भावपाहुड गाथा 138
From जैनकोष
आगे कहते हैं कि ऐसे मिथ्यात्व के निमित्त से दुर्गति का पात्र होता है -
कुच्छियधम्मम्मि रओ कुच्छियपासंडिभत्तिसंजुत्तो ।
कुच्छियतवं कुणंतो कुच्छियगइभायणो होइ ।।१४०।।
कुत्सितधर्मे रत: कुत्सितपाषंडिभक्तिसंयुक्त: ।
कुत्सिततप: कुर्वन् कुत्सितगतिभाजनं भवति ।।१४०।।
तप तपें कुत्सित और कुत्सित साधु की भक्ति करें ।
कुत्सित गति को प्राप्त हों रे मूढ़ कुत्सितधर्मरत ।।१४०।।
अर्थ - आचार्य कहते हैं कि जो कुत्सित (निंद्य) मिथ्याधर्म में रत (लीन) है, जो पाखण्डी निंद्यभेषियों की भक्तिसंयुक्त है, जो निंद्य मिथ्याधर्म पालता है, मिथ्यादृष्टियों की भक्ति करता है और मिथ्या अज्ञानतप करता है, वह दुर्गति ही पाता है, इसलिए मिथ्यात्व छाे़डना, यह उपदेश है ।।१४०।।