मल्लिनाथ: Difference between revisions
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<p id="1"> (1) तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ के प्रथम गणधर । <span class="GRef"> महापुराण 67.49, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 60.348 </span></p> | <p id="1"> (1) तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ के प्रथम गणधर । <span class="GRef"> महापुराण 67.49, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 60.348 </span></p> | ||
<p id="2">(2) अवसर्पिणी के दु:षमा-सुषमा नामक चौथे काल में उत्पन्न शलाकापुरुष एव उन्नीसवें तीर्थंकर । ये भरतक्षेत्र के वंग देश में मिथिला नगरी के इक्ष्वाकुवंशी, काश्यपगोत्री राजा | <p id="2">(2) अवसर्पिणी के दु:षमा-सुषमा नामक चौथे काल में उत्पन्न शलाकापुरुष एव उन्नीसवें तीर्थंकर । ये भरतक्षेत्र के वंग देश में मिथिला नगरी के इक्ष्वाकुवंशी, काश्यपगोत्री राजा कुंभ की रानी प्रजावती के पुत्र थे । सोलह स्वप्नपूर्वक चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के 1दन रात्रि के अंतिम प्रहर में गर्भ में आये तथा मार्गशीर्ष शुभ का एकादशी के दिन अश्विनी नक्षत्र में जन्मे थे । ये जन्म से ही तीन ज्ञान के धारी थे । देवों ने जन्माभिषेक के समय इन्हें यह नाम दिया था । ये अरनाथ तीर्थंकर के बाद एक हजार करोड़ वर्ष बीत जाने पर हुए थे । इनकी आयु पचपन हजार वर्ष तथा शरीर पच्चीस धनुष ऊँचा था । देह की कांति स्वर्ण के समान थी । अपने विवाह के लिए सुसज्जित नगर को देखते ही इन्हें पूर्वजन्म के अपराजित विमान का स्मरण हो आया था । इन्होंने सोचा कि कहां तो वीतरागता से उत्पन्न प्रेम और उससे प्रकट हुई महिमा तथा कहाँ सज्जनों को लज्जा उत्पन्न करने वाला यह विवाह । ये ऐसा सोचक्रर विरक्त हुए । इन्होंने विवाह न कराकर दीक्षा धारण करने का निश्चय किया । लौकांतिक देवों ने आकर स्तुति की तथा दीक्षा की अनुमोदना की । दीक्षाकल्याणक मनाये जाने के पश्चात् ये जयंत नामक पालकी में आरूढ़ होकर श्वेतवन (उद्यान) गये । वहाँ जन्म के ही मास, नक्षत्र, दिन और पक्ष में सिद्ध भगवान् को नमस्कार कर बाह्य और आभ्यंतर दोनो परिग्रहों को त्यागते हुए तीन सौ राजाओं के साथ संयमी हुए । संयमी होते ही इन्हें मन:पर्ययज्ञान हुआ । पारणा के दिन ये मिथिला आये । वहाँ राजा नंदिषेण ने इन्हें प्रासुक आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये । छद्मस्थ अवस्था के छ: दिन व्यतीत हो जाने पर इन्होंने श्वेतवन में ही अशोकवृक्ष के नीचे दो दिन के लिए गमनागमन त्याग कर जन्म के समान शुभ दिन और शुभ नक्षत्र आदि में चार घातिया कर्मों― मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय का नाश कर केवल-ज्ञान प्राप्त किया । इनके समवसरण में विशाख आदि अट्ठाईस गणधर और पाँच सौ पचास पूर्वधारी, उनतीस हजार शिक्षक, दो हजार दो सौ अवधिज्ञानी और इतने ही केवली तथा एक हजार चार सौ वादी, दो हजार नौ सौ विक्रियाऋद्धिधारी, एक हजार सात सौ पचास मन:पर्ययज्ञानी इस प्रकार कुल चालीस हजार मुनिराज तथा बंधुषेणा आदि पचपन हजार आर्यिकाएँ, एक लाख श्रावक, तीन लाख श्राविकाएँ, असंख्यात देव-देवियाँ और संख्यात तिर्यंच थे । इन्होंने विहार कर भव्य जीवों को संबोधते हुए मुक्तिमार्ग में लगाया था । जब इनकी आयु एक मास की शेष रह गयी थी तब ये सम्मेदाल आये तथा इन्होंने यहाँ पाँच हजार मुनियों के साथ प्रतिमायोग धारण कर फाल्गुन शुक्ला पंचमी के दिन भरणी नक्षत्र में संध्या के समय मोक्ष पाया । इस समय देवों ने इनका निर्वाण कल्याणक मनाया था । दूसरे पूर्वभव में ये जंबूद्वीप में कच्छकावती देश के वीतशोक नगर के वैश्रवण नामक राजा तथा प्रथम पूर्वभव में अनुतर विमान में देव थे । <span class="GRef"> महापुराण 2.132, 66.2-3, 15-16, 20-22, 31-62, </span><span class="GRef"> पद्मपुराण 5.215, 20.55, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 1.21, </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 21. 1, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 18.101-107 </span></p> | ||
Revision as of 16:31, 19 August 2020
== सिद्धांतकोष से == ( महापुराण/66/ श्लोक) पूर्व भव नं.2 में कच्छकावती देश के वीतशोक नगर के राजा वैश्रवण थे।(2)। पूर्व भव नं.1 में अपराजित विमान में अहमिंद्र थे। (14-16)। (युगपत सर्वभव–दे.66/66) वर्तमान भव में 19 वें तीर्थंकर हुए–देखें तीर्थंकर - 5।
पुराणकोष से
(1) तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ के प्रथम गणधर । महापुराण 67.49, हरिवंशपुराण 60.348
(2) अवसर्पिणी के दु:षमा-सुषमा नामक चौथे काल में उत्पन्न शलाकापुरुष एव उन्नीसवें तीर्थंकर । ये भरतक्षेत्र के वंग देश में मिथिला नगरी के इक्ष्वाकुवंशी, काश्यपगोत्री राजा कुंभ की रानी प्रजावती के पुत्र थे । सोलह स्वप्नपूर्वक चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के 1दन रात्रि के अंतिम प्रहर में गर्भ में आये तथा मार्गशीर्ष शुभ का एकादशी के दिन अश्विनी नक्षत्र में जन्मे थे । ये जन्म से ही तीन ज्ञान के धारी थे । देवों ने जन्माभिषेक के समय इन्हें यह नाम दिया था । ये अरनाथ तीर्थंकर के बाद एक हजार करोड़ वर्ष बीत जाने पर हुए थे । इनकी आयु पचपन हजार वर्ष तथा शरीर पच्चीस धनुष ऊँचा था । देह की कांति स्वर्ण के समान थी । अपने विवाह के लिए सुसज्जित नगर को देखते ही इन्हें पूर्वजन्म के अपराजित विमान का स्मरण हो आया था । इन्होंने सोचा कि कहां तो वीतरागता से उत्पन्न प्रेम और उससे प्रकट हुई महिमा तथा कहाँ सज्जनों को लज्जा उत्पन्न करने वाला यह विवाह । ये ऐसा सोचक्रर विरक्त हुए । इन्होंने विवाह न कराकर दीक्षा धारण करने का निश्चय किया । लौकांतिक देवों ने आकर स्तुति की तथा दीक्षा की अनुमोदना की । दीक्षाकल्याणक मनाये जाने के पश्चात् ये जयंत नामक पालकी में आरूढ़ होकर श्वेतवन (उद्यान) गये । वहाँ जन्म के ही मास, नक्षत्र, दिन और पक्ष में सिद्ध भगवान् को नमस्कार कर बाह्य और आभ्यंतर दोनो परिग्रहों को त्यागते हुए तीन सौ राजाओं के साथ संयमी हुए । संयमी होते ही इन्हें मन:पर्ययज्ञान हुआ । पारणा के दिन ये मिथिला आये । वहाँ राजा नंदिषेण ने इन्हें प्रासुक आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये । छद्मस्थ अवस्था के छ: दिन व्यतीत हो जाने पर इन्होंने श्वेतवन में ही अशोकवृक्ष के नीचे दो दिन के लिए गमनागमन त्याग कर जन्म के समान शुभ दिन और शुभ नक्षत्र आदि में चार घातिया कर्मों― मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय का नाश कर केवल-ज्ञान प्राप्त किया । इनके समवसरण में विशाख आदि अट्ठाईस गणधर और पाँच सौ पचास पूर्वधारी, उनतीस हजार शिक्षक, दो हजार दो सौ अवधिज्ञानी और इतने ही केवली तथा एक हजार चार सौ वादी, दो हजार नौ सौ विक्रियाऋद्धिधारी, एक हजार सात सौ पचास मन:पर्ययज्ञानी इस प्रकार कुल चालीस हजार मुनिराज तथा बंधुषेणा आदि पचपन हजार आर्यिकाएँ, एक लाख श्रावक, तीन लाख श्राविकाएँ, असंख्यात देव-देवियाँ और संख्यात तिर्यंच थे । इन्होंने विहार कर भव्य जीवों को संबोधते हुए मुक्तिमार्ग में लगाया था । जब इनकी आयु एक मास की शेष रह गयी थी तब ये सम्मेदाल आये तथा इन्होंने यहाँ पाँच हजार मुनियों के साथ प्रतिमायोग धारण कर फाल्गुन शुक्ला पंचमी के दिन भरणी नक्षत्र में संध्या के समय मोक्ष पाया । इस समय देवों ने इनका निर्वाण कल्याणक मनाया था । दूसरे पूर्वभव में ये जंबूद्वीप में कच्छकावती देश के वीतशोक नगर के वैश्रवण नामक राजा तथा प्रथम पूर्वभव में अनुतर विमान में देव थे । महापुराण 2.132, 66.2-3, 15-16, 20-22, 31-62, पद्मपुराण 5.215, 20.55, हरिवंशपुराण 1.21, पांडवपुराण 21. 1, वीरवर्द्धमान चरित्र 18.101-107