गरुड़: Difference between revisions
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<li class="HindiText">सनत्कुमार स्वर्ग का चौथा पटल–देखें [[ स्वर्ग#5.32 | स्वर्ग - 5.32 ]] </li><br/> | |||
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<li class="HindiText"><span class="GRef"> धवला 13/5,5,140/391/9 </span>गरुडाकारविकरणप्रिया: गरुडा:। =जिन्हें गरुड़ के आकाररूप विक्रिया करना प्रिय है वे गरुड़ (देव) कहलाते हैं। </li> | |||
<li class="HindiText"><span class="GRef"> ज्ञानार्णव/21/15 </span><span class="SanskritText"> गगनगोचरामूर्त्तजयविजयभुजंगभूषणोऽनंताकृतिपरमविभुर्नभस्तलनिलीनसमस्ततत्त्वात्मक: समस्तज्वररोगविषधरोड्डामरडाकिनीग्रहयक्षकिंनरनरेंद्रारिमारिपरयंत्रतंत्रमुद्रामंडलज्वलनहरिशरभशार्दूलद्विपदैत्यदुष्टप्रभृतिसमस्तोपसर्गनिर्मूलनकारिसामर्थ्य: परिकलितसमस्तगारुडमुद्राडंबरसमस्ततत्त्वात्मक: सन्नात्मैव गारुडगीर्गोचरत्वमवगाहते। इति वियत्तत्त्वम् ।</span><span class="HindiText">=आकाशगामी दो सर्प हैं भूषण जिसके; आकाशवत् सर्वव्यापक; लीन हैं पृथिवी, वरुण, वह्नि व वायुनामा समस्त तत्त्व जिसमें; (नीचे से लेकर घुटनों तक पृथिवी तत्त्व, नाभिपर्यंत अप्तत्त्व, ह्रदय पर्यंत वह्नि तत्त्व और मुख में पवनतत्त्व स्थित है) रोग कृत, सर्प आदि विषधरों कृत, कुत्सित देवी देवताओंकृत, राजा आदि शत्रुओंकृत, व्याघ्रादि हिंस्र पशुओं कृत, समस्त उपसर्गों को निर्मूलन करने वाला है सामर्थ्य जिसका, रचा है समस्त गारुडमंडल का आडंबर जिसने तथा पृथिवी आदि तत्त्वस्वरूप हुआ है आत्मा जिसका ऐसा गारुडगी के नाम को अवगाहन करने वाला गारुड तत्त्व आत्मा ही है। इस प्रकार वियत्तत्त्व का कथन हुआ (और भी–देखें [[ ध्यान#4.5 | ध्यान - 4.5]])। </span></li></ol> | |||
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Revision as of 21:40, 3 August 2023
- सनत्कुमार स्वर्ग का चौथा पटल–देखें स्वर्ग - 5.32
- शांतिनाथ भगवान् का शासक यक्ष–देखें यक्ष । [तीर्थंकर#5.3|तीर्थंकर - 5.3]]।
- धवला 13/5,5,140/391/9 गरुडाकारविकरणप्रिया: गरुडा:। =जिन्हें गरुड़ के आकाररूप विक्रिया करना प्रिय है वे गरुड़ (देव) कहलाते हैं।
- ज्ञानार्णव/21/15 गगनगोचरामूर्त्तजयविजयभुजंगभूषणोऽनंताकृतिपरमविभुर्नभस्तलनिलीनसमस्ततत्त्वात्मक: समस्तज्वररोगविषधरोड्डामरडाकिनीग्रहयक्षकिंनरनरेंद्रारिमारिपरयंत्रतंत्रमुद्रामंडलज्वलनहरिशरभशार्दूलद्विपदैत्यदुष्टप्रभृतिसमस्तोपसर्गनिर्मूलनकारिसामर्थ्य: परिकलितसमस्तगारुडमुद्राडंबरसमस्ततत्त्वात्मक: सन्नात्मैव गारुडगीर्गोचरत्वमवगाहते। इति वियत्तत्त्वम् ।=आकाशगामी दो सर्प हैं भूषण जिसके; आकाशवत् सर्वव्यापक; लीन हैं पृथिवी, वरुण, वह्नि व वायुनामा समस्त तत्त्व जिसमें; (नीचे से लेकर घुटनों तक पृथिवी तत्त्व, नाभिपर्यंत अप्तत्त्व, ह्रदय पर्यंत वह्नि तत्त्व और मुख में पवनतत्त्व स्थित है) रोग कृत, सर्प आदि विषधरों कृत, कुत्सित देवी देवताओंकृत, राजा आदि शत्रुओंकृत, व्याघ्रादि हिंस्र पशुओं कृत, समस्त उपसर्गों को निर्मूलन करने वाला है सामर्थ्य जिसका, रचा है समस्त गारुडमंडल का आडंबर जिसने तथा पृथिवी आदि तत्त्वस्वरूप हुआ है आत्मा जिसका ऐसा गारुडगी के नाम को अवगाहन करने वाला गारुड तत्त्व आत्मा ही है। इस प्रकार वियत्तत्त्व का कथन हुआ (और भी–देखें ध्यान - 4.5)।