चोरी
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
लांटी संहिता अधिकार 2/168-170ततोऽवश्यं हि पापः स्यात्परस्वहरणे नृणाम्। यादृशं मरणे दुःखं तादृशं द्रविणक्षितौ ॥168॥ एवमेतत्परिज्ञाय दर्शनश्रावकोत्तमैः। कर्त्तव्या न मतिः क्वापि परदारधनादिषु ॥169॥ आस्तां परस्वस्वीकाराद्यद् दुःखं नारकादिषु। यदत्रैव भवेद् दुःखं तद्वक्तुं कः क्षमो नरः ॥170॥ = चोरी करने वाले पुरुष को अवश्य महापाप उत्पन्न होता है क्योंकि, जिसका धन हरण किया जाता है उसको जैसा मरने में दुःख होता है वैसा ही दुःख धन के नाश हो जाने पर होता है ॥168॥ उपरोक्त प्रकार चोरी के महादोषों को समझकर दर्शनप्रतिमा धारण करने वाले उत्तम श्रावक को दूसरे की स्त्री वा दूसरे का धन हरण करने के लिए कभी भी अपनी बुद्धि नही करनी चाहिए ॥169॥ दूसरे का धन हरण करने से वा चोरी करने से जो नरक आदि दुर्गतियों में महादुःख होता है वह तो होता ही है किंतु ऐसे लोगों को इस जन्म में ही जो दुःख होते हैं उनको भी कोई मनुष्य कह नहीं सकता ॥170॥
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पुराणकोष से
बिना दिये दूसरे का धन लेना । इसके दो भेद है नैसर्गिक और निमित्त । नैसर्गिक चोरी करोड़ों की संपदा होने पर भी लोभ कषाय के कारण की जाती है । स्वाभाविक चोर चोरी किये बिना नहीं रह सकता । धन के अभाव के कारण स्त्री-पुत्र आदि के लिए की गयी चोरी निमित्तज होती है । दोनों ही प्रकार की चोरी बंध का कारण है । महापुराण 59.178-186