ग्रन्थ:लिंगपाहुड़ गाथा 3
From जैनकोष
जो पावमोहिदमदी लिंगं घेत्तूण जिणवरिंदाणं ।
उवहसदि लिंगिभावं १लिंगिम्मिय णारदो लिंगी ॥३॥
य: पापमोहितमति: लिङ्ग गृहीत्वा जिनवरेन्द्रानाम् ।
उपहसति लिङ्गिभावं लिङ्गिषु नारद: लिङ्गी ॥३॥
आगे कहते हैं कि जो जिनलिंग निर्ग्रन्थ दिगम्बर रूप को ग्रहण कर कुक्रिया करके हँसी कराते हैं, वे जीव पापबुद्धि हैं -
अर्थ - जो जिनवरेन्द्र अर्थात् तीर्थंकर देव के लिंग नग्न दिगम्बररूप को ग्रहण करके लिंगीपने के भाव को उपहसता है, हास्यमात्र समझता है वह लिंगी अर्थात् भेषी जिसकी बुद्धि पाप से मोहित है, वह नारद जैसा है अथवा इस गाथा के चौथे पाद का पाठान्तर ऐसा है - ‘‘लिंग णासेदि लिंगीणं’ इसका अर्थ - यह लिंगी कोई अन्य जो कई लिंगों के धारक हैं उनके लिंग को भी नष्ट करता है, ऐसा बताता है कि लिंगी सब ऐसे ही हैं ।
भावार्थ - लिंगधारी होकर भी पापबुद्धि से कुछ कुक्रिया करे तब उसने लिंगीपने को हास्यमात्र समझा, कुछ कार्यकारी नहीं समझा । लिंगीपना तो भावशुद्धि से शोभा पाता है, जब भाव बिगड़े तब बाह्य कुक्रिया करने लग गया तब इसने इस लिंग को लजाया और अन्य लिंगियों के लिंग को भी कलंक लगाया, लोग कहने लगे कि लिंगी ऐसे ही होते हैं अथवा जैसे नारद का भेष है, उसमें वह अपनी इच्छानुसार स्वच्छंद प्रवर्तता है वैसे ही यह भी भेषी ठहरा इसलिए आचार्य ने ऐसा आशय धारण करके कहा है कि जिनेन्द्र के भेष को लजाना योग्य नहीं है ॥३॥