ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 101
From जैनकोष
एक सौ एकवां पर्व
अथानंतर उन सुंदर कुमारों को विवाह के योग्य देख, राजा वज्रजंघ ने कन्याओं के खोजने में तत्पर बुद्धि की ॥1॥ सो प्रथम ही अपनी लक्ष्मी रानी से उत्पन्न शशिचूला नाम की पुत्री को अन्य बत्तीस कन्याओं के साथ लवण को देना निश्चित किया ॥2॥ राजा वज्रजंघ दोनों कन्याओं का विवाह मंगल एक साथ देखना चाहता था। इसलिए वह द्वितीय पुत्र के योग्य कन्याओं की सब ओर खोज करता रहा ॥3॥ उत्तम कन्या को न देख एक दिन वह मन में खेद को प्राप्त हुए के समान बैठा था कि अकस्मात् उसे शीघ्र ही स्मरण आया और उससे वह मानो कृतकृत्यता को ही प्राप्त हो गया ॥4॥ उसने स्मरण किया कि 'पृथिवी नगर के राजा की अमृतवती रानी के गर्भ से उत्पन्न कनकमाला नाम की एक शुद्ध तथा श्रेष्ठ पुत्री है ॥॥ वह चंद्रमा की रेखा के समान सब लोगों को हरण करने वाली है, लक्ष्मी को जीतती है और कमलों से रहित मानो कमलिनी ही है ॥6॥ वह शशिचूला की समानता को प्राप्त है तथा शुभ है। इस प्रकार विचार कर उसके निमित्त से राजा वज्रजंघ ने दूत भेजा ॥7॥ बुद्धिमान् दूत ने क्रम-क्रम से पृथिवीपुर पहुँच कर तथा सन्मान कर वहाँ के राजा पृथु से वार्तालाप किया ॥8॥
उसी समय राजा पृथु ने विशुद्ध दृष्टि से दूत की ओर देखा और दूत जब तक कन्या की याचना से संबंध रखने वाला वचन ग्रहण नहीं कर पाता है कि उसके पहले ही राजा पृथु बोल उठे कि रे दूत ! इसमें तेरा कुछ भी दोष नहीं है क्योंकि तू पराधीन है और पर के वचनों का अनुवाद करने वाला है ॥9-10॥ जो स्वयं ऊष्मा-आत्मगौरव (पक्ष में गरमी) से रहित हैं, जिनकी आत्मा चंचल है तथा जो बहुभंगों अनेक अपमानों (पक्ष में अनेक तरंगों) से व्याप्त हैं इस तरह जल के प्रवाह के समान जो आप जैसे लोग हैं, वे इच्छानुसार चाहे जहाँ ले जाये जाते हैं ॥11॥ यद्यपि यह सब है तथापि तूने पापपूर्ण वचनों का उच्चारण किया है, अतः तेरा निग्रह करना योग्य है क्योंकि दूसरे के द्वारा चलाया हुआ विघातक यंत्र क्या नष्ट नहीं किया जाता ? ॥12॥ हे दूत ! मैं जानता हूँ कि तू धूली पान के समान है, और कुछ भी करने में समर्थ नहीं है इसलिए यहाँ से हटा देना मात्र ही तेरा सत्कार (?) अर्थात् निग्रह है ॥13॥ यद्यपि कुल, शील, धन, रूप, समानता, बल, अवस्था, देश और विद्यागम ये नौ वर के गुण कहे गये हैं तथापि उत्तम पुरुष उन सबमें एक कुल को ही श्रेष्ठ गुण मानते हैं इसका होना आवश्यक समझते हैं, शेष गुणों में इच्छानुसार प्रवृत्ति है अर्थात् हों तो ठीक न हों तो ठीक ॥14-15।। परंतु वही कुल नाम का प्रथम गुण जिस वर में न हो उसे सब ओर से माननीय कन्या कैसे दी जा सकती है ? ॥16॥ सो इस तरह निर्लज्जतापूर्वक विरुद्ध वचन कहने वाले उसके लिए कुमारी अर्थात् पुत्री का देना तो युक्त नहीं है परंतु कुमारी अर्थात् खोटा मरण मैं अवश्य देता हूँ ॥17॥ इस प्रकार जिसके वचन सर्वथा उपेक्षित कर दिये गये थे ऐसे दूत ने निरुपाय हो वापिस जाकर वज्रजंघ के लिए सब समाचार कह सुनाया ॥18॥
तदनंतर यद्यपि राजा वज्रजंघ ने स्वयं आधे मार्ग तक जाकर किसी महादूत के द्वारा पृथु से कन्या की याचना को ॥19॥ और उसके प्रति आदर व्यक्त किया तथापि वह कन्या को प्राप्त नहीं कर सका । फलस्वरूप वह क्रोध से प्रेरित हो पृथु का देश उजाड़ने के लिए तत्पर हो गया ॥20॥ राजा पृथु के देश को सीमा का रक्षक एक व्याघ्ररथ नाम का राजा था उसे वज्रजंघ ने संग्राम में जीत कर बंधन में डाल दिया ॥21॥ महाबलवान् अथवा बड़ी भारी सेना से सहित व्याघ्ररथ सामंत को युद्ध में बद्ध तथा वज्रजंघ को देश उजाड़ने के लिए उद्यत जानकर राजा पृथु ने सहायता के निमित्त पोदनदेश के अधिपति अपने मित्र राजा को जो कि उत्कृष्ट सेना से युक्त था जब तक बुलवाया तब तक वज्रजंघ ने भी अपने पुत्रों को बुलाने के लिए शीघ्र ही एक पत्र सहित आदमी पौंडरीकपुर को भेज दिया ॥22-24।। पिता की आज्ञा सुनकर राजपुत्रों ने शीघ्र ही युद्ध के लिए भेरी तथा शंख आदि के शब्द दिलवाये ॥25॥ तदनंतर पौंडरीकपुर में लहराते हुए समुद्र के समान क्षोभ उत्पन्न करनेवाला बहुत बड़ा कोलाहल उत्पन्न हुआ ॥26॥ वह अश्रुतपूर्व युद्ध की तैयारी का शब्द सुन लवण और अंकुश ने निकटवर्ती पुरुषों से पूछा कि यह क्या है ? ॥27॥ तदनंतर यह सब वृत्तांत हमारे ही निमित्त से हो रहा है, यह सब ओर से सुन युद्ध की इच्छा रखने वाले सीता के दोनों पुत्र जाने के लिए उद्यत हो गये ॥28॥ जो अत्यंत उतावली से सहित थे, जो पराभव की उत्पत्ति को रंचमात्र भी सहन नहीं कर सकते थे और जिनका विशाल तेज प्रकट हो रहा था ऐसे उन दोनों वीरों ने वाहन का विलंब भी सहन नहीं किया था ॥29॥ वज्रजंघ के पुत्र, समस्त अंतःपुर तथा परिकर के समस्त लोग उन्हें यत्नपूर्वक रोकने के लिए उद्यत हुए परंतु उन्होंने उनके वचन अनसुने कर दिये।
तदनंतर पुत्र स्नेह से जिसका हृदय द्रवीभूत हो रहा था ऐसी सीता ने उन्हें युद्ध के लिए उद्यत देख कहा कि हे बालको ! यह तुम्हारा युद्ध के योग्य समय नहीं है क्योंकि महारथ की धुरा के आगे बछड़े नहीं जोते जाते ॥30-32॥ इसके उत्तर में दोनों पुत्रों ने कहा कि हे मातः! तुमने ऐसा क्यों कहा ? इसमें वृद्धजनों की क्या आवश्यकता है ? पृथिवी तो वीरभोग्या है ॥33।। महावन को जलाने वाली अग्नि के लिए कितने बड़े शरीर से प्रयोजन है ? अर्थात् अग्नि का बड़ा शरीर होना अपेक्षित नहीं है, इस विषय में तो उसे स्वभाव से ही प्रयोजन है ॥34॥ इस प्रकार के वचनों का उच्चारण करने वाले पुत्रों को देखकर सीता के नेत्रों में मिश्र रस से उत्पन्न आँसुओं ने कुछ आश्रय लिया अर्थात् उसके नेत्रों से हर्ष और शोक के कारण कुछ-कुछ आँसू निकल आये ॥35॥
तदनंतर जिन्होंने अच्छी तरह स्नान कर आहार किया; शरीर को अलंकारों से अलंकृत किया और मन, वचन, काय से सिद्ध परमेष्ठी को बड़ी सावधानी से नमस्कार किया, ऐसे समस्त विधि-विधान के जानने में निपुण दोनों कुमार माता को नमस्कार कर उत्तम मंगलाचार पूर्वक घर से बाहर निकले ॥36-37॥ तदनंतर जिनमें वेगशाली घोड़े जुते थे और जो नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से परिपूर्ण थे ऐसे उत्तम रथों पर सवार होकर दोनों भाइयों ने राजा पृथु के ऊपर प्रस्थान किया ॥38॥ बड़ी भारी सेना से सहित एवं धनुषमात्र को सहायक समझने वाले दोनों कुमार ऐसे जान पड़ते थे मानो शरीरधारी उद्योग और पराक्रम ही हों ॥39॥ जिनका हृदय अत्यंत उदार था तथा जो संग्राम के बहुत भारी कौतुक से युक्त थे ऐसे महाभ्युदय के धारक दोनों भाई छह दिन में वज्रजंघ के पास पहुँच गये ॥40॥
तदनंतर परमोद्योगी शत्रु की सेना को निकटवर्ती सुनकर बड़ी भारी सेना के मध्य में स्थित राजा पृथु अपने पृथिवीपुर से बाहर निकला ॥41॥ उसके भाई, मित्र, पुत्र, मामा, मामा के लड़के तथा एक बर्तन में खाने वाले परमप्रीति से युक्त अन्य लोग एवं सुह्म, अंग, वंग, मगध आदि के महाबलवान् राजा उसके साथ चले ॥42-43।। कटक-सेना से घिरे हुए परम प्रतापी रथ, घोड़े, हाथी तथा पैदल सैनिक क्रुद्ध होकर वज्रजंघ की ओर बढ़े चले आ रहे थे।॥44॥ रथ, हाथी और घोड़ों के स्थान को तुरही के शब्द से युक्त सुनकर वज्रजंघ के सामंत भी युद्ध करने के लिए उद्यत हो गये ॥45॥ तदनंतर जब दोनों सेनाओं के अग्रभाग अत्यंत निकट आ पहुँचे तब अत्यधिक उत्साह को धारण करने वाले लवण और अंकुश शत्रु की सेना में प्रविष्ट हुए ॥46॥ अत्यधिक शीघ्रता से घूमने वाले वे दोनों कुमार, महाक्रोध को धारण करते हुए के समान शत्रुदलरूपी महा सरोवर में सब ओर क्रीड़ा करने लगे ॥47॥ बिजलीरूपी लता की उपमा को धारण करने वाले वे कुमार कभी यहाँ और कभी वहाँ दिखाई देते थे और फिर अदृश्य हो जाते थे। शत्रु जिनका पराक्रम नहीं सह सका था ऐसे वे दोनों वीर बड़ी कठिनाई से दिखाई देते थे अर्थात् उनकी ओर आँख उठाकर देखना भी कठिन था ।।48॥ बाणों को ग्रहण करते, डोरी पर चढ़ाते और छोड़ते हुए वे दोनों कुमार दिखाई नहीं देते थे, केवल मारे हुए शत्रु ही दिखाई देते थे ॥49॥ तीक्ष्ण बाणों द्वारा घायल होकर गिरे हुए वाहनों से व्याप्त हुआ पृथिवीतल अत्यंत दुर्गम हो गया था ॥50॥ शत्रु की सेना पागल के समान निमेषमात्र में पराभूत हो गई― तितर-बितर हो गई और हाथियों का समूह सिंह से डराये हुए के समान इधर-उधर दौड़ने लगा ॥51॥ तदनंतर पृथु राजा की सेनारूपी नदी, लवणांकुशरूपी सूर्य की बाणरूपी किरणों से क्षणमात्र में सुखा दी गई ॥52॥ जो योद्धा शेष बचे थे वे भय से पीड़ित हो अर्कतूल के समूह के समान उन कुमारों की इच्छा के बिना ही दिशाओं में भाग गये ॥53॥
असहाय एवं खेदखिन्न पृथु पराजय के मार्ग में स्थित हुआ अर्थात् भागने लगा तब धनुर्धारी कुमारों ने उसका पीछा कर उससे इस प्रकार कहा कि अरे नीच नरपृथु ! अब व्यर्थ कहाँ भागता है ? जिनके कुल और शील का पता नहीं ऐसे ये हम दोनों आ गये ।।54-55।। जिनका कुल और शील अज्ञात है ऐसे हम लोगों से भागता हुआ तू इस समय लज्जित क्यों नहीं होता है ? ॥56।। अब हम बाणों के द्वारा अपने कुल और शील का पता देते हैं, सावधान होकर खड़े हो जाओ अथवा बलात् खड़े किये जाते हो ॥57।। इस प्रकार कहने पर पृथु ने लौटकर तथा हाथ जोड़कर कहा कि हे वीरो ! मेरा अज्ञानजनित दोष क्षमा करने के योग्य हो ॥58।। जिस प्रकार सूर्य का तेज कुमुद-समूह के मध्य नहीं आता उसी प्रकार आप लोगों का माहात्म्य मेरी बुद्धि में नहीं आया ।।59।। धीर, वीर मनुष्यों का अपने कुल, शील का परिचय देना ऐसा ही होता है । वचनों द्वारा जो परिचय दिया जाता है वह ठीक नहीं है क्योंकि उसमें संदेह हो सकता है ॥60॥ ऐसा कौन मंद मनुष्य है जो जलने मात्र से, वन के जलाने में समर्थ अग्नि की उत्पत्ति को नहीं जान लेता है ?। भावार्थ― अग्नि प्रज्वलित होती है इतने मात्र से ही उसकी वनदाहक शक्ति का अस्तित्व मूर्ख से मूर्ख व्यक्ति भी स्वीकृत कर लेता है ॥61।। आप दोनों परम धीर, महाकुल में उत्पन्न एवं यथेष्ट सुख देने वाले हमारे स्वामी हो ॥62॥ इस प्रकार जिनकी प्रशंसा की जा रही थी ऐसे दोनों कुमार नतमस्तक, शांतचित्त तथा शांत मुख हो गये और उनका सब क्रोध दूर हो गया ॥63।। तदनंतर जब वज्रजंघ आदि प्रधान राजा आ गये तब उनकी साक्षीपूर्वक दोनों वीरों की पृथु के साथ मित्रता हो गई ॥64।। आचार्य कहते हैं कि मानशाली मनुष्य प्रणाम मात्र से प्रसन्न हो जाते हैं, सो ठीक ही है क्योंकि नदियों के प्रवाह नम्रीभूत वेतस के पौधों को नहीं उखाड़ते ॥65॥
तदनंतर राजा पृथु ने सब लोगों को आनंद उत्पन्न करने वाले दोनों वीरों को बड़े वैभव के साथ नगर में प्रविष्ट कराया ॥66॥। वहाँ पृथु ने महाविभव से सहित अपनी कनकमाला कन्या वीर मदनांकुश के लिए देना निश्चित किया ॥67॥ तदनंतर कार्य करने में निपुण दोनों वीर वहाँ एक रात्रि व्यतीत कर इस समस्त पृथिवी को जीतने के लिए नगर से बाहर निकल पड़े ॥68॥ सुह्म, अंग, मगध, वंग तथा पोदनपुर आदि के राजाओं से घिरे हुए दोनों कुमार लोकाक्षनगर को जाने के लिए उद्यत हुए ॥69॥ बहुत बड़ी सेना से सहित दोनों वीर उससे संबंध रखने वाले अनेक देशों पर सुख से आक्रमण करते हुए लोकाक्ष नगर के समीप पहुँचे ॥70।। वहाँ जिस प्रकार गरुड़ के पंख नाग को क्षोभित करते हैं उसी प्रकार उन दोनों ने वहाँ के कुबेरकांत नामक अभिमानी राजा को क्षोभ युक्त किया ॥71॥ तदनंतर चतुरंग सेना से युक्त अत्यंत भयंकर रणांगण में कुबेरकांत को जीतकर वे आगे बढ़े, उस समय उनकी सेना अत्यधिक बढ़ती जाती थी ।॥72॥ वहाँ से चलकर आधीनता को प्राप्त हुए हजारों राजाओं से घिरे हुए लंपाक देश को गये । वहाँ स्थल मार्ग से जाना कठिन था इसलिए नौकाओं के द्वारा जाना पड़ा ॥73॥ वहाँ एक कर्ण नामक राजा को अच्छी तरह जीतकर मार्ग की अनुकूलता होने से दोनों ही कुमार विजयस्थली गये ॥74॥ वहाँ देखने मात्र से ही सौ भाइयों को जीतकर तथा गंगा नदी उतरकर दोनों कैलास की ओर उत्तर दिशा में गये ॥75॥ वहाँ उन्होंने नंदनवन के समान सुंदर-सुंदर देशों में अच्छी तरह गमन किया तथा नाना प्रकार की भेंट हाथ में लिये हुए उत्तम मनुष्यों ने उनकी पूजा की।।7।। तदनंतर भाषकुंतल, कालांबु, नंदी, नंदन, सिंहल, शलभ, अनल, चौल, भीम तथा भूतरव आदि देशों के राजाओं को वशकर वे सिंधु के दूसरे तट पर गये तथा वहाँ पश्चिम समुद्र के दूसरे तट पर स्थित राजाओं को नम्रीभूत किया ॥77-78॥ पुरखेट तथा मटंब आदि के स्वामी एवं अन्य जिन देशों के अधिपतियों को उन दोनों कुमारों ने वश किया था हे श्रेणिक ! मैं यहाँ तेरे लिए उनका कुछ वर्णन करता हूँ ॥79॥ ये देश कुछ तो आर्य देश थे, कुछ म्लेच्छ देश थे, और कुछ नाना प्रकार के आचार से युक्त दोनों प्रकार के थे ।।80॥ भीरु, यवन, कक्ष, चारु, त्रिजट, नट, शक, केरल, नेपाल, मालव, आरुल, शर्वर, वृषाण, वैद्य, काश्मीर, हिडिंब, अवष्ट, वर्वर, त्रिशिर, पारशैल, गौशील, उशीनर, सूर्यारक, सनत, खश, विंध्य, शिखापद, मेखल, शूरसेन, वाह्नीक, उलूक, कोसल, दरी, गांधार, सौवीर, पुरी, कोषेर, कोहर, अंध्र, काल और कलिंग इत्यादि अनेक देशों के स्वामी रणांगण में जीते गये थे और कितने ही प्रताप से ही आधीनता को प्राप्त हो गये थे। इन सब देशों में अलग-अलग नाना प्रकार की भाषाएँ थीं, पृथक-पृथक गण थे, नाना प्रकार रत्न तथा वस्त्रादि का पहिराव था, वृक्षों की नाना जातियाँ थीं, अनेक प्रकार की खानें थीं और सुवर्णादि धन से सब सुशोभित थे ॥81-86॥ महावैभव से युक्त तथा अनुराग से सहित नाना देशों के मनुष्य लवणांकुश की इच्छानुसार कार्य करते हुए पृथिवी में भ्रमण करते थे ।।87।। इस प्रकार इस पृथिवी को प्रसन्न कर वे दोनों पुरुषोत्तम, अनेक हजार बड़े-बड़े राजाओं के ऊपर स्थित थे ।।88॥ नाना प्रकार की सुंदर कथाओं में तत्पर तथा अत्यधिक हर्ष को धारण करने वाले वे दोनों कुमार देशों की अच्छी तरह रक्षा करते हुए पौंडरीकपुर की ओर चले ॥89॥ राष्ट्रों के प्रथम अधिकारी राजाओं के द्वारा अत्यधिक सन्मान को प्राप्त कराये गये दोनों भाई क्रम-क्रम से पौंडरीकपुर की समीपता को प्राप्त हुए ॥90॥
तदनंतर महल की सातवीं भूमि पर सुख से बैठी एवं उत्तम स्त्रियों से घिरी सीता ने चंचल पतले मेघ के समान धूसर वर्ण धूलिपटल को उठते देखा तथा सखीजनों से पूछा कि हे सखियो ! दिशाओं पर आक्रमण करने में चंचल अर्थात् सब ओर फैलने वाली यह क्या वस्तु दिखाई देती है? इसके उत्तर में उन्होंने कहा कि यह सेना का धूलिपटल होना चाहिये ॥91-93।। इसीलिए तो देखो स्वच्छ जल के समान इस धूलिपटल के बीच में मगरमच्छों के तैरते हुए समूह के समान घोड़ों का समूह दिखाई दे रहा है ॥94॥ हे स्वामिनि ! जान पड़ता है कि ये दोनों कुमार कृतकृत्य होकर आये हैं, हाँ देखो, वे ही लोकोत्तम कुमार दिखाई दे रहे हैं ।।95।। इस तरह जब तक सीता देवी की मनोहर कथा चल रही थी कि तब तक इष्ट समाचार को सूचना देने वाले अग्रगामी पुरुष आ पहुँचे ॥96॥
तदनंतर उत्तम संतोष को धारण करने वाले आदर युक्त मनुष्यों ने नगर में सब प्रकार की विशाल शोभा की ॥97॥ कोट के शिखरों के ऊपर निर्मल ध्वजाएँ फहराई गई, मार्ग दिव्य तोरणों से सुंदर किये गये ॥98॥ राजमार्ग घुटनों तक सुगंधित फूलों से भरा गया एवं पद-पद पर सुंदर वंदन मालाओं से युक्त किया गया ॥66॥ द्वारों पर पल्लवों से युक्त कलश रक्खे गये और बाजार की गलियों में रेशमी वस्त्रादि से शोभा की गई ॥100॥ उस समय पौंडरीकपुर अयोध्या के समान दिखाई देता था, सो ऐसा जान पड़ता था मानो विद्याधरों ने, देवों ने अथवा लक्ष्मी ने ही स्वयं उसकी वैसी रचना की हो ॥101॥ महा वैभव के साथ प्रवेश करते हुए उन दोनों कुमारों को देखकर नगर को स्त्रियों में जो चेष्टा हुई उसका वर्णन करना अशक्य है ॥102॥ कृतकृत्य होकर पास आये हुए पुत्रों को देखकर सीता तो मानो अमृत के समुद्र में ही डूब गई ॥103।। तदनंतर जिन्होंने कमल के समान अंजलि बाँध रक्खी थी, जो अत्यधिक आदर से सहित थे, जिनके शिर झुके हुए थे तथा जो सेना की धूलि से धूसर थे ऐसे दोनों वीरों ने पास आकर माता को नमस्कार किया ॥104।। जो पुत्रों के प्रति स्नेह प्रकट करने में निपुण थी, हस्ततल से जो उनका स्पर्श कर रही थी तथा जो उत्तम आनंद से युक्त थी ऐसी राम की पत्नी-सीता ने उनका मस्तक चूमा ॥105।। तदनंतर वे माता के द्वारा किये हुए परम प्रसाद को पुनः पुनः नमस्कार के द्वारा स्वीकृत कर सूर्य चंद्रमा के समान लोक व्यवहार को संपन्न करते हुए यथायोग्य सुख से रहने लगे ॥106॥
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध श्रीरविषेणाचार्य द्वारा रचित श्रीपद्मपुराण में लवणांकुश की दिग्विजय का वर्णन करने वाला एक सौ एकवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥101॥