परिशिष्ट २—(आचार्य विचार)
From जैनकोष
- गंधहस्ति
श्वेताम्बर आम्नाय में यह नाम आ.सिद्धसेन की उपाधि के रूप में प्रसिद्ध है। परन्तु क्योंकि सिद्धसेन नाम के दो आचार्य हुए हैं, एक सिद्धसेन दिवाकर और दूसरे सिद्धसेन गणी, इसलिए यह कहना कठिन है कि यह इनमें से किसकी उपाधि है। उपाध्याय यशोविजय जी (वि.श.१७) ने इसे सिद्धसेन दिवाकर की उपाधि माना है।३१७। परन्तु पं.सुखलाल जी इसे सिद्धसेन गणी की उपाधि मानते हैं।३१८। आ.शालांक (वि.श.९-१०) ने आचारंग सूत्र की अपनी वृत्ति में गन्धहस्ती कृत जिस विवरण का उल्लेख किया है, वह इन्हीं की कृति थी ऐसा अनुमान होता है।३१९। (जै./१/पृष्ठ) - गर्गीष
सिद्धर्षि (वि.९६२) के ज्येष्ठ गुरु भ्राता तथा शिक्षा गुरु (दे.सिद्ध ऋषि) कृति―कर्म विपाक। इसकी परमानन्द कृति टीका राजा कुमारपाल (वि.११९९-१२३०) के शासनकाल में रची गई।४३१। अत: इनका काल वि.श.९ का अन्त अथवा १० का प्रारम्भ माना जा सकता है।४३२। (जै./१/पृष्ठ)। - चन्द्रर्षिमहत्तर
श्वेताम्बर पंचसंग्रह प्राकृत तथा उसकी स्वोपज्ञ टीका के रचियता एक प्रसिद्ध श्वेताम्बर आचार्य।३५१,३५६। शतक चूर्णि के रचयिता का नाम भी यद्यपि यही है।३५८। तदपि यह बात सन्दिग्ध है कि ये दोनों एक ही व्यक्ति थे या भिन्न।३५९। इनकी स्वोपज्ञ टीका में एक ओर तो विशेषावश्यक भाष्य (वि.६५०) की कुछ गाथायें उद्धृत पाई जाती हैं, और दूसरी ओर गर्गर्षि (वि.श.९-१०) कृत ‘कर्म विपाक’ के एक मत का खण्डन किया गया उपलब्ध होता है।३६१। इस पर से इनका काल वि.श.१० के अन्त में स्थापित किया जा सकता है। शतक चूर्णिका काल क्योंकि वि.७५०-१००० निश्चित किया गया है (दे.परिशिष्ट/१), इसलिये यदि दोनों के रचयिता एक ही व्यक्ति हैं तो कहना होगा कि वे इसी अवधि (वि.श.९-१०) के मध्य में कहीं हुए हैं।३६६। (जै./१/पृष्ठ)। - नन्दवंश
मगध देश का एक प्राचीन राज्यवंश। जैन शास्त्र के अनुसार इसका काल यद्यपि अवन्ती नरेश पालक के पश्चात् वी.नी.१० (ई.पू.४६७) से प्रारम्भ हो गया था, तदपि जैन इतिहासकार श्री जायसवाल जी के अनुसार यह मान्यता भ्रान्तिपूर्ण है। अवन्ती राज्य को मगध राज्य में मिलाकर उसकी वृद्धि करने के कारण श्रेणिक वंशीय नागदास के मन्त्री सुसुनाग का नाम नन्दिवर्द्धन पड़ गया था। वास्तव में वह नन्दवंश का राजा नहीं था। नन्दवंश में महानन्द तथा उसके आठ पुत्र ये नव नन्द प्रसिद्ध हैं, जिनका काल ई.पू.४१० से ३२६ तक रहा (दे.इतिहास/३/४)। इस वंश की चौथी पीढ़ी अर्थात् महानन्दि के काल से इस वंश में जैन धर्म ने प्रवेश पा लिया था।३३२। खारबेल के शिलालेख के अनुसार कलिंग देश पर चढ़ाई करके ये वहां से जिनमूर्ति ले आए थे।३५२। हिन्दु पुराणों ने साम्प्रदायिकता के कारण ही इनको शूद्रा का पुत्र लिख दिया है। जिसका अनुसरण करते हुए यूनानी लेखकों ने भी इन्हें नाई का पुत्र लिख दिया।३३२। धनानन्द इस वंश के अन्तिम राजा थे। जिन्होंने भोग विलास में पड़ जाने के कारण अपने मन्त्रीं शाकटाल को सकुटुम्ब बन्दी बनाकर अन्धकूप में डाल दिया था।३६४। (जै./पी./पृष्ठ); (भद्रबाहु चरित्र/३/८)/