वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 168
From जैनकोष
जो ण य पेच्छदि सम्मं पराक्खदिट्ठी हवे तस्स।।168।।
सकलज्ञता—जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल—इन 6 द्रव्यों में प्रत्येक द्रव्य में नाना गुण हैं। उतने ही उनके सदा परिणमन होते हैं, ऐसे नाना गुण और पर्यायों से सहित समस्त द्रव्यों को जो स्पष्ट जानता है उसके तो प्रत्यक्ष ज्ञान है और जो उन्हें स्पष्ट नहीं जानता है उसके परोक्ष दृष्टि कही गयी है अर्थात् केवलज्ञानी को सकलज्ञ कहा है। केवलज्ञान जिसे न हो उसको सकलज्ञ नहीं कहा गया है।
इंद्रियावलंबन की परमार्थत: ज्ञानानंद में बाधकता—हम आप इन इंद्रियों के सहारे जानकारी करते हैं, इस कारण पदार्थ की पूरी जानकारी नहीं हो पाती है। जो इंद्रिय के साधनों से पदार्थों को नहीं जानते किंतु ज्ञानपुंज इस आत्मा के ही सहारे से जो पदार्थों को जानते हैं उनको स्पष्ट ज्ञान होता है, पूर्ण ज्ञान होता है। ये मोही जीव इन इंद्रियों के ही सँभाल में लगे रहते हैं, यह जानकर कि ज्ञान का साधन तो ये इंद्रियाँ हैं, आनंद का साधन तो ये इंद्रियाँ हैं, ऐसा समझकर इन इंद्रियों के पोषण में ही वे निरत रहा करते हैं, लेकिन यह विदित नहीं है कि जब तक इंद्रिय का आश्रय करते रहेंगे तब तक न समस्त ज्ञान होगा और न शुद्ध आनंद जगेगा। जैसे इंद्रियों द्वारा जानने से स्पष्ट परिपूर्ण ज्ञान नहीं होता है ऐसे ही इंद्रियों द्वारा विषयों के उपभोग करने से आनंद भी पवित्र पूर्ण नहीं होता है। ज्ञान और आनंद का बाधक है इन इंद्रियों का आलंबन, पर मोही जीव जानता है कि जो कुछ ज्ञान और आनंद जगता है वह इन इंद्रियों के साधनों से जगता है। हम आँखों से किसी पदार्थ को देखते हैं तो सामने का भाग तो दिखता है, उसके पीछे क्या है, उस पदार्थ के अंदर क्या है अथवा रूप के अतिरिक्त और-और गुण क्या हैं, इन सबका कुछ भी भान नहीं होता है। किसी भी इंद्रिय से जाने, पदार्थ का अधूरा ही कुछ अंश और वह भी अस्पष्ट रूप से जानने में आता है। समस्त द्रव्यगुणपर्याय के वर्णन का स्मरण—इससे पहिले की गाथा में यह बता दिया गया था कि समस्त द्रव्य-गुण-पर्यायात्मक पदार्थ दो प्रकार के हैं। कोई तो रूपी हैं जो कि इंद्रियों द्वारा समझ में आते हैं और कुछ अरूपी है जो इंद्रियों द्वारा समझ में नहीं आ सकते हैं। इंद्रियों के विषय हैं स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्द—ये पाँचों ही चीजें, जिनमें चार तो हैं गुणपर्याय, रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द है द्रव्यपर्याय, ये सब पुद्गल में होते हैं, जिसे लोग भौतिक पदार्थ कहते हैं। भौतिक शब्द का व्युत्पत्यर्थ ऐसा नहीं है जिससे भौतिक शब्द द्वारा वाच्य पदार्थ ही ग्रहण में आये और दूसरा न आये, किंतु पुद्गल शब्द इतना संगठित शब्द है कि पुद्गल कहने से रूप आदिक संयुक्त पदार्थ ही ग्रहण में आते हैं, अरूपी पदार्थ ग्रहण में नहीं आते। पुद्गल का सही अर्थ—पुद्गल की प्रकृति है पुद् और गल। पुद् का अर्थ है पूरण, जो मिलकर परिर्पूण बनाकर कुछ बढ़ाकर अधिक हो जाय और जो गल करके घट जाय उसे कहते हैं गल। ये पदार्थ जितने भी आँखों दिखते हैं, ये ढेर हैं एक एक पदार्थ नहीं हैं, यह भींत ईंटों का ढेर है, ईंट अनेक परमाणुवों का ढेर है, उनके अंश भी सूक्ष्म स्कंधों से बनते हैं, सूक्ष्म स्कंधों में भी अनेक पुद्गल परमाणु मिले हैं। दृश्यमान् समस्त पदार्थ अनंत परमाणुवों के पिंड हैं। जिस परमाणु के साथ हम आपका कभी व्यवहार भी नहीं चलता है वह परमार्थ चीज है, जिस जिससे व्यवहार चलता है वे सब मायारूप हैं, इनका नाम पुद्गल यथार्थ है, ऐसा अन्य द्रव्यों में नहीं होता कि वे मिल-मिल करके इकट्ठे हो जायें और फिर बिखर कर अलग-अलग हो जायें। जीव-जीव मिलकर एक कभी नहीं हो सकते हैं। जितने जीव हैं वे सब अलग-अलग ही अबद्ध रूप से रहेंगे, पुद्गल में बंधन हो जाता है। धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य ये भी कभी मिलजुल नहीं सकते हैं, मिलकर एक पिंड नहीं बन सकते हैं और बिछुड़कर अलग-अलग हो जाने का काम भी पुद्गल में होता है। द्रव्य की गुण व पर्यायों का संक्षिप्त वर्णन—पुद्गल मूर्त हैं, मूर्त पदार्थ में गुण भी मूर्त होता है। पुद्गल अचेतन हैं, अचेतन पदार्थ के गुण भी सब अचेतन होते हैं। धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार पदार्थ भी अचेतन हैं, अमूर्त पदार्थ में गुण अमूर्त होता है। जीव चेतन है, चेतन के गुण चेतन होते है। वस्तु के स्वरूप की यह सत्य व्यवस्था जिन ज्ञानी पुरुषों के प्रत्यय में आ जाती है उनके मोह नहीं रहता और वे अपने इस विशुद्ध सम्यग्ज्ञान से अपना पोषण करके अपने को निर्दोष बना लेते हैं। इन पदार्थों में ऐसा स्वभाव पड़ा है कि वे अपनी ही प्रकृति से घटते बढ़ते रहते हैं अर्थात् उनमें पर्याय बदलती रहती है। एक पर्याय का त्यागकर दूसरे पर्यायों का ग्रहण करना यह हानि-वृद्धि का रूप है जैसी कि सूक्ष्मता से षड्गुण हानिवृद्धि बतायी गयी है।
पदार्थों के साधारणगुणों की नियामकता—पदार्थों में 6 साधारण गुण होते हैं। कोई भी पदार्थ हो, जीव हो अथवा पुद्गल हो अथवा अन्य कोई हो उसमें अस्तित्व तो है ही, जिसकी वजह से वह पदार्थ है और वह पदार्थ अपने ही स्वरूप से है पर के स्वरूप से नहीं है। जैसे एक मोटा दृष्टांत लो। गेहूँ और चनों को कितना ही मिला दिया जाय, पर गेहूँ का स्वरूप गेहूँ में है और चने का स्वरूप चने में है और कदाचित् उन दोनों को पीस दिया जाय, चून बन जाय, फिर भी गेहूँ का स्वरूप गेहूँ में है, चने का स्वरूप चने में है। ऐसे ही इस लोक में छहों द्रव्य एक जगह रह रहे हैं। जिस जगह आप हैं, आप जीव हैं और उस ही जगह इस शरीर के सहारे रहने वाले अनेक त्रस जीव भी हैं, निगोद जीव भी हैं, शरीर भी हैं। धर्म, अधर्म, आकाश तो सर्वत्र हैं ही। कालद्रव्य भी है। छहों द्रव्यों को एक जगह होने पर भी कोई द्रव्य किसी दूसरे द्रव्य से मिल नहीं सकता है, एक नहीं हो सकता है। एक क्षेत्र में मिलने पर भी सभी द्रव्य अपने-अपने स्वरूप में अपना-अपना परिणमन करते हैं, तो प्रत्येक द्रव्य अपने ही चतुष्टय से है अपने ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से है, पर के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से नहीं है। यही वस्तुत्व गुण है। इस वस्तुत्व गुण के प्रताप से पदार्थों में परिणमन होता है, अर्थक्रिया होती है। यह पदार्थ निरंतर परिणमता रहेगा, ऐसा भी स्वभाव सब पदार्थों में हैं। कोई पदार्थ खाली नहीं रह सकता कि वह परिणमे नहीं और बना रहे। जो पदार्थ परिणमता नहीं है वह पदार्थ होता ही नहीं है। यदि कुछ है तो वह निरंतर परिणमन करेगा, ऐसा वस्तु में स्वभाव पड़ा हुआ है और यह ऐसा स्वभाव है कि वस्तु अपने स्वरूप से परिणमेगा, दूसरे की परिणति से नहीं परिणमेगा। हम कुछ ज्ञान करेंगे या सुख शांति भोगेंगे तो अपने ही परिणमन से अपने ही परिणमन रूप भोगेंगे, कहीं आपके परिणमनरूप नहीं भोग सकते हैं। प्रत्येक पदार्थ में यह स्वभाव पड़ा है कि वह अपने ही गुण के रूप में परिणमन करेगा, दूसरे के रूप परिणमन नहीं कर सकता है। इसका नाम है अगुरुलघुत्व। पदार्थ प्रदेशात्मक तो है ही और वह किसी न किसी ज्ञान के द्वारा प्रमेय भी रहता है, यों प्रदेशवत्व और प्रमेयवत्व भी होता है।
कर्तृत्वबुद्धि का अनवकाश—अब इस वस्तु के स्वरूप से यह शिक्षा ले सकते हैं कि वस्तु में निरंतर स्वभाव का परिणमन ही पड़ा है। जैसा योग मिला, जैसी योग्यता है उस प्रकार वह परिणमता रहता है। जिसमें विभावरूप तो जीव और पुद्गल ही परिणमता है। शेष चार द्रव्य शुद्ध परिणमन रूप परिणमते रहते हैं। किसी पदार्थ का किसी अन्य पदार्थ के प्रति कर्तृत्व नहीं है। जब वस्तु का स्वरूप ही ऐसा है तब बतावो कहाँ गुंजाइश है? जो यह विकल्प कर रहे हैं मोहीजन कि मैं अमुक पदार्थ का यों कर देता हूँ, अमुक पदार्थ को मैंने किया, इस पदार्थ को में कर दूंगा, यह कर्तृत्व का आशय महाविष है। कोई पदार्थ किसी अन्य पदार्थ को कर नहीं सकता है और जो माना कि मैं अमुक पदार्थ को कर देता हूँ तो करने वाले के आशय में भी यह बात रहेगी कि में कर देता हुँ। कर्तृत्व बुद्धि का आशय होना, परपदार्थ का अपने को कर्ता समझना यह एक बड़ी भूल है, यह दोष है जो अनहोनी को होनी कल्पित किया जा रहा है फिर भला बतलावो जो उत्कृष्ट आत्मा वीतराग सर्वज्ञदेव हैं, उनके प्रति जो यह भाव करता है कि यह जगत को रचते हैं, हम लोगों को सुख देते हैं, पुण्य-पाप कराते हैं, सद्गति, दुर्गति देते हैं, तो यह ईश्वर पर कितना बड़ा भारी अपराध थोपना है और उनके स्वरूप को बिगाड देना है? प्रभु का ज्ञानानंदस्वरूप—प्रभु तो उत्कृष्ट ज्ञान और आनंद के पिंड हैं, उनका स्वरूप केवलज्ञान ज्योतिर्मय है, वे समस्त लोकालोक के पदार्थों को स्पष्ट जानते हैं और किसी पदार्थ के जानने से अपने आपमें कोई आकुलता नहीं उत्पन्न करते हैं। जिनके आकुलता उत्पन्न करने का साधन नहीं है उनके तो शुद्ध आनंद का ही साधन है। आनंद का अविनाभाव ज्ञान परिणमन से है, लेकिन मोही जीवों में ज्ञान के साथ-साथ राग और द्वेष भी पड़े हुए हैं ना, इच्छा भी लग रही है ना। इस कारण वे इच्छा के ही कारण दु:खी होते हैं और अपराध लादते हैं ज्ञान पर। यदि यह बात ज्ञान में न आयी होती तो हमें कष्ट न होता, लोग ऐसा मानते हैं। कोई बाहर कहीं दुकान हो, फर्म हो और वहाँ से खबर आ जाय कि इस वस्तु के बेचने में दो लाख का नुकसान हुआ है तो यह दु:खी हो जाता है। नुकसान हो भी गया हो, और खबर आ जाय कि दो लाख का फायदा हुआ है तो नुकसान होकर भी यह तो सुखी नजर आ रहा है, तो वह यों कहता है कि मुझे तो इस ज्ञान ने दु:खी किया। अरे, ज्ञान दु:ख का साधन नहीं होता। उस ज्ञान के साथ जो रागद्वेष, मोह, वांछा का पाप लगा हुआ है इस पाप ने दु:खी किया है। ज्ञान तो उत्कृष्ट आनंद का ही साधक है। अवस्थायें—इन पदार्थों की जो पर्यायें हमारे ज्ञान में आ रही हैं वे सब दशाएँ स्थूल दशाएँ हैं। सूक्ष्म पर्याय तो अर्थ पर्याय है जो आगम प्रमाण से जानी जाती है। प्रतिसमय, प्रतिक्षण अनंत भाग वृद्धि आदिक बारह प्रकार से तो बढ़ते हैं और उस ही प्रकार से हानि को प्राप्त होते हैं। यह क्रम प्रत्येक पदार्थ में लगा हुआ है। वह अपने मूल में सूक्ष्मता से निरंतर अर्थपर्यायरूप परिणमते हैं, ऐसी सूक्ष्म परिणतियाँ प्रत्येक पदार्थ में पायी जाती हैं। अब जरा अपने मुतआल्लक कुछ निगाह कीजिए। यह जीव आज किस स्थिति में दबा पड़ा हुआ है? कोई मनुष्य है, कोई नारकी है, कोई देव है, कोई पशु पक्षी स्थावर आदिक हैं, ऐसी जो नाना व्यंजनपर्यायें हुई हैं वे संसार प्रपंचों की पर्यायें हैं। आत्मा का शुद्धस्वरूप तो केवल ज्ञानानंद मात्र है, किंतु जो अपने इस ज्ञानानंदस्वरूप को नहीं पहिचान पाते, वे परपदार्थों से कुछ न कुछ आशा लगाये रहते हैं। उनके इस अंतर के कलुषित परिणामों में अनेक कर्मों का बंध होता है उसके उदयकाल में जीव की ये नाना दशायें होती हैं।
वीतराग सर्वज्ञ प्रभु का भजन-पूजन करने आयें तो यही निरखने आयें कि हे प्रभु ! जब तक आपकी तरह कैवल्य प्राप्त न हो जायेगा, जैसे कि अब आप केवल आत्मा ही आत्मा हैं, आपमें न अब रागादिक विभाव हैं, न कर्मों का बंधन हैं, न शरीर का बंधन है, निर्दोष ज्ञानपुंज आनंदघन जैसा कि केवल आपका स्वरूप रह गया है ऐसा स्वरूप जब तक हमें प्राप्त न हो, हमारे संकट मिट न सकेंगे।
संससारभ्रमण और परोक्षदृष्टि—संसार का यह परिभ्रमण बहुत विकट जंगल है। यहाँ मनुष्य पर्यायों में कुछ थोड़े से दु:खों को मानकर हम आकुलित होते हैं और कदाचित् मनुष्यभव छूट कर तिर्यंच पशुपक्षी कीट मकौड़े का भव मिल जाय तो यहाँ भी क्या विवेक काम देगा? हमारा शरण हमारा निर्मल परिणाम है, दूसरा और कुछ हमारा शरण नहीं है, ये नर-नारकादिक पर्यायें हमारी ही करतूत के फल हैं। हम मलिनता त्याग दें, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र का विशुद्ध पालन करें तो ये सब झंझट समाप्त हो सकेंगे। प्रभु का ज्ञान समस्त पदार्थों को विधिवत् जानता है। ये पुद्गल के नाना परिणमन हैं। कोई सूक्ष्म हैं और कोई उससे स्थूल हैं, कोई उससे स्थूल हैं, कोई उससे सूक्ष्म हैं, कोई उससे सूक्ष्म हैं। ऐसे 6 प्रकार के परिणमनों में पाये जाने वाले ये स्कंध पर्यायें हैं। धर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्य इनका तो निरंतर शाश्वत शुद्ध परिणमन ही चलता है, ऐसे अपने-अपने गुण और पर्यायों से संयुक्त इस पदार्थ को जो नहीं देख सकते हैं ऐसे संसारी जीवों के परोक्षदृष्टि होती है।
प्रभु की निर्बाध परप्रकाशकता—भगवान प्रभु तो प्रत्यक्ष ज्ञान द्वारा समस्त सत् को एक साथ स्पष्ट जानते हैं। यह चर्चा इस प्रकरण में चल रही है कि यह आत्मा स्व का प्रकाशक है और पर का भी प्रकाशक है। उन दो पक्षों में से स्वप्रकाशकता को भली भाँति सिद्ध कर चुके थे। यहाँ उपसंहाररूप में परप्रकाशकता का वर्णन चल रहा है। जो भी सत् है वह नियम से प्रभु के ज्ञान में ज्ञात है। जो प्रभु को ज्ञात नहीं वह है ही नहीं, जो नहीं है वह कैसे ज्ञात हो? जो है वह ज्ञान में से कैसे ओझल हो? जिनका ज्ञान केवल आत्मा के नाते से चल रहा है उनको किसी पदार्थ की अटक नहीं होती है। इंद्रियजज्ञान की सव्याबाधता—भैया ! हम इंद्रिय से जानते हैं तो भींत के पीछे क्या है? हम नहीं पहिचान सकते हैं किंतु जो इंद्रिय से नहीं जानते, केवल आत्मीय शक्ति से जानते हैं उन प्रभु के ज्ञान में किसी चीज की आड़ आ ही नहीं सकती है, पर सिद्ध प्रभु लोक के अंत में विराजे हैं और वहीं विराजे हुए लोक के और अलोक के समस्त द्रव्य, गुण, पर्यायों को जानते रहते हैं। जैसे कोई पुरुष किसी कमरे में खड़ा हो, उस कमरे में चार-पाँच खिड़कियाँ हैं। वह पुरुष बाहर का कुछ ज्ञान कर सकता है तो उन खिड़कियों के सहारे ज्ञान कर सकता है। कभी किसी खिड़की से देखे, कभी किसी खिड़की से देखे। बाहर के पदार्थों को जानने का साधन/द्वार/माध्यम खिड़कियाँ हैं, पर यह तो बतावो कि क्या इन खिड़कियों ने जाना है? जाना तो पुरुष ने है। कदाचित् उस कमरे की सब खिड़कियाँ तोड़ दी जायें और भींत को तोड़कर बिल्कुल साफ मैदान कर दिया जाय तो क्या वह पुरुष सब तरफ से न जान लेगा? अब कहाँ खिड़कियाँ रहीं? खिड़कियों के सहारे जानने वाली बात अब कहाँ विराजेगी उस पुरुष को तो अब चारों ओर से स्पष्ट दिखने लगेगा। ऐसे ही कोई पुरुष आत्मा जो कि देह के बंधन में पड़ा हुआ है, कर्मों के बंधन में पड़ा हुआ है उस पुरुष को इन पंचेंद्रियों की खिड़कियों से ही कुछ ज्ञान होता है। इंद्रियजज्ञान में नियतज्ञता व अतींद्रियज्ञान में सकलज्ञता—इंद्रियों के आलंबन से होने वाला ज्ञान नीयत है। ऐसा भी नहीं है कि कान के द्वारा हम सब तरफ की बात जान जायें, केवल शब्द ही जान पायेंगे। आंखों के द्वारा हम रूप, रस, गंध, स्पर्श सब जान जायें ऐसा नहीं होता। आँखों से केवल हम रूप ही जान सकते हैं। नाक से केवल गंध का ही ज्ञान कर पाते हैं, जिह्वा से केवल रस की ही परख कर पाते हैं और स्पर्शन इंद्रिय से हम केवल ठंडा, गर्म आदिक स्पर्श ही जान पाते हैं। कैसी विभिन्नता है? जीभ पर कोई गर्म चीज रख दी जाय खाने के लिए तो उसमें जो रस आ रहा है वह तो रसना इंद्रिय से किया जा रहा है और जो गर्मी जितने में आ रही है वह रसना इंद्रिय से नहीं, स्पर्शन इंद्रिय से जानने में आ रही है। यों इन खिड़कियों वाला यह देह है। बद्ध संसारी आत्मा कुछ थोड़ा-थोड़ा जान पाता है। कल्पना करो कि जिस आत्मा के देह भी नहीं रहा, कर्मबंधन नहीं रहा, केवल ज्ञानपुंज रह गया है, जिसे अखंड और शुद्ध कहते हैं, ऐसी स्थिति में अब ज्ञान-इंद्रिय के सहारे क्या करेंगे? वे तो आत्मीय शक्ति से सर्व ओर से सबको जानते हैं। यों यह आत्मप्रभु निर्दोष वीतराग सर्वज्ञ समस्त सत् पदार्थों को जानते हैं।
ज्ञानाभिमान तजने व सहजज्ञानावलंबन करने का अनुरोध—प्रभु का ऐसा व्यापक परप्रकाशक ज्ञान है जो इन तीनों लोकों को एक ही समय एक ही साथ तीनों कालों की सब परिस्थितियों को जान जाता हैं। जो यों सकल पदार्थों को नहीं जान सकते हैं वे सर्वज्ञ नहीं है, कोई अपने ज्ञान का अभिमान करे तो वह व्यर्थ है। उसकी प्रत्यक्ष दृष्टि नहीं है। जड़बुद्धि पुरुष ही छोटे-छोटे ज्ञान पर अभिमान किया करते हैं। अरे ! भगवान सर्वज्ञ का ज्ञान तो देखो—उसके समक्ष क्या ज्ञान पाया है? अरे ! अपने शुद्ध ज्ञानस्वरूप का आलंबन लेने से ही ऐसा परिर्पूण केवलज्ञान प्रकट होता है, इस प्रकार संकल्प—विकल्प, मोह-अहंकार को तजकर यह यत्न करें कि हम अपने शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूप का ही दर्शन करते रहें।