बोधपाहुड़ गाथा 32: Difference between revisions
From जैनकोष
('<div class="PrakritGatha"><div>तेरहमे गुणठाणे सजोइकेवलिय होइ अरहंतो ...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
No edit summary |
||
Line 10: | Line 10: | ||
<div class="HindiGatha"><div>आठ प्रातिहार्य अरु चौंतीस अतिशय युक्त हों ।</div> | <div class="HindiGatha"><div>आठ प्रातिहार्य अरु चौंतीस अतिशय युक्त हों ।</div> | ||
<div>सयोगकेवलि तेरवें गुणस्थान में अरहंत हों ॥३२॥</div> | <div>सयोगकेवलि तेरवें गुणस्थान में अरहंत हों ॥३२॥</div> | ||
</div> | |||
<div class="HindiBhavarth"><div>गुणस्थान चौदह कहे हैं, उसमें सयोगकेवली नाम तेरहवाँ गुणस्थान है । उसमें योगों की प्रवृत्तिसहित केवलज्ञानसहित सयोगकेवली अरंहत होता है । उनके चौंतीस अतिशय और आठ प्रतिहार्य होते हैं, ऐसे तो गुणस्थान द्वारा ‘स्थापना अरहंत’ कहलाते हैं ।</div> | |||
</div> | </div> | ||
<div class="HindiBhavarth"><div>यहाँ चौंतीस अतिशय और आठ प्रातिहार्य कहने से तो समवसरण में विराजमान तथा विहार करते हुए अरहंत हैं और ‘सयोग’ कहने से विहार की प्रवृत्ति और वचन की प्रवृत्ति सिद्ध होती है । ‘केवली’ कहने से केवलज्ञानद्वारा सब तत्त्वों का जानना सिद्ध होता है । चौंतीस अतिशय इसप्रकार हैं - जन्म से प्रकट होनेवाले दस - १. मलमूत्र का अभाव, २. पसेव का अभाव, ३. धवल रुधिर होना, ४. समचतुरस्रसंस्थान, ५. वज्रवृषभनाराच संहनन, ६. सुन्दर </div> | <div class="HindiBhavarth"><div>यहाँ चौंतीस अतिशय और आठ प्रातिहार्य कहने से तो समवसरण में विराजमान तथा विहार करते हुए अरहंत हैं और ‘सयोग’ कहने से विहार की प्रवृत्ति और वचन की प्रवृत्ति सिद्ध होती है । ‘केवली’ कहने से केवलज्ञानद्वारा सब तत्त्वों का जानना सिद्ध होता है । चौंतीस अतिशय इसप्रकार हैं - जन्म से प्रकट होनेवाले दस - १. मलमूत्र का अभाव, २. पसेव का अभाव, ३. धवल रुधिर होना, ४. समचतुरस्रसंस्थान, ५. वज्रवृषभनाराच संहनन, ६. सुन्दर </div> |
Revision as of 16:13, 2 November 2013
तेरहमे गुणठाणे सजोइकेवलिय होइ अरहंतो ।
चउतीस अइसयगुणा होंति हु तस्सट्ठ पडिहारा ॥३२॥
त्रयोदशे गुणस्थाने सयोगकेवलिक: भवति अर्हन् ।
चतुस्त्रिंशत् अतिशयगुणा भवन्ति स्फुटं तस्याष्टप्रातिहार्या ॥३२॥
आगे विशेष कहते हैं -
हरिगीत
आठ प्रातिहार्य अरु चौंतीस अतिशय युक्त हों ।
सयोगकेवलि तेरवें गुणस्थान में अरहंत हों ॥३२॥
गुणस्थान चौदह कहे हैं, उसमें सयोगकेवली नाम तेरहवाँ गुणस्थान है । उसमें योगों की प्रवृत्तिसहित केवलज्ञानसहित सयोगकेवली अरंहत होता है । उनके चौंतीस अतिशय और आठ प्रतिहार्य होते हैं, ऐसे तो गुणस्थान द्वारा ‘स्थापना अरहंत’ कहलाते हैं ।
यहाँ चौंतीस अतिशय और आठ प्रातिहार्य कहने से तो समवसरण में विराजमान तथा विहार करते हुए अरहंत हैं और ‘सयोग’ कहने से विहार की प्रवृत्ति और वचन की प्रवृत्ति सिद्ध होती है । ‘केवली’ कहने से केवलज्ञानद्वारा सब तत्त्वों का जानना सिद्ध होता है । चौंतीस अतिशय इसप्रकार हैं - जन्म से प्रकट होनेवाले दस - १. मलमूत्र का अभाव, २. पसेव का अभाव, ३. धवल रुधिर होना, ४. समचतुरस्रसंस्थान, ५. वज्रवृषभनाराच संहनन, ६. सुन्दर
रूप, ७. सुगंध शरीर, ८. शुभ लक्षण होना, ९. अनन्त बल, १०. मधुर वचन - इसप्रकार दस
होते हैं ।
केवलज्ञान उत्पन्न होने पर दस होते हैं - १. उपसर्ग का अभाव, २. अदया का अभाव,
३. शरीर की छाया न पड़ना, ४. चतुर्मुख दीखना, ५. सब विद्याओं का स्वामित्व, ६. नेत्रों के पलक न गिरना, ७. शतयोजन सुभिक्षता, ८. आकाशगमन, ९. कवलाहार नहीं होना,
१०. नख-केशों का नहीं बढ़ना, ऐसे दस होते हैं ।
चौदह देवकृत होते हैं - १. सकलार्द्धमागधी भाषा, २. सब जीवों में मैत्रीभाव, ३. सब ऋतु के फल-फूल फलना, ४. दर्पण समान भूमि, ५. कंटकरहित भूमि, ६. मंद सुगंध पवन,
७. सबके आनंद होना, ८. गंधोदकवृष्टि, ९. पैरों के नीचे कमल रचना, १०. सर्वधान्य निष्पत्ति, ११. दशों दिशाओं का निर्मल होना, १२. देवों के द्वारा आह्वानन शब्द, १३. धर्मचक्र का आगे चलना, १४. अष्ट मंगल द्रव्यों का आगे चलना ।
अष्ट मंगल द्रव्यों के नाम - १. छत्र, २. ध्वजा, ३. दर्पण, ४. कलश, ५. चामर, ६. भृङ्गार (झारी), ७. ताल (ठवणा) और स्वस्तिक (साँथिया) अर्थात् सुप्रतीच्छक ऐसे आठ होते हैं । ऐसे चौंतीस अतिशय के नाम कहे ।
आठ प्रातिहार्य होते हैं, उनके नाम ये हैं - १. अशोकवृक्ष, २. पुष्पवृष्टि, ३. दिव्यध्वनि,
४. चामर, ५. सिंहासन, ६. भामण्डल, ७. दुन्दुभिवादित्र और ८. छत्र - ऐसे आठ होते हैं । इसप्रकार गुणस्थान द्वारा अरहंत का स्थापन कहा ॥३२॥