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<p>श्रावक व साधुको अपने उपयोगकी रक्षाके लिए नित्य ही छह क्रिया करनी आवश्यक होती है। उन्हींको श्रावक या साधुके षट् आवश्यक कहते हैं। जिसका विशेष परिचय इस अधिकारमें दिया गया है।</p> | <p>श्रावक व साधुको अपने उपयोगकी रक्षाके लिए नित्य ही छह क्रिया करनी आवश्यक होती है। उन्हींको श्रावक या साधुके षट् आवश्यक कहते हैं। जिसका विशेष परिचय इस अधिकारमें दिया गया है।</p> | ||
<p>1. आवश्यक सामान्यका लक्षण</p> | <p>1. आवश्यक सामान्यका लक्षण</p> | ||
<p> मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 515 ण वसो अवसो अवसस्स कम्ममावासगं त्ति बोधव्वा। जुत्तित्ति उवायत्ति य णिरवयवा होदि णिजुत्ती ॥515॥</p> | <p class="SanskritText">मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 515 ण वसो अवसो अवसस्स कम्ममावासगं त्ति बोधव्वा। जुत्तित्ति उवायत्ति य णिरवयवा होदि णिजुत्ती ॥515॥</p> | ||
<p>= जो कषाय राग-द्वेष आदिके वशीभूत न हो वह अवश है, उस अवशका जो आचरण वह आवश्यक है। तथा युक्ति उपायको कहते हैं जो अखण्डित युक्ति वह निर्युक्ति है, आवश्यककी जो निर्युक्ति वह आवश्यक निर्युक्ति है।</p> | <p class="HindiText">= जो कषाय राग-द्वेष आदिके वशीभूत न हो वह अवश है, उस अवशका जो आचरण वह आवश्यक है। तथा युक्ति उपायको कहते हैं जो अखण्डित युक्ति वह निर्युक्ति है, आवश्यककी जो निर्युक्ति वह आवश्यक निर्युक्ति है।</p> | ||
<p>( नियमसार / मूल या टीका गाथा .142)</p> | <p>( नियमसार / मूल या टीका गाथा .142)</p> | ||
<p> नियमसार / मूल या टीका गाथा .147 आवासं जइ इच्छसि अप्पसहावेसु कुणदि थिर भावं। तेण दु सामण्णगुणं होदि जीवस्स ॥147॥</p> | <p class="SanskritText">नियमसार / मूल या टीका गाथा .147 आवासं जइ इच्छसि अप्पसहावेसु कुणदि थिर भावं। तेण दु सामण्णगुणं होदि जीवस्स ॥147॥</p> | ||
<p>= यदि तू आवश्यकको चाहता है तो तू आत्मस्वभावोमें थिरभाव कर उससे जीवका समायिक गुण सम्पूर्ण होता है।</p> | <p class="HindiText">= यदि तू आवश्यकको चाहता है तो तू आत्मस्वभावोमें थिरभाव कर उससे जीवका समायिक गुण सम्पूर्ण होता है।</p> | ||
<p> भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 116/274/12 आवासयाणं आवश्यकानां। ण वसो अवसो अवसस्स कम्ममावसगं इति व्युत्पत्ताव पि सामायिकादिष्वेवायं शब्दो वर्तते। व्याधिदौर्बल्यादिना व्याकुलो भण्यते अवशः परवश इति यावत्। तेनापि कर्त्तव्यं कर्मेति। यथा आशु गच्छतीत्यश्व इति व्युत्पत्तावपि न व्याघ्रादौ वर्तते अश्वशब्दौऽपि तु प्रसिद्धिवशात् तुरग एव। एवमिहापि अवश्यं यत्किंचन कर्म इतस्ततः परावृत्तिराक्रन्दनं, पूत्करणं वा तद्भण्यते। अथवा आवासकानां इत्ययमर्थः आवासयन्ति रत्नत्रयमात्मनीति।</p> | <p class="SanskritText">भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 116/274/12 आवासयाणं आवश्यकानां। ण वसो अवसो अवसस्स कम्ममावसगं इति व्युत्पत्ताव पि सामायिकादिष्वेवायं शब्दो वर्तते। व्याधिदौर्बल्यादिना व्याकुलो भण्यते अवशः परवश इति यावत्। तेनापि कर्त्तव्यं कर्मेति। यथा आशु गच्छतीत्यश्व इति व्युत्पत्तावपि न व्याघ्रादौ वर्तते अश्वशब्दौऽपि तु प्रसिद्धिवशात् तुरग एव। एवमिहापि अवश्यं यत्किंचन कर्म इतस्ततः परावृत्तिराक्रन्दनं, पूत्करणं वा तद्भण्यते। अथवा आवासकानां इत्ययमर्थः आवासयन्ति रत्नत्रयमात्मनीति।</p> | ||
<p>= `ण वसो अवसो अवसस्स कम्मभावसं बोधव्वा' ऐसी आवश्यक शब्दकी निरुक्ति है। व्याधि-रोग अशक्तपना इत्यादि विकार जिसमें हैं ऐसे व्यक्तिको अवश कहते हैं, ऐसे व्यक्तिको जो क्रियाएँ करना योग्य है उनको आवश्यक कहते हैं। जैसे-`आशु गच्छतीत्यश्वः' अर्थात् जो शीघ्र दौड़ता है उसको अश्व कहते हैं, अर्थात् व्याघ्र आदि कोई भी प्राणी जो शीघ्र दोड़ सकते हैं वे सभी अश्व शब्द से संगृहीत होते हैं। परन्तु अश्व शब्द प्रसिद्धिके वश होकर घोड़ा इस अर्थमें ही रूढ़ है। वैसे अवश्य करने योग्य जो कोई भी कार्य वह आवश्यक शब्दसे कहा जाना चाहिए जैसे-लोटना, करवट बदलना, किसीको बुलाना वगैरह कर्तव्य अवश्य करने पड़ते हैं। आवश्यक शब्द यहाँ सामायिकादि क्रियाओमें ही प्रसिद्ध है। अथवा आवासक ऐसा शब्द मानकर `आवासयन्ति रत्नत्रयमपि इति आवश्यकाः' ऐसी भी निरुक्ति कहते हैं, अर्थात् जो आत्मामें रत्नत्रयका निवास कराते हैं उसको आवासक कहते हैं।</p> | <p class="HindiText">= `ण वसो अवसो अवसस्स कम्मभावसं बोधव्वा' ऐसी आवश्यक शब्दकी निरुक्ति है। व्याधि-रोग अशक्तपना इत्यादि विकार जिसमें हैं ऐसे व्यक्तिको अवश कहते हैं, ऐसे व्यक्तिको जो क्रियाएँ करना योग्य है उनको आवश्यक कहते हैं। जैसे-`आशु गच्छतीत्यश्वः' अर्थात् जो शीघ्र दौड़ता है उसको अश्व कहते हैं, अर्थात् व्याघ्र आदि कोई भी प्राणी जो शीघ्र दोड़ सकते हैं वे सभी अश्व शब्द से संगृहीत होते हैं। परन्तु अश्व शब्द प्रसिद्धिके वश होकर घोड़ा इस अर्थमें ही रूढ़ है। वैसे अवश्य करने योग्य जो कोई भी कार्य वह आवश्यक शब्दसे कहा जाना चाहिए जैसे-लोटना, करवट बदलना, किसीको बुलाना वगैरह कर्तव्य अवश्य करने पड़ते हैं। आवश्यक शब्द यहाँ सामायिकादि क्रियाओमें ही प्रसिद्ध है। अथवा आवासक ऐसा शब्द मानकर `आवासयन्ति रत्नत्रयमपि इति आवश्यकाः' ऐसी भी निरुक्ति कहते हैं, अर्थात् जो आत्मामें रत्नत्रयका निवास कराते हैं उसको आवासक कहते हैं।</p> | ||
<p> अनगार धर्मामृत अधिकार 8/16 यद्व्याध्यादिवशेनापि क्रियतेऽक्षावशेन च। आवश्यकमवशस्य कर्माहोरात्रिकं मुनिः ॥16॥</p> | <p class="SanskritText">अनगार धर्मामृत अधिकार 8/16 यद्व्याध्यादिवशेनापि क्रियतेऽक्षावशेन च। आवश्यकमवशस्य कर्माहोरात्रिकं मुनिः ॥16॥</p> | ||
<p>= जो इन्द्रियोंके वश्य-आधीन नहीं होता उसको अवश्य कहते हैं। ऐसे संयमी के अहोरात्रिक-किन और रातमें करने योग्य कर्मोंका नाम ही आवश्यक है। अतएव व्याधि आदिसे ग्रस्त हो जानेपर भी इन्द्रियोंके वश न पड़कर जो दिन और रातके काम मुनियोंको करने ही चाहिए उन्हींको आवश्यक कहते हैं।</p> | <p class="HindiText">= जो इन्द्रियोंके वश्य-आधीन नहीं होता उसको अवश्य कहते हैं। ऐसे संयमी के अहोरात्रिक-किन और रातमें करने योग्य कर्मोंका नाम ही आवश्यक है। अतएव व्याधि आदिसे ग्रस्त हो जानेपर भी इन्द्रियोंके वश न पड़कर जो दिन और रातके काम मुनियोंको करने ही चाहिए उन्हींको आवश्यक कहते हैं।</p> | ||
<p>2. साधुके षट् आवश्यकोंका नाम निर्देश</p> | <p>2. साधुके षट् आवश्यकोंका नाम निर्देश</p> | ||
<p> मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 220 समदा थओ य वंदण पाडिक्कमणं तहेव णादव्वं। पच्चक्खाण विसग्गो करणीयावासया छप्पि ॥22॥</p> | <p class="SanskritText">मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 220 समदा थओ य वंदण पाडिक्कमणं तहेव णादव्वं। पच्चक्खाण विसग्गो करणीयावासया छप्पि ॥22॥</p> | ||
<p>= सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वेदना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग-ये छह आवश्यक सदा करने चाहिए।</p> | <p class="HindiText">= सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वेदना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग-ये छह आवश्यक सदा करने चाहिए।</p> | ||
<p>( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 516), (राजवार्तिक अध्याय 6/22/11/530/11), ( भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 116/274/16), ( धवला पुस्तक 8/3,41/83/10) ( पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 201) ( चारित्रसार पृष्ठ 55/3), ( अनगार धर्मामृत अधिकार 8/17), ( भावपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 77)</p> | <p>( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 516), (राजवार्तिक अध्याय 6/22/11/530/11), ( भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 116/274/16), ( धवला पुस्तक 8/3,41/83/10) ( पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 201) ( चारित्रसार पृष्ठ 55/3), ( अनगार धर्मामृत अधिकार 8/17), ( भावपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 77)</p> | ||
<p>3. अन्य सम्बन्धित विषय</p> | <p>3. अन्य सम्बन्धित विषय</p> | ||
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<p>- देखें [[ चारित्र ]]</p> | <p>- देखें [[ चारित्र ]]</p> | ||
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Revision as of 13:48, 10 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
श्रावक व साधुको अपने उपयोगकी रक्षाके लिए नित्य ही छह क्रिया करनी आवश्यक होती है। उन्हींको श्रावक या साधुके षट् आवश्यक कहते हैं। जिसका विशेष परिचय इस अधिकारमें दिया गया है।
1. आवश्यक सामान्यका लक्षण
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 515 ण वसो अवसो अवसस्स कम्ममावासगं त्ति बोधव्वा। जुत्तित्ति उवायत्ति य णिरवयवा होदि णिजुत्ती ॥515॥
= जो कषाय राग-द्वेष आदिके वशीभूत न हो वह अवश है, उस अवशका जो आचरण वह आवश्यक है। तथा युक्ति उपायको कहते हैं जो अखण्डित युक्ति वह निर्युक्ति है, आवश्यककी जो निर्युक्ति वह आवश्यक निर्युक्ति है।
( नियमसार / मूल या टीका गाथा .142)
नियमसार / मूल या टीका गाथा .147 आवासं जइ इच्छसि अप्पसहावेसु कुणदि थिर भावं। तेण दु सामण्णगुणं होदि जीवस्स ॥147॥
= यदि तू आवश्यकको चाहता है तो तू आत्मस्वभावोमें थिरभाव कर उससे जीवका समायिक गुण सम्पूर्ण होता है।
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 116/274/12 आवासयाणं आवश्यकानां। ण वसो अवसो अवसस्स कम्ममावसगं इति व्युत्पत्ताव पि सामायिकादिष्वेवायं शब्दो वर्तते। व्याधिदौर्बल्यादिना व्याकुलो भण्यते अवशः परवश इति यावत्। तेनापि कर्त्तव्यं कर्मेति। यथा आशु गच्छतीत्यश्व इति व्युत्पत्तावपि न व्याघ्रादौ वर्तते अश्वशब्दौऽपि तु प्रसिद्धिवशात् तुरग एव। एवमिहापि अवश्यं यत्किंचन कर्म इतस्ततः परावृत्तिराक्रन्दनं, पूत्करणं वा तद्भण्यते। अथवा आवासकानां इत्ययमर्थः आवासयन्ति रत्नत्रयमात्मनीति।
= `ण वसो अवसो अवसस्स कम्मभावसं बोधव्वा' ऐसी आवश्यक शब्दकी निरुक्ति है। व्याधि-रोग अशक्तपना इत्यादि विकार जिसमें हैं ऐसे व्यक्तिको अवश कहते हैं, ऐसे व्यक्तिको जो क्रियाएँ करना योग्य है उनको आवश्यक कहते हैं। जैसे-`आशु गच्छतीत्यश्वः' अर्थात् जो शीघ्र दौड़ता है उसको अश्व कहते हैं, अर्थात् व्याघ्र आदि कोई भी प्राणी जो शीघ्र दोड़ सकते हैं वे सभी अश्व शब्द से संगृहीत होते हैं। परन्तु अश्व शब्द प्रसिद्धिके वश होकर घोड़ा इस अर्थमें ही रूढ़ है। वैसे अवश्य करने योग्य जो कोई भी कार्य वह आवश्यक शब्दसे कहा जाना चाहिए जैसे-लोटना, करवट बदलना, किसीको बुलाना वगैरह कर्तव्य अवश्य करने पड़ते हैं। आवश्यक शब्द यहाँ सामायिकादि क्रियाओमें ही प्रसिद्ध है। अथवा आवासक ऐसा शब्द मानकर `आवासयन्ति रत्नत्रयमपि इति आवश्यकाः' ऐसी भी निरुक्ति कहते हैं, अर्थात् जो आत्मामें रत्नत्रयका निवास कराते हैं उसको आवासक कहते हैं।
अनगार धर्मामृत अधिकार 8/16 यद्व्याध्यादिवशेनापि क्रियतेऽक्षावशेन च। आवश्यकमवशस्य कर्माहोरात्रिकं मुनिः ॥16॥
= जो इन्द्रियोंके वश्य-आधीन नहीं होता उसको अवश्य कहते हैं। ऐसे संयमी के अहोरात्रिक-किन और रातमें करने योग्य कर्मोंका नाम ही आवश्यक है। अतएव व्याधि आदिसे ग्रस्त हो जानेपर भी इन्द्रियोंके वश न पड़कर जो दिन और रातके काम मुनियोंको करने ही चाहिए उन्हींको आवश्यक कहते हैं।
2. साधुके षट् आवश्यकोंका नाम निर्देश
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 220 समदा थओ य वंदण पाडिक्कमणं तहेव णादव्वं। पच्चक्खाण विसग्गो करणीयावासया छप्पि ॥22॥
= सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वेदना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग-ये छह आवश्यक सदा करने चाहिए।
( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 516), (राजवार्तिक अध्याय 6/22/11/530/11), ( भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 116/274/16), ( धवला पुस्तक 8/3,41/83/10) ( पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 201) ( चारित्रसार पृष्ठ 55/3), ( अनगार धर्मामृत अधिकार 8/17), ( भावपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 77)
3. अन्य सम्बन्धित विषय
1. साधुके षड़ावश्यक विशेष
- देखें वह वह नाम
2. श्रावकके षड़ावश्यक
- देखें श्रावक
3. त्रिकरणोंके चार-चार आवश्यक
- देखें करण - 4.6
4. निश्चिय व्यवहार आवश्यकोंकी मुख्यता गौणता
- देखें चारित्र
पुराणकोष से
साधु के षडावश्यक नाम से प्रसिद्ध छ: मूलगुण-सामायिक, स्तुति, त्रिकाल-वन्दन, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और व्युत्सर्ग । महापुराण 18. 70-72, 36.133-135, वीरवर्द्धमान चरित्र 6.93