क्षेत्र 02: Difference between revisions
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<li><strong name="2" id="2"><span class="HindiText"> क्षेत्र सामान्य निर्देश</span></strong> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> क्षेत्र व अधिकरण में अन्तर</strong></span><br /> | |||
रा.वा./१/८/१६/४३/६<span class="SanskritText"> स्यादेतत्-यदेवाधिकरणं तदेव क्षेत्रम्, अतस्तयोरभेदात् पृथग्ग्रहणमनर्थकमिति; तन्न; किं कारणम् । उक्तार्थत्वात् । उक्तमेतत्-सर्वभावाधिगमार्थत्वादिति। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–जो अधिकरण है वही क्षेत्र है, इसलिए इन दोनों में अभेद होने के कारण यहाँ क्षेत्र का पृथक् ग्रहण अनर्थक है? <strong>उत्तर</strong>—अधिकृत और अनधिकृत सभी पदार्थों का क्षेत्र बताने के लिए विशेष रूप से क्षेत्र का ग्रहण किया गया है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> <a name="2.2" id="2.2">क्षेत्र व स्पर्शन में अन्तर</strong></span><strong><br> | |||
</strong>रा.वा./१/८/१७-१९/४३/९ <span class="SanskritText">यथेह सति घटे क्षेत्रे अम्बुनोऽवस्थानात् नियमाद् घटस्पर्शनम्, न ह्येतदस्ति—‘घटे अम्बु अवतिष्ठते न च घटं स्पृशति’ इति। तथा आकाशक्षेत्रे जीवावस्थानां नियमादाकाशे स्पर्शनमिति क्षेत्राभिधानेनैव स्पर्शनस्यार्थगृहीतत्वात् पृथग्ग्रहणमनर्थकम् ।...न वैष दोष:। किं कारणम् । विषयवाचित्वात् । विषयवाची क्षेत्रशब्द: यथा राजा जनपदक्षेत्रेऽवतिष्ठते, न च कृत्स्नं जनपदं स्पृशति। स्पर्शनं तु कृत्स्नविषयमिति। यथा साम्प्रतिकेनाम्बुना सांप्रतिकं घटक्षेत्रं स्पृष्टं नातीतानागतम्, नैवमात्मन: सांप्रतिकक्षेत्रस्पर्शने स्पर्शनाभिप्राय: स्पर्शनस्य त्रिकालगोचरत्वात् ।१७-१८।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–जिस प्रकार से घट रूप क्षेत्र के रहने पर ही, जल का उसमें अवस्थान होने के कारण, नियम से जल का घट के साथ स्पर्श होता है। ऐसा नहीं है कि घट में जल का अवस्थान होते हुए भी, वह उसे स्पर्श न करें। इसी प्रकार आकाश क्षेत्र में जीवों के अवस्थान होने के कारण नियम से उनका आकाश से स्पर्श होता है। इसलिए क्षेत्र के कथन से ही स्पर्श के अर्थ का ग्रहण हो जाता है। अत: स्पर्श का पृथक् ग्रहण करना अनर्थक है? <strong>उत्तर</strong>—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि क्षेत्र शब्द विषयवाची है, जैसे राजा जनपद में रहता है। यहाँ राजा का विषय जनपद है न कि वह सम्पूर्ण जनपद के स्पर्श करता है। स्पर्शन तो सम्पूर्ण विषयक होता है। दूसरे जिस प्रकार वर्तमान में जल के द्वारा वर्तमानकालवर्ती घट क्षेत्र का ही स्पर्श हुआ है, अतीत व अनागत कालगत क्षेत्र का नहीं, उसी प्रकार मात्र वर्तमान कालवर्ती क्षेत्र के साथ जीव का स्पर्श वास्तव में स्पर्शन शब्द का अभिधेय नहीं है। क्योंकि क्षेत्र तो केवल वर्तमानवाची है और स्पर्श त्रिकालगोचर होता है।</span> ध.१/१,१,७/१५६/८ <span class="PrakritText">वट्टमाण-फासं वण्णेदि खेत्तं। फोसणं पुण अदीदं वट्टमाणं च वण्णेदि।</span>=<span class="HindiText">क्षेत्रानुगम वर्तमानकालीन स्पर्श का वर्णन करता है। और स्पर्शनानुयोग अतीत और वर्तमानकालीन स्पर्श का वर्णन करता है। </span><br>ध.४/१,४,२/१४५/८ <span class="PrakritText">खेत्ताणिओगद्दारे सव्वमग्गणट्ठाणाणि अस्सिदूण सव्वगुणट्ठाणाणं वट्टमाणकालविसिट्ठं खेत्तं पदुप्पादिदं, संपदि पोसणाणिओगद्दारेण किं परूविज्जदे? चोद्दस मग्गणट्ठाणाणि अस्सिदूण सव्वगुणट्ठाणाणं अदीदकालविसेसिदखेत्तं फोसणं वुच्चदे। एत्थ वट्टमाणखेत्तं परूवणं पि सुत्तणिवद्धसेव दीसदि। तदो ण पोसणमदीदकालविसिट्ठखेत्तपदुप्पाइयं, किंतु वट्टमाणादीदकालविसेसिदखेत्तपदुप्पाइयमिदि ? एत्थ ण खेत्तपरूवणं, तं वं पुव्वं खेत्ताणिओगद्दारपरूविदवट्टमाणखेत्तं संभराविय अदीदकालविसिट्ठखेत्तपदुप्पायणट्ठं तस्सुवादाणा। तदो फोसणमदीदकालविसेसिदखेत्ते पदुप्पाइयमेवेत्ति सिद्धं। </span><span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—क्षेत्रानुयोग में सर्व मार्गणास्थानों का आश्रय लेकर सभी गुणस्थानों के वर्तमानकाल विशिष्ट क्षेत्र का प्रतिपादन कर दिया गया है। अब पुन: स्पर्शनानुयोग द्वार से क्या प्ररूपण किया जाता है? <strong>उत्तर</strong>—चौदह मार्गणास्थानों का आश्रय लेकर के सभी गुणस्थानों के अतीतकाल विशिष्ट क्षेत्र को स्पर्शन कहा गया है। अतएव यहाँ उसी का ग्रहण किया गया समझना। <strong>प्रश्न</strong>—यहाँ स्पर्शनानुयोगद्वार में वर्तमानकाल सम्बन्धी क्षेत्र की प्ररूपणा भी सूत्र निबद्ध ही देखी जाती है, इसलिए स्पर्शन अतीतकाल विशिष्ट क्षेत्र का प्रतिपादन करने वाला नहीं है, किन्तु वर्तमानकाल और अतीतकाल से विशिष्ट क्षेत्र का प्रतिपादन करने वाला है? <strong>उत्तर</strong>—यहाँ स्पर्शनानुयोगद्वार में वर्तमानकाल की प्ररूपणा नहीं की जा रही है, किन्तु पहले क्षेत्रानुयोगद्वार में प्ररूपित उस उस वर्तमान क्षेत्र का स्मरण कराकर अतीतकाल विशिष्ट क्षेत्र के प्रतिपादनार्थ उसका ग्रहण किया गया है। अतएव स्पर्शनानुयोगद्वार में अतीतकाल से विशिष्ट क्षेत्र का ही प्रतिपादन करने वाला है, यह सिद्ध हुआ। </span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong> <a name="2.3" id="2.3">वीतरागियों व सरागियों के स्वक्षेत्र में अन्तर</strong></span><strong><br> | |||
</strong>ध.४/१,३,५८/१२१/१ <span class="PrakritText">ण च ममेदंबुद्धीए पडिगहिदपदेसो सत्थाणं, अजोगिम्हि खीणमोहम्हि ममेदंबुद्धीए अभावादो त्ति। ण एस दोसो वीदरागाणं अप्पणो अच्छिदपदेसस्सेव सत्थाणववएसादो। ण सरागाणामेस णाओ, तत्थ ममेदंभावसंभवदो।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—इस प्रकार स्वस्थान पद अयोगकेवली में नहीं पाया जाता, क्योंकि क्षीणमोही अयोगी भगवान् में ममेदंबुद्धि का अभाव है? <strong>उत्तर</strong>—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि वीतरागियों के अपने रहने के प्रदेश को ही स्वस्थान नाम से कहा गया है। किन्तु सरागियों के लिए यह न्याय नहीं है, क्योंकि इसमें ममेदंभाव सम्भव है। (ध.४/१,३,३/४७/८)।</span></li> | |||
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Revision as of 22:15, 24 December 2013
- क्षेत्र सामान्य निर्देश
- क्षेत्र व अधिकरण में अन्तर
रा.वा./१/८/१६/४३/६ स्यादेतत्-यदेवाधिकरणं तदेव क्षेत्रम्, अतस्तयोरभेदात् पृथग्ग्रहणमनर्थकमिति; तन्न; किं कारणम् । उक्तार्थत्वात् । उक्तमेतत्-सर्वभावाधिगमार्थत्वादिति। =प्रश्न–जो अधिकरण है वही क्षेत्र है, इसलिए इन दोनों में अभेद होने के कारण यहाँ क्षेत्र का पृथक् ग्रहण अनर्थक है? उत्तर—अधिकृत और अनधिकृत सभी पदार्थों का क्षेत्र बताने के लिए विशेष रूप से क्षेत्र का ग्रहण किया गया है।
- <a name="2.2" id="2.2">क्षेत्र व स्पर्शन में अन्तर
रा.वा./१/८/१७-१९/४३/९ यथेह सति घटे क्षेत्रे अम्बुनोऽवस्थानात् नियमाद् घटस्पर्शनम्, न ह्येतदस्ति—‘घटे अम्बु अवतिष्ठते न च घटं स्पृशति’ इति। तथा आकाशक्षेत्रे जीवावस्थानां नियमादाकाशे स्पर्शनमिति क्षेत्राभिधानेनैव स्पर्शनस्यार्थगृहीतत्वात् पृथग्ग्रहणमनर्थकम् ।...न वैष दोष:। किं कारणम् । विषयवाचित्वात् । विषयवाची क्षेत्रशब्द: यथा राजा जनपदक्षेत्रेऽवतिष्ठते, न च कृत्स्नं जनपदं स्पृशति। स्पर्शनं तु कृत्स्नविषयमिति। यथा साम्प्रतिकेनाम्बुना सांप्रतिकं घटक्षेत्रं स्पृष्टं नातीतानागतम्, नैवमात्मन: सांप्रतिकक्षेत्रस्पर्शने स्पर्शनाभिप्राय: स्पर्शनस्य त्रिकालगोचरत्वात् ।१७-१८।=प्रश्न–जिस प्रकार से घट रूप क्षेत्र के रहने पर ही, जल का उसमें अवस्थान होने के कारण, नियम से जल का घट के साथ स्पर्श होता है। ऐसा नहीं है कि घट में जल का अवस्थान होते हुए भी, वह उसे स्पर्श न करें। इसी प्रकार आकाश क्षेत्र में जीवों के अवस्थान होने के कारण नियम से उनका आकाश से स्पर्श होता है। इसलिए क्षेत्र के कथन से ही स्पर्श के अर्थ का ग्रहण हो जाता है। अत: स्पर्श का पृथक् ग्रहण करना अनर्थक है? उत्तर—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि क्षेत्र शब्द विषयवाची है, जैसे राजा जनपद में रहता है। यहाँ राजा का विषय जनपद है न कि वह सम्पूर्ण जनपद के स्पर्श करता है। स्पर्शन तो सम्पूर्ण विषयक होता है। दूसरे जिस प्रकार वर्तमान में जल के द्वारा वर्तमानकालवर्ती घट क्षेत्र का ही स्पर्श हुआ है, अतीत व अनागत कालगत क्षेत्र का नहीं, उसी प्रकार मात्र वर्तमान कालवर्ती क्षेत्र के साथ जीव का स्पर्श वास्तव में स्पर्शन शब्द का अभिधेय नहीं है। क्योंकि क्षेत्र तो केवल वर्तमानवाची है और स्पर्श त्रिकालगोचर होता है। ध.१/१,१,७/१५६/८ वट्टमाण-फासं वण्णेदि खेत्तं। फोसणं पुण अदीदं वट्टमाणं च वण्णेदि।=क्षेत्रानुगम वर्तमानकालीन स्पर्श का वर्णन करता है। और स्पर्शनानुयोग अतीत और वर्तमानकालीन स्पर्श का वर्णन करता है।
ध.४/१,४,२/१४५/८ खेत्ताणिओगद्दारे सव्वमग्गणट्ठाणाणि अस्सिदूण सव्वगुणट्ठाणाणं वट्टमाणकालविसिट्ठं खेत्तं पदुप्पादिदं, संपदि पोसणाणिओगद्दारेण किं परूविज्जदे? चोद्दस मग्गणट्ठाणाणि अस्सिदूण सव्वगुणट्ठाणाणं अदीदकालविसेसिदखेत्तं फोसणं वुच्चदे। एत्थ वट्टमाणखेत्तं परूवणं पि सुत्तणिवद्धसेव दीसदि। तदो ण पोसणमदीदकालविसिट्ठखेत्तपदुप्पाइयं, किंतु वट्टमाणादीदकालविसेसिदखेत्तपदुप्पाइयमिदि ? एत्थ ण खेत्तपरूवणं, तं वं पुव्वं खेत्ताणिओगद्दारपरूविदवट्टमाणखेत्तं संभराविय अदीदकालविसिट्ठखेत्तपदुप्पायणट्ठं तस्सुवादाणा। तदो फोसणमदीदकालविसेसिदखेत्ते पदुप्पाइयमेवेत्ति सिद्धं। प्रश्न—क्षेत्रानुयोग में सर्व मार्गणास्थानों का आश्रय लेकर सभी गुणस्थानों के वर्तमानकाल विशिष्ट क्षेत्र का प्रतिपादन कर दिया गया है। अब पुन: स्पर्शनानुयोग द्वार से क्या प्ररूपण किया जाता है? उत्तर—चौदह मार्गणास्थानों का आश्रय लेकर के सभी गुणस्थानों के अतीतकाल विशिष्ट क्षेत्र को स्पर्शन कहा गया है। अतएव यहाँ उसी का ग्रहण किया गया समझना। प्रश्न—यहाँ स्पर्शनानुयोगद्वार में वर्तमानकाल सम्बन्धी क्षेत्र की प्ररूपणा भी सूत्र निबद्ध ही देखी जाती है, इसलिए स्पर्शन अतीतकाल विशिष्ट क्षेत्र का प्रतिपादन करने वाला नहीं है, किन्तु वर्तमानकाल और अतीतकाल से विशिष्ट क्षेत्र का प्रतिपादन करने वाला है? उत्तर—यहाँ स्पर्शनानुयोगद्वार में वर्तमानकाल की प्ररूपणा नहीं की जा रही है, किन्तु पहले क्षेत्रानुयोगद्वार में प्ररूपित उस उस वर्तमान क्षेत्र का स्मरण कराकर अतीतकाल विशिष्ट क्षेत्र के प्रतिपादनार्थ उसका ग्रहण किया गया है। अतएव स्पर्शनानुयोगद्वार में अतीतकाल से विशिष्ट क्षेत्र का ही प्रतिपादन करने वाला है, यह सिद्ध हुआ। - <a name="2.3" id="2.3">वीतरागियों व सरागियों के स्वक्षेत्र में अन्तर
ध.४/१,३,५८/१२१/१ ण च ममेदंबुद्धीए पडिगहिदपदेसो सत्थाणं, अजोगिम्हि खीणमोहम्हि ममेदंबुद्धीए अभावादो त्ति। ण एस दोसो वीदरागाणं अप्पणो अच्छिदपदेसस्सेव सत्थाणववएसादो। ण सरागाणामेस णाओ, तत्थ ममेदंभावसंभवदो।=प्रश्न—इस प्रकार स्वस्थान पद अयोगकेवली में नहीं पाया जाता, क्योंकि क्षीणमोही अयोगी भगवान् में ममेदंबुद्धि का अभाव है? उत्तर—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि वीतरागियों के अपने रहने के प्रदेश को ही स्वस्थान नाम से कहा गया है। किन्तु सरागियों के लिए यह न्याय नहीं है, क्योंकि इसमें ममेदंभाव सम्भव है। (ध.४/१,३,३/४७/८)।
- क्षेत्र व अधिकरण में अन्तर