GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 98 - समय-व्याख्या - हिंदी
From जैनकोष
यह, मूर्त और अमूर्त के लक्षण का कथन है ।
इस लोक में जीवों द्वारा स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय और चक्षुरिन्द्रिय द्वारा उनके (-उन इंद्रियों के) विषय-भूत, स्पर्श-रस-गंध-वर्ण स्वभाव-वाले पदार्थ (स्पर्श, रस, गंध और वर्ण जिनका स्वभाव है ऐसे पदार्थ) ग्रहण होते हैं (-ज्ञात होते हैं), और श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा वही पदार्थ उसके (श्रोत्रेन्द्रिय के) १विषयहेतुभूत शब्दाकार परिणमित होते हुए ग्रहण होते हैं । वे (वे पदार्थ), कदाचित स्थूल-स्कंध-पने को प्राप्त होते हुए, कदाचित सूक्ष्मत्व को (सूक्ष्म स्कंधपने को) प्राप्त होते हुए और कदाचित परमाणुपने को प्राप्त होते हुए इन्द्रियों द्वारा ग्रहण होते हों या न होते हों, इन्द्रियों द्वारा ग्रहण होने की योग्यता का (सदैव) सद्भाव होने से 'मूर्त' कहलाते हैं ।
स्पर्श-रस-गंध-वर्ण का अभाव जिसका स्वभाव है ऐसा शेष अन्य समस्त पदार्थ समूह इन्द्रियों द्वारा ग्रहण होने की योग्यता के अभाव के कारण 'अमूर्त' कहलाता है ।
वे दोनों (-पूर्वोक्त दोनों प्रकार के पदार्थ) चित्त द्वारा ग्रहण होने की योग्यता के सद्भाव वाले हैं, चित्त- जो की २अनियत विषयवाला, ३अप्राप्यकारी और मतिश्रुतज्ञान के साधनभूत (मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान में निमित्तभूत) है वह मूर्त तथा अमूर्त को ग्रहण करता है (-जानता है) ॥९८॥
इस प्रकार चूलिका समाप्त हुई ।
अब काल द्रव्य का व्याख्यान है ।
१विषयहेतुभूत = उन स्पर्श-रस-गंध-वर्ण स्वभाव-वाले पदार्थों को (अर्थात पुद्गलों को) श्रोत्रेन्द्रिय के विषय होने में हेतुभूत शब्दाकार परिणाम है, इस्लिये वे पदार्थ (पुद्गल) शब्दाकार परिणमित होते हुए श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा ग्रहण होते हैं ।
२अनियत = अनिश्चित (जिस प्रकार पाँच इंद्रियों में से प्रत्येक इंद्रिय का विषय नियत है उस प्रकार मन का विषय नियत नहीं है, अनियत है)
३अप्राप्यकारी = ज्ञेय विषयों का स्पर्श किये बिना कार्य करने वाला या जानने वाला (मन और चक्षु अप्राप्यकारी है, चक्षु के अतिरिक्त चार इंद्रियां प्राप्यकारी हैं)