वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 118
From जैनकोष
णंताणंतभवेण समज्जि असुहअसुहकम्मसंदोहो।
तवचरणेण विणस्सदि पायच्छित्त तवं तम्हा ।।118।।
अनंतानंतभवों द्वारा जो शुभ-अशुभ कर्म उत्पन्न किये हैं वे सब तपश्चरण से विनष्ठ होते हैं इस कारण तप ही वास्तव में सकल अपराधों का प्रायश्चित्त है।
चैतन्यप्रतपन बिना जन्म-मरण का तांता- अब से पहिले यह जीव किसी न किसी पर्याय में था, क्योंकि पहिले यदि यह शुद्ध होता तो आज यह अशुद्ध हो ही नहीं सकता था। जैसे आज मनुष्यपर्याय में है इसी प्रकार यह जीव पहिले किसी न किसी पर्याय में था और उससे पहिले किसी न किसी पर्याय में था। क्या ऐसी कल्पना की जा सकती है कि इस भव से पहिले इस जीव का कुछ भव ही न हो? यह जीव अनादि काल से भवों को धारण करता चला आया है। अनंत भव हो गए जिसकी कोई सीमा नहीं कि कितने शरीर धारण किये जा सकते हैं और उन भवों में जो कुछ समागम मिले थे वे समागम नहीं रहे, सब बिछुड़ गए और आज भी जो कुछ मिले हैं वैभव, कुटुंब इत्यादि के समागम वे सब भी हमारे न रहेंगे, इन सबको छोड़कर जाना पड़ेगा। यों भव-भव ही धारण करते चले आये हैं और उन-उन भवों में ये सब समागम मिले हैं उन सब समागमों को छोड़ते आये हैं, लेकिन किसी भी भव में इस जीव ने अपने को अकिन्चन अनुभव नहीं किया है। मैं सबसे न्यारा केवल ज्ञानानंदस्वरूप हूं, इस प्रकार की प्रतीति और उपयोग को इस जीव ने नहीं किया, इसी कारण यह जन्म-मरण के चक्र सह रहा है।
अपूर्व अवसर- आज बहुत बड़ा मौका है, श्रेष्ठ मनुष्यजन्म पाया, श्रेष्ठ धर्म पाया, वस्तुस्वरूप की बात सुनने, समझने को मिली है, जो चीज नहीं रहनी है, मायारूप है उसमें दिल फँसाने से कुछ लाभ नहीं है। आत्मकल्याण के उपाय का बहुत बड़ा अवसर है। इस संसार में यदि अपने को निर्लेप न समझ सके, विशुद्ध ज्ञानस्वरूप को प्रतीति में न ला सके तो ये सब समागम बिछुड़ ही जायेंगे, इनसे कोई लाभ न होगा।
विपदाओं का पहाड़- अनंत भवों से जो शुभ-अशुभ कर्म उपजे हैं वे आज भी हम आपके साथ लगे हुए हैं, उन कर्मों का संस्कार इस पर छाया हुआ है। एक ही भव के कर्म नहीं बल्कि अनगिनते भवों के कर्म इसके साथ लगे हैं। आज से करीब 60-65 कोड़ाकोड़ी सागर पहिले के बँधे हुए कर्म भी आज हो सकते हैं और उन कर्मों का उदय हम आपके चल रहा हो, यह भी संभव है। यहां किस चैन में मौज मान रहे हैं? विपदावों का पहाड़ कितना साथ में लगा हुआ है, इसकी ओर दृष्टि क्यों नहीं देते? आज कुछ यश है, मौज है तो कल का भी कुछ पता है क्या? भले ही मोहवश ऐसी कल्पना बनाएँ कि बिगाड़ किन्हीं दूसरों का हुआ करता है, बिगाड़ हमारा नहीं होता, पर यह कल्पना ही है, दूसरे भी तो हमारी तरह ही जीव हैं। जैसे उन जीवों की बरबादी होती है इसी प्रकार हम भी उन्हीं की तरह हैं ना। अपराध होने पर हम-आपकी भी वैसी ही बरबादी है।
अपराधों का प्रायश्चित्त परमतपश्चरण- भैया सब अपराधों का प्रायश्चित्त परमतपश्चरण है। परमार्थ तपश्चरण तो अपने आत्मा का शुद्ध आचार-विचार रखना, सही उपयोग रखना, रागद्वेष मोह का कलंक न बसाना, यही है परम तपश्चरण और उसकी साधना में सहायक है यह हमारा बाह्य तपश्चरण। भक्ष्य-अभक्ष्य का विवेक न हो, कौन तकलीफ करे, जैसा मिले तैसा खायें, और-और प्रकार भी प्रमाद बनाए रहें, चलने उठने का भी विवेक नहीं, व्यवहार में मायाचार, तृष्णा, क्रोध, मान का फँसाव बना हो, कामवासना की ज्वाला में जले जा रहे हों तो ऐसी प्रवृत्ति से आत्मा का भला नहीं है। इन प्रवृत्तियों को दूर करने के लिए तपश्चरण करना पड़ेगा। तपश्चरण किया जाता है विषय कषायों के अपराधों के परिहार के लिए।
इंद्रियसंयमन की आवश्यकता- सीमित खाना, शुद्ध खाना आदिक ये जीव को नियंत्रण मालूम होते हैं, कैद मालूम होते हैं, पर नियंत्रण न होने से अंतरंग में इस जीव की बरबादी हो रही है। रौद्र ध्यान से इस आत्मा की कैसी दुर्गति होगी, इसका कुछ ध्यान नहीं है। आज थोडे से भी कष्ट से डरते हैं, पर रौद्र ध्यान के अवताप के नरक गति में था पशु-पक्षियों आदि की गति में जन्म लेना पड़े, महाक्लेश भोगना पड़े इसका कुछ भी भय नहीं है। आज थोड़ा भी परिश्रम करने का भय है, प्रमाद है, कुछ करें मौज से रहना चाहिए। जो मनुष्य इंद्रिय विषयों के मौजरूप प्रमाद करते हैं उनके निरंतर अशुभ कर्म का बंध होता है। द्वेष की ज्वाला से भी अधिक राग की ज्वाला होती है। द्वेष में इतना कठिन कर्मबंध न भी हो सके जितना कि राग में आसक्ति में कर्मबंध होता है। उस राग को दूर करने के लिए इन इंद्रियों को संयत करना होगा। प्रेम हो, कष्ट हो या मन के अनुकूल बात न मिले, उन सबमें तुष्ट रहने का माद्दा बनाना होगा, समता-परिणाम रखने का साहस करना होगा तब सिद्धि हो सकेगी।
संयम व तपश्चरण के कर्तव्य का स्मरण- संयम में चलें, तपश्चरण में चलें। दुनिया को निरखकर हम अपना निर्णय करें तो उसमें सिद्धि नहीं है। अपने अंत:करण से और अपने महर्षि संतों के उपदेश से हम सलाह लें, दुनिया से अथवा दुनिया की प्रवृत्तियां से हम सलाह न लें, क्योंकि यह संसार अज्ञान-अंधेरे से भरा है। मोह में जो अंध हैं वे सूलझे हुए मार्ग के विषय में क्या बता सकते हैं? तपश्चरण में रंच न डरना चाहिए, वर्तमान में अपनी जो शक्ति प्रकट हुई है उसके मुताबिक तपस्या में हम प्रयत्नशील रहें। यह शरीर तो रहेगा नहीं, आगम से रखें तो भी नहीं रहने का, तपश्चरण में लगायें तो भी नहीं रहने का, और शरीर न रहे तो यह लाभ की बात है। कभी न मिले शरीर इससे बढ़कर और क्या बात हो सकती है।
शरीरसेवा का प्रयोजन- यह आत्मा ज्ञानानंद से भरपूर है, ऐसा उत्कृष्ट होकर भी यह आत्मा आज कैसा फँसा है? परेशान है। कहीं यह आत्मा बंधन में पड़ने वाली वस्तु थी क्या? पर शरीर में यों बंध गया कि शरीर को छोड़कर कहीं जा नहीं सकता। इस शरीर के बंध से यह जीव कितना परेशान है? यह शरीर यदि न रहे तो यह तो भलाई की बात है। शरीर को क्या आराम से रखना? अपने संयम के लिए शरीर का श्रम कितना भी हो उससे भय न करना और दूसरों के उपकार के लिए इस शरीर को कितना ही लगाना पड़े उससे भी न हिचकना। इस शरीर को एक सेवक की तरह व्यवहार करना, जैसे सेवक की रक्षा की जाती है निज कार्य के लिए, इसी तरह इस शरीर की रक्षा की जानी चाहिए एक आत्मकार्य के लिए। यद्यपि शरीर से आत्मकार्य नहीं बनता लेकिन शरीर के संबंध में जब हम आत्मकार्य के विपरीत लग बैठे हैं तो उस विपरीत लगाव से हटने के लिए जो कुछ शरीर का साधन बनाना पड़ता है वह इस परिस्थिति में आवश्यक है।
जीवन के सदुपयोग का अनुरोध- भैया ! शरीर की सेवा तो करें, पर शरीर के लिए शरीर की सेवा न करें। अपना कार्य निकालने के लिए, अपना ज्ञानबल चरित्रबल बराबर बना रहे और विषयकषायों में मन न जाय, ऐसा तपश्चरण बना रहे इसके लिए शरीर की रक्षा करना है। शरीर की रक्षा करनी है, ठीक है, फिर भी अपने प्रयोजन को नहीं भूलना है। जितना भी बन सके शुद्ध आचरण में, शुद्ध खान-पान में, शुद्ध चर्या में अपने को लगाना चाहिए। अपना समय यहां-वहां जो व्यर्थ की गप्पों-सप्पों में व्यतीत होता है वह भला नहीं है। समय बड़ा अमूल्य है। जो गुजर जाता है वह फिर नहीं मिल सकता है। जो वर्तमान समय मिला है उसका सदुपयोग करें। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप की आराधना करें।
तपश्चरण का लाभ- तपश्चरण भी बेकार चीज नहीं है। शरीर का क्लेश भी एक तप बताया गया है, पर शरीर के क्लेश के साथ आत्मा में क्लेश नहीं होना चाहिए। अनशन चल रहा है अथवा रसपरित्याग चल रहा है, शुद्ध भोजन के नियम के कारण रूखा-सूखा ही खाने को मिल रहा है, ये सब आनंद की बातें हैं, क्लेश की बातें नहीं हैं। दूसरों को दिखता है कि बड़ा क्लेश भोग रहे हैं, पर वहां तो रंच भी क्लेश नहीं है। धर्मपालन के अवसर में जो उपयोग का केंद्रीकरण होता है उससे आनंद की तृप्ति रहती है। अत: समस्त तृप्तियों का मूल कारण जो शुद्ध कारण परमात्मतत्त्व है उसमें अपने उपयोग को बसाये रहना है। अंतर्मुख होकर उस परमात्मतत्त्व में अपना प्रतपन करना है, यही परमतपश्चरण शुद्धनय प्रायश्चित्त है, जो अपराधों को दूर करने में समर्थ है।
संतों के उपदेशों का सार- समस्त देशानावों का सार इतना है कि हम सदा अपने आपको शुद्ध ज्ञानानंद स्वभावरूप स्वीकार किया करें, इसमें भूल न होने दें। परिस्थितिवश कुछ भी घटना हो जाय, पर अपने आपकी श्रद्धा में भूल न हो सके, तो भूल की क्षमा भी जल्दी हो जायेगी, परंतु अपने स्वरूप की यथार्थ श्रद्धा न रखें, उल्टी श्रद्धा करें तो यहाँ उसकी माफी नहीं हो सकती। भैया ! उसके ज्ञान में प्रसिद्ध है वह शुद्ध कारणपरमात्मतत्त्व, जिसने वस्तुस्वरूप का चिंतन किया है, जिसने गहरे पानी में बैठकर खोजा है उसे वह चीज मिली हैं और जो पानी से डरकर बाहर रहा करता है उसे वह तत्त्व नहीं मिलता।
उभय कर्म और उनके विलय का उपाय- यह जीव अनादिकाल से शुभ अशुभ कर्मों का संचय करता चला आया है, वे कर्म द्रव्यरूप और भावरूप हैं। कर्म नाम वास्तव में आत्मा की शुभ-अशुभ क्रियावों का है। क्रियते इति कर्म। जो किए जायें वे कर्म कहलाते हैं। आत्मा के द्वारा मोह, रागद्वेष, विषयकषाय, दान, दया, उपकार आदिक परिणाम किये जाते हैं, इन परिणामों का नाम कर्म है। इसमें कोई शुभ और कोई अशुभ कर्म होते हैं। अब इन कर्मों के होने से जो अन्य द्रव्यों में बात हो जाती है, कार्माणवर्गणा में कर्मत्व रूप आ जाता है उन ज्ञानावरणादिक प्रकृतियों को भी कर्म कहने लगते हैं। यह कर्म नाम उपचार से है। पौद्गलिक कार्माणवर्गणावों का जो कर्म नाम पड़ा है वह वास्तविक नाम नहीं है, उनका कर्म नाम उपचार से है लेकिन उनका उदय, उनकी प्रवृत्ति इस जीव के बंधन में निमित्त हो रही है, इस विशेषता को मना नहीं कर सकते। यों द्रव्यकर्म और भावकर्मरूप जो शुभ-अशुभ कर्मों का समूह है वही पांचों प्रकार के संसारों को बढ़ाने में समर्थ हो रहा है। द्रव्य परिवर्तन, क्षेत्र परिवर्तन, काल परिवर्तन, भव परिवर्तन और भाव परिवर्तन ये पाँच संसार हैं। इन संसारों को बनाने में समर्थ ये द्रव्यकर्म और भावकर्मरूप पुण्य-पाप हैं। ये सब इस परम तपश्चरण के प्रसाद से विलय को प्राप्त हो जाते हैं।
अशुद्ध परिणामों में पापपन- भैया ! पूण्यफल को पाकर हर्ष न मानना और पापफल को पाकर विशाद न मानना, यह सम्यग्दृष्टि पुरुष में ही हो सकता है। साधुजनों के पास कहां कुछ धन-वैभव होता है? उनके पास तो खाने पीने तक का भी कुछ साधन नहीं है फिर भी प्रसन्न रहा करते हैं। ये संसारी लोग तो धन-वैभव के न होने पर पाप का उदय समझने लगते हैं। यदि धन-वैभव के न रहने को पाप का उदय कहा जाय तो इन साधु-संतों को फिर पाप का उदय ही मानना चाहिए, क्योंकि कहां उनके पास धन-वैभव है? धन-वैभव से पाप का उदय न कूतना चाहिये, किंतु अशुद्ध विचार संक्लेशपरिणाम, मोह रागद्वेष का अँधेरा ऐसी परिस्थिति हो उससे पाप का उदय कूतना चाहिए।
पाप के विनाश का तात्कालिक स्वाधीन उपाय- साथ ही यह भी बात है कि जो इष्ट है वह न मिले तो भी पाप उदय माना जाता है। अरे! धन रहता है तो रहे, नहीं रहता है तो न रहे, उससे पाप का उदय नहीं है। पाप का उदय यदि मिटाना है तो उसमें इष्ट बुद्धि की कल्पना छोड़ दो, पाप अपने आप खत्म हो जायेगा। पाप इष्ट की बाधा को कहते हैं, पाप अनिष्ट के संयोग को कहते हैं। इस जीव के लिए कोई भी बाह्य पदार्थ अनिष्ट नहीं है। जो जैसा है, परिणमता है, वह मेरे लिए अनिष्ट क्या है, पर कल्पना में जब अनिष्ट बताते हैं तो वही अनिष्ट का संयोग पाप का उदय होता है। यह पाप का उदय मिटाना है तो परपदार्थ को अनिष्ट मानने की कल्पना को त्याग दो, पाप का उदय स्वयं नष्ट हो जायेगा। ये सब शुभ-अशुभ कर्मसमूह परमतपश्चरण अथवा भावशुद्धि के बल से विलय को प्राप्त हो जाते हैं। इस कारण जो अनंत भवों में अपराध किया है उन सब अपराधों को दूर करने में समर्थ एक प्रायश्चित्त है।
भावशुद्धिरूप परमतपश्चरण का सामर्थ्य- यह शुद्ध उपयोगरूप परमतपश्चरण ही प्रायश्चित्त है। यह परमतपश्चरण, यह उपयोग अपने आत्मा में ही मिला करता है। परम तत्त्व है आत्मा का शुद्ध ज्ञायकस्वरूप। उस शुद्ध ज्ञायकस्वरूप अंतस्तत्त्व में उपयोग को तपाना, उपयोग को बनाये रहना, ऐसी जो चर्या है, वृत्ति है उसे कहते हैं परमतपश्चरण। ऐसा यह भावशुद्धि नामक परमतपश्चरण ही इस जीव का उद्धार करने में समर्थ है और संसार के समस्त संकटों को सदा के लिए दूर करने में समर्थ है। शुद्धनय प्रायश्चितरूप है। उन शुभ अशुभ कर्मों के क्षय के लिये और दूसरा कुछ भी काम नहीं पड़ा है। एक यह अंतस्तत्त्वरूप प्रायश्चित्त ही उन कर्मों को क्षय करने में समर्थ है। संत लोग इसे ही तप कहा करते हैं।
अंतस्तपश्चरण का अपूर्व लाभ- चिदानंदस्वरूप आत्मा चिदानंदरस के अमृत के पान करने से तृप्त बना रहता है। तपश्चरण क्लेश के लिये नहीं होता, किंतु शुद्ध आनंद को लिये हुए होता है। जिन पुरुषों को शुद्ध आनंद की खबर नहीं है वे पुरुष तपश्चरण को इंद्रिय सुखों में बाधक जानकर क्लेश का रूप देते हैं, परंतु सच्चा तपश्चरण वही है जहां शुद्ध अमृत रस के पान से तृप्ति बनी रहती है। यह कर्मों के विकट वन की विभावरूप अग्नि ज्वाला, रागद्वेष मोह की वृत्ति, वस्तुस्वरूप के विपरीत धारणा अनादि काल से बढ़ती चली आ रही है, उसको बुझाने में समर्थ यह शुद्ध कारणसमयसार का उपयोग है। यही सघन मेघ है। इनकी वर्षा ही इस विषयज्वाला को बुझाने में समर्थ है। यह तपश्चरण मोक्षलक्ष्मी को प्राप्त करने के लिए भेंट है। जैसे किसी महापुरुष से मिलाने के लिए भेंट रखी जाती है। तो उस मोक्ष-लक्ष्मी से मिलने के लिए क्या भेंट होनी चाहिये? यह है तपश्चरण। यही कर्मों का क्षय करने वाला प्रायश्चित्त है। इस अपने आपके शुद्ध स्वरूप के उपयोग से संसार के समस्त संकट दूर होते हैं।