GP:प्रवचनसार - गाथा 52 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[ण वि परिणमदि] - जैसे अपने आत्म-प्रदेशों के साथ समरसी भाव से परिणत होते हैं, वैसे ज्ञेयरूप से परिणत नहीं हैं । [ण गेण्हदि] - और जैसे अनन्त-ज्ञानादि चतुष्टय-स्वरूप स्वयं को स्वयं से ग्रहण करते हैं, वैसे ज्ञेयरूप को ग्रहण नहीं करते हैं । [उपज्जदि णेव अट्ठेसु] - और जैसे निर्विकार परमानन्द एक सुखरूप अपनी सिद्ध-पर्याय से उत्पन्न होते हैं, वैसे ही ज्ञेय पदार्थों में उत्पन्न नहीं होते । क्या करते हुए भी ये सब नहीं करते हैं? [जाणण्णवि ते] - स्वयं से पृथक्-रूप उन ज्ञेय पदार्थों को जानते हुये भी उन रूप परिणमन आदि क्रियाओं को नहीं करते हैं । उनको जानते हुये भी उनरूप परिणमन आदि कौन नहीं करते हैं - इस क्रिया का कर्ता कौन है? [आदा] - मुक्तात्मा-केवली भगवान, उन्हें जानते हुये भी उनरूप परिणमन आदि नहीं करते हैं । [अबंधगो तेण पण्णतो] - इस कारण उन्हें कर्मों का अबंधक कहा है ।
वह इस प्रकार - रागादि रहित ज्ञान बन्ध का कारण नहीं हैं - ऐसा जानकर शुद्धात्मा की परिपूर्ण प्राप्ति लक्षण मोक्ष से विपरीत नारकादि दुःखों के कारणभूत कर्मबन्ध के कारण इन्द्रिय-मन से उत्पन्न एकदेश विज्ञान को छोड़कर, कर्मबंध के अकारणभूत परिपूर्ण निर्मल केवलज्ञान के बीजभूत निर्विकार स्वसंवेदन ज्ञान में ही भावना करना चाहिये - यह अभिप्राय है ।