श्रद्धान
From जैनकोष
मोक्षमार्ग में चारित्र आदि की मूल होने से श्रद्धा को प्रधान कहा है। यद्यपि अन्ध श्रद्धान अकिंचित्कर होता है तथापि सूक्ष्म पदार्थों के विषय में आगम पर अन्ध श्रद्धान करने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं। सम्यग्दृष्टि का यह अन्ध श्रद्धान ईषत् निर्णय लक्षणवाला होता है, पर मिथ्यादृष्टि का अपने पक्ष की हठ सहित।
1. श्रद्धान निर्देश
1. श्रद्धान का लक्षण
देखें प्रत्यय - 1 दृष्टि, श्रद्धा, रुचि, प्रत्यय ये एकार्थवाची हैं।
स.सा./आ./17-18 तथेति प्रत्ययलक्षणं श्रद्धानमुत्प्लवते...। = इस आत्मा को जैसा जाना वैसा ही है 'इस प्रकार की प्रतीति है लक्षण जिसका' ऐसा श्रद्धान उदित होता है।
द्र.सं./टी./41/164/12 श्रद्धानं रुचिर्निश्चय इदमेवेत्थमेवेति निश्चयबुद्धि: सम्यग्दर्शनम् । = (सप्त तत्त्वों में चलमलादि दोषों रहित) श्रद्धान रुचि निश्चय, अथवा जो जिनेन्द्र ने कहा तथा जिस प्रकार कहा है उसी प्रकार है, ऐसी निश्चय रूप बुद्धि को सम्यग्दर्शन कहते हैं।
पं.ध./उ./412 तत्त्वार्थाभिमुखी बुद्धि: श्रद्धा। = तत्त्वार्थों के विषय में उन्मुख बुद्धि को श्रद्धा कहते हैं।
2. श्रद्धान के अनुसार चारित्र होता है
स.श./95-96 यत्रैवाहितधी: पुंस: श्रद्धा तत्रैव जायते। यत्रैव जायते श्रद्धा चित्तं तत्रैव लीयते।95। यत्रानाहित: पुंस: श्रद्धा तस्मान्निवर्तते। यस्मान्निवर्तते श्रद्धा कुतश्चित्तस्य तल्ल्य:।96। = जिस किसी विषय में पुरुष की दत्तावधान बुद्धि होती है उसी विषय में उसको श्रद्धा होती है और जिस विषय में श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है उस विषय में उसका मन लीन हो जाता है।95। जिस विषय में दत्तावधान बुद्धि नहीं होती उससे रुचि हट जाती है। जिससे रुचि हट जाती है उस विषय में लीनता कैसे हो सकती है।
3. चारित्र की शक्ति न हो तो श्रद्धान तो करना चाहिए
नि.सा./मू./154 जदि सक्कदि कादुं जे पडिकमणादिं करेज्ज झाणमयं। सत्तिविहीणो जा जइ सद्दहणं चेव कायव्वं।154। = यदि किया जा सके तो अहो ? ध्यानमय, प्रतिक्रमणादि कर; यदि तू शक्ति विहीन हो तो तब तक श्रद्धान ही कर्तव्य है।
द.पा./मू./22 जं सक्कइ तं कीरइ जं च ण सक्केइ तं च सद्दहणं। केवलिजिणेहिं भणियं सद्दहमाणस्स संमत्तं।22। = जो करने को (त्याग करने को) समर्थ हो तो करिये, परन्तु यदि करने को समर्थ नहीं तो श्रद्धान तो कीजिए, क्योंकि श्रद्धान करने वालों के केवली भगवान् ने सम्यक्त्व कहा है।22।
नि.सा./ता.वृ./154/क.264 कलिविलसिते पापबहुले। ...अतोऽध्यात्मं ध्यानं कथमिह भवेन्निर्मलधियां। निजात्मश्रद्धानं भवभयहरं स्वीकृतमिदम् । = पाप से बहुल कलिकाल का विलास होने पर...इस काल में अध्यात्म ध्यान कैसे हो सकता है। इसलिए निर्मल बुद्धि वाले भवभय का नाश करने वाली ऐसी इस निजात्म श्रद्धा को अंगीकार करते हैं।
4. यथार्थ श्रद्धान न करे तो अभव्य है
प्र.सा./मू./62 णो सद्दहंति सोक्खं सुहेसु परमं ति विगदघादीणं। सुणिदूण ते अभव्या भव्वा वा तं पडिच्छंति।62। = जिनके घातिकर्म नष्ट हो गये हैं, उनका सुख (सर्व) सुखों में उत्कृष्ट है, यह सुनकर जो श्रद्धा नहीं करते वे अभव्य हैं और भव्य उसे स्वीकार करते हैं - उसकी श्रद्धा करते हैं।
5. अन्य सम्बन्धित विषय
- श्रद्धान में सम्यक्त्व की प्रधानता। - देखें सम्यग्दर्शन - II.2,3।
- श्रद्धान में अनुभव की प्रधानता। - देखें अनुभव - 3।
- श्रद्धान व सम्यग्दर्शन में कथंचित् भेदाभेद। - देखें सम्यग्दर्शन - II.1।
- दर्शन का अर्थ श्रद्धान। - देखें सम्यग्दर्शन - I.1।
- श्रद्धान में भी कथंचित् ज्ञानपना। - देखें सम्यग्दर्शन - I.4।
- श्रद्धान व ज्ञान में पूर्वोत्तरवर्तीपना। - देखें ज्ञान - III.3।
- ज्ञान व श्रद्धान में अन्तर। - देखें सम्यग्दर्शन - I.4।
2. अन्ध श्रद्धान निर्देश
* श्रद्धान में परीक्षा की प्रधानता - देखें न्याय - 2.1।
1. परीक्षा रहित अन्ध श्रद्धान अकिंचित्कर
क.पा.1/7/3 जुत्तिविरहियगुरुवयणादो पयट्टमाणस्स पमाणाणुसारित्तविरोहादो। = शिष्य युक्ति की अपेक्षा किये बिना मात्र गुरु वचन के अनुसार प्रवृत्ति करता है उसे प्रमाणानुसारी मानने में विरोध आता है।
मो.मा.प्र./7/319/7 जो निर्णय करनै का विचार करतैं ही सम्यक्त्व को दोष लागै, तो अष्टसहस्री में आज्ञाप्रधानतैं परीक्षा प्रधान को उत्तम क्यों कहा ?
मो.मा.प्र./18/381/13 जो मैं जिन वचन अनुसारि मानौ हों तो भाव भासे बिना अन्यथापनो होय जाय।
सत्ता स्वरूप/पृ.102 (जिसकी सत्ता का निश्चय नहीं हुआ वह परीक्षा वालों को किस प्रकार स्तवन करने योग्य है। इससे सर्व की सत्ता सिद्ध हो, यहीं कर्म का मूल है। ऐसी जिनकी आम्नाय है।
भद्रबाहु चरित्र/प्र.6 पक्षपातो न मे वीरे न द्वेष: कपिलादिषु। युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्य: परिग्रह:। = न तो मुझे वीर भगवान् का कोई पक्ष है और न कपिलादिकों से द्वेष है जिसका भी वचन युक्ति सहित है, उस ही से मुझे काम है।
English Tatwarth Sutra/Page 15-Right Belief is not identical with blind faith, Its authority is neither External nor autocratic = सम्यग्दर्शन अन्ध श्रद्धान की भाँति नहीं है। इसका अधिकार न तो बाह्य है और न रूढ़ि रूप ही है।
2. अन्धश्रद्धान ईषत् निर्णय लक्षण वाला होता है
देखें आगम - 3.9 आगम की विरोधी दो बातों का संग्रह करने वाला संशय मिथ्यादृष्टि नहीं होता, क्योंकि संग्रह करने वाले के यह 'सूत्रकथित है' इस प्रकार का श्रद्धान पाया जाता है, अतएव उसे सन्देह नहीं हो सकता।
गो.जी./जी.प्र./561/1006/13 तच्छ्रद्धानं आज्ञया प्रमाणादिभिर्विना आप्तवचनाश्रयेण ईषन्निर्णयलक्षणया...। = बिना प्रमाण नय आदि के द्वारा विशेष जाने, जैसा भगवान् ने कहा वैसे ही है, ऐसे आप्त वचनों के द्वारा सामान्य निर्णय है लक्षण जिसका ऐसी आज्ञा के द्वारा श्रद्धान होता है।
3. सूक्ष्म दूरस्थादि पदार्थों के विषय में अन्ध श्रद्धान करने का आदेश
भ.आ./मू./36/128 धम्माधम्मागासाणि पोग्गला कालदव्व जीवे य। आणाए सद्दहन्तो समत्ताराहओ भणिदो।36। = धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल, काल व जीव इन छह द्रव्यों को जिनेश्वर की आज्ञा से श्रद्धान करने वाला आत्मा सम्यक्त्व का आराधक होता है।36।
द्र.सं./टी./48/202 पर उद्धृत...स्वयं मन्दबुद्धित्वेऽपि विशिष्टोपाध्यायाभावे अपि शुद्धजीवादिपदार्थानां सूक्ष्मत्वेऽपि सति सूक्ष्मं जिनोदितं वाक्यं हेतुभिर्यन्न हन्यते। आज्ञासिद्धं तु तद्ग्राह्यं नान्यथावादिनो जिना:...। = स्वयं अल्पबुद्धि हो विशेष ज्ञानी गुरु की प्राप्ति न हो जब शुद्ध जीवादि पदार्थों की सूक्ष्मता होने पर - श्री जिनेन्द्र का कहा हुआ जो सूक्ष्मतत्त्व है, वह हेतुओं से खण्डित नहीं हो सकता, अत: जो सूक्ष्मतत्त्व है उसे जिनेन्द्र की आज्ञा के अनुसार ग्रहण करना चाहिए। (द.पा./टी./12/12/28/पर उद्धृत)।
पं.वि./1/128 निश्चेतव्यो जिनेन्द्रस्तदतुलवचसां गोचरेऽर्थे परोक्षे। कार्य: सोऽपि प्रमाणं वदत किमपरेणालं कोलाहलेन। सत्यां छद्मस्थतायामिह समयपथस्वानुभूतिप्रबुद्धा। भो भो भव्या यतध्वं दृगवगमनिधावात्मनि प्रीतिभाज:।128। = हे भव्य जीवो ! आपको जिनेन्द्रदेव के विषय में व उनकी वाणी के विषयभूत परोक्ष पदार्थों के विषय में उसी को प्रमाण करना चाहिए, दूसरे व्यर्थ के कोलाहल से क्या प्रयोजन है। अतएव छद्मस्थ अवस्था के रहने पर सिद्धान्त मार्ग से आये हुए आत्मानुभव से प्रबोध को प्राप्त होकर आप सम्यग्दर्शन व ज्ञान की निधि स्वरूप आत्मा के विषय में प्रीतियुक्त होकर आराधना कीजिए।128।
अन.ध./2/25 धर्मादीनधिगम्य सच्छ्रुतनयन्यासानुयोगै: सुधी:, श्रद्दध्यादविदाज्ञयैव सुतरां जीवांस्तु सिद्धेतरान् ।25। = विशिष्ट ज्ञान के धारकों को समीचीन, प्रमाण-नय-निक्षेप और अनुयोगों के द्वारा धर्मादिक द्रव्यों को जानकर उनका श्रद्धान करना चाहिए। किन्तु मन्दज्ञानियों को केवल आज्ञा के अनुसार ही उनका ज्ञान व श्रद्धान करना चाहिए।
द्र.सं./टी./22/68/6 कालद्रव्यमन्यद्वा परमागमाविरोधेन विचारणीयं परं किन्तु वीतरागसर्वज्ञवचनं प्रमाणमिति मनसि निश्चित्य विचारो न कर्तव्य:। ...विवादे रागद्वेषौ भवतस्ततश्च संसारवृद्धिरिति। = काल द्रव्य तथा अन्य द्रव्य के विषय में परमागम के अविरोध से ही विचारना चाहिए। 'वीतराग सर्वज्ञ का वचन प्रमाण है' ऐसा मन में निश्चय करके उनके कथन में विवाद नहीं करना चाहिए। क्योंकि विवाद में राग-द्वेष व इनसे संसार की वृद्धि होती है।
पं.ध./उ./482 अर्थवशादत्र सूत्रे (सूत्रार्थे) शङ्का न स्यान्मनीषिणाम् । सूक्ष्मान्तरितदूरार्था: स्युस्तदास्तिक्यगोचरा:।482। =सूक्ष्म, दूरवर्ती और अन्तरित पदार्थ सम्यग्दृष्टि के आस्तिक्य के गोचर हैं अत: उनके अस्तित्व प्रतिपादक आगम में प्रयोजनवश कभी भी शंका नहीं होती।482।
देखें आगम - 3.9 छद्मस्थों को विरोधी सूत्रों के प्राप्त होने पर विशिष्ट ज्ञानी के अभाव में दोनों का संग्रह कर लेना चाहिए।
देखें सम्यग्दर्शन - I.1/2 तत्त्वादि पर अन्धश्रद्धान करना आज्ञासम्यक्त्व है।
4. क्षयोपशम की हीनता में तत्त्व सूत्रों का भी अन्ध श्रद्धान कर लेना योग्य है
का.अ./324 जो ण विजाणदि तच्चं सो जिणवयणे करेदि सद्दहणं। जं जिणवरेहि भणियं तं सव्वमहं समिच्छामि।324। =जो तत्त्वों को नहीं जानता किन्तु जिनवचन में श्रद्धान करता है कि जिन भगवान् ने जो कुछ कहा है उस उस सबको मैं पसन्द करता हूँ। वह भी श्रद्धावान् है।324।
पं.वि./1/125 य: कल्पयेत् किमपि सर्वविदोऽपि वाचि संदिह्य तत्त्वमसमञ्जसमात्मबुद्धया। खे पत्रिणां विचरतां सुदृशेक्षितानां संख्यां प्रति प्रविदधाति स वादमन्ध:।125। =जो सर्वज्ञ के भी वचन में संदिग्ध होकर अपनी बुद्धि से तत्त्व के विषय में अन्यथा कुछ कल्पना करता है, वह अज्ञानी पुरुष निर्मल नेत्रों वाले व्यक्ति के द्वारा देखे गये आकाश में विचरते हुए पक्षियों की संख्या के विषय में विवाद करने वाले अन्ध के समान आचरण करता है।125। (पं.वि./13/34)।
5. अन्ध श्रद्धान की विधि का कारण व प्रयोजन
देखें आगम - 6.4 अतीन्द्रिय पदार्थों के विषय में छद्मस्थ जीवों के द्वारा कल्पित युक्तियों से रहित निर्णय के लिए हेतुता नहीं पायी जाती। इसलिए उपदेश को प्राप्त करेक निर्णय करना चाहिए।
पं.ध./उ./1045 सूक्ष्मान्तरितदूरार्था: प्रागेवात्रापि दर्शिता:। नित्यं जिनोदितैर्वाक्यैर्ज्ञातुं शक्या न चान्यथा।1045। =पहले भी कहा है कि परमाणु आदि सूक्ष्म पदार्थ, राम-रावणादिक सुदीर्घ अतीत कालवर्ती और मेरु आदि दूरवर्ती पदार्थ सदैव जिनवाणी के द्वारा ही जाने जा सकते हैं किन्तु अन्यथा नहीं जाने जा सकते।1045।
3. सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टि के श्रद्धान में अन्तर
1. मिथ्यादृष्टि की प्ररूपणा पर सम्यग्दृष्टि को श्रद्धान नहीं होता।
पं.ध./उ./591 सूक्ष्मान्तरितदूरार्थे दर्शितेऽपि कुदृष्टिभि:। नाल्पस्तत: स मुह्येत किं पुनश्चेद्बहुश्रुत:।591। = मिथ्यादृष्टियों द्वारा सूक्ष्म, दूरस्थ व अन्तरित पदार्थों के दिखाने पर भी अल्पज्ञानी सम्यग्दृष्टि मोहित नहीं होता है। यदि बहुश्रुत धारक हुआ तो फिर भला क्योंकर मोहित होगा।
* मिथ्यादृष्टि का धर्म सम्बन्धी श्रद्धान श्रद्धान नहीं। - देखें मिथ्यादृष्टि - 4।
* सम्यग्दृष्टि के श्रद्धान में कदाचित् शंका की सम्भावना। - देखें नि:शंकित - 3।
2. सूक्ष्मादि पदार्थों के अश्रद्धान में भी सम्यग्दर्शन सम्भव है।
भ.आ./वि./37/131/21 यदि नाम धर्मादिद्रव्यापरिज्ञानात् परिज्ञानसहचारि श्रद्धानं नोत्पन्नं तथापि नासौ मिथ्यादृष्टिर्दर्शनमोहोदयस्य अश्रद्धानपरिणामस्याज्ञानविषयस्याभावात् । न हि श्रद्धानस्यानुत्पत्तिरश्रद्धानं इति गृहीतं श्रद्धानादन्यदश्रद्धानं इदमित्थमिति श्रुतनिरूपितेऽरुचि:। = यद्यपि धर्मादि द्रव्यों का ज्ञान न होने से ज्ञान के साथ होने वाली श्रद्धा उत्पन्न नहीं हुई तो भी वह सम्यग्दृष्टि ही है, मिथ्यादृष्टि नहीं है, क्योंकि दर्शन मोहनीय कर्म के उदय से उत्पन्न हुआ जो अश्रद्धान जो कि अज्ञान को विषय करता है वह यहाँ नहीं है। मिथ्यादर्शन से उत्पन्न हुआ जो श्रद्धान व अरुचि रूप है अर्थात् यह वस्तु स्वरूप इस तरह से है ऐसा जो आगम में कहा गया है उस विषय में अरुचि होना यह मिथ्यादर्शन रूप अश्रद्धान है और प्रकृत विषय में ऐसी अश्रद्धा नहीं है। परन्तु जिनेश्वर के प्रतिपादित जीवादि सच्चे हैं, ऐसी मन में प्रीति-रुचि उत्पन्न होती है।
3. गुरु नियोग से सम्यग्दृष्टि के भी असत् वस्तु का श्रद्धान सम्भव है।
भ.आ./मू./32/121 सम्मादिट्ठी जीवो उवइट्ठं पवयणं तु सद्दहइ। सद्दहइ असब्भावं अयाणमाणो गुरुणियोगा।32। = सम्यग्दृष्टि जीव जिन उपदिष्ट प्रवचन का तो श्रद्धान करता ही है, किन्तु कदाचित् (सद्भाव को) नहीं जानता हुआ गुरु के नियोग से असद्भाव का भी श्रद्धान कर लेता है।32। (क.पा./सुत्त/10/गा.107/637); (पं.सं./प्रा./1/12); (ध.1/1,1,13/गा.110/173); (ध.6/1,9-8,9/गा.14/242), (गो.जी./मू./27/56)।
ल.सा./मू./105/144 सम्मुदये चलमलिणमगाढं सद्दहदि तच्चयं अत्थं। सद्दहदि असब्भावं अजाणमाणो गुरुणियोगा।103। = सम्यक्त्व मोहनीय के उदय से तत्त्व श्रद्धान में चल, मल व अगाढ दोष लगते हैं। वह जीव आप विशेष न जानता हुआ अज्ञात गुरु के निमित्तैं असत् का भी श्रद्धान करता है। परन्तु सर्वज्ञ की आज्ञा ऐसे ही है ऐसा मानकर श्रद्धान करता है, अत: सम्यग्दृष्टि ही है।
4. असत् का श्रद्धान करने से सम्यक्त्व में बाधा नहीं आती।
भ.आ./वि./32/122/1 स जीव: सम्मादिट्ठी...प्रतीतपदार्थकत्वमादर्शितं। श्रद्धहति श्रद्धानं करोति असत्यमप्यर्थं अयाणमाणे अनवगच्छन् । किं। विपरीतमनेनोपदिष्टमिति। गुरोर्व्याख्यातुरस्यायमर्थ इति कथनान्नियुज्यते प्रतिपत्त्यां श्रोता अनेन वचनेन इति नियोग: कथनं। सर्वज्ञप्रणीतस्यागमस्यार्थ: आचार्यपरंपरया अविपरीत: श्रुतोऽवधृतश्चानेन सूरिणा उपदिष्टो ममेति सर्वज्ञाज्ञाया रुचिरस्यास्तीति। आज्ञारुचितया सम्यग्दृष्टिर्भवत्येवेति भाव:। =यह सम्यग्दृष्टि जीव असत्य पदार्थ का भी श्रद्धान करता है, परन्तु तब तक असत्य पदार्थ के ऊपर श्रद्धान करता है जब तक वह 'गुरु ने मेरे को असत्य पदार्थ का स्वरूप कहा है' यह नहीं जानता है। जब तक वह असत्य पदार्थ का श्रद्धान करता है तब तक उसने आचार्य परम्परा के अनुसार जिनागम के जीवादि तत्त्व का स्वरूप कहा है और जिनेन्द्र भगवान् की आज्ञा प्रमाणभूत माननी चाहिए ऐसा भाव हृदय में रखता है अत: उसके सम्यग्दर्शन में हानि नहीं है, वह मिथ्यादृष्टि नहीं गिना जाता है। सर्वज्ञ की आज्ञा के ऊपर उसका प्रेम रहता है, वह आज्ञा रुचि होने से सम्यग्दृष्टि ही है, ऐसा भाव समझना। (और भी देखें आगम - 5)।
गो.जी./जी.प्र./27/56/12 असद्भावं-अतत्त्वमपि स्वस्य विशेषज्ञानशून्यत्वेन केवलगुरुनियोगात् अर्हदाद्याज्ञात: श्रद्दधाति सोऽपि सम्यग्दृष्टिरेव भवति तदाज्ञाया अनतिक्रमात् ।27। =अपने विशेष ज्ञान का अभाव होने से गुरु के नियोग से 'अरहंत देव का ऐसा ही उपदेश है' ऐसा समझकर यदि कोई पदार्थ का विपरीत भी श्रद्धान कर लेता है तो भी वह सम्यग्दृष्टि ही है, क्योंकि उसने अरहंत का उपदेश समझकर उस पदार्थ का वैसा श्रद्धान किया है। उनकी आज्ञा का अतिक्रम नहीं किया।
5. सम्यक् उपदेश मिलने पर भी हठ न छोड़े तो मिथ्यादृष्टि हो जाये
भ.आ./मू.33,39 सुत्तादो तं सम्मं दरसिज्जंतं जदा ण सद्दहदि। सो चेव हवइ मिच्छादिट्ठी जीवो तदो पहुदि।33। पदमक्खरं च एक्कं पि जो ण रोचेदि सुत्तणिद्दिट्ठं। सेसं रोचंतो वि हु मिच्छादिट्ठी मुणेयव्वो।39। =1. सूत्र से आचार्यादिक के द्वारा भले प्रकार समझाये जाने पर भी यदि वह जीव विपरीत अर्थ को छोड़कर समीचीन अर्थ का श्रद्धान नहीं करता, तो उस समय से वह सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यादृष्टि हो जाता है। (ध.1/1,1,36/गा.143/262); (गो.जी./मू./28); (ल.सा./मू./106/144) 2. सूत्र में उपदिष्ट एक अक्षर भी अर्थ को प्रमाण मानकर श्रद्धा नहीं करता वह बाकी के श्रुतार्थ वा श्रुतांश को जानता हुआ भी मिथ्यादृष्टि है। क्योंकि बड़े पात्र में रखे दूध को छोटी सी भी विष कणिका बिगाड़ती है। इसी प्रकार अश्रद्धा का छोटा सा अंश भी आत्मा को मलिन करता है।39।
6. क्योंकि मिथ्यादृष्टि के ही ऐकान्तिक पक्ष होता है
भ.आ./मू./40/138 मोहोदयेण जीवो उवइट्ठं पवयणं ण सद्दहदि। सद्दहदि असब्भावं उवइट्ठं अणुवइट्ठं वा।40। =दर्शन मोहनीय कर्म के उदय होने से यह जीव कहे हुए जीवादि पदार्थों के सच्चे स्वरूप पर श्रद्धान करता नहीं है। परन्तु जिसका स्वरूप कहा है अथवा कहा नहीं ऐसे असत्य पदार्थों के ऊपर वह श्रद्धान करता है।40।
क.पा.सू./108/पृ.637 मिच्छाइट्ठी उवइट्ठं णियमा उवइट्ठं पवयणं ण सद्दहदि। सद्दहदि असब्भावं उवइट्ठं वा अणुवइट्ठं।108। = मिथ्यादृष्टि जीव नियम से सर्वज्ञ के द्वारा उपदिष्ट प्रवचन का तो श्रद्धान नहीं करता है, किन्तु असर्वज्ञ पुरुषों के द्वारा उपदिष्ट या अनुपदिष्ट असद्भाव का अर्थात् पदार्थ के विपरीत स्वरूप का श्रद्धान करता है।108। (ध.6/1,9-89/गा.15/242)।
* सम्यग्दृष्टि को पक्षपात नहीं होता - देखें सम्यग्दृष्टि - 4।
7. एकान्त श्रद्धान या दर्शन वाद का निर्देश
1. मिथ्या एकान्त की अपेक्षा
ज्ञा./4/24 कैश्चित् कीर्त्तिता मुक्तिर्दर्शनादेव केवलम् । वादिनां खलु सर्वेषामपाकृत्य नयान्तरम् ।24। = कई वादियों ने अन्य समस्त वादियों के अन्य नयपक्षों का निराकरण करके केवल दर्शन से ही मुक्ति होनी कही है।24।
2. सम्यगेकान्त की अपेक्षा
देखें विज्ञानवाद - 2 ज्ञान क्रिया व श्रद्धा तीनों ही मिलकर प्रयोजनवान् है।
देखें सम्यग्दर्शन - I.5 जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं वे भ्रष्ट हैं। क्योंकि सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान व चारित्र नियम पूर्वक नहीं होते।