वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 62
From जैनकोष
‘‘णावी खवेइ कम्मं णाणबलेणेदि वोल्लए अण्णाणि।
‘‘वेज्जो भेसज्जमहं जाणे इति णस्सदे वाही।।62।।’’
ज्ञान का परिचय―इस रयणसार ग्रंथ में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूपी रत्न को वर्णन है, रत्न मायने श्रेष्ठ। रत्न मायने पत्थर नहीं किंतु पत्थरों में श्रेष्ठ निकले तो उसे भी रत्न कहने लगे। मनुष्यों में श्रेष्ठ हो तो मनुष्य रत्न, तो भावों में श्रेष्ठ क्या है? अपने आत्मा के सही स्वरूप की पहिचान और उस ही का ज्ञान और उस ही में रमण यह है उत्कृष्ट भाव। आत्मा का सही स्वरूप क्या है? तब यह मैं हूँ प्रत्येक के भीतर मैं हूँ तो जो मैं हूँ, सो अपने आप हूँ या किसी दूसरे को लेकर हूँ। कोई भी पदार्थ किसी दूसरे से मिलकर ‘है’ नहीं बनता। एक-एक वस्तु अपना अस्तित्व रखता है और उनकी मिलावट होने से ये दिखने वाले स्कंध हो जाते हैं तो मैं हूँ अपने आप हूँ स्वयं सत् हूँ, दूसरे से मिलकर सत् नहीं हूँ। तो जो मैं स्वयं सत् हूँ वह केवल पदार्थ क्या? ऐसा अंतः मनन करना चाहिए। वह केवल मैं क्या? एक शुद्ध ज्ञान ज्योति स्वरूप दर्पण तो स्वयं अपने में स्वच्छ है, पर सामने कोई वस्तु आ जाये तो दर्पण विकृत मलिन हो जाता है। तो ऐसे ही यह मैं आत्मा जगत के सभी आत्मा स्वच्छ निर्विकार ज्ञान मात्र तत्त्व हूँ, पर अनादि से अज्ञान बसाकर कर्म बंध साथ रह रहा, औपाधिक विचार का उदय सामने आता है और वह सब झलक कर मेरे को गंदला कर देता है वह गंदला नहीं करता किंतु उनका संबंध पाकर यह मैं स्वय गंदला हो जाता हूँ। जैसे दर्पण के सामने कोई लाल। कपड़ा किया तो दर्पण ने कपड़े को लाल नहीं किया। कपड़ा तो अपनी जगह ही बना हुआ है मगर ऐसा योग है कि दर्पण के सामने जैसी वस्तु हों वैसी इसमें फोटो अपने में अपनी परिणति से आती है, ऐसे ही पहले बाँधे हुए कर्म का उदय आया कि उस काल में इस जीव का अपने आप वैसा विकल्प बनता है। वह विकल्प औपाधिक है, मेरा स्वरूप नहीं है, मैं तो अविकार ज्ञानानंद रस से भरा हुआ हूँ। ऐसी जिसको दृष्टि हुई है अनुभव हुआ है इस रूप अपने को माना हैं उसे कहते हैं ज्ञानी। ज्ञान की बात बोलकर भी अज्ञानी की अपात्रता―ज्ञान की कोई बात करे चर्चा करे श्लोक पढ़े व्याख्यान दे, उसके मायने ज्ञानी नहीं है, किंतु अपने ज्ञान स्वभाव को अपने ज्ञान में अनुभव करले उसे कहते हैं ज्ञानी। कहो ऊंचे से ऊंचे विद्वान और वैज्ञानिक ज्ञानी न बन सकें और एक पशु या पक्षी जो मन वाले पंचेंद्रिय हैं उनमें से कोई विरला ही यह अंतर्दृष्टि पाये तो वह ज्ञानी बन जाय। कोई लौकिक ज्ञान बहुत पाये उसे ज्ञानी नहीं कहा किंतु जो अपने ज्ञान स्वरूप को यह मैं हूँ ऐसा लखकर अनुभव करले, मग्न हो ले दूसरी कोई वस्तु उस आत्मा में बाधक न हो ऐसी वृत्ति वाला पुरुष ज्ञानी कहलाता है। ज्ञानी को महिमा का कौन वर्णन सकता? जो वास्तव में ज्ञानी हो, जो ज्ञानी है सही, उसको बाहर की चीज कुछ सुहाती नहीं है ज्ञात दृष्टा रहता है। पर अपने आप में बस ज्ञानमात्र हूँ। ऐसा अनुभव रहता है। वह तो है ज्ञानी और केवल उद्दंड पुरुष चाहे व्रती साधु भेष भी रख ले और कहे कि ज्ञानी कर्म से नहीं बँधता तो ज्ञान तो वास्तविक है नहीं अनुभवात्मक और ज्ञानी कर्म से नहीं बँधता है। कोई बहाना लेकर अपने में स्वच्छंद रहे तो ऐसा पुरुष निर्वाण को पायगा ही। क्या वह दुर्गति पायगा? नहीं! तो ज्ञानी कर्म का भय करता है ज्ञानबल से ऐसा बोलता हुआ अज्ञानी केवल बोलता ही है पर मुक्ति के मार्ग को नहीं पाता। जैसे कोई वैद्य ऐसा कहे कि मैं दवाई जानता हूँ तो इतने मान से रोग दूर हो जायगा क्यों? अरे इतना जानने मात्र से व्याधि से दूर न होगी। वह व्याधि (रोग) तब दूर होगी जब की उस औषधि का सेवन किया जायगा। तो ऐसे ही यह आत्मा ज्ञान मात्र है, इतना बोल देने मात्र से या थोड़ा जान लेने मात्र से जन्म मरण की परंपरा दूर न होगी, किंतु ज्ञान में ज्ञान स्वरूप का अनुभव बने ऐसा ज्ञानबल होता उससे कर्मों का क्षय होता है।