GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 88 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
जिनके गमन / गति विद्यमान है, उनके ही स्थान / स्थिति होती है । वे जीव पुद्गल अपने परिणामों से ही गति और स्थिति करते है ।
वह इसप्रकार -- धर्म-द्रव्य किसी भी समय गति-हेतुत्व नहीं छोडता है, और अधर्म-द्रव्य स्थिति-हेतुत्व भी नहीं छोडता है । यदि गति और स्थिति के वे दोनों ही मुख्य कारण हों, तो गति और स्थिति के समय परस्पर मत्सर होता । मत्सर कैसे होता ? यदि ऐसा प्रश्न हो तो कहते हैं जिनकी गति होती है, उनकी हमेशा गति रहती है, स्थिति नहीं हो पाती और जिनकी स्थिति होती, उनकी सर्वदा ही स्थिति रहती, गति नहीं हो पाती; परन्तु ऐसा तो दिखाई नहीं देता है; अपितु जो गति करते हैं, वे ही बाद में स्थिति करते हैं; और जो स्थिति करते हैं, वे ही बाद में गति करते हैं । इससे ज्ञात होता है कि वे धर्म-अधर्म गति-स्थिति के मुख्य कारण नहीं है । यदि वे मुख्य कारण नहीं है तो गति-स्थितिमान जीव-पुद्गलों के गति-स्थिति कैसे होती है ? वे निश्चय से अपने परिणामों द्वारा ही गति और स्थिति करते हैं । यहाँ सूत्र में उपादेय-भूत निर्विकार चिदानन्द एक स्वभावी शुद्धात्म-तत्त्व से भिन्न होने के कारण ये हेय तत्त्व हैं, ऐसा अभिप्राय है ॥९६॥
इस प्रकार धर्म-अधर्म दोनों को व्यवस्थापित करने की मुख्यता से तीसरे स्थल में तीन गाथायें पूर्ण हुईं । इस प्रकार सात गाथा पर्यंत तीन स्थल द्वारा 'पंचास्तिकाय-षड्द्रव्य प्रतिपादक प्रथम महाधिकार' में 'धर्म-अधर्म व्याख्यान रूप से छठवाँ अन्तराधिकार' समाप्त हुआ । अब इसके बाद शुद्ध-बुद्ध एक स्वभावी निश्चय-मोक्ष के कारण-भूत सर्व-प्रकार से उपादेय-रूप शुद्ध जीवास्ति-काय से भिन्न आकाशास्ति-काय का सात गाथा पर्यन्त कथन करते हैं । उन सात गाथाओं में से
- सर्वप्रथम लोकाकाश-अलोकाकाश, दोनों के स्वरूप-कथन की मुख्यता से सव्वेसिं जीवाणं इत्यादि दो गाथायें हैं ।
- तत्पश्चात् गति-स्थिति दोनों को आकाश ही कर लेगा, धर्म-अधर्म से क्या प्रयोजन है ? ऐसे पूर्वपक्ष (प्रश्न) के निराकरण की मुख्यता से आगासं अवगासं इत्यादि पाठक्रम द्वारा चार गाथायें हैं ।
- तदनन्तर धर्म-अधर्म-लोकाकाश के एक क्षेत्रावगाही होने से और समान परिमाणत्व होने से असद्भूत व्यवहार की अपेक्षा एकत्व है तथा भिन्न लक्षणत्व होने से निश्चय की अपेक्षा पृथक्त्व है ऐसे प्रतिपादन की मुख्यता से धम्माधम्मागासा इत्यादि एक गाथा;