ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 87
From जैनकोष
सतासीवां पर्व
अथानंतर जिसकी आत्मा अत्यंत शांत थी ऐसे उस उत्तम त्रिलोकमंडन हाथी को मुनिराज ने विधिपूर्वक अणुव्रत धारण कराये ॥1॥ इस तरह वह उत्तम हाथी, सम्यग्दर्शन से युक्त, सम्यग्ज्ञान का धारी, उत्तम क्रियाओं के आचरण में तत्पर और गृहस्थ धर्म से सहित हुआ ॥2॥ वह एक पक्ष अथवा एक मास आदि का उपवास करता था तथा उपवास के बाद अपने आप गिरे हुए सूखे पत्तों से दिन में एक बार पारणा करता था ॥3॥ इस तरह जो संसार से भयभीत था उत्तम चेष्टाओं के धारण करने में तत्पर था, और अत्यंत विशुद्धि से युक्त था ऐसा वह गजराज मनुष्यों के द्वारा पूजित होता हुआ पृथिवी पर भ्रमण करता था ॥4॥ लोग पारणा के समय उसके लिए बड़े सत्कार के साथ मीठे-मीठे लाडू माँडे और नाना प्रकार की पूरियाँ देते थे ॥5॥ जिसके शरीर और कर्म― दोनों ही अत्यंत क्षीण हो गये थे, जो संवेग रूपी खंभे से बँधा हुआ था, तथा यम ही जिसका अंकुश था ऐसे उस हाथी ने चार वर्ष तक उग्र तप किया ॥6॥ जो धीरे-धीरे भोजन का परित्याग कर अपने तपश्चरण को उग्र करता जाता था ऐसा वह हाथी सल्लेखना धारण कर ब्रह्मोत्तर स्वर्ग को प्राप्त हुआ ॥7॥ वहाँ उत्तम स्त्रियों से सहित तथा हार और कुंडलों से मंडित उस हाथी ने पुण्य के प्रभाव से पहले ही जैसा देवों का सुख प्राप्त किया ॥8॥
इधर जो महातेज के धारक थे, महाव्रती थे, विभु थे, पर्वत के समान स्थिर थे, बाह्याभ्यंतर परिग्रह के त्यागी थे, शरीर की ममता से रहित थे, महाधीर वीर थे, जहाँ सूर्य डूब जाता था वहीं बैठ जाते थे, और चार आराधनाओं की आराधना में तत्पर थे ऐसे भरत महामुनि न्यायपूर्वक विहार करते थे ॥9-10॥ वे वायु के समान बंधन से रहित थे, सिंह के समान निर्भय थे, समुद्र के समान क्षोभ से रहित थे, और मेरु के समान निष्कंप थे ॥11॥ जो दिगंबर मुद्रा को धारण करने वाले थे, सत्यरूपी कवच से युक्त थे, क्षमारूपी बाणों से सहित थे और परीषहों के जीतने में सदा तत्पर रहते थे ऐसे वे भरत मुनि सदा तपरूपी युद्ध में विद्यमान रहते थे ॥12॥ वे शत्रु और मित्र, सुख और दुःख तथा तृण और रत्न में समान रहते थे। इस तरह वे समबुद्धि धारक उत्तम मुनि थे ॥13॥ वे डाभ की अनियों से व्याप्त मार्ग में शास्त्रानुसार ईर्यासमिति से चलते थे तथा शत्रुओं के स्थानों में भी उनका निर्भय विहार होता था ॥14॥ तदनंतर मोहनीय कर्म का अत्यंत प्रलय― समूल क्षय कर वे लोक-अलोक को प्रकाशित करने वाले केवलज्ञान को प्राप्त हुए ॥15।। जो इस प्रकार की महिमा से युक्त थे तथा अनुक्रम से जिन्होंने कर्मरज को नष्ट किया था ऐसे वे भरतमुनि उस अभीष्ट स्थान― मुक्तिस्थान को प्राप्त हुए कि जहाँ से फिर लौटकर आना नहीं होता ॥16॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि जो मनुष्य भरतमुनि के इस निर्मल चरित को भक्तिपूर्वक कहता-सुनता है वह अपनी आयु पर्यंत कीर्ति, यश, बल, धनवैभव और आरोग्य को प्राप्त होता है ॥17॥ यह चरित्र सर्व कथाओं का उत्तम सार है, उन्नत गुणों से युक्त है और उज्ज्वल है। हे भव्यजनो ! इसे तुम सब ध्यान से सुनो जिससे शीघ्र ही सूर्य के तेज को जीतने वाले हो सको ॥18॥
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मपुराण में भरत के निर्वाण का कथन करने वाला सतासीवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥87॥