्षर `आ' का लोप करके अ अ आ इन तीनों के स्थान में एक `आ' सिद्ध किया। फिर `उवर्णे ओ' इस सूत्र से `आ उ' के स्थान में `ओ' बनाया। ऐसे स्वर-संधि करने से `ओम्' यह शब्द सिद्ध होता है।
2. परं ब्रह्म के अर्थ में
वैदिक साहित्य में अ+उ+ँ इस प्रकार अढाई मात्रा से निष्पन्न यह पद सर्वोपरि व सर्वस्व माना गया है। सृष्टि का कारण शब्द है और शब्दों की जननी मातृकाओं (क. ख. आदि) का मूल होने से यह सर्व सृष्टि का मूल है। अतः परब्रह्म स्वरूप है।
3. भगवद्वाणी के अर्थ में
उपरोक्त कारण से ही अर्हंत वाणी को जो कि ॐकार ध्वनि मात्र है, सर्व भाषामयी माना गया है। (देखें दिव्यध्वनि ) ।
प्रणव मंत्र-पद्मस्थ ध्यान में इस मंत्र को दो भौंहों के बीच में व अन्यत्र विराजमान करके ध्यान किया जाता है। - देखें बृहत् जैन शब्दार्णव., द्वितीय खंड ।
4. तीन लोक के अर्थ में
अ= अधोलोक, उ= ऊर्ध्वलोक और म= मध्यलोक। इस प्रकार की व्याख्या के द्वारा वैदिक साहित्य में इसे तीन लोक का प्रतीक माना गया है।
(Kosh1_P0370_Fig0028)
जैनाम्नाय के अनुसार भी ॐकार त्रिलोकाकार घटित होता है। आगम में तीन लोक का आकार चित्र जैसा है, अर्थात् तीन वातवलयों से वेष्टित पुरुषाकार, जिसके ललाट पर अर्द्धचंद्राकार में बिंदुरूप सिद्ध लोक शोभित होता है। बीचों बीच हाथी के सूंड़वत् त्रसनाली है। यदि उसी आकार को जल्दी से लिखने में आवे तो ऐसा लिखा जाता है। इसी को कलापूर्ण बना दिया जाये तो `ॐ' ऐसा ओंकार त्रिलोक का प्रतिनिधि स्वयं सिद्ध हो जाता है। यही कारण है कि भेदभाव से रहित भारत के सर्व ही धर्म इसको समान रूप से उपास्य मानते हैं।
5. प्रदेशापचय के अर्थ में
धवला पुस्तक 10/4,2,4,3/23/6
सिया ओमा, कयाइं पदेसाणमवचयदंसणादो।
= (ज्ञानावरण कर्म का द्रव्य) स्यात् `ओम्' है, क्योंकि कदाचित् प्रदेशों का अपचय देखा जाता है।
6. नो ओम् नो विशिष्ट
धवला पुस्तक 10/4,2,4,3/23/7
सिया णोमणोविसिट्ठापादेक्कं पदावयवे णिरुद्धे हाणीणमभावादो।
= (ज्ञानावरण का द्रव्य) स्यात् नो ओम् नोविशिष्ट है; क्योंकि, प्रत्येक पद भेद की विवक्षा होने पर वृद्धि-हानि नहीं देखी जाती है।
7. ओंकार मुद्रा
अनामिका, कनिष्ठा और अंगूठे से नाक पकड़ना। (क्रियामंत्र पृष्ठ 87 नोट) - देखें बृहत् जैन शब्दार्णव., द्वितीय खंड ।