आवश्यक
From जैनकोष
श्रावक व साधुको अपने उपयोगकी रक्षाके लिए नित्य ही छह क्रिया करनी आवश्यक होती है। उन्हींको श्रावक या साधुके षट् आवश्यक कहते हैं। जिसका विशेष परिचय इस अधिकारमें दिया गया है।
१. आवश्यक सामान्यका लक्षण
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा संख्या ५१५ ण वसो अवसो अवसस्स कम्ममावासगं त्ति बोधव्वा। जुत्तित्ति उवायत्ति य णिरवयवा होदि णिजुत्ती ।।५१५।।
= जो कषाय राग-द्वेष आदिके वशीभूत न हो वह अवश है, उस अवशका जो आचरण वह आवश्यक है। तथा युक्ति उपायको कहते हैं जो अखण्डित युक्ति वह निर्युक्ति है, आवश्यककी जो निर्युक्ति वह आवश्यक निर्युक्ति है।
(नियमसार / मूल या टीका गाथा संख्या .१४२)
नियमसार / मूल या टीका गाथा संख्या .१४७ आवासं जइ इच्छसि अप्पसहावेसु कुणदि थिर भावं। तेण दु सामण्णगुणं होदि जीवस्स ।।१४७।।
= यदि तू आवश्यकको चाहता है तो तू आत्मस्वभावोमें थिरभाव कर उससे जीवका समायिक गुण सम्पूर्ण होता है।
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका/ गाथा संख्या ११६/२७४/१२ आवासयाणं आवश्यकानां। ण वसो अवसो अवसस्स कम्ममावसगं इति व्युत्पत्ताव पि सामायिकादिष्वेवायं शब्दो वर्तते। व्याधिदौर्बल्यादिना व्याकुलो भण्यते अवशः परवश इति यावत्। तेनापि कर्त्तव्यं कर्मेति। यथा आशु गच्छतीत्यश्व इति व्युत्पत्तावपि न व्याघ्रादौ वर्तते अश्वशब्दौऽपि तु प्रसिद्धिवशात् तुरग एव। एवमिहापि अवश्यं यत्किंचन कर्म इतस्ततः परावृत्तिराक्रन्दनं, पूत्करणं वा तद्भण्यते। अथवा आवासकानां इत्ययमर्थः आवासयन्ति रत्नत्रयमात्मनीति।
= `ण वसो अवसो अवसस्स कम्मभावसं बोधव्वा' ऐसी आवश्यक शब्दकी निरुक्ति है। व्याधि-रोग अशक्तपना इत्यादि विकार जिसमें हैं ऐसे व्यक्तिको अवश कहते हैं, ऐसे व्यक्तिको जो क्रियाएँ करना योग्य है उनको आवश्यक कहते हैं। जैसे-`आशु गच्छतीत्यश्वः' अर्थात् जो शीघ्र दौड़ता है उसको अश्व कहते हैं, अर्थात् व्याघ्र आदि कोई भी प्राणी जो शीघ्र दोड़ सकते हैं वे सभी अश्व शब्द से संगृहीत होते हैं। परन्तु अश्व शब्द प्रसिद्धिके वश होकर घोड़ा इस अर्थमें ही रूढ़ है। वैसे अवश्य करने योग्य जो कोई भी कार्य वह आवश्यक शब्दसे कहा जाना चाहिए जैसे-लोटना, करवट बदलना, किसीको बुलाना वगैरह कर्तव्य अवश्य करने पड़ते हैं। आवश्यक शब्द यहाँ सामायिकादि क्रियाओमें ही प्रसिद्ध है। अथवा आवासक ऐसा शब्द मानकर `आवासयन्ति रत्नत्रयमपि इति आवश्यकाः' ऐसी भी निरुक्ति कहते हैं, अर्थात् जो आत्मामें रत्नत्रयका निवास कराते हैं उसको आवासक कहते हैं।
अनगार धर्मामृत अधिकार संख्या ८/१६ यद्व्याध्यादिवशेनापि क्रियतेऽक्षावशेन च। आवश्यकमवशस्य कर्माहोरात्रिकं मुनिः ।।१६।।
= जो इन्द्रियोंके वश्य-आधीन नहीं होता उसको अवश्य कहते हैं। ऐसे संयमी के अहोरात्रिक-किन और रातमें करने योग्य कर्मोंका नाम ही आवश्यक है। अतएव व्याधि आदिसे ग्रस्त हो जानेपर भी इन्द्रियोंके वश न पड़कर जो दिन और रातके काम मुनियोंको करने ही चाहिए उन्हींको आवश्यक कहते हैं।
२. साधुके षट् आवश्यकोंका नाम निर्देश
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा संख्या २२० समदा थओ य वंदण पाडिक्कमणं तहेव णादव्वं। पच्चक्खाण विसग्गो करणीयावासया छप्पि ।।२२।।
= सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वेदना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग-ये छह आवश्यक सदा करने चाहिए।
(मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा संख्या ५१६), ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ६/२२/११/५३०/११), (भगवती आराधना / विजयोदयी टीका/ गाथा संख्या ११६/२७४/१६), (धवला पुस्तक संख्या ८/३,४१/८३/१०) (पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक संख्या २०१) (चारित्रसार पृष्ठ संख्या ५५/३), (अनगार धर्मामृत अधिकार संख्या ८/१७), (भावपाहुड़ / मूल या टीका गाथा संख्या ७७)
३. अन्य सम्बन्धित विषय
१. साधुके षड़ावश्यक विशेष
- देखे वह वह नाम
२. श्रावकके षड़ावश्यक
- देखे श्रावक
३. त्रिकरणोंके चार-चार आवश्यक
- देखे करण ४/६
४. निश्चिय व्यवहार आवश्यकोंकी मुख्यता गौणता
- देखे चारित्र