मोक्षपाहुड गाथा 41
From जैनकोष
आगे सम्यग्ज्ञान का स्वरूप कहते हैं -
जीवाजीवविहत्ती जोई जाणेइ जिणवरमएण ।
तं सण्णाणं भणियं अवियत्थं सव्वदरसीहिं ।।४१।।
जीवाजीवविभक्तिं योगी जानाति जिनवरमतेन ।
तत् संज्ञानं भणितं अवितथं सर्वदर्शिभि: ।।४१।।
यह सर्वदर्शी का कथन कि जीव और अजीव की ।
भिन-भिन्नता को जानना ही एक सम्यग्ज्ञान है ।।४१।।
अर्थ - जो योगी मुनि जीव अजीव पदार्थ के भेद जिनवर के मत से जानता है वह सम्यग्ज्ञान है ऐसा सर्वदर्शी-सबको देखनेवाले सर्वज्ञदेव ने कहा है, अत: वह ही सत्यार्थ है, अन्य छद्मस्थ का कहा हुआ सत्यार्थ नहीं है, असत्यार्थ है, सर्वज्ञ का कहा हुआ ही सत्यार्थ है ।
भावार्थ - सर्वज्ञदेव ने जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल ये जाति अपेक्षा छह द्रव्य कहे हैं । (संख्या अपेक्षा अनंत, अनंतानंत, एक और असंख्यात एक, एक हैं ।) इनमें जीव को दर्शन-ज्ञानमयी चेतनास्वरूप कहा है, वह सदा अमूर्तिक है अर्थात् स्पर्श, रस, गंध, वर्ण से रहित है । पुद्गल आदि पाँच द्रव्यों को अजीव कहे हैं ये अचेतन हैं, जड़ हैं । इनमें पुद्गल स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्दसहित मूर्तिक (रूपी) है, इन्द्रियगोचर है, अन्य अमूर्तिक हैं । आकाश आदि चार तो जैसे है वैसे ही रहते हैं । जीव और पुद्गल का अनादिसंबंध है । छद्मस्थ के इन्द्रियगोचर पुद्गलस्कंध है, उनको ग्रहण करके जीव राग-द्वेष-मोहरूप परिणमन करता है, शरीरादि को अपना मानता है तथा इष्ट-अनिष्ट मानकर राग-द्वेषरूप होता है, इससे नवीन पुद्गल कर्मरूप होकर बंध को प्राप्त होता है, यह निमित्त-नैमित्तिक भाव है, इसप्रकार यह जीव अज्ञानी होता हुआ जीव-पुद्गल के भेद को न जानकर मिथ्याज्ञानी होता है । इसलिए आचार्य कहते हैं कि जिनदेव के मत से जीव-अजीव का भेद जानकर सम्यग्दर्शन का स्वरूप जानना । इसप्रकार जिनदेव ने कहा वह ही सत्यार्थ है, प्रमाण नय के द्वारा ऐसे ही सिद्ध होता है, इसलिए जिनदेव सर्वज्ञ ने सब वस्तु को प्रत्यक्ष देखकर कहा है । अन्यमती छद्मस्थ हैं, इन्होंने अपनी बुद्धि में आया वैसे ही कल्पना करके कहा है, वह प्रमाण सिद्ध नहीं है । इनमें कई वेदान्ती तो एक ब्रह्ममात्र कहते हैं, अन्य कुछ वस्तुभूत नहीं है, मायारूप अवस्तु है, ऐसा मानते हैं । कई नैयायिक, वैशेषिक जीव को सर्वथा नित्य सर्वगत कहते हैं, जीव के और ज्ञान गुण के सर्वथा भेद मानते हैं और अन्य कार्यात्र है उनको ईश्वर करता है इसप्रकार मानते हैं । कई सांख्यमती पुरुष को उदासीन चैतन्यस्वरूप मानकर सर्वथा अकर्ता मानते हैं, ज्ञान को प्रधान का धर्म मानते हैं । कई बौद्धमती सर्व वस्तु को क्षणिक मानते हैं, सर्वथा अनित्य मानते हैं, इनमें भी अनेक मतभेद हैं, कई विज्ञानमात्र तत्त्व मानते हैं, कई सर्वथा शून्य मानते हैं, कोई अन्यप्रकार मानते हैं । मीमांसक कर्मकांडात्र ही तत्त्व मानते हैं, जीव को अणुात्र मानते हैं तो भी कुछ परमार्थ नित्य वस्तु नहीं है इत्यादि मानते हैं । चार्वाकमती जीव को तत्त्व नहीं मानते हैं, पंचभूतों से जीव की उत्पत्ति मानते हैं । इत्यादि बुद्धिकल्पित तत्त्व मानकर परस्पर में विवाद करते हैं, वह युक्त ही है, वस्तु का पूर्णरूप दीखता नहीं है, तब जैसे अंधे हस्ती का विवाद करते हैं, वैसे विवाद ही होता है, इसलिए जिनदेव सर्वज्ञ ने ही वस्तु का पूर्णरूप देखा है, वही कहा है । यह प्रमाण और नयों के द्वारा अनेकान्तरूप सिद्ध होता है । इनकी चर्चा हेतुवाद के जैन के न्याय-शास्त्रों से जानी जाती है, इसलिए यह उपदेश है, जिनमत में जीवाजीव का स्वरूप सत्यार्थ कहा है, उसको जानना सम्यग्ज्ञान है, इसप्रकार जानकर जिनदेव की आज्ञा मानकर सम्यग्ज्ञान को अंगीकार करना, इसी से सम्यक्चारित्र की प्राप्ति होती है, ऐसे जानना ।