GP:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 108 - टीका हिंदी
From जैनकोष
उपवास करने वाला धर्मरूपी अमृत को कानों से पीवे । धर्म को अमृत कहा है, क्योंकि यह समस्त प्राणियों के सन्तोष का कारण है । यदि उपवास करने वाला व्यक्ति वस्तुस्वरूप का ज्ञाता नहीं है, तो उत्सुकतापूर्वक अन्य विशिष्टजनों से धर्म के उपदेश को अपने कानों से सुने । यदि स्वयं तत्त्ववेत्ता है तो दूसरों को धर्मोपदेश सुनावे तथा आलस्य-प्रमाद को छोडक़र ध्यान-स्वाध्याय में लीन होते हुए अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म इन बारह भावनाओं के चिन्तन में उपयोग को लगावे अथवा आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय, संस्थानविचय लक्षणरूप धर्मध्यान में तत्पर रहे ।