दृष्टिभेद: Difference between revisions
From जैनकोष
No edit summary |
No edit summary |
||
Line 1: | Line 1: | ||
<p class="HindiText">यद्यपि अनुभवगम्य आध्यात्मिक विषय में आगम में कहीं भी पूर्वापर विरोध या दृष्टिभेद होना सम्भव नहीं है, परन्तु सूक्ष्म दूरस्थ व अन्तरित पदार्थों के सम्बन्ध में कहीं-कहीं आचार्यों का मतभेद पाया जाता है। प्रत्यक्ष ज्ञानियों के अभाव में उनका निर्णय दुरन्त होने के कारण धवलाकार श्री वीरेसन स्वामी का सर्वत्र यही आदेश है कि दोनों दृष्टियों का यथायोग्य रूप में ग्रहण कर लेना योग्य है। | <p class="HindiText">यद्यपि अनुभवगम्य आध्यात्मिक विषय में आगम में कहीं भी पूर्वापर विरोध या दृष्टिभेद होना सम्भव नहीं है, परन्तु सूक्ष्म दूरस्थ व अन्तरित पदार्थों के सम्बन्ध में कहीं-कहीं आचार्यों का मतभेद पाया जाता है। प्रत्यक्ष ज्ञानियों के अभाव में उनका निर्णय दुरन्त होने के कारण धवलाकार श्री वीरेसन स्वामी का सर्वत्र यही आदेश है कि दोनों दृष्टियों का यथायोग्य रूप में ग्रहण कर लेना योग्य है। यहाँ कुछ दृष्टिभेदों का निर्देश मात्र निम्न सारणी द्वारा किया जाता है। उनका विशेष कथन उस उस अधिकार में ही दिया है।<span class="HindiText"></span></p> | ||
<table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0" width="750"> | <table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0" width="750"> | ||
<tr> | <tr> | ||
Line 418: | Line 418: | ||
<td width="54" valign="top"><p class="HindiText">५७</p></td> | <td width="54" valign="top"><p class="HindiText">५७</p></td> | ||
<td width="190" valign="top"><p class="HindiText">महामत्स्य का शरीर </p></td> | <td width="190" valign="top"><p class="HindiText">महामत्स्य का शरीर </p></td> | ||
<td width="208" valign="top"><p class="HindiText">मुख और | <td width="208" valign="top"><p class="HindiText">मुख और पूँछ पर अतिसूक्ष्म है </p></td> | ||
<td width="178" valign="top"><p class="HindiText">घटित नहीं होता </p></td> | <td width="178" valign="top"><p class="HindiText">घटित नहीं होता </p></td> | ||
<td width="120" valign="top"><p class="HindiText">संमूर्छन </p></td> | <td width="120" valign="top"><p class="HindiText">संमूर्छन </p></td> | ||
Line 488: | Line 488: | ||
<td width="54" valign="top"><p class="HindiText">६७</p></td> | <td width="54" valign="top"><p class="HindiText">६७</p></td> | ||
<td width="190" valign="top"><p class="HindiText">देव व उत्तर कुरु में स्थित द्रह व कांचन गिरि </p></td> | <td width="190" valign="top"><p class="HindiText">देव व उत्तर कुरु में स्थित द्रह व कांचन गिरि </p></td> | ||
<td width="208" valign="top"><p class="HindiText">सीता व सीतोदा नदी के दोनों किनारों पर | <td width="208" valign="top"><p class="HindiText">सीता व सीतोदा नदी के दोनों किनारों पर पाँच द्रह हैं, कुल २० द्रह हैं </p></td> | ||
<td width="178" valign="top"><p class="HindiText">सीता व सीतोदा नदी के मध्य | <td width="178" valign="top"><p class="HindiText">सीता व सीतोदा नदी के मध्य पाँच द्रह हैं ऐसे १० द्रह हैं </p></td> | ||
<td width="120" valign="top"><p class="HindiText">लोक/३/१</p></td> | <td width="120" valign="top"><p class="HindiText">लोक/३/१</p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
Line 501: | Line 501: | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="54" valign="top"><p class="HindiText">६९</p></td> | <td width="54" valign="top"><p class="HindiText">६९</p></td> | ||
<td width="190" valign="top"><p class="HindiText">लवण समुद्र में देवों की | <td width="190" valign="top"><p class="HindiText">लवण समुद्र में देवों की नगरियाँ</p></td> | ||
<td width="208" valign="top"><p class="HindiText">आकाश में भी हैं और सागर के दोनों किनारों पर पृथ्वी पर भी </p></td> | <td width="208" valign="top"><p class="HindiText">आकाश में भी हैं और सागर के दोनों किनारों पर पृथ्वी पर भी </p></td> | ||
<td width="178" valign="top"><p class="HindiText">पृथ्वी पर | <td width="178" valign="top"><p class="HindiText">पृथ्वी पर नगरियाँ नहीं है </p></td> | ||
<td width="120" valign="top"><p class="HindiText">लोक/४/१</p></td> | <td width="120" valign="top"><p class="HindiText">लोक/४/१</p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
Line 558: | Line 558: | ||
<td width="54" valign="top"><p class="HindiText">७७</p></td> | <td width="54" valign="top"><p class="HindiText">७७</p></td> | ||
<td width="190" valign="top"><p class="HindiText">लवण समुद्र का विस्तार </p></td> | <td width="190" valign="top"><p class="HindiText">लवण समुद्र का विस्तार </p></td> | ||
<td width="208" valign="top"><p class="HindiText">पृथ्वी से ७०० योजन | <td width="208" valign="top"><p class="HindiText">पृथ्वी से ७०० योजन ऊँचे </p></td> | ||
<td width="178" valign="top"><p class="HindiText">११०० योजन | <td width="178" valign="top"><p class="HindiText">११०० योजन ऊँचे </p></td> | ||
<td width="120" valign="top"><p class="HindiText">लोक/४/१</p></td> | <td width="120" valign="top"><p class="HindiText">लोक/४/१</p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
Line 608: | Line 608: | ||
<td width="190" valign="top"><p class="HindiText">स्पर्शादि गुणों के भंग </p></td> | <td width="190" valign="top"><p class="HindiText">स्पर्शादि गुणों के भंग </p></td> | ||
<td width="208" valign="top"><p class="HindiText">परस्पर संयोग से अनेक भंग बन जाते हैं </p></td> | <td width="208" valign="top"><p class="HindiText">परस्पर संयोग से अनेक भंग बन जाते हैं </p></td> | ||
<td width="178" valign="top"><p class="HindiText">नहीं | <td width="178" valign="top"><p class="HindiText">नहीं बँधते हैं </p></td> | ||
<td width="120" valign="top"><p class="HindiText">ध.पु./१३/२५</p></td> | <td width="120" valign="top"><p class="HindiText">ध.पु./१३/२५</p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
Line 635: | Line 635: | ||
<td width="54" valign="top"><p class="HindiText">८८</p></td> | <td width="54" valign="top"><p class="HindiText">८८</p></td> | ||
<td width="190" valign="top"><p class="HindiText">कषाय पाहुड़ ग्रन्थ </p></td> | <td width="190" valign="top"><p class="HindiText">कषाय पाहुड़ ग्रन्थ </p></td> | ||
<td width="208" valign="top"><p class="HindiText">१८० | <td width="208" valign="top"><p class="HindiText">१८० गाथाएँ नागहस्ती आचार्य ने रची </p></td> | ||
<td width="178" valign="top"><p class="HindiText">कुल ग्रन्थ गुणधर आचार्य ने रचा है </p></td> | <td width="178" valign="top"><p class="HindiText">कुल ग्रन्थ गुणधर आचार्य ने रचा है </p></td> | ||
<td width="120" valign="top"><p class="HindiText">कषाय पाहुड़ </p></td> | <td width="120" valign="top"><p class="HindiText">कषाय पाहुड़ </p></td> |
Revision as of 22:20, 1 March 2015
यद्यपि अनुभवगम्य आध्यात्मिक विषय में आगम में कहीं भी पूर्वापर विरोध या दृष्टिभेद होना सम्भव नहीं है, परन्तु सूक्ष्म दूरस्थ व अन्तरित पदार्थों के सम्बन्ध में कहीं-कहीं आचार्यों का मतभेद पाया जाता है। प्रत्यक्ष ज्ञानियों के अभाव में उनका निर्णय दुरन्त होने के कारण धवलाकार श्री वीरेसन स्वामी का सर्वत्र यही आदेश है कि दोनों दृष्टियों का यथायोग्य रूप में ग्रहण कर लेना योग्य है। यहाँ कुछ दृष्टिभेदों का निर्देश मात्र निम्न सारणी द्वारा किया जाता है। उनका विशेष कथन उस उस अधिकार में ही दिया है।
नं० |
विषय |
दृष्टि नं०१ |
दृष्टि नं०२ |
दे०– |
|
मार्गणाओं की अपेक्षा |
|
|
|
१ |
स्वर्गवासी इन्द्रों की संख्या |
२४ |
२८ |
स्वर्ग/२ |
२ |
ज्योतिषी देवों का अवस्थान |
नक्षत्रादि ३ योजन की दूरी पर |
४ योजन की दूरी पर |
ज्योतिषीदेव/II/२/८ |
३ |
देवों की विक्रिया |
स्व अवधि क्षेत्र प्रमाण |
घटित नहीं होता |
|
४ |
देवों का मरण |
मूल शरीर में प्रवेश करके ही मरते हैं |
नियम नहीं |
मरण/५/५ |
५ |
सासादन सम्यग्दृष्टि देवों का जन्म |
एकेन्द्रियों में होता है |
नहीं होता |
जन्म |
६ |
प्राप्यकारी इन्द्रियों का विषय |
९ योजन तक के पुद्गलों से संबंध करके जान सकती है |
नहीं |
इन्द्रिय |
७ |
बादर तेजस्कायिक जीवों का लोक में अवस्थान |
ढाई द्वीप व अर्धस्वयंभूरमण द्वीप में ही होते हैं। |
सर्वद्वीप समुद्रों में सम्भव हैं |
काय/२ |
८ |
लब्धि अपर्याप्त के ‘परिणाम योग’ |
आयुबन्ध काल में होता है |
घटित नहीं होता |
योग |
९ |
चारों गतियों में कषायों की प्रधानता |
एक-एक कषाय प्रधान है |
नियम नहीं |
कषाय |
१० |
द्रव्य श्रुत के अध्ययन की अपेक्षा भेद |
सूत्र समादि अनेकों भेद हैं |
नहीं है |
निक्षेप/५ |
११ |
द्रव्यश्रुतज्ञान में षट्गुणहानि वृद्धि |
अक्षर श्रुतज्ञान ६ वृद्धियों से बढ़ता है |
नहीं |
श्रुतज्ञान |
१२ |
अक्षर श्रुतज्ञान से आगे के श्रुतज्ञानों में वृद्धि क्रम |
दुगुने-तिगुने आदि क्रम से होती है |
सर्वत्र षट्स्थान वृद्धि होती है |
श्रुतज्ञान |
१३ |
संज्ञी संमूर्च्छनों में अवधिज्ञान |
होता है |
नहीं होता |
अवधिज्ञान |
१४ |
क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अवधिज्ञान का विषय |
एक श्रेणीरूप ही जानता है |
नहीं |
अवधिज्ञान |
१५ |
क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अवधिज्ञान का विषय |
सूक्ष्म निगोदिया की अवगाहना प्रमाण आकाश की अनेक श्रेणियों को जानता है |
नहीं |
अवधिज्ञान |
१६ |
सर्वावधि का क्षेत्र |
परमावधि से असंख्यातगुणित है |
नहीं |
अवधिज्ञान |
१७ |
अवधिज्ञान के कारण चिह्न |
करणचिह्नों का स्थान अवस्थित है |
नहीं है |
अवधिज्ञान |
१८ |
क्षेत्र की अपेक्षा मन:पर्यय ज्ञान का विषय |
एकाकाश श्रेणी में ही जानता है |
नहीं |
मन:पर्यय ज्ञान |
१९ |
क्षेत्र की अपेक्षा मन:पर्यय ज्ञान का विषय |
मनुष्य क्षेत्र के भीतर-भीतर ही जानता है |
नहीं |
मन:पर्ययज्ञान |
२० |
जन्म के पश्चात् तिर्यंचों में संयमासंयम ग्रहण की योग्यता |
मुहूर्त पृथक्त्व अधिक दो मास से पहले संभव नहीं |
तीन पक्ष तीन दिन और अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् भी संभव है |
संयम |
२१ |
जन्म के पश्चात् मनुष्यों में संयम व संयमासंयम ग्रहण की योग्यता |
अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष से पहले संभव नहीं |
आठ वर्ष पश्चात् भी संभव है |
संयम |
२२ |
जन्म के पश्चात् मनुष्यों में संयम व संयमासंयम ग्रहण की योग्यता |
गर्भ से लेकर आठ वर्ष पश्चात् बीत जाने के पश्चात् संभव है |
जन्म से लेकर आठ वर्ष के पश्चात् सम्भव है |
संयम |
२३ |
केवलदर्शन का अस्तित्व |
केवलज्ञान ही है दर्शन नहीं |
दोनों है |
दर्शन |
२४ |
लेश्या |
द्रव्यलेश्या के अनुसार ही भावलेश्या होती है |
नियम नहीं |
लेश्या |
२५ |
ले |
बकुशादि की अपेक्षा संयमियों में भी अशुभ लेश्या सम्भव है |
नहीं |
लेश्या |
२६ |
द्वितीयोपशम की प्राप्ति |
४-७ गुणस्थान तक सम्भव है |
केवल ७वें गुणस्थान में ही संभव है |
सम्यग्दर्शन |
२७ |
सासादन सम्यग्दर्शन की प्राप्ति |
द्वितीयोपशम सम्यक्त्व से गिरकर प्राप्त होना सम्भव है |
नहीं |
सासादन |
२८ |
सासादन पूर्वक मरण करके जन्म संबन्धी |
एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय में उत्पन्न नहीं होता |
हो सकता है |
जन्म |
२९ |
सर्वार्थसिद्धि के देवों की संख्या |
पर्याप्त मनुष्यनी से तिगुनी है |
सात गुणी है |
संख्या/२ |
३० |
उपशामक जीवों की संख्या |
८ समय अधिक वर्ष पृथक्त्व में ३०० होते हैं |
३०४ होते हैं या १९९ होते हैं |
संख्या/२ |
३१ |
तैजसकायिक जीवों की संख्या |
चौथी वार स्थापित शलाका राशि के अर्धभाग से ऊपर होती है |
नहीं |
संख्या/२ |
३२ |
बादर निगोद की एक श्रेणी वर्गणाओं का गुणकार |
जगत श्रेणी के असंख्यातवें भाग |
असंख्यात प्रतरावली |
संख्या/२ |
३३ |
विग्रहगति में जीव का गमन |
उपपादस्थान को अतिक्रमण नहीं करता |
कर जाता है |
क्षेत्र/३/४ |
३४ |
कषायों का जघन्य काल |
एक समय है |
अन्तर्मुहूर्त है |
काल |
३५ |
सिद्धों का अल्पबहुत्व |
सिद्ध काल की अपेक्षा सिद्ध जीव असंख्यात गुणे हैं |
विशेषाधिक है |
अल्पबहुत्व/१/४ |
३६ |
जघन्य व बादर निगोद वर्गणा में अल्पबहुत्व का गुणकार |
जगत श्रेणी के असंख्यातवें भाग |
आवली के असंख्यातवें भाग |
अल्पबहुत्व/१/५ |
३७ |
प्रत्येक शरीर वर्गणा व ध्रुव शून्य वर्गणा में अल्पबहुत्व का गुणकार |
घनावली के असंख्यातवें भाग |
अनन्तलोक |
अल्पबहुत्व/१/५ |
३८ |
आहारक वर्गणा के अल्पबहुत्व का गुणकार। |
परस्पर अनन्तगुणा |
भागाहारों से अनन्तगुणा |
अल्पबहुत्व/१/५ |
३९ |
दर्शनमोह प्रकृतियों का अल्प-बहुत्व |
सम्य०मिथ्यात्व से सम्यक प्र० की अन्तिम फालि असंख्यात गुणी है |
विशेषाधिक है |
अल्पबहुत्व/१/७ |
४० |
प्रकृति बंध |
नरकगति के साथ उदय योग्य प्रकृति का बंध भी नरकगति के साथ ही होता है |
नियम नहीं |
प्रकृति बंध |
४१ |
प्रकृति बंध |
बन्धयोग्य प्रकृति १२० हैं |
१४८ हैं |
प्रकृति बंध |
४२ |
अनिवृत्तिकरण में बंध व्युच्छित्ति |
मान व माया की बन्ध व्युच्छित्ति क्रम से सं०भाग काल व्यतीत होने पर होती है |
नियम नहीं |
प्रकृति बंध |
४३ |
आयु का अपवर्तन |
उत्कृष्ट आयुक अपवर्तन नहीं होता |
होता है |
आयु ५/३ |
४४ |
आठ अपकर्षों में आयु न बंधे तो |
आयु में आवली का असं०भाग शेष रहने पर बंधती है |
समयघाट मुहूर्त शेष रहने पर बंधती है |
आयु/४/३,४ |
४५ |
तीर्थंकर प्रकृति का स्थिति बंध |
३३÷२ प्र० को+२ वर्ष हैं |
घटित नहीं होता |
स्थिति बन्ध |
४६ |
परमाणुओं का परस्पर बंध |
समगुणवर्ती विषम परमाणुओं का बन्ध नहीं होता |
होता है |
स्कन्ध |
४७ |
परमाणुओं का परस्पर बंध |
एक गुण के अन्तर से बंध नहीं होता है |
विषम परमाणुओं में होता है |
स्कन्ध |
४८ |
उदय व्युच्छित्ति |
एके०आदि प्रकृति की उदय व्युच्छित्ति पहले गुणस्थान में हो जाती है |
दूसरे गुणस्थान में होती है |
उदय |
४९ |
उदय योग्य प्रकृति |
१२२ हैं |
१४८ हैं |
उदय/१/७ |
५० |
प्रकृतियों की सत्ता |
सासादन में आहारक चतुष्क का सत्त्व है |
नहीं है |
सत्त्व |
५१ |
प्रकृतियों की सत्ता |
८वें गुण०में ८ प्रकृति का सत्त्व स्थान नहीं है |
है |
सत्त्व |
५२ |
प्रकृतियों की सत्ता |
माया के सत्त्व रहित ४ स्थान ९वें गुण०तक हैं। |
१०वें गुणस्थान तक हैं |
सत्त्व |
|
|
मिश्रगुणस्थान में तीर्थंकर का सत्त्व नहीं |
है |
सत्त्व |
५३ |
प्रकृतियों की सत्ता |
९वें गुणस्थान में पहले ८ कषायों की व्युच्छित्ति होती है पीछे १६ प्रकृति की |
पहले १६ प्रकृति की व्युच्छित्ति होती है पीछे ८ कषायों की |
सत्त्व |
५४ |
१४वें गुणस्थान में नामकर्म की प्रकृति की सत्त्व व्युच्छित्ति |
उपान्त समय में ७२ की चरम समय में १३ की |
उपान्त समय में ७३ चरम समय में १२ |
सत्त्व |
५५ |
उत्कर्षण विधान में उत्कृष्ट निषेक सम्बन्धी |
दो मत है |
― |
उत्कर्षण |
५६ |
अनिवृत्तिकरण में सम्यक्त्व प्रकृति की क्षपणा |
८ वर्षों को छोड़कर शेष सर्व स्थिति सत्त्व का ग्रहण |
संख्यात हजार वर्षों को छोड़कर शेष सर्व स्थिति सत्त्व का ग्रहण |
क्षय/२/७ |
५७ |
महामत्स्य का शरीर |
मुख और पूँछ पर अतिसूक्ष्म है |
घटित नहीं होता |
संमूर्छन |
५८ |
अवगाहना |
दुखमाकाल के आदि में ३ हाथ होती है |
३<img src="JSKHtmlSample_clip_image002_0049.gif" alt="" width="7" height="28" /> हाथ होती है |
काल |
५९ |
मरण |
जिस गुणस्थान में आयु बंधी है उसी में मरण होता है |
नियम नहीं है |
मरण/३ |
६० |
मरण |
मरण समय सभी देव अशुभ तीन लेश्याओं में आ जाते हैं |
केवल कापोत लेश्या में आते हैं |
मरण/३ |
६१ |
मरण |
द्वितीयोपशम से प्राप्त सासादन में मरण नहीं होता है |
होता है |
मरण/३ |
६२ |
मरण |
कृतकृत्य वेदक जीव मरण नहीं करता |
करता है |
मरण/३ |
६३ |
मरण |
जघन्य आयुवाले जीवों का मरण नहीं होता |
होता है |
मरण/३ |
६४ |
मारणान्तिक समु०गत महामत्स्य का जन्म |
निगोद व नरक दो जगह सम्भव है |
घटित नहीं होता |
मरण/५/६ |
६५ |
तिर्यग्लोक का अन्त |
वातवलयों के अंत में होता है |
भीतर-भीतर ही रहता है |
तिर्यंच ३/३ |
६६ |
वातवलयों का क्रम |
घनोदधि घन व तनु |
घन घनोदधि तनु |
लोक/२/४ |
६७ |
देव व उत्तर कुरु में स्थित द्रह व कांचन गिरि |
सीता व सीतोदा नदी के दोनों किनारों पर पाँच द्रह हैं, कुल २० द्रह हैं |
सीता व सीतोदा नदी के मध्य पाँच द्रह हैं ऐसे १० द्रह हैं |
लोक/३/१ |
६८ |
देव व उत्तर कुरु में स्थित द्रह व कांचन गिरि |
प्रत्येक द्रह के दोनों तरफ ५,५ कांचन गिरि हैं, कुल १०० हैं |
प्रत्येक के दोनों तरफ १०-१० कांचन गिरि हैं कुल १०० हैं |
|
६९ |
लवण समुद्र में देवों की नगरियाँ |
आकाश में भी हैं और सागर के दोनों किनारों पर पृथ्वी पर भी |
पृथ्वी पर नगरियाँ नहीं है |
लोक/४/१ |
७० |
नंदीश्वर द्वीपस्थ रतिकर पर्वत |
प्रत्येक दिशा में आठ रतिकर हैं |
१६ रतिकर हैं |
लोक/४/५ |
७१ |
नंदीश्वर द्वीप की विदिशाओं में स्थित अंजल शैल |
है |
नहीं है |
लोक/४/५ |
७२ |
कुण्डलवर द्वीपस्थ जिनेन्द्र कूट |
चार हैं |
आठ हैं |
लोक/४/६ |
७३ |
कुमानुष द्वीपों की स्थिति |
जम्बू द्वीप की वेदिका से इनका अन्तराल बताया जाता है |
विभिन्न प्रकार से बताया जाता है |
लोक/४/१ |
७४ |
पाण्डुशिला का विस्तार |
१००×५०×८ यो० है |
५००×२५०×४ यो० है |
लोक/३/७ |
७५ |
सौमनस वन में स्थित बलभद्र नामा कूट है |
१००×१००×५० यो० |
१०००×१००×५००यो० |
लोक/३/६ |
७६ |
गजदंतों का विस्तार |
सर्वत्र ५०० योजन |
मेरु के पास ५०० और कुलधर के पास २५० यो० |
लोक/३/८ |
७७ |
लवण समुद्र का विस्तार |
पृथ्वी से ७०० योजन ऊँचे |
११०० योजन ऊँचे |
लोक/४/१ |
७८ |
शुक्ल व कृष्ण पक्ष में लवण समुद्र की वृद्धि-हानि |
२०० कोश बढ़ता है |
५००० यो०बढ़ता है |
लोक/४/१ |
७९ |
गंगा नदी का विस्तार |
मुख पर २५ योजन है |
६<img src="JSKHtmlSample_clip_image004_0012.gif" alt="" width="6" height="27" /> योजन है |
लोक/६/७ |
८० |
चक्रवर्ती के रत्नों की उत्पत्ति |
आयुधशालादि में उत्पन्न होते हैं |
कोई नियम नहीं है |
शलाका पुरुष |
८१ |
बीज बुद्धि ऋद्धि |
पहले बीजपद का अर्थ जानते हैं फिर उसका विस्तार जानते हैं |
दोनों एक साथ जानते हैं |
ऋद्धि/२/२ |
८२ |
केवली समुद्घात |
सभी केवलियों को होता है |
किसी-किसी को होता है |
केवली/७/४ |
८३ |
केवली समुद्घात |
६ माह आयु शेष रहने पर समुद्घात होता है |
अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर भी हो जाता है |
केवली/४/६ |
८४ |
स्पर्शादि गुणों के भंग |
परस्पर संयोग से अनेक भंग बन जाते हैं |
नहीं बँधते हैं |
ध.पु./१३/२५ |
८५ |
वीर निर्वाण पश्चात् राजा शक की उत्पत्ति |
४६१ वर्ष पश्चात् |
९७८५ वर्ष पश्चात् |
इतिहास/२/६ |
८६ |
वीर निर्वाण पश्चात् राजा शक की उत्पत्ति |
१४७९३ वर्ष पश्चात् |
६०५ वर्ष पश्चात् |
इतिहास/२/६ |
८७ |
वीर निर्वाण पश्चात् राजा शक की उत्पत्ति |
७९९५ वर्ष पश्चात् |
|
इतिहास/२/६ |
८८ |
कषाय पाहुड़ ग्रन्थ |
१८० गाथाएँ नागहस्ती आचार्य ने रची |
कुल ग्रन्थ गुणधर आचार्य ने रचा है |
कषाय पाहुड़ |
८९ |
सुग्रीव का भाई बाली |
दीक्षा धारण कर ली |
लक्ष्मण के हाथ से मारा गया |
बाली |