GP:प्रवचनसार - गाथा 176 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[भावेण जेण] जिस भाव--परिणाम से [जीवो] जीव-रूपी कर्ता [पेच्छदि जाणादि] निर्विकल्प दर्शनरूप पर्याय से देखता है और सविकल्प ज्ञानरूप पर्याय से जानता है । कर्मता को प्राप्त किसे जानता है ? [आगदं विसये] आये हुये -- प्राप्त हुये कुछ भी इष्ट-अनिष्ट वस्तु -- पंचेंद्रिय विषयों को देखता व जानता है, उन पंचेंद्रिय विषयों में । [रज्जदि तेणेव पुणो] उसी से फिर राग करता है, आदि-मध्य-अन्त से रहित रागादि दोष रहित, चैतन्य-ज्योति-स्वरूप, निज आत्म-द्रव्य की रुचि नहीं करता हुआ तथा उसे ही नहीं जानता हुआ और सम्पूर्ण रागादि विकल्पों के त्याग-पूर्वक उसकी ही भावना नहीं करता हुआ, पहले कहे गये ज्ञान-दर्शन उपयोग द्वारा राग करता है -- इसप्रकार भाव बन्ध की युक्ति है । [बज्झदि कम्म त्ति उवदेसो] उस भाव-बन्ध से नवीन द्रव्य-कर्म बंधता है -- ऐसा द्रव्य बन्ध का स्वरूप है -- ऐसा उपदेश है ॥१८८॥
इसप्रकर भाव-बन्ध कथन की मुख्यता से दो गाथाओं द्वारा दूसरा स्थल पूर्ण हुआ ।