दर्शनपाहुड गाथा 4
From जैनकोष
अब कहते हैं कि अन्तरंगसम्यग्दर्शन बिना बाह्यचारित्र से निर्वाण नहीं होता -
दंसणभट्ठा भट्ठा दंसणभट्ठस्स णत्थि णिव्वाणं । सिज्झंति चरियभट्ठा दंसणभट्ठा ण सिज्झंति ।।३।।
- स्वानुभूति ज्ञान गुण की पर्याय है, ज्ञान के द्वारा सम्यक्त्व का निर्णय करना उसका नाम व्यवहारी को व्यवहार का आश्रय समझना, किन्तु भेदरूप व्यवहार के आश्रय से वीतराग अंशरूप धर्म होगा ऐसा अर्थ कहीं पर नहीं समझना । दृगभ्रष्ट हैं वे भ्रष्ट हैं उनको कभी निर्वाण ना । हों सिद्ध चारित्रभ्रष्ट पर दृगभ्रष्ट को निर्वाण ना ।।३।।
दर्शनभ्रष्टा: भ्रष्टा: दर्शनभ्रष्टस्य नास्ति निर्वाणम् । सिध्यन्ति चारित्रभ्रष्टा: दर्शनभ्रष्टा: न सिध्यन्ति ।।३।।
अर्थ - जो पुरुष दर्शन से भ्रष्ट हैं वे भ्रष्ट हैं; जो दर्शन से भ्रष्ट हैं उनको निर्वाण नहीं होता; क्योंकि यह प्रसिद्ध है कि जो चारित्र से भ्रष्ट हैं, वे तो सिद्धि को प्राप्त होते हैं, परन्तु जो दर्शन से भ्रष्ट हैं, वे सिद्धि को प्राप्त नहीं होते ।
भावार्थ - जो जिनमत की श्रद्धा से भ्रष्ट हैं, उन्हें भ्रष्ट कहते हैं और जो श्रद्धा से भ्रष्ट नहीं हैं, किन्तु कदाचित् कर्म के उदय से चारित्रभ्रष्ट हुए हैं, उन्हें भ्रष्ट नहीं कहते; क्योंकि जो दर्शन से भ्रष्ट हैं, उन्हें निर्वाण की प्राप्ति नहीं होती; जो चारित्र से भ्रष्ट होते हैं और श्रद्धानदृढ रहते हैं उनके तो शीघ्र ही पुन: चारित्र का ग्रहण होता है और मोक्ष होता है तथा दर्शन से भ्रष्ट होय उसी के फिर चारित्र का ग्रहण कठिन होता है, इसलिए निर्वाण की प्राप्ति दुर्लभ होती है । जैसे - वृक्ष की शाखा आदि कट जायें और जड़ बनी रहे तो शाखा आदि शीघ्र ही पुन: उग आयेंगे और फल लगेंगे, किन्तु जड़ उखड़ जाने पर शाखा आदि कैसे होंगे ? उसीप्रकार धर्म का मूल दर्शन जानना ।।३।।