रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 39: Difference between revisions
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<div class="PravachanText"><p | <div class="PravachanText"><p><strong>अमरासुरनरपतिभिर्यमधरपतिभिश्च नूतपादांभोजाः ।</strong></p> | ||
<p | <p><strong>दृष्ट्या सुनिश्चितार्था वृषचक्रधरा भवंति लोकशरण्या: ।।39।।</strong></p> | ||
<p | <p><strong> सम्यक्त्व की महिमा के संबंध में गत वर्णन का संक्षिप्त स्मरण―</strong>सम्यग्दर्शन की महिमा का प्रसंग चल रहा है । अब तक बताया गया कि जो सम्यग्दर्शन से शुद्ध जीव हैं वे नरक तिर्यंच, नपुंसक, स्त्री पर्याय, खोटे कुल वाले, विकृत अंग वाले, अल्प आयु वाले और दरिद्र नहीं होते । कुछ अपवाद हैं―जिसने पहले नरकायु का बंध कर लिया हो और पीछे सम्यक्त्व प्राप्त हो और क्षायिक सम्यक्त्व हो जाय तो वह पहले नरक जायगा, नीचे नहीं, ऐसे ही जिसने पहले तिर्यंच आयु का बंध कर लिया हो और बाद में सम्यक्त्व हो, क्षायिक सम्यक्त्व हो तो वह भोग भूमि तिर्यंच होगा । ऐसे ही किसी ने मनुष्यायु का पहले बंध कर लिया हो, पीछे सम्यक्त्व हो जाय, क्षायिक सम्यक्त्व हो जाय तो वह भोगभूमिया मनुष्य होगा । इन तीन अपवादों के सिवाय बाकी ये सब व्यवस्थित हैं । फिर बताया गया कि जो सम्यग्दर्शन से पवित्र हैं वे मनुष्यों में भी ऊंचे मनुष्य हैं । जिनका ओज, तेज, विद्या, शक्ति, यश, वैभव, कुल ऊंचा हुआ करता है, जो पुरुषार्थी होते हैं, बताया गया कि जो सम्यग्दृष्टि हैं, जिनेंद्रभक्त हैं, वे स्वर्गों में अच्छे देव होते है इसके बाद कहा गया कि सम्यग्दृष्टि पुरुष, जीव देव स्वर्ग से चलकर चक्रवर्ती होते हैं ।</p> | ||
<p | <p> <strong>सम्यग्दृष्टियों के तीर्थंकर होने के वर्णन में गर्भ व जन्मकल्याणक का निर्देशन</strong>―आज बतला रहे हैं कि सम्यग्दर्शन से शुद्ध जीव तीर्थंकर हुआ करते हैं । तीर्थंकर शब्द का अर्थ है जो तीर्थ को करे । धर्मतीर्थ में प्रवृत्ति करें उसका नाम तीर्थकर है । 148 कर्मों की प्रकृतियों में तीर्थंकर नाम की एक प्रकृति है । जिसका उदय तीर्थंकर के भव में 13वें गुणस्थान के प्रारंभ में हो जाता है मगर वे तीर्थंकर उस भव में जन्म से ही कहलाने लगते हैं, क्योंकि उनका पुण्य वैभव इतना विशाल है कि गर्भ जन्म तप कल्याणक तीर्थंकर होने से पहले भी होने लगते है । वास्तव में तीर्थंकर 13वें गुणस्थान में कहलायेंगे, क्योंकि तीर्थंकर प्रकृति का उदय 13वें गुणस्थान में ही होता है । किंतु जब पहले से इंद्र को पता पड़ गया और पुण्य वैभव भी अनूठा है तो जैसे जिसे राजा होना होता है उसका लाड़ प्यार उसकी कुमार अवस्था से ही चलने लगता है ऐसे ही जिसको तीर्थंकर होना है उसके गर्भ में आने से 6 माह पूर्व से ही रत्नों की वर्षा होने लगती है । 56 कुमारियां, देवियां, 6 प्रकार की महादेवियां वहाँ आकर माता के मन को बहलाती हैं और 15 महीने तक रत्नवर्षा होती रहती है । जब प्रभु का जन्म होता है तब जन्मकल्याणक मनाया जाता है । जन्म कल्याणक का लोक में बड़ा प्रभाव समझा जाता हैं । आजकल भी जहाँ पंचकल्याणक होता है वहाँ जन्म कल्याणक में जितनी भीड़ और उमंग जनता में मिलती है, उतनी अन्य कल्याणकों में नहीं मिलती । तो लोगों को जैसे अपना बालक होना यह प्रिय है तो ऐसी ही भावना के कारण तीर्थंकरों के जन्म के समय की उमंग बहुत अधिक होती है । अब प्रभु का जन्म होता है तो अपने आप ही इंद्र का आसन कंपायमान होता है । स्वर्ग में भवनवासियों के भवन में, व्यंतरों में, ज्योतिषियों में कहीं घंटा, कहीं भेरी, कहीं शंख के शब्द होने लगते हैं । कर्मप्रकृति के उदय का निमित्त नैमित्तिक योग भी अथाह है, उसे कोई यों प्रकट नहीं बता सकता । कितनी ही बातें है । जैसे एक रेडियो ही बोलता है तो दिल्ली, लंदन या कहीं की भी बात आप सुन लीजिए । भले ही रेडियो के निर्माणकर्ता लोग जानते है कि कहाँ कैसे तार लगाना, क्या करना, पर उसका स्पष्ट परिचय उन तक को भी नहीं हो पाता । कहा शब्द होते हैं कैसे वे कैच करते हैं, किस ढंग से आते है पर सामान्यतया जानते हैं । तो भला प्रभु का जब जन्म हुआ उस समय में पुण्यविपाक का निमित्त पाकर ये घंटा घड़ियाल आदिक स्वयं बजने लगते है । यहाँ भी जिनका पुण्योदय होता है उनके पास वैभव संपदा कहां किस तरह आने को है वे कुछ नहीं जानते । अपनी कल्पनायें करते हैं पर सर्व योग अपने आप जुड़ते हैं ।</p> | ||
<p | <p><strong> पराधीन संयोगों का विकल्प न कर स्वाधीन एकत्वनिश्चयगत अंतस्तत्त्व की उपासना का कर्तव्य</strong>―यहां संसार में जितने भी जीवों को सुख दु:ख लगे हुए हैं वे सब कर्मोदयानुसार चलते हैं । कर्तव्य तो अपना यह है कि कर्मोदय से होने वाली बातों को असार जानकर, कर्मोदयजन्य विकार को असार जानकर इन सबसे उपेक्षा करना चाहिए और अपने स्वभाव को सारभूत जानकर यह ही दृढ़ दृष्टि रखना चाहिए और मोक्षमार्ग का ऐसा ऊंचा काम है । निशंक, धोखारहित काम की जो आत्मस्वभाव की रुचि करके, सहज परमात्मस्वरूप की भक्ति करके जो अपने मोक्ष मार्ग की साधना में लगा है, उसका जब तक संसार शेष है तब तक अच्छे कुल में जन्म होगा । यहाँ भी उसे आपत्ति नहीं सहनी पड़ती, तो मोक्षमार्ग तो चल ही रहा है । मुक्ति के मार्ग में वह बढ़ रहा है, इसलिए जीवन में एक ही निर्णय बनाइये कि मुझे अपने आत्मा में बसे हुए सहज परमात्मस्वरूप की उपासना करना मुख्य काम है । एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय, एक यह न रहे साथ में और बाकी आप सब क्रियायें करते रहे, वे धर्म के नाम पर भी करते रहे, ऊंचे तपश्चरण भी करते रहे, पर एक मूल यह आत्मस्वभाव न जान पाया तो समझिये कि संसार की ही वर्तना करने वाले है । संसार संकट मिटा सकने वाले नहीं है । इसलिए एक ही निर्णय हो । प्रधान कार्य एक मात्र यह ही है कि मैं अपने आत्मस्वभाव को नजर में रखूं दृष्टि में लूं । चैतन्यस्वभावमात्र, जिसकी दृष्टि में आने पर बाह्यविकल्प मिट जाने के कारण अलौकिक सहज आनंद जगता है । कर्मों का क्षय आनंद के कारण हुआ करता है कष्ट से नहीं होता । पर वह आनंद होना चाहिए आत्मीय सहज आनंद । तो कर्मों की निर्जरा, कर्मों का क्षय आनंद से होता है क्लेश से नहीं होता क्लेश संक्लेश में तो ध्यान बिगड़ा हुआ होता है, पर जहाँ सहज आनंद का अनुभव चल रहा हो वहाँ ऐसा ही निमित्त नैमित्तिक योग है कि कर्म अपने आप अपनी परिणति से झड़ने लगते हैं । जैसे यहाँ लोक में स्पष्ट निमित्त नैमित्तिक योग दिखाई दे रहा है―अग्नि जलाया, तवा रखा, उस पर रोटी चढ़ाया तो रोटी सिक जायगी । कोई शंका नहीं करता, ऐसा ही योग है, जानते है, और ऐसा ही पौरुष करते हैं । तो यहाँ भी ऐसा ही योग है कि जब हम अपने आपको सम्हालेंगे, अपना उपयोग सहज-सहज चैतन्यस्वभाव दृष्टि में रखेंगे, अनुभवेंगे कि यह हूँ, मैं तो वहाँ जो एक सहज आनंद जगता है उसके निमित्त से ये कर्म अपने आप झड़ने लगते हैं । तो अपने को करने योग्य काम केवल एक ही है । न कर्म पर दृष्टि देना है कि कर्म मेरे बैरी हैं, न बाहरी क्रियाकाष्ठों में दृष्टि देना है, कि मैं ऐसा ही शरीर चलाऊं, ऐसे ही वचन बोलूं तो मेरे कर्म कटेंगे । होगा उसके सहज, मन, वचन, काय कहाँ जायेंगे? जब लगे हुए है साथ? यदि शुद्ध दृष्टि बनेगी तो उसके अनुरूप मन, वचन, काय चलेंगे पर मैं मन, वचन, काय को ऐसे चलाऊ और कर्म काटुं इन भावों से कर्म न कटेंगे ।</p> | ||
<p | <p> <strong>कल्याण के मूल साधनभूत अंतस्तत्त्व दृष्टि की सुगमता व स्वाधीनता का दिग्दर्शन―</strong>भैया, हम आपको कितनी सुगमता है कि केवल एक ही कार्य करना है इसे । जो अपना सहजस्वरूप है उसको अनुभवना है कि मैं यह हूँ दूसरा ख्याल ही न लाइये, और कोई झगड़े की जरूरत ही नहीं है । मैं आत्मा हूँ, मैं अमर हूँ, सदा रहूंगा, जैसा मुझ में भाव जगे वैसा ही मेरा भविष्य बनेगा । मैं खुद अपना ही अपना जिम्मेदार हूँ । ऐसा भाव करके एक इस एकत्व निश्चयगत आत्मा को निरखिये मैं क्या हूँ । बस इसका सही उत्तर आ जायगा, कल्याण हो जायगा । जो भी तीर्थंकर हुए हैं उन्होंने क्या किया था पूर्व भव में? बस यह ही आत्मस्वभाव की साधना की थी । जितने भी जीव अब तक मोक्ष गए हैं उन्होंने क्या किया था? इस सहज आत्मस्वरूप की उपासना की थी । अब आप देख लीजिए कि धर्मपालन बिना किसी का ठीक-ठीक गुजारा न चलेगा । संसार में नाना कुयोनियों में जन्ममरण होंगे और वह धर्म पालन कितना सुगम है और कितना अपनी दृष्टि के वश है कि जब ही दृष्टि निर्मल हुई, दृष्टि में अपना आत्मस्वरूप हुआ, यह ही मैं हूँ इस प्रकार का अनुभव जगा तो सारे काम जैसे होने हैं वे सब आटोमैटिक ढंग से होने लगेंगे । जैसे किसी बड़े मिल में एक बटन ही नीचे किया कि सारे काम अपने आप चल रहे हैं । भले ही उनकी व्यवस्था में बड़ा प्रयत्न पहले करना होता है मगर जब व्यवस्थित ढंग रहता है तब वहाँ सिर्फ एक बटन दबाया कि सारे काम होने लगे, तो ऐसे ही पहले तो तत्त्व का श्रद्धान करने के लिए तत्त्व का परिचय करना, वस्तु का स्वरूप समझना ये सब बातें करनी होती है, पर जब व्यवस्थित ढंग बन जाता है तब केवल एक बटन ही नीचे करना होता है अर्थात् अपनी दृष्टि में इस सहज आत्मस्वरूप को ही अनुभवना होता है । कर्म कैसे कटते? कट जाते हैं विकार कैसे हटते? हट जाते हैं । संस्कार कैसे टलते? टल जाते हैं । आपका केवल एक ही काम है, मगर यह काम उस ही के होता है जिसका कि पवित्र चित्त हो, जिसका कि निर्मल आशय हो ।</p> | ||
<p | <p> <strong>स्वभावदृष्टि पाने के पात्र जीवों का अंतरंग आचरण</strong>―धर्म और धर्मसाधनों के प्रति जिसकी अतिशय उमंग हो वह दृष्टिमात्र में अपने स्वभाव के अभिमुख हो जाता है । तो ऐसी स्वभाव अभिमुखता पाने के लिए अपना आचरण भला होना चाहिए, नहीं तो वह पात्रता न आयगी कि जहाँ आत्मा के सहजस्वरूप का अनुभव बन सकता है । सदाचार में किया, पर वे चार भावनायें हृदयंगम कर लीजिए । (1) सब जीवों में मैत्री भावना रहे, किसी जीव में कषाय न जगे, किसी के प्रति विरोधभाव न आये । कषाय और विरोधभाव तो ये फाल्तू से काम हैं । मैं अपने परमात्मा का क्यों घात करूं? परमात्मा का घात न हो और किसी जीव के प्रति विरोधभाव न रहे, सर्व जीवों में मैत्री भाव रहे । (2), दूसरी भावना यह रहे कि गुणीजनों को देखकर हर्ष हो जाय । देखिये यह द्वितीय भावना जिसके नहीं है उसमें स्वानुभव की पात्रता नहीं आ सकती । कोई भीतर का कलंक कषाय ही तो है, कोई अज्ञान भ्रम ही तो है जिससे गुणी जीवों को देखकर हृदय में प्रेम नहीं उत्पन्न होता, प्रमोद नहीं जगता, हर्ष नहीं होता । आप उसकी तुलना करें । घर के बच्चों को निरखकर या विषय कषायों में लगाने वाले मित्रों को निरखकर जैसे आप हर्ष और उमंग करते हैं, उससे भी कहीं अधिक उमंग गुणी जीवों को देखकर होना चाहिए । यह अपने आप पर दया करने की बात कही जा रही । इससे न कहीं समूह पर एहसान है न गुणों पर एहसान है, न कोई उलाहने की चीज है । यह तो अपने आप में पात्रता कैसे आये और मैं स्वानुभव का अधिकारी कैसे बनूं ऐसी अपने आपकी दया की बात है । जितना तन, मन आदिक जो कुछ अर्पण आप किसी दूसरे के लिए कर सकते है उससे भी अधिक उमंग यदि धर्म और धर्मसाधन के प्रति हो तब समझिये कि हम इस स्वानुभव के अधिकारी है । गुणीजनों में प्रमोद भावना होनी चाहिए । (3) तीसरी भावना है दुःखी जीवों को देखकर दया उमड़ जाना । जो दुःखी जीवों को देखकर भी हर्ष मानता, खुश होता वह तो उसकी कठोरता है ही जो उपेक्षा कर जाता उसके भी कठोरता समझिये । सर्व जीवों को अपने स्वरूप के समान निरखने की कला जिसमें नहीं आयी वह मोक्षमार्ग का पात्र नहीं होता । दुःखी जनों को देखकर दया का भाव आये । (4) चौथी भावना है विपरीत वृत्ति वाले पुरुषों को देखकर माध्यस्थ भावना जगता । न राग न द्वेष, क्योंकि उद्दंडों से राग में भी आपत्ति है द्वेष में भी आपत्ति है, उद्दंड पुरुषों के प्रति प्रीति करे या विरोध करे, दोनों में संकट है अतएव माध्यस्थ भाव हो । जिसने जीवन में ऐसी भावना पुष्ट की है उसको वह पात्रता मिलेगी कि वह तत्त्वज्ञान के बल से इस सहज परमात्म तत्त्व की दृष्टि कर सकता है ।</p> | ||
<p | <p> <strong>तीर्थकर प्रभु के जन्म व तप कल्याणक का दिग्दर्शन</strong>―जिन जीवों ने सहज परमात्मतत्त्व की दृष्टि की उन्होंने दर्शनविशुद्धि भावना के प्रताप से तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया और जिस भव में तीर्थंकर होंगे उस भव में उनके कल्याणक मनाये जाते हैं । हां जन्म कल्याण के समय इंद्र देवतावों के साथ बड़े समारोह ठाठ से उस नगरी में आता है और वहाँ इंद्राणी प्रसूति गृह में जाकर मायामयी बालक सुलाकर उस बालक को ले आती है । इंद्र के हाथ में वह इंद्राणी उस तीर्थंकर बालक को देती है । उस समय जो उनके चरणों में चिह्न दिखाई देता है उस चिह्न की प्रसिद्धि करते हैं, ध्वजायें बनाते हैं और मेरु पर्वत पर ले जाते हैं । कवि कहता है कि चूंकि तीर्थंकर बालक का प्रथम दर्शन इंद्राणी को होता है और उस समय उसके निरखने की उमंग से उसके बड़े ऊंचे भाव होते हैं । कितने ही तीर्थंकर बालक के दर्शन किया है इंद्राणियों ने वे इंद्राणी भी पुरुष भव पाकर मनुष्य होकर मोक्ष चली जाती हैं । एक इंद्र का जितना समय है स्वर्ग में उतने समय में करोड़ों नहीं, अरब नहीं, नील महानील की संख्या से इंद्राणियां मुक्त हो जाया करती है, जन्म कल्याणक मनाया, क्षीर समुद्र के उस प्राकृतिक प्रासुक जल से अभिषेक किया भक्तिगान करके उसी महल में माता पिता को सौंपा और अपने-अपने स्थान चले गए । देखिये बताया है कि जन्मकल्याणक के समय स्वर्ग खाली हो जाता है । रहते थोड़े देव मगर बहुत देव यहीं आ जाते हैं इसलिए सब देवों का आना कहा जाता है? उनका मूल शरीर नहीं आता, वैक्रियक शरीर यहाँ आता है मूल शरीर तो वहीं रहता है । जन्म कल्याणक के बाद प्रभु गृहस्थी में रहे, किन्हीं का कैसा ही जीवन गया, आखिर एक समय ऐसा आता है कि उनके विरक्ति होती है और राजपाट सब त्यागकर वे वन जाने की तैयारी में हो जाते हैं । लौकांतिक देव जो कभी भी मध्यलोक में नहीं आया करते, प्रभु के गर्भ, तप, ज्ञान, निर्वाण कल्याणक में भी नहीं आ पाते, क्योंकि वे लौकांतिक देव द्वादशांग के पाठी हैं ब्रह्मर्षि हैं । ब्रह्मचारी हैं, वे सदा तत्त्वचिंतन में लगे रहते हैं उनको उसी में संतोष है, पर जिस समय तीर्थंकर को वैराग्य होता है, वैराग्यप्रिय होने से वहाँ सब आते है । तीर्थंकर के वैराग्य का समर्थन करके चले जाते हैं, वहाँ तप कल्याणक मनाया जाता है ।</p> | ||
<p | <p> <strong>मनुष्यभव की श्रेष्ठता का एक चित्रण</strong>―जिस समय इंद्र पाल की सजाकर तीर्थंकर महाराज को उसमें बैठाकर ले जायेंगे उस प्रसंग में एक कवि की भावना के अनुसार एक झगड़ा विशेष हो जाता है वह झगड़ा क्या है? मनुष्य और देव का । मनुष्य कहते हैं कि तीर्थकर प्रभु को पालकी में बैठालकर हम ले जायेंगे, देव कहते है कि तुम्हारी क्या ताकत है? हमने तो गर्भ कल्याणक मनाया, जन्म कल्याणक मनाया, मनाते चले आये, तप आदिक भी मनाते हैं, तुम में क्या शक्ति है, इसका अधिकार तो हम को है । उस समय मनुष्य भी हठ कर गए बोले आप इसे नहीं छू सकते । पालकी ले जाने का ऐसा विवाद होने पर एक दो प्रमुख पंच बनाये गए । दोनों ने अपने-अपने बयान दिये । बहुत कुछ सुनने के बाद पंचों का न्याय होता है कि इस पालकी को वह ले जायगा जो भगवान की तरह दीक्षा ले सके । यह बात सुनकर वे देव बड़े अप्रसन्न हुए, अपना माथा धुनने लगे, और अपनी झोली फैलाकर मनुष्यों से भिक्षा मांगने लगे कि हे मनुष्य, तुम मेरा सारा देवत्व ले लो सारे वैभव ले लो और अपना मनुष्यत्व मुझे दे दो । भला बताओ यह मनुष्यत्व क्या भीख मांगने से मिलता है? नहीं, बड़ा दुर्लभ है यह मनुष्य भव का पाना । इस मनुष्यभव को पाने के लिए बड़े-बड़े देव देवेंद्र तरसते हैं । ऐसे दुर्लभ मानवजीवन को पाकर यदि विषय कषायों में इस मनुष्यपने को खो दिया तो यह कोई विवेक नहीं है । यह तो महा मूढ़ता है । उसका कर्तव्य इस प्रकार का है कि जैसे किसी को बर्तन मलने के लिए राख चाहिये थी तो उस राख को पाने के लिए चंदन की लकड़ी जलावे । अरे चंदन तो एक मूल्यवान लकड़ी है, उसे राख के प्रयोजन के जलाना एक मूर्खता भरी बात है, ऐसे ही मनुष्यभव जो कि इतना दुर्लभ भव है किं जिसे पाने के लिए बड़े-बड़े देव देवेंद्र तरसे उसे पाकर विषय कषायों में गंवाना एक मूर्खता भरी बात है । तो अपने मन में एक ऐसी दृढ़ता लाइये कि मेरा यह मानवजीवन विषय कषायों के लिए नहीं है, किंतु धर्मधारण के लिए है । धर्मात्मावों की प्रीति के लिए धर्मसाधना के अनुराग के लिए मेरा जीवन होगा, और मूल में आत्मस्वभाव की दृष्टि करना ही लक्ष्य होगा ।</p> | ||
<p | <p> <strong>तीर्थंकरों के चरित्रपरिचय से अपने लिए शिक्षण</strong>―तीर्थंकर प्रभु का तप कल्याणक भी ठाठ से मनता है । वे तपश्चरण मौन पूर्वक करते । उनको केवल ज्ञान उत्पन्न होता है । केवलज्ञान के समय भी कल्याणक, समवशरण की रचना, उनके दिव्योपदेश के कल्याणक कुछ काल बाद और योगनिरोध बाद अयोग केवली होकर निर्वाण को प्राप्त होते हैं । वहाँ निर्वाण कल्याणक मनाया जाता है । तो ऐसे ये तीर्थकर जिनके कल्याणक मनाये जाये, देव, राजा आदिक 100 इंद्रों के द्वारा जो पूज्य हो, ऐसे तीर्थकर होते हैं सम्यग्दर्शन के प्रभाव से । सम्यग्दृष्टि जीव तो विशुद्ध भावना में आते हैं । उनके तीर्थंकर प्रकृति का बंध होता है । तो यह सम्यक्त्व की महिमा का प्रकरण है । सम्यग्दर्शन के प्रभाव से इस आत्मा में कैसे-कैसे अतिशय प्रकट होते है, वैसे आनंद में बढ़ते हैं यह सब प्रसंग जानकर चित्त में एक ही निर्णय करें कि इस जीवन में मुझे सम्यक्स का लाभ करना है और बातें इस मुझ आत्मा के लिए इस प्रकार हैं जैसे कि अनंत भवों में ये बेकार बातें होती चली आयी है । सो भाई जिस धर्म के प्रताप से तीर्थकर आदिक मुक्त होते हैं वह धर्म हमारे लिए शरण है । वह धर्म मेरे में मेरे अंत: विराजमान है, उसकी रुचि हो जाय तो कल्याण का मार्ग अवश्य ही मिलेगा ।</p> | ||
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Latest revision as of 16:35, 2 July 2021
अमरासुरनरपतिभिर्यमधरपतिभिश्च नूतपादांभोजाः ।
दृष्ट्या सुनिश्चितार्था वृषचक्रधरा भवंति लोकशरण्या: ।।39।।
सम्यक्त्व की महिमा के संबंध में गत वर्णन का संक्षिप्त स्मरण―सम्यग्दर्शन की महिमा का प्रसंग चल रहा है । अब तक बताया गया कि जो सम्यग्दर्शन से शुद्ध जीव हैं वे नरक तिर्यंच, नपुंसक, स्त्री पर्याय, खोटे कुल वाले, विकृत अंग वाले, अल्प आयु वाले और दरिद्र नहीं होते । कुछ अपवाद हैं―जिसने पहले नरकायु का बंध कर लिया हो और पीछे सम्यक्त्व प्राप्त हो और क्षायिक सम्यक्त्व हो जाय तो वह पहले नरक जायगा, नीचे नहीं, ऐसे ही जिसने पहले तिर्यंच आयु का बंध कर लिया हो और बाद में सम्यक्त्व हो, क्षायिक सम्यक्त्व हो तो वह भोग भूमि तिर्यंच होगा । ऐसे ही किसी ने मनुष्यायु का पहले बंध कर लिया हो, पीछे सम्यक्त्व हो जाय, क्षायिक सम्यक्त्व हो जाय तो वह भोगभूमिया मनुष्य होगा । इन तीन अपवादों के सिवाय बाकी ये सब व्यवस्थित हैं । फिर बताया गया कि जो सम्यग्दर्शन से पवित्र हैं वे मनुष्यों में भी ऊंचे मनुष्य हैं । जिनका ओज, तेज, विद्या, शक्ति, यश, वैभव, कुल ऊंचा हुआ करता है, जो पुरुषार्थी होते हैं, बताया गया कि जो सम्यग्दृष्टि हैं, जिनेंद्रभक्त हैं, वे स्वर्गों में अच्छे देव होते है इसके बाद कहा गया कि सम्यग्दृष्टि पुरुष, जीव देव स्वर्ग से चलकर चक्रवर्ती होते हैं ।
सम्यग्दृष्टियों के तीर्थंकर होने के वर्णन में गर्भ व जन्मकल्याणक का निर्देशन―आज बतला रहे हैं कि सम्यग्दर्शन से शुद्ध जीव तीर्थंकर हुआ करते हैं । तीर्थंकर शब्द का अर्थ है जो तीर्थ को करे । धर्मतीर्थ में प्रवृत्ति करें उसका नाम तीर्थकर है । 148 कर्मों की प्रकृतियों में तीर्थंकर नाम की एक प्रकृति है । जिसका उदय तीर्थंकर के भव में 13वें गुणस्थान के प्रारंभ में हो जाता है मगर वे तीर्थंकर उस भव में जन्म से ही कहलाने लगते हैं, क्योंकि उनका पुण्य वैभव इतना विशाल है कि गर्भ जन्म तप कल्याणक तीर्थंकर होने से पहले भी होने लगते है । वास्तव में तीर्थंकर 13वें गुणस्थान में कहलायेंगे, क्योंकि तीर्थंकर प्रकृति का उदय 13वें गुणस्थान में ही होता है । किंतु जब पहले से इंद्र को पता पड़ गया और पुण्य वैभव भी अनूठा है तो जैसे जिसे राजा होना होता है उसका लाड़ प्यार उसकी कुमार अवस्था से ही चलने लगता है ऐसे ही जिसको तीर्थंकर होना है उसके गर्भ में आने से 6 माह पूर्व से ही रत्नों की वर्षा होने लगती है । 56 कुमारियां, देवियां, 6 प्रकार की महादेवियां वहाँ आकर माता के मन को बहलाती हैं और 15 महीने तक रत्नवर्षा होती रहती है । जब प्रभु का जन्म होता है तब जन्मकल्याणक मनाया जाता है । जन्म कल्याणक का लोक में बड़ा प्रभाव समझा जाता हैं । आजकल भी जहाँ पंचकल्याणक होता है वहाँ जन्म कल्याणक में जितनी भीड़ और उमंग जनता में मिलती है, उतनी अन्य कल्याणकों में नहीं मिलती । तो लोगों को जैसे अपना बालक होना यह प्रिय है तो ऐसी ही भावना के कारण तीर्थंकरों के जन्म के समय की उमंग बहुत अधिक होती है । अब प्रभु का जन्म होता है तो अपने आप ही इंद्र का आसन कंपायमान होता है । स्वर्ग में भवनवासियों के भवन में, व्यंतरों में, ज्योतिषियों में कहीं घंटा, कहीं भेरी, कहीं शंख के शब्द होने लगते हैं । कर्मप्रकृति के उदय का निमित्त नैमित्तिक योग भी अथाह है, उसे कोई यों प्रकट नहीं बता सकता । कितनी ही बातें है । जैसे एक रेडियो ही बोलता है तो दिल्ली, लंदन या कहीं की भी बात आप सुन लीजिए । भले ही रेडियो के निर्माणकर्ता लोग जानते है कि कहाँ कैसे तार लगाना, क्या करना, पर उसका स्पष्ट परिचय उन तक को भी नहीं हो पाता । कहा शब्द होते हैं कैसे वे कैच करते हैं, किस ढंग से आते है पर सामान्यतया जानते हैं । तो भला प्रभु का जब जन्म हुआ उस समय में पुण्यविपाक का निमित्त पाकर ये घंटा घड़ियाल आदिक स्वयं बजने लगते है । यहाँ भी जिनका पुण्योदय होता है उनके पास वैभव संपदा कहां किस तरह आने को है वे कुछ नहीं जानते । अपनी कल्पनायें करते हैं पर सर्व योग अपने आप जुड़ते हैं ।
पराधीन संयोगों का विकल्प न कर स्वाधीन एकत्वनिश्चयगत अंतस्तत्त्व की उपासना का कर्तव्य―यहां संसार में जितने भी जीवों को सुख दु:ख लगे हुए हैं वे सब कर्मोदयानुसार चलते हैं । कर्तव्य तो अपना यह है कि कर्मोदय से होने वाली बातों को असार जानकर, कर्मोदयजन्य विकार को असार जानकर इन सबसे उपेक्षा करना चाहिए और अपने स्वभाव को सारभूत जानकर यह ही दृढ़ दृष्टि रखना चाहिए और मोक्षमार्ग का ऐसा ऊंचा काम है । निशंक, धोखारहित काम की जो आत्मस्वभाव की रुचि करके, सहज परमात्मस्वरूप की भक्ति करके जो अपने मोक्ष मार्ग की साधना में लगा है, उसका जब तक संसार शेष है तब तक अच्छे कुल में जन्म होगा । यहाँ भी उसे आपत्ति नहीं सहनी पड़ती, तो मोक्षमार्ग तो चल ही रहा है । मुक्ति के मार्ग में वह बढ़ रहा है, इसलिए जीवन में एक ही निर्णय बनाइये कि मुझे अपने आत्मा में बसे हुए सहज परमात्मस्वरूप की उपासना करना मुख्य काम है । एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय, एक यह न रहे साथ में और बाकी आप सब क्रियायें करते रहे, वे धर्म के नाम पर भी करते रहे, ऊंचे तपश्चरण भी करते रहे, पर एक मूल यह आत्मस्वभाव न जान पाया तो समझिये कि संसार की ही वर्तना करने वाले है । संसार संकट मिटा सकने वाले नहीं है । इसलिए एक ही निर्णय हो । प्रधान कार्य एक मात्र यह ही है कि मैं अपने आत्मस्वभाव को नजर में रखूं दृष्टि में लूं । चैतन्यस्वभावमात्र, जिसकी दृष्टि में आने पर बाह्यविकल्प मिट जाने के कारण अलौकिक सहज आनंद जगता है । कर्मों का क्षय आनंद के कारण हुआ करता है कष्ट से नहीं होता । पर वह आनंद होना चाहिए आत्मीय सहज आनंद । तो कर्मों की निर्जरा, कर्मों का क्षय आनंद से होता है क्लेश से नहीं होता क्लेश संक्लेश में तो ध्यान बिगड़ा हुआ होता है, पर जहाँ सहज आनंद का अनुभव चल रहा हो वहाँ ऐसा ही निमित्त नैमित्तिक योग है कि कर्म अपने आप अपनी परिणति से झड़ने लगते हैं । जैसे यहाँ लोक में स्पष्ट निमित्त नैमित्तिक योग दिखाई दे रहा है―अग्नि जलाया, तवा रखा, उस पर रोटी चढ़ाया तो रोटी सिक जायगी । कोई शंका नहीं करता, ऐसा ही योग है, जानते है, और ऐसा ही पौरुष करते हैं । तो यहाँ भी ऐसा ही योग है कि जब हम अपने आपको सम्हालेंगे, अपना उपयोग सहज-सहज चैतन्यस्वभाव दृष्टि में रखेंगे, अनुभवेंगे कि यह हूँ, मैं तो वहाँ जो एक सहज आनंद जगता है उसके निमित्त से ये कर्म अपने आप झड़ने लगते हैं । तो अपने को करने योग्य काम केवल एक ही है । न कर्म पर दृष्टि देना है कि कर्म मेरे बैरी हैं, न बाहरी क्रियाकाष्ठों में दृष्टि देना है, कि मैं ऐसा ही शरीर चलाऊं, ऐसे ही वचन बोलूं तो मेरे कर्म कटेंगे । होगा उसके सहज, मन, वचन, काय कहाँ जायेंगे? जब लगे हुए है साथ? यदि शुद्ध दृष्टि बनेगी तो उसके अनुरूप मन, वचन, काय चलेंगे पर मैं मन, वचन, काय को ऐसे चलाऊ और कर्म काटुं इन भावों से कर्म न कटेंगे ।
कल्याण के मूल साधनभूत अंतस्तत्त्व दृष्टि की सुगमता व स्वाधीनता का दिग्दर्शन―भैया, हम आपको कितनी सुगमता है कि केवल एक ही कार्य करना है इसे । जो अपना सहजस्वरूप है उसको अनुभवना है कि मैं यह हूँ दूसरा ख्याल ही न लाइये, और कोई झगड़े की जरूरत ही नहीं है । मैं आत्मा हूँ, मैं अमर हूँ, सदा रहूंगा, जैसा मुझ में भाव जगे वैसा ही मेरा भविष्य बनेगा । मैं खुद अपना ही अपना जिम्मेदार हूँ । ऐसा भाव करके एक इस एकत्व निश्चयगत आत्मा को निरखिये मैं क्या हूँ । बस इसका सही उत्तर आ जायगा, कल्याण हो जायगा । जो भी तीर्थंकर हुए हैं उन्होंने क्या किया था पूर्व भव में? बस यह ही आत्मस्वभाव की साधना की थी । जितने भी जीव अब तक मोक्ष गए हैं उन्होंने क्या किया था? इस सहज आत्मस्वरूप की उपासना की थी । अब आप देख लीजिए कि धर्मपालन बिना किसी का ठीक-ठीक गुजारा न चलेगा । संसार में नाना कुयोनियों में जन्ममरण होंगे और वह धर्म पालन कितना सुगम है और कितना अपनी दृष्टि के वश है कि जब ही दृष्टि निर्मल हुई, दृष्टि में अपना आत्मस्वरूप हुआ, यह ही मैं हूँ इस प्रकार का अनुभव जगा तो सारे काम जैसे होने हैं वे सब आटोमैटिक ढंग से होने लगेंगे । जैसे किसी बड़े मिल में एक बटन ही नीचे किया कि सारे काम अपने आप चल रहे हैं । भले ही उनकी व्यवस्था में बड़ा प्रयत्न पहले करना होता है मगर जब व्यवस्थित ढंग रहता है तब वहाँ सिर्फ एक बटन दबाया कि सारे काम होने लगे, तो ऐसे ही पहले तो तत्त्व का श्रद्धान करने के लिए तत्त्व का परिचय करना, वस्तु का स्वरूप समझना ये सब बातें करनी होती है, पर जब व्यवस्थित ढंग बन जाता है तब केवल एक बटन ही नीचे करना होता है अर्थात् अपनी दृष्टि में इस सहज आत्मस्वरूप को ही अनुभवना होता है । कर्म कैसे कटते? कट जाते हैं विकार कैसे हटते? हट जाते हैं । संस्कार कैसे टलते? टल जाते हैं । आपका केवल एक ही काम है, मगर यह काम उस ही के होता है जिसका कि पवित्र चित्त हो, जिसका कि निर्मल आशय हो ।
स्वभावदृष्टि पाने के पात्र जीवों का अंतरंग आचरण―धर्म और धर्मसाधनों के प्रति जिसकी अतिशय उमंग हो वह दृष्टिमात्र में अपने स्वभाव के अभिमुख हो जाता है । तो ऐसी स्वभाव अभिमुखता पाने के लिए अपना आचरण भला होना चाहिए, नहीं तो वह पात्रता न आयगी कि जहाँ आत्मा के सहजस्वरूप का अनुभव बन सकता है । सदाचार में किया, पर वे चार भावनायें हृदयंगम कर लीजिए । (1) सब जीवों में मैत्री भावना रहे, किसी जीव में कषाय न जगे, किसी के प्रति विरोधभाव न आये । कषाय और विरोधभाव तो ये फाल्तू से काम हैं । मैं अपने परमात्मा का क्यों घात करूं? परमात्मा का घात न हो और किसी जीव के प्रति विरोधभाव न रहे, सर्व जीवों में मैत्री भाव रहे । (2), दूसरी भावना यह रहे कि गुणीजनों को देखकर हर्ष हो जाय । देखिये यह द्वितीय भावना जिसके नहीं है उसमें स्वानुभव की पात्रता नहीं आ सकती । कोई भीतर का कलंक कषाय ही तो है, कोई अज्ञान भ्रम ही तो है जिससे गुणी जीवों को देखकर हृदय में प्रेम नहीं उत्पन्न होता, प्रमोद नहीं जगता, हर्ष नहीं होता । आप उसकी तुलना करें । घर के बच्चों को निरखकर या विषय कषायों में लगाने वाले मित्रों को निरखकर जैसे आप हर्ष और उमंग करते हैं, उससे भी कहीं अधिक उमंग गुणी जीवों को देखकर होना चाहिए । यह अपने आप पर दया करने की बात कही जा रही । इससे न कहीं समूह पर एहसान है न गुणों पर एहसान है, न कोई उलाहने की चीज है । यह तो अपने आप में पात्रता कैसे आये और मैं स्वानुभव का अधिकारी कैसे बनूं ऐसी अपने आपकी दया की बात है । जितना तन, मन आदिक जो कुछ अर्पण आप किसी दूसरे के लिए कर सकते है उससे भी अधिक उमंग यदि धर्म और धर्मसाधन के प्रति हो तब समझिये कि हम इस स्वानुभव के अधिकारी है । गुणीजनों में प्रमोद भावना होनी चाहिए । (3) तीसरी भावना है दुःखी जीवों को देखकर दया उमड़ जाना । जो दुःखी जीवों को देखकर भी हर्ष मानता, खुश होता वह तो उसकी कठोरता है ही जो उपेक्षा कर जाता उसके भी कठोरता समझिये । सर्व जीवों को अपने स्वरूप के समान निरखने की कला जिसमें नहीं आयी वह मोक्षमार्ग का पात्र नहीं होता । दुःखी जनों को देखकर दया का भाव आये । (4) चौथी भावना है विपरीत वृत्ति वाले पुरुषों को देखकर माध्यस्थ भावना जगता । न राग न द्वेष, क्योंकि उद्दंडों से राग में भी आपत्ति है द्वेष में भी आपत्ति है, उद्दंड पुरुषों के प्रति प्रीति करे या विरोध करे, दोनों में संकट है अतएव माध्यस्थ भाव हो । जिसने जीवन में ऐसी भावना पुष्ट की है उसको वह पात्रता मिलेगी कि वह तत्त्वज्ञान के बल से इस सहज परमात्म तत्त्व की दृष्टि कर सकता है ।
तीर्थकर प्रभु के जन्म व तप कल्याणक का दिग्दर्शन―जिन जीवों ने सहज परमात्मतत्त्व की दृष्टि की उन्होंने दर्शनविशुद्धि भावना के प्रताप से तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया और जिस भव में तीर्थंकर होंगे उस भव में उनके कल्याणक मनाये जाते हैं । हां जन्म कल्याण के समय इंद्र देवतावों के साथ बड़े समारोह ठाठ से उस नगरी में आता है और वहाँ इंद्राणी प्रसूति गृह में जाकर मायामयी बालक सुलाकर उस बालक को ले आती है । इंद्र के हाथ में वह इंद्राणी उस तीर्थंकर बालक को देती है । उस समय जो उनके चरणों में चिह्न दिखाई देता है उस चिह्न की प्रसिद्धि करते हैं, ध्वजायें बनाते हैं और मेरु पर्वत पर ले जाते हैं । कवि कहता है कि चूंकि तीर्थंकर बालक का प्रथम दर्शन इंद्राणी को होता है और उस समय उसके निरखने की उमंग से उसके बड़े ऊंचे भाव होते हैं । कितने ही तीर्थंकर बालक के दर्शन किया है इंद्राणियों ने वे इंद्राणी भी पुरुष भव पाकर मनुष्य होकर मोक्ष चली जाती हैं । एक इंद्र का जितना समय है स्वर्ग में उतने समय में करोड़ों नहीं, अरब नहीं, नील महानील की संख्या से इंद्राणियां मुक्त हो जाया करती है, जन्म कल्याणक मनाया, क्षीर समुद्र के उस प्राकृतिक प्रासुक जल से अभिषेक किया भक्तिगान करके उसी महल में माता पिता को सौंपा और अपने-अपने स्थान चले गए । देखिये बताया है कि जन्मकल्याणक के समय स्वर्ग खाली हो जाता है । रहते थोड़े देव मगर बहुत देव यहीं आ जाते हैं इसलिए सब देवों का आना कहा जाता है? उनका मूल शरीर नहीं आता, वैक्रियक शरीर यहाँ आता है मूल शरीर तो वहीं रहता है । जन्म कल्याणक के बाद प्रभु गृहस्थी में रहे, किन्हीं का कैसा ही जीवन गया, आखिर एक समय ऐसा आता है कि उनके विरक्ति होती है और राजपाट सब त्यागकर वे वन जाने की तैयारी में हो जाते हैं । लौकांतिक देव जो कभी भी मध्यलोक में नहीं आया करते, प्रभु के गर्भ, तप, ज्ञान, निर्वाण कल्याणक में भी नहीं आ पाते, क्योंकि वे लौकांतिक देव द्वादशांग के पाठी हैं ब्रह्मर्षि हैं । ब्रह्मचारी हैं, वे सदा तत्त्वचिंतन में लगे रहते हैं उनको उसी में संतोष है, पर जिस समय तीर्थंकर को वैराग्य होता है, वैराग्यप्रिय होने से वहाँ सब आते है । तीर्थंकर के वैराग्य का समर्थन करके चले जाते हैं, वहाँ तप कल्याणक मनाया जाता है ।
मनुष्यभव की श्रेष्ठता का एक चित्रण―जिस समय इंद्र पाल की सजाकर तीर्थंकर महाराज को उसमें बैठाकर ले जायेंगे उस प्रसंग में एक कवि की भावना के अनुसार एक झगड़ा विशेष हो जाता है वह झगड़ा क्या है? मनुष्य और देव का । मनुष्य कहते हैं कि तीर्थकर प्रभु को पालकी में बैठालकर हम ले जायेंगे, देव कहते है कि तुम्हारी क्या ताकत है? हमने तो गर्भ कल्याणक मनाया, जन्म कल्याणक मनाया, मनाते चले आये, तप आदिक भी मनाते हैं, तुम में क्या शक्ति है, इसका अधिकार तो हम को है । उस समय मनुष्य भी हठ कर गए बोले आप इसे नहीं छू सकते । पालकी ले जाने का ऐसा विवाद होने पर एक दो प्रमुख पंच बनाये गए । दोनों ने अपने-अपने बयान दिये । बहुत कुछ सुनने के बाद पंचों का न्याय होता है कि इस पालकी को वह ले जायगा जो भगवान की तरह दीक्षा ले सके । यह बात सुनकर वे देव बड़े अप्रसन्न हुए, अपना माथा धुनने लगे, और अपनी झोली फैलाकर मनुष्यों से भिक्षा मांगने लगे कि हे मनुष्य, तुम मेरा सारा देवत्व ले लो सारे वैभव ले लो और अपना मनुष्यत्व मुझे दे दो । भला बताओ यह मनुष्यत्व क्या भीख मांगने से मिलता है? नहीं, बड़ा दुर्लभ है यह मनुष्य भव का पाना । इस मनुष्यभव को पाने के लिए बड़े-बड़े देव देवेंद्र तरसते हैं । ऐसे दुर्लभ मानवजीवन को पाकर यदि विषय कषायों में इस मनुष्यपने को खो दिया तो यह कोई विवेक नहीं है । यह तो महा मूढ़ता है । उसका कर्तव्य इस प्रकार का है कि जैसे किसी को बर्तन मलने के लिए राख चाहिये थी तो उस राख को पाने के लिए चंदन की लकड़ी जलावे । अरे चंदन तो एक मूल्यवान लकड़ी है, उसे राख के प्रयोजन के जलाना एक मूर्खता भरी बात है, ऐसे ही मनुष्यभव जो कि इतना दुर्लभ भव है किं जिसे पाने के लिए बड़े-बड़े देव देवेंद्र तरसे उसे पाकर विषय कषायों में गंवाना एक मूर्खता भरी बात है । तो अपने मन में एक ऐसी दृढ़ता लाइये कि मेरा यह मानवजीवन विषय कषायों के लिए नहीं है, किंतु धर्मधारण के लिए है । धर्मात्मावों की प्रीति के लिए धर्मसाधना के अनुराग के लिए मेरा जीवन होगा, और मूल में आत्मस्वभाव की दृष्टि करना ही लक्ष्य होगा ।
तीर्थंकरों के चरित्रपरिचय से अपने लिए शिक्षण―तीर्थंकर प्रभु का तप कल्याणक भी ठाठ से मनता है । वे तपश्चरण मौन पूर्वक करते । उनको केवल ज्ञान उत्पन्न होता है । केवलज्ञान के समय भी कल्याणक, समवशरण की रचना, उनके दिव्योपदेश के कल्याणक कुछ काल बाद और योगनिरोध बाद अयोग केवली होकर निर्वाण को प्राप्त होते हैं । वहाँ निर्वाण कल्याणक मनाया जाता है । तो ऐसे ये तीर्थकर जिनके कल्याणक मनाये जाये, देव, राजा आदिक 100 इंद्रों के द्वारा जो पूज्य हो, ऐसे तीर्थकर होते हैं सम्यग्दर्शन के प्रभाव से । सम्यग्दृष्टि जीव तो विशुद्ध भावना में आते हैं । उनके तीर्थंकर प्रकृति का बंध होता है । तो यह सम्यक्त्व की महिमा का प्रकरण है । सम्यग्दर्शन के प्रभाव से इस आत्मा में कैसे-कैसे अतिशय प्रकट होते है, वैसे आनंद में बढ़ते हैं यह सब प्रसंग जानकर चित्त में एक ही निर्णय करें कि इस जीवन में मुझे सम्यक्स का लाभ करना है और बातें इस मुझ आत्मा के लिए इस प्रकार हैं जैसे कि अनंत भवों में ये बेकार बातें होती चली आयी है । सो भाई जिस धर्म के प्रताप से तीर्थकर आदिक मुक्त होते हैं वह धर्म हमारे लिए शरण है । वह धर्म मेरे में मेरे अंत: विराजमान है, उसकी रुचि हो जाय तो कल्याण का मार्ग अवश्य ही मिलेगा ।