वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1
From जैनकोष
ज्ञानलक्ष्मी घनाश्लेषप्रभवानंदनंदितम्।
निष्ठितार्थमजं नौमि परमात्मानमव्ययम्।।1।।
परमातत्त्व को नमस्कार―ज्ञानरूपी लक्ष्मी के दृढ़ आश्लेष से उत्पन्न हुए आनंद से जो नंदित है, निराकुल है, समृद्ध है, कृतकृत्य है, अजन्मा है, अविनाशी है–ऐसे परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ। इस ग्रंथ का नाम ज्ञानार्णव है। अर्णव का अर्थ है समुद्र, ज्ञानार्णव का अर्थ है ज्ञानरूपी समुद्र। इस ज्ञानार्णव नामक ग्रंथ के कर्ता पूज्य श्री शुभचंद्र आचार्य हैं। वे इस ग्रंथ के आदि में मंगलाचरण भी ज्ञानशब्द से शुरू कर रहे हैं। इस मंगलाचरण में कितनी दार्शनिक दृष्टियां भरी हैं, जो पढ़ने में तो सीधा लग रहा है, किंतु अनेक दार्शनिक दृष्टियां इसमें हैं।
ग्रंथकर्ता का परिचय व वैराग्य―शुभचंद्र और भर्तृहरी ये दोनों राजपुत्र थे। किसी समय इन दोनों में भर्तृहरी को वैराग्य हुआ और उन्होंने संन्यासपद धारण किया। शुभचंद्र को वैराग्य हुआ और उन्होंने दिगंबरी दीक्षा धारण की। दोनों तपस्या में जुट गये। भर्तृहरी संन्यासी को तपस्या की सिद्धि में एक ऐसा सिद्धिरस सिद्ध हो गया, जिससे तांबे को स्वर्ण बनाया जा सके। शुभचंद्राचार्य ने केवल आत्मसाधना में अपना समय लगा दिया। एक समय भर्तृहरी को अपने भाई शुभचंद्र की चिंता हुई कि अकेले वन में क्या करते होंगे और सुना भी है कि उनके साथ कोई शिष्य भी नहीं है तो भर्तृहरी ने एक तूमाभर सिद्धिरस एक शिष्य द्वारा शुभचंद्र के पास भेजा और कहा कि हमारे भाई शुभचंद्र वन में तपस्या कर रहे हैं, उन्हें यह दे आना और इसकी तारीफ भी बता देना। शिष्य पहुँचा शुभचंद्राचार्य के पास और निवेदन किया कि आपके भाई भर्तृहरी ने यह सिद्धिरस भेजा है, इससे लोहा तांबा आदि को मनमाना स्वर्ण बनाया जा सकता है। उसे शुभचंद्राचार्य ने हाथ में लेकर जमीन पर उस तूमे को पटक दिया। शिष्य ने जाकर भर्तृहरी से कहा कि महाराज ! उस सिद्धिरस को तो उन्होंने जमीन पर पटक दिया।
ग्रंथकर्ता की सिद्ध सिद्धि―अब भर्तृहरी स्वयं गये और अपने भाई शुभचंद्राचार्य की स्थिति देखकर उनके मन में खेद हुआ कि ये कितने तकलीफ में हैं, कोई भी इनके साथ नहीं है, वस्त्र तक भी नहीं रख सक रहे हैं। तब भर्तृहरी ने कहा–भाई ! अब तुम क्लेश मत उठावो। हमें यह सिद्धरस सिद्ध हुआ है, इससे मनचाहा लोहा, तांबा का भी स्वर्ण बना लो। तब शुभचंद्र ने उस तूमी को एक पत्थर की शिला पर पटक दिया और कहा कि इस सिद्धिरस से यह पत्थर तो स्वर्ण नहीं हो सका। अब भर्तृहरी को खेद हुआ कि मैंने 12 वर्ष तपस्या करके इस सिद्धिरस को पाया था और इस तूमीभर सिद्धिरस को जमीन पर पटक कर भाई ने कोई बुद्धिमानी का काम नहीं किया। भर्तृहरी ने कहा आपने हमारा यह सारा परिश्रम व्यर्थ किया। यदि आपको हमारी कला पर विश्वास न था, तो पहिले ही बता देते। मैं ऐसा जानता तो क्यों अपना सिद्धिरस इस तरह से जमीन पर लुढ़काकर व्यर्थ करा देता। आपमें यदि कला हो, तो आप अपनी कला दिखावे। अब शुभचंद्राचार्य ने बहुत समझाया कि अरे ! तुमको स्वर्ण की इच्छा थी, तो राज्यपद में कौन-सी कमी थी, क्यों छोड़कर यहां आये ? और उसको प्रतिबोध कराने के लिए शुभचंद्राचार्य ने अपने पैरों के नीचे की धूल उठाकर उस पर्वत के उस शिलाखंड पर डाली, तो वह शिलाखंड स्वर्ण हो गया। भर्तृहरी को बड़ा आश्चर्य हुआ, तब शुभचंद्र ने एक बड़ा उपदेश दिया और यह ग्रंथ बनाया।
प्रभु की ज्ञानश्री―यह ज्ञानार्णव ग्रंथ सभी संसार संकटों की समस्यावों के समाधानों को करता हुआ बारहों भावनाओं का बोध कराने के लिये लिखा है। इस मंगलाचरण में जो उत्तर दिया है उस पर कुछ गंभीर दृष्टि दें। ज्ञानलक्ष्मी के घन आश्लेष से जो आनंद संपन्न हुआ, उससे ये परम आत्मा समृद्ध है। प्रथम तो इसमें यह बात घटित हुई कि जैसे बहुत से लोग अपनी कल्पना से माना करते हैं कि भगवान और भगवती ये दोनों साथ रहते हैं। देखो, यहां लोग कहते हैं ना कि पंडित पंडितानी, मास्टर और मास्टरनी–ऐसे ही कुछ लोग भगवान और भगवती भी बोला करते हैं। भगवान और उनकी स्त्री भगवती–ऐसा कहा करते हैं, पर वास्तव में भगवान कौन है और भगवती कौन है ? इसको समझो। जो ज्ञानलक्ष्मी है, वह तो है भगवती। ‘भगवत: इयं इति भगवती’ –जो भगवान की चीज हो, उसे भगवती कहा है। कहा है ना कि परमात्मा इस ज्ञानलक्ष्मी के घन संबंध से आनंदित है। यह ज्ञानरूपी भगवती भगवान का स्वरूप है, उससे अलग अन्य कुछ चीज नहीं है। किसी समय चाहे रूपक दिया गया हो, पर उसे न समझने के कारण फिर लोगों ने उसका सीधा ही अर्थ लगा डाला–क्या ? ये भगवान हैं, और इनके संग जिसका विवाह हुआ, वह उनकी भगवती है और उनके स्त्री पुरुष के रूप में लोगों ने फोटो भी बना दिये हैं। पर भगवान की जो शक्ति है, भगवान का जो स्वरूप है, वही भगवान की लक्ष्मी है और उस लक्ष्मी से प्रभु तन्मय रहा करते हैं।
परमात्मा के ज्ञान लक्ष्मी का घन आश्लेष― कुछ शब्दों के शब्दार्थ से भी यही बात पावेगी। लोग कहा करते हैं कि राधेश्याम। राधा शब्द बना है राधृ धातु से, जिसका अर्थ है आत्मसिद्धि और श्याम का अर्थ हैकाला अर्थात् जो कर्मशत्रु को नष्ट करने के लिये प्रचंड हो। अथवा श्यामवर्ण वाला कोई हो― नेमिनाथ हुए, पार्श्वनाथ हुए या जो जो भी मोक्ष पधारे हैं, वे श्याम राधा में तन्मय थे अर्थात् आत्मसिद्धि से वे परमात्मा जुड़े हुए थे। मनचाहे किसी भी रूप में भगवान और भगवती लोग मानते हैं, किंतु भगवान तो शुद्ध परमात्मतत्त्व है और भगवती उनकी ज्ञानलक्ष्मी है, इसकी जब एकता हो, ज्ञान और ज्ञाता में भेद न रहे। इतने संबंध की एकता होने पर जो आनंद उत्पन्न हो, उस आनंद से ये परमात्मा तृप्त हैं और इसी कारण वे निष्ठितार्थ हैं, कृतकृत्य हैं।
प्रभु की ज्ञानानंदस्वरूपता― कुछ दार्शनिक लोग प्रभु में आनंद गुण नहीं मानते। उनका मंतव्य है कि बुद्धि, सुख, दु:ख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, संस्कार― ये सभी के सभी नष्ट हो जायें, उसका नाम मोक्ष है। ये 9 चीजें जब तक रहती हैं, तब तक जीव संसार में भटकता है और इन 9 का विनाश हो, तब मोक्ष मिलता है। जब इन सबका अभाव हो जाय, तब भगवान का मोक्ष हुआ समझिये― ऐसा उन दार्शनिकों ने कहा है। इसमें परभाव का अभाव हुआ यह तो ठीक है, किंतु इसके साथ ज्ञान व आनंद के अभाव को कह डाला, इस अवमत के प्रतिपक्ष में प्रथम विशेषण में यह बात दिखायी है कि प्रभु आनंदमग्न हैं और ज्ञानशून्य भी नहीं हैं। ज्ञान और आनंद तो परमात्मा का स्वरूप है।
जगमगरूपता― जैसे प्रत्येक वस्तु जगमगस्वरूप है― ऐसे ही परमात्मा जगमगस्वरूप है। पदार्थ में कोई नवीन विकास होता है, उत्पाद होता है, वह तो पदार्थ का जगरूप है और जो पर्याय विलीन हुई है, वह उस पदार्थ का मगरूप है। जो भी पदार्थ परिणमना है, उस पदार्थ में जग और मग होता रहता है। जग मायने वृद्धि और मग मायने अंतर्यमन। यह जीव प्रतिसमय ज्ञान और आनंदस्वरूप है। ज्ञान के प्रताप से यह जीव जगरूप रहता है और आनंद के प्रताप से यह जीव मगरूप रहता है। ज्ञान में जगना होता है और आनंद में मग्नता होती हैं, यों ज्ञान और आनंद प्रभु का सहजस्वरूप है। इस ही विश्लेषण में यह भी बात आ गयी कि ज्ञान का और परमात्मा का घन आश्लेष तादात्म्य है, एकता हो जाती है। इसमें जो लोग ज्ञान को पृथक मानकर ऐसे ज्ञान के समवाय से आत्मा को ज्ञाता मानते हैं उस भेद भाव का निराकरण हो जाता है।
कृतकृत्यता― यह प्रभु इस ज्ञानानंद परिणति के कारण कृतकृत्य है, निष्ठितार्थ है। निष्ठितार्थ का अर्थ है संपूर्ण हो गये हैं प्रयोजन जिनके और कृतकृत्य का अर्थ है जो कुछ करने योग्य था सो कर लिया है, अथवा पर पदार्थों में जो अज्ञान अवस्था में करने का भाव बना रहता था, अब ज्ञान का उदय होने पर, स्वतंत्रता स्पष्ट विदित हो जाने से अब उनमें करने का भाव नहीं रहा। यह भी कृतकृत्यता का रूप है। वास्तव में काम संपूर्ण किया हुआ तब कहलाता है जब उसके बारे में कुछ करने को नहीं पड़ा रहता है। कोई सा भी आप काम करें वह काम पूर्ण हुआ कब कहलायेगा? जब उसके लिये कुछ करने को रहा नहीं। तो जिस महात्मा को ऐसा उज्ज्वल ज्ञान उत्पन्न हुआ है जिस ज्ञान के कारण अब उनको जगत् के किसी परपदार्थ में करने को कुछ नहीं रहा है तो यही कृतकृत्यपना है। ऐसा यह परमात्मा निष्ठितार्थ है।
निष्ठितार्थ विशेषण से प्रभु के लोककर्तृत्व का खंडन―इस विशेषण से इस मंतव्य का निराकरण होता है जो मंतव्य यह मानते हैं कि प्रभु हम सबको बनाते हैं, इस शरीर की रचना करते हैं, इस जगत को रचते रहते हैं। वे इस युक्ति को जान लेवें कि जो जगत् को रचते रहने वाले या किसी भी थोड़े से कार्यविभाग को रचने वाले पुरुष हैं वे निराकुल नहीं कहला सकते हैं।हां भले ही यह बात हो कि किसी बड़ेगड़बड़ काम को न रचकर कम गड़बड़ काम को रचे तो उसमें यह जीव कुछ संतोष और विश्राम मानता है लेकिन वस्तुत: किसी भी पदार्थ के संबंध में कुछ भी करने का काम पड़ा हो, विकल्प चलते हों तो वह परमार्थ निराकुलता की स्थिति नहीं है। निष्ठितार्थ शब्द कहने से यह ध्वनित होता है कि ये प्रभु सयोगकेवली अब निष्ठित होने पर कृतकृत्य हुए हैं। इन सयोगकेवली को किसी भी परपदार्थ में कुछ भी करने को नहीं रहा, जो कुछ करने योग्य कार्य था सो कर लिया, अब ये कृतकृत्य हैं।
परमात्मा की अजता―परमात्मा अज है। कुछ लोग तो परमात्मा की उत्पत्ति बताते हैं और परमात्मा बारबार उत्पन्न होते रहते हैं अवतार लेते रहते हैं, अवतार का अर्थ है उतरना। किसी बड़ी जगह से उतरने को अवतार कहते हैं। किसी बड़ी उत्कृष्ट दशा से उतरकर इस संसार में जन्म लेने को अवतार कहते हैं। किसी घटना में सही, प्रभु का तो जन्म मान लिया गया किसी माँ बाप से पैदा हुए मान लिया। किसी घटना में जन्म ले लिया अथवा किसी ढंग से या भूल से उत्पन्न हो गए, किसी भी रूप में परमात्मा को उत्पन्न हुआ मानते हैं कुछ मंतव्य, लेकिन परमात्मा ही क्या, जगत में जो भी पदार्थ हैं, कोई भी पदार्थ किसी भी समय नया उत्पन्न हुआ हो ऐसा है ही नहीं। यह आत्मा सत् भी कभी उत्पन्न हुआ ऐसा नहीं है। प्रकृत में फिर यह बात कही जा रही है कि परमात्मा हो चुकने के बाद फिर उन्हें जन्म नहीं लेना पड़ता है, ऐसे अजन्मा परमात्मा को नमस्कार किया जा रहा है।
परमात्मत्व की अव्ययता―यह परमात्मा अव्यव है, अविनाशी है। व्यय अर्थात् विनाश भी परमात्मत्व का हो जाता है ऐसा कुछ लोग मानते हैं। मुक्त होने के बाद वह पूर्ण अधिकारी नहीं है कि ऐसा मुक्त सदा रहे। हाँ चिरकाल तक वह मुक्त रहा करता है फिर अल्पकाल बीतने के बाद फिर उनको नीचे जन्म लेना पड़ता है और जैसे यहाँ जीवलोक की रचना है उसी रचना में रहना पड़ता है, फिर कभी उनसे बन जाय तो फिर उनकी मुक्ति कुछ काल के लिये है। ऐसी मुक्ति को तो नवग्रैवेयक का निवास समझ लो। नवग्रैवेयक स्वर्ग से ऊपर ऊर्ध्वलोक में होता है, वहाँ अधिक से अधिक 31 सागर तक ही वह सुख भोगता है, उनकी स्थिति अप्रवीचार है, कामवासना से रहित है, वे मंदकषायी हैं, इनमें कुछ देवता लोग सम्यग्दृष्टि भी होते हैं, कुछ देवता मिथ्यात्व के आशय वाले भी होते हैं। तो जैसे ग्रैवेयक एक निवास है, वैसा ही वैकुंठ समझिये। जितने काल तक वहाँ निवास है सुख के लिये है जहाँ कई हजार वर्षों में तो कुछ रंच भूख लगती है सो कंठ से अमृत झड़ता है, उससे उनकी क्षुधा शांत हो जाती है और कई पक्षों में कई पखवारों में उनका श्वासोच्छवास होता है। जल्दी-जल्दी श्वास निकालने व लेने में वेदना होती है। उन देवताओं का ऐसा अद्भुत शरीर है कि कई पखवारों में श्वासोच्छवास होता है। यहाँके लोगों से विलक्षण सुख होने के कारण लोग उसे मुक्ति जैसा रूप दे दिया करते हैं और नाम भी उसका वैकुंठ है। ग्रैवेयक कहो या वैकुंठ कहो। लोक की रचना में जिस जगह ग्रैवेयक है वह इस लोक का कंठस्थान है, वहाँ ये देव अपनी आयु पूरी करके जन्म लिया करते हैं। ये संसारी ही जीव हैं, मुक्त नहीं हुये। मुक्त होने के बाद ऐसा जन्म नहीं होता है।
ज्ञानानंदस्वरूपता के कारण परमात्मा की उपासनीयता― मुक्त होने पर अद्भुत और असीम आनंद रहता है, ऐसा मुक्ति का कार्य बन जाना सबके सुगम नहीं है, बड़े ज्ञानयोगपूर्वक बड़ी अंत:तपस्या की साधना से यह बात प्रकट होती है। ऐसे अविनाशी परमात्मा को शुभचंद्राचार्य ग्रंथ के मंगलाचरण में नमस्कार कर रहे हैं। इसमें एक स्पष्ट बात यह भी आयी कि परमात्मा हैं, अवश्य हैं, न हो तो अवस्तु को कौन नमस्कार करता है और फिर दूसरे सभी लोगों की ऐसी प्रकृति बनी है कि कोई कष्ट आये तो वे परमात्मा को किसी रूप में स्मरण कर लेते हैं। परमात्मा ज्ञानानंद स्वरूप ही हैं तभी वे उपासनीय हैं।
आत्मा व परमात्मा की समझ― राजा अपने दीवान के घर के सामने से निकला और बोला ऐ दीवान ! तुम आत्मा पर विश्वास करते हो सो तुम बतलावो क्या आत्मा है और क्या परमात्मा है? दीवान ने कहा महाराज आप घोड़े से उतर आवो, आध पौन घंटे तक बैठो, तब हम बतलावें कि आत्मा क्या है और परमात्मा क्या है? राजा बोला कि हमारे पास इतना अवकाश नहीं है, हमें तो तुम 10 मिनट में समझा दो। दीवान बोला महाराज हमारा कसूर माफ हो तो हम 10 मिनट तो क्या 1 मिनट में समझा देंगे कि आत्मा क्या परमात्मा क्या है? राजा बोला― अच्छा तुम्हारा कसूर माफ। तुम समझा दो कि आत्मा क्या है और परमात्मा क्या है? दीवान तंदुरुस्त तो था ही, सो क्या किया कि राजा के हाथ में जो कोड़ा था उसे छीनकर चार पाँच कोड़े राजा के जमा दिये। राजा कहने लगा, अरे रे रे भगवान ! दीवान बोला देखो राजन् ! जो अरे रे रे करता है वह तो है आत्मा और जिसे तुम भगवान कहते हो वह है परमात्मा। तो भगवान का किसी न किसी रूप में सभी लोग स्मरण करते हैं।
प्रभु का लोकांतनिवास व विशेषण सार्थक्य― लोग ऊपर को मुँह करके भगवान का स्मरण करते हैं। यह बुद्धि सबके जगी है कि भगवान ऊपर रहा करता है। और वह भगवान कहाँ तक रहेगा? थोड़ाऊपर रहेगा तो उससे ऊपर जो जीव होंगे उनसे वह भगवान नीचे हो गया। तो उस भगवान को कितना ऊपर रहना चाहिये सर्व से ऊपर रहना चाहिये। सर्व जीवों के ऊपर तीन लोक के शिखर पर उनको रहना चाहिये। सो प्रभु सिद्ध लोक में विराजते हैं। ऐसे इन ज्ञानानंदस्वरूप कृतकृत्य अविनाशी परमात्मा को नमस्कार किया है। यों सभी के सभी विशेषण बहुत-बहुत महत्व रख रहे हैं जिनके स्मरण करने से हम परमात्मतत्त्व के वास्तविक स्मरण पर पहुँच सकते हैं। वे ही विशेषण इस श्लोक में कहे गये हैं। सीधा अर्थ यह है कि जो ज्ञानपुंज हैं, आनंदमग्न हैं, जिन्हें करने को कुछ नहीं पडा है, और कभी मरेंगे नहीं, जो कभी शरीर धारण करेंगे नहीं, ऐसा सच्चिदानंदस्वरूप जो परम आत्मतत्त्व है उस परम आत्मतत्त्व को नमस्कार है।