निगमन
From जैनकोष
- <a name="1" id="1">निगमन का लक्षण
न्या.सू./मू./१/१/३९ हेत्वपदेशात्प्रतिज्ञाया: पुनर्वचनं निगमनम् ।
न्या.सू/भाष्य/१/१/३९/३८/१२ उदाहरणस्थयोर्धर्मयो: साध्यसाधनभावोपपत्तौ साध्ये विपरीतप्रसङ्गप्रतिषेधार्थं निगमनम् । =हेतु पूर्वक पुन: प्रतिज्ञा या पक्ष का वचन कहना निगमन है। (न्या.दी./३/३२/७९/१)। साधनभूत का साध्यधर्म के साथ समान अधिकरण (एक आश्रय) होने का प्रतिपादन करना उपनय है। उदाहरण में जो दो धर्म हैं उनके साध्य साधनभाव सिद्ध होने में विपरीत प्रसंग के खण्डन के लिए निगमन होता है। प.मु./३/५१ प्रतिज्ञास्तु निगमनं।५१। =प्रतिज्ञा का उपसंहार करना निगमन है।
न्या.दी./३/७२/१११ साधनानुवादपुरस्सरं साध्यनियमवचनं निगमनम् । तस्मादग्निमानेवेति। =साधन को दुहराते हुए साध्य के निश्चयरूप वचन को निगमन कहते हैं। जैसे–धूमवाला होने से यह अग्निवाला ही है। - निगमनाभास का लक्षण
न्या.दी./३/७२/११२ अनयोर्व्यत्ययेन कथनमनयोराभास:।=उपनय की जगह निगमन और निगमन की जगह उपनय का कथन करना उपनयाभास तथा निगमनाभास हैं।