वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 192
From जैनकोष
जीवा हवंति तिविहा बहिरप्पा तह य अंतरप्पा य ।
परमप्पा वि य दुविहा अरहंता तह व सिद्धा य ।।192।।
जीव के भेदों का शांतिमागदर्शक पद्धति से वर्णन―शांति के लिए एक प्रधान साधन है पदार्थ का यथावत स्वरूप समझ लेना । जीव की शांति का संबंध ज्ञान के साथ है, धनवैभव इज्जत और-और भी बाहरी चीजें समागम कुटुंब इनके साथ नहीं है । ज्ञान सही होगा, अपना मन वश होगा, ज्ञान द्वारा अपने आपमें बसे हुए सहज भगवान के दर्शन किये जाते होंगे तो वहाँ तृप्ति है, संतोष है, शांति है और जहाँ ज्ञान नहीं है वहाँ पूर्वकृत पुण्य के उदय से चाहे कुछ वैभव मिल जाय, चाहे कितनी ही लौकिक प्रतिष्ठा हो जाय, किंतु वहाँ शांति नहीं है । शांति के लिए किसी भी बाहरी कमी, विघ्नरूप नहीं होती । अपना परिज्ञान हो तो वहाँ शांति नियम से है । उस ही ज्ञान के प्रकरण में लोकानुप्रेक्षा में 6 द्रव्यों का किस-किस प्रकार से स्वरूप है? यह बताने के लिए यहाँ दूसरी प्रकार से जीवों का भेद प्रभेद बताया जा रहा है । जीव तीन प्रकार के होते है―बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा । जीव की यहाँ त्रिविधता सबने स्वीकार की है । कोई जीव, आत्मा, ब्रह्म, इस प्रकार से तीन मानते हैं, कोई अज्ञानी, ज्ञानी और प्रभु ये तीन प्रकार कहते हैं । यह त्रिविधता सबको माननी पड़ेगी जो जीवतत्त्व में आस्था रखते हैं ।
जीव की सब पर्यायों में अवस्थित जीव के सहज स्वभाव का संकेत―इस प्रसंग में एक बात और जाननी है जीव से संबंधित, हमें चार तत्त्व परखने होंगे―बहिरात्मापन, अंतरात्मापन और परमात्मापन और सहज स्वभाव । इन चार बातों को कुछ दार्शनिकों ने इन शब्दों में कहा है―ब्रह्म जागृति स्वप्न और अंतःप्रज्ञ । बहिरात्मा का नाम जागृति रखा है, अंतरात्मा का नाम सुणुप्ति रखा है, परमात्मा का नाम अंतःप्रज्ञ रखा है और सहजस्वभाव का नाम ब्रह्म रखा गया है । यद्यपि स्याद्वाद शासन में बताये हुए इन चार तत्त्वों के स्वरूपमर्म की तुलना यथार्थ नहीं बैठती, कारण कि वहाँ चार तत्त्व भिन्न-भिन्न रूप से माने गए और ब्रह्म को अपरिणामी स्वीकार किया गया है जब कि वास्तविकता यह है कि यह ब्रह्मस्वरूप, यह सहज ज्ञायकस्वरूप आत्मतत्त्व शाश्वत है और वह जिस प्रकार स्वतःसिद्ध है उसी प्रकार स्वत: परिणमनशील है । जो भी सत् होता है वह स्वत:सिद्ध और स्वत: परिणामी होता है । तब इस परिणाम में बहिरात्मत्व, अंतरात्मत्व और परमात्मत्व ये तीन अवस्थायें बनती हैं । अवस्था की दृष्टि से यहाँ यह जानना है कि बहिरात्मापन तो हेय है, अंतरात्मापन उपाय है और परमात्मापन उपादेय है । अंतरात्मत्व ऐसा उपाय है कि जिससे बहिरात्मत्व का नाश और परमात्मत्व का अभ्युदय होता है । इन तीन अवस्थाओं का वर्णन करके ही हम सहज ज्ञायक स्वभाव की पहिचान कर सकेंगे । इस कारण सर्वप्रथम इन तीन अवस्थाओं का वर्णन किया जा रहा है । समयसार में भी जब यह संकल्प किया कि मैं समयप्राभृत को कहूंगा तो समय का वर्णन करना चाहिये ना । समय मायने आत्मा । तो पूछा गया कि समय क्या है? तो एक प्रारंभ में उत्तर दिया गया कि दर्शन ज्ञान चारित्र में स्थित रहे वह स्वसमय है । और जो पुद्गल कर्म व्यपदेश में स्थित है वह परसमय है । पूछा तो गया कि समय क्या हैं ? और उत्तर दिया गया अवस्थाओं का । यह पद्धति क्यों अपनाई? इसलिए कि अवस्थाओं का परिज्ञान करके समझा जायेगा कि जो एक पदार्थ दोनों अवस्थाओं में है वह है समय । तो यहाँ तीन अवस्थाओं का वर्णन किया जा रहा है―बहिरात्मा, रहता अंतरात्मा और परमात्मा ।
बहिरात्मा व अंतरात्मा का स्वरूप―बहिरात्मा वह कहलाता है जो बाह्यद्रव्य विषयों में शरीर पुत्र स्त्री आदिक चेतन अचेतन रूपों में जिनकी आत्मा है वह बहिरात्मा है याने जिनका उपयोग बाह्यपदार्थों में फंसा हुआ है वे बहिरात्मा है। देह और जीव को जो एक मानते हैं, वे बहिरात्मा हैं। जहां इतने निकट देह को अपना मानने पर बहिरात्मत्व दिखाया है वहाँ प्रकट भिन्न परपदार्थों में कोई आत्मा माने तो वह बहिरात्मा है, यह प्रकट ही सिद्ध है। अंतरात्मा का अर्थ है अंत: अंतरंग में जिसका आत्मा हो। शरीरादिक से भिन्न प्रतिभासमान आत्मा जिसका अंत: हो उसे अंतरात्मा कहते हैं याने जिसने अपने सहज अंतस्तत्त्व को आत्मारूप से स्वीकार किया है वह अंतरात्मा है। अंतरात्मा होने की पहचान दूसरा कोई न जान सकेगा, खुद समझ सकते हैं। अपनी रुचि को निरखें कि मेरी रुचि किस ओर है? क्या जगत के सारे समागमों से हटकर मेरी रुचि मेरे सहज ज्ञानस्वरूप के उपयोग के लिए है? यदि है तो अंतरात्मापन है, यदि नहीं है अंत: रुचि, परद्रव्यों से भिन्न अपने आपके स्वरूप में रुचि नहीं है तो अंतरात्मापन नहीं प्रकट हुआ।
स्वयं में धर्मप्रयोग किये बिना धर्मात्मत्व के अभ्युदय का अभाव―देखिये―धर्मप्रचार के अर्थ अपनी-अपनी सम्हाल करने की फिक्र कीजिए। जैसे कितने ही लोग चाहते हैं कि मैं धर्म का प्रचार करूं, बहुत से लोगों से त्याग करा दूं, बहुत से लोगों को बात समझा दूं, ये लोग कहने लगें कि यह धर्म अच्छा है तो इस फिक्र में बड़ा परिश्रम करते हैं और अपने आपकी कुछ सुध बुध भी नहीं है, अपने आपकी कोई कृपा ही नहीं है। फल यह होता है कि उनका प्रयत्न नि:सार होता है व लोग प्रभावित नहीं बन पाते। और, इस तरह अगर सभी लोग करने लगें कि दूसरों से धर्म करावें, दूसरों को धर्म सिखावें, दूसरे लोग मानने लगें कि धर्म अच्छी चीज है, यदि सभी लोग ऐसा ही करें तो बताओ एक व्यक्ति ने भी धर्म कर पाया क्या? वहाँ एक ने भी धर्म नहीं किया। और, कोई पुरुष ऐसा है जो अपने आपमें ज्ञान प्रकट करके अपने आपमें शांति का मार्ग अपना रहा है तो लो वह एक तो धर्मात्मा हुआ, और उसके संपर्क में जो लोग होंगे वे भी प्रभावित होकर स्वयं धर्मात्मा न सकेंगे। तो खुद पर धर्म प्रयोग करने से धर्मत्व आता है, दूसरों पर प्रयोग करने से नहीं आता। एक बार बीरबल और बादशाह (अकबर) से परस्पर में बात हुई, बादशाह ने पूछा कि ऐ बीरबल सच बताओ कि अपने इस नगर में सभी नागरिक मेरे सच्चे आज्ञाकारी हैं या ऊपर से ही आज्ञा मानते हैं, भीतर में मायाचार भरा है। तो बीरबल ने उत्तर दिया कि हुजूर इसके उत्तर दोनों हैं। आप जिस रूप में लोगों को देखना चाहें देख सकते हैं। वस्तुत: ये सभी आज्ञाकारी है भी और नहीं भी हैं। तो अकबर बादशाह ने पूछा―बताओ किस तरह ये नागरिक हमारे सच्चे अधिकारी नहीं हैं? तो बीरबल ने क्या किया कि रात्रि के 8-9 बजे ऐसा ऐलान करवा दिया नगर में कि महाराजा ने अपने आँगन में एक बड़ा हौज बनवाया है। आज उन्हें कई मन दूध की आवश्यकता है, सो सभी लोग अपने-अपने घर से एक-एक सेर दूध लाकर हौज में डाल जावें। अब चूंकि रात्रि का समय था, अपने लोगों ने अपने-अपने मन में सोच लिया कि और लोग तो दूध लावेंगे ही, एक हम दूध न ले गए तो क्या हुआ? सो एक सेर पानी भरकर डालने गए। ऐसा ही सभी ने सोचा और किया। जब सबेरा हुआ तो क्या देखा कि वहाँ दूध का नाम नहीं, सारा हौज पानी से भरा था। बस बादशाह ने वास्तविकता समझ ली। तो यों ही समझ लो अगर सभी लोग ऐसा सोचने लगें कि ये सभी लोग धर्मात्मा बन जावें, एक हम न बन पाये तो क्या हुआ, तो भला बतलाओ इस तरह से कोई धर्मात्मा बन सकेगा क्या? धर्म है आत्मा की क्षोभ मोहरहित परिणति। खुद को क्षोभ न जगे, मोह न हो, स्नेह न हो तो वहाँ धर्म प्रकट होता है और बाकी तो ज्ञान के अभाव में जितने धर्म के लिए श्रम किए जाते हैं वे दिलबहलावा हैं और मोह की पुष्टि हैं। तो तथ्य समझना चाहिए और अपने आप पर सब कुछ दया करना चाहिए। अपने को बहुत सता डाला, अनंत भवों में अपने आपको बरबाद करते चले आये और रात दिन बेसुधी, फिक्र, अशांति बोझ से लगे बने रहते आये। जरा मोह के बोझ को उठाकर फेंको और जो वास्तविक परमार्थ स्वरूप है उसके दर्शन करो, आप पवित्र हो जायेंगे, धन्य हो जायेंगे।
अंत:स्वभाव की अंत:प्रकाशमानता―अपने अंतस्तत्त्व रूप को जिसने पहिचाना है, उसमें जिसका उपयोग गया है वह आत्मा अंतरात्मा कहलाता है, अर्थात् परमसमाधि में स्थिर होते हुए देह से भिन्न ज्ञानमय परमात्मा को जो जानते हैं उन्हें अंतरात्मा कहते हैं । अपना भगवान अपने आपमें बसा हुआ है । उसको निरखने की पद्धति निरखेंगे तो दर्शन होंगे । दो चार किलो कोई दूध लाये तो बतलाओ उसमें घी होता है कि नहीं होता है? होता है, मौजूद है, पर आँखों नहीं दिल सकता, उसे हाथ से नहीं उठा सकते और है उसके कण-कण में घी, पर पद्धति है उसको तपाकर, मथकर, बिलोरकर उसे क्लिश करके घी प्रकट होता है, यों ही अपने आपमें परमात्मा बसा हुआ है । पर यों ही नहीं प्रकट होता, यों व्यक्तरूप नहीं है, किंतु अपने आपको मथकर चिंतन करके बीलोरकर, तपाकर अपने आपमें उस परमात्मा के दर्शन किए जा सकते हैं । इस महान कार्य के लिए बहुत तपश्चरण की आवश्यकता है, बलिदान की आवश्यकता है । बलिदान किसका? इच्छाओं का । इच्छाओं को त्यागना, विकारों से चित्त हटाना । और, जो बाह्य समागम परिकर मिले हैं उनसे उपयोग हटाना बहुत बड़े तपश्चरण की आवश्यकता है, तब हम पायेंगे अपने आपमें अपने प्रभु के दर्शन । मोहीजनों को यह बात कहा रुचती है? उन्हें तो वही रुचता है जो भव-भव में करते आये ।
उच्छिष्ट भोगों से हटकर निज शरण सहज नाथ की उपासना में कल्याणलाभ―संसार के ये पदार्थ जो आज भोगने में आ रहे हैं या जिनके लिए लोग तरसते हैं ये पदार्थ अनेक बार भोगे गए, अतएव इन्हें कह सकते कि ये सब झूठे पदार्थ हैं । लेकिन ये कातर, अज्ञानी, गरीब प्राणी इनको ही भोग करके संतुष्ट होना चाहते हैं । अरे जरा इनसे उपेक्षा करके यह मानकर कि मेरा यहाँ कोई सम्मान नहीं है, कोई इज्जत नहीं है, कोई मुझे जानता नहीं है, अरे नहीं जानती दुनिया तो न जाने, और हो जाय ऐसी कि मुझे कोई पहिचानने वाला न रहे, मैं अपने आपमें खुद दिखता रहूं, बस यही चाहता हूँ, और इसके आगे कुछ वांछा नहीं है । भला आज मनुष्य न होते, कीड़ा मकौड़ा हुए होते तो इस नगर के, परिवार के, पड़ोस के लोग कुछ पहिचानते क्या? कुछ संबंध था उनका ? अरे आज मनुष्य हो गए तो समझो कि हम अब भी सबसे अपरिचित हैं और अपने आपमें अपने को समझकर अपनी संतुष्टि उत्पन्न करें अपना शरण केवल एक अपना सहज नाथ सहज प्रभु ज्ञानस्वरूप ज्ञानस्वभाव है, उसके अतिरिक्त अन्य कोई साथ न निभायेगा । हमारा साथ निभा सकने वाला कोई है तो हमारे ही अंत: बसने वाला हमारा प्रभु निभा सकता है । बाकी जितने भी चेतन अचेतन पदार्थों का समागम है वे कोई भी वस्तु हमारा साथ नहीं निभा सकते । यह सब ज्ञान जिनके प्रकट हुआ है वे अंतरात्मा कहलाते हैं ।
परमात्मा का स्वरूप और सहज स्वरूप का संकेत―परमात्मा कौन है जिसके अंतरंग और बहिरंग लक्ष्मी उत्कृष्ट है, प्रकट प्रकृष्ट हुई है उन्हें कहते हैं परमात्मा । जो अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतशक्ति, अनंतआनंद से संपन्न है, जिनके बाह्य समवशरण आदिक लक्ष्मी अलौकिक अद्भुत बनी हुई है, उस समवशरण के बीच गंधकुटी पर विराजमान जिनका चारों ओर से मुख दिख रहा है,, जिनकी दिव्यध्वनि से सभी जीव कल्याणलाभ कर रहे हैं, जो सशरीर परमात्मा हैं और अघातिया कर्म के नष्ट होने के बाद शरीररहित सिद्धभगवान निकल परमात्मा हैं ये प्रभु कहलाते हैं, और सहज परमात्मा सहजसिद्ध हैं । इन सब अवस्थाओं में रहने वाला वह सहजस्वरूप, जिसमें विकार का स्वभाव नहीं है, केवलज्ञानस्वभाव है ऐसा जो स्वभावदृष्टि करके परखा गया अंतस्तत्त्व है वह है सहज प्रभु, सहज सिद्ध । इस सहजसिद्ध प्रभु का आलंबन लेकर अंतरात्मत्व-प्रकट होता है और इस अंतरात्मा होने के उपाय से परमात्मत्व प्रकट होता है । तो जीव की अवस्थायें इन तीन प्रकारों में विभक्त हैं ।
मोहनिद्रा को त्यागकर अंतःजागरण का संदेश―भैया ! मोह में कुछ सार नहीं है । बच्चा भी अगर सीख देवे तो उसे भी मान लेना चाहिये । वृद्धों को सीख देता ही रहता है बच्चा, मगर यह मोही बाज नहीं आता । छोटे बच्चे बूढ़ों को खिलाने के लिए दिए जाते हैं, क्योंकि बूढ़े लोग और कुछ तो कामकाज कर सकते नहीं । खेलते हुए वे बच्चे कहते हैं बाबा जी याने हे बाबा, आप अब वा बाजी के हैं, इस बाजी के अब तुम नहीं रहे । अब तो इस बाजी के हम बच्चे लोग है । इतनी शिक्षा वे बच्चे लोग देते हैं मगर वह बूढ़ा उन्हीं बच्चों में मोह करता है । वह बूढ़ा यही प्रदर्शित करता है कि हम वा बाजी के नहीं है हम तो जा बाजी के हैं । शिक्षा थोड़े में भी बहुत पायी जा सकती है, किंतु जो जानबूझकर सोया हुआ हो उसका जगाना बहुत कठिन है, जो सचमुच सो गया हो उसको जगाना सरल है । और कोई यों ही आँखे मींचकर दूसरे को बताने के लिए सोने का रूपक बनायें हो, तो उसे जगाने में कौन समर्थ होगा? उसके सामने तो खूब बाजे भी बजाये जायें तो बेकार हैं, और जो सचमुच सो गया है वह जगाया जाने पर शीघ्र ही जग जाता है । तो यों ही सोचिये कि हम आपकी ऐसी कठिन अवस्था बन जाती है कि हम श्रेष्ठ कुल, श्रेष्ठ जाति, श्रेष्ठ धर्म, श्रेष्ठ समागम पा करके भी चेतते नहीं हैं । तो हमको जगा सकने वाला कौन होगा? इसलिए जो ज्ञान पाया है उसका सदुपयोग करें । अपने आपमें अपने अंतस्वरूप के दर्शन करें ।
जीव की विविधता का वर्णन―यहाँ यह बतलाया जा रहा कि जीव तीन प्रकार के हैं―बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा । जो देह जीव को एक मान रहे वे बहिरात्मा, जो परद्रव्यों से भिन्न निज ज्ञानस्वरूप में रुचि रखते हैं वे अंतरात्मा, जिनके अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतशक्ति, अनंतआनंद प्रकट हो गया है, जिनके अब कषायकलंक कलमसतायें नहीं रही हैं वे कहलाते हैं परमात्मा । परमात्मा दो प्रकार के हैं―सकलपरमात्मा और निकलपरमात्मा । कल के मायने शरीर । जब बड़ा तेज होहल्ला मच रहा हो तो लोग कहते हैं कि क्या कल-कल
मचा रहै हो, कल-कल मत करो । मायने शरीर-शरीर मत करो । तो हो क्या रहा है? शरीर-शरीर से भिड़ रहे हैं । जहाँ शरीर के बड़े काम चल रहे हों सो कल-कल है । कल मायने है शरीर । और कल से जो सहित है उसका नाम है सकल । शरीर सहित परमात्मा का नाम है सकलपरमात्मा । उनका कल अब कल कल वाला नहीं रहा, किंतु परमौदारिक दिव्य देह हो गया, जिसके शरीर में निगोद नहीं, जिसके शरीर में हाड़, मांस, खून जैसी धातुएं नहीं, परमौदारिक दिव्य शरीर है, जिसकी अब छाया भी नहीं पड़ती, भगवान का शरीर ऐसा स्वच्छ है स्फटिक मणि की तरह कि उनके शरीर की छाया नहीं पड़ती । जैसे देखा हो स्फटिक पाषाण या काँच की छाया नहीं पड़ती, कहां जाय छाया? ऐसे ही इतना स्वच्छ दिव्य देह है प्रभु का कि उनके शरीर की छाया नहीं पड़ती । ऐसे परम अतिशयवान दिव्य देह करके सहित अरहंत भगवान होते हैं । उनमें दो प्रकार हैं―एक तीर्थंकर अरहंत, दूसरा सामान्य केवली अरहंत । तीर्थंकर अरहंत किसे कहते हैं और सामान्य केवली अरहंत कौन कहलाते हैं? इस विषय का अब वर्णन करेंगे ।