वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1657
From जैनकोष
लब्ध्वापि यत्प्रमाद्यंतियत्स्खलंत्यथ संयमात्।
सोऽपि चारित्रमोहस्य विपाक: परिकीर्तित:।।1657।।
अब इन साधनों से चारित्र भी प्राप्त कर लिया, सम्यग्दर्शन प्राप्त किया और फिर चारित्र मोहनीय कर्म में अप्रत्याख्यानावरण कषायों ने उनमें चारित्र उत्पन्न किया। अब उन मनुष्यों के प्रति कहलाते हैं कि जो संयम और चारित्र से दुर्लभ हैं। भवभव में भटकने के बाद मुश्किल से तो यह मनुष्यभव मिलता है, श्रेष्ठ भव मिलता है फिर उसमें सम्यग्दर्शन मिलना और फिर साथ ही चारित्र बन जाय तो यह कितनी कठिन बात है? मनुष्यभव में चारित्र ग्रहण कर लिया है और फिर ये कर्म चारित्र को ढके हुए हैं तो यह चारित्र मोह का तीव्र उदयहै। चारित्र मोह के तीव्र उदय से यह जीव संयम को भी ग्रहण नहीं कर पाता। कदाचित् संयम ग्रहण कर ले, और उसमें प्रमाद हो तो वह संयमी चारित्र से भ्रष्ट हो जाता है। तो यह चारित्रमोह इन 25 कषायों का नाम है जो कि लगी हैं कषायें। जब हृदय में कषायें बैठी हैं तो मन स्थिर कहाँ से हो? कषायें दूर हों तो मन को शांतिमिले, क्योंकि शांति का मिलना और कषायों का दूर होना एक साथ होता है। कषायें छोड़े बिना शांति मिल नहीं सकती। जो बड़े पुरुष हुए उन्होंने सर्वप्रथम कषायों का परित्याग किया और एक अपने आत्मतत्त्व का ही अभ्यास किया तो उनको निर्वाण प्राप्त हुआ। विषयों में रहकर, घर में बसकर, मोह में रहकर, रागद्वेष में रहकर कोई जीव क्या निर्वाण प्राप्त कर सकता है? निर्वाण तो नाम है अकेले रह जाने का। कैवल्य होने का नाम निर्वाण है। कैवल्य रह गए, खाली रह गए तो यह मैं आत्मा अपने स्वरूप से जैसा हूँ, वैसा ही मात्र खालिस रह गया तो उसका नाम है कल्याण, मोक्ष। तो जहाँ मोक्षमार्ग में लगने का भाव हो वहाँ यह समझना चाहिए कि हम अपने को केवल समझते रहें। मैं सबसे निराला निर्लेप चैतन्यस्वभावमात्र हूँ―इस प्रकार अपने को केवल मान सकें तो उसे निर्वाण की प्राप्ति होगी अन्यथा न होगी। निर्वाण कहते हैं अकेला रह जाने को, तो हम अपने को अभी से अकेला होने की श्रद्धा करें, ज्ञान बढ़ायें और उसकी श्रद्धा बढ़ायें। अज्ञान हटे तो निर्वाण होगा और अगर मोह ममता में ही पड रहे तो संसार में जन्म मरण का चक्र चलता रहेगा। लोग सोचते हैं कि यह मोह बड़ा बलवान है। क्या करें? यह मोह नचाता है हमें नाचना पड़ता है। ऐसा सोचने से तो मोह बलवान रहेगा ही और इसे संसार में भटकायेगा। पर यह बतावो कि अगर मोह बड़ा बलवान है तो क्या ज्ञान बड़ा बलवान नहीं है? अरे ज्ञान सबसे अधिक बलवान है। ज्ञान हो तो यह मोह बैरी क्षणभर में ही ध्वस्त हो जाता है। यह जीव अभी तक मोह बड़ा बलवान है इस तरह के गीत गाता रहा यह गीत न गाया कि यह ज्ञान बड़ा बलवान है। यह ज्ञान समस्त दु:खों से छुटकारा प्राप्त कराकर शांति में ले जाने वाला है। यों इस ज्ञान के गीत कोई गाने लगे तो ज्ञान की महिमा बढने लगे। इस मोह के गीत गाने से तो कुछ भी लाभ नहीं है। अरे मोह तो इस जीव के स्वभाव में है ही नहीं। मोह तो विभाव है। जब जीव अपने स्वभाव को सम्हाले तो यह मोह झट दूर हो जायगा। तो चारित्र मोह के स्वरूप की बात चल रही है कि चारित्र मोह में यह जीव संयम को ग्रहण नहीं कर पाता। कदाचित् ग्रहण कर ले तो चारित्र मोह का तीव्र उदय आये तो वह भ्रष्ट हो जाता है।
25 कषायें चारित्रमोह हैं―अनंतानुबंधी क्रोध, अनंतानुबंधी मान, अनंतानुबंधी माया और अनंतानुबंधी लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, अप्रत्याख्यानावरण मान, अप्रत्याख्यानावरण माया और अप्रत्याख्यानावरण लोभ, संज्वलन क्रोध, संज्वलन मान, संज्वलन माया व संज्वलन लोभ। यों 16 कषायें हुई और 9 नोकषायें हैं―हास्यरति अरति, आदिक। जो मिथ्यात्व की पुष्टि करे ऐसा क्रोध हो तो वह अनंतानुबंधी क्रोध है। जो बड़ा घमंड बगराये वह अनंतानुबंधी मान है। ऐसे ही कोई इस तरह का छल कपट करे जो कि पहचान में न आ सके वह अनंतानुबंधी माया है। जैसे बगला मछली पकड़ने के लिए कितना मायाचार करके एक पैर के बल पर निश्चलवृत्ति ये खड़ा रहता है तो क्या उस समय वह निष्कपट है? अरे उस समय वह बड़े कपट के परिणाम बनाये है। वह चाहता है कि मुझे शांत विश्वास करके पक्षीगण मेरे निकट आयें, और जब निकट आयें तो झट उठा लिया। अनंतानुबंधी माया ऐसी होती हे कि दूसरा आदमी पहिचान न सके, उसे सरल ही जानें। तो जो जीव कर्मों के प्रेरे बने अर्थात् मिथ्यात्व की पुष्टि करे ऐसे मायाचार का नाम है अनंतानुबंधी माया। अनंतानुबंधी लोभ क्या? जहाँ तीव्र लोभ हो, घर में कोई बच्चा बीमार हो तो कहाँ हजारों का धन उसके पीछे खर्च कर दें, अगर कर्ज लेना पड़े तो कर्ज लेकर लगायेंगे पर अपने धर्म पर कोई संकट की बात आयी हो या धर्म का कोई काम सामने आया हो तो वहाँ कुछ भी खर्च नहीं करते, तो इसे समझ लीजिए कि यह अनंतानुबंधी लोभ है।धर्म के काम में भी जो लोभ करे सो अनंतानुबंधी लोभ है या जो मिथ्यात्व की पुष्टि करे उसे कहते हैं अनंतानुबंधी लोभ। फिर है अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ। जो अणुव्रत को प्रकट न होने दे ऐसा जो क्रोध है अप्रत्याख्यान क्रोध, ऐसे ही जो मान, माया और लोभ वगैरह अणुव्रत को प्रकट न होने दें उन्हें अप्रत्याख्यानमान, मायाऔर लोभ कहते हैं। फिर हैं प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ। ये कषायें पहिले के 8 कषायों से कुछ हल्की हैं, इनका अर्थ है कि ऐसी कषायें जो मुनियों का व्रत न होने दें, अणुव्रत तो हो सके पर अभी मिथ्यात्व चल रहा है, अर्थात् संयम नहीं बन पा रहा, असंयम पर चल रहे उसे कहते हैं प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया और लोभ। संज्वलन कषायें मुनि तक के होती हैं। संयम बराबर बन गया, पर संयम में कभी-कभी कोई दोष उत्पन्न हो जाता है संज्वलन कहते हैं, ऐसे ही संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ होते हैं। जो महाव्रत तो भंग नहीं करता परंतु यथाख्यात चारित्र प्रकट न होने दे उसे कहते हैं संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ। तो ये 16 कषायें हैं। ये चारित्र मोहनीय के भेद हैं।
9 नोकषायें हैं जैसे हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्री वेद, पुरुष वेद और नपुंसक वेद। हास्य उसे कहते हैं जिसमें जीव को हंसी आये। कोई लोग ऐसे होते हैं कि जिन्हें हंसी की प्रकृति बनी रहती है। एक ऐसा नौकर था बरुवासागर में सेठ मूलचंद के यहाँ। सेठ मूलचंद की सेठानी जब गुजर गयी तो वह नौकर कहीं बाहर जाकर छिपकर बैठ गया। सेठ मूलचंद ने उसे बहुत ढुँढ़वाया, खुद भी ढूँढ़ा पर न मिला, उस समय तमाम प्रकार के काम भी थे। वह इसीलिए छुपकर बैठ गया था कि हम उस जगह जायेंगे तो हंसी आयगी। कुछ देर बाद जब सब काम हो गया तब वह नौकर आया। सेठ मूलचंद पूछने लगे कि तू अभी तक कहाँथा, यहाँ तमाम काम था, तुझे बहुत ढूँढ़ा पर न मिला? तो उस नौकर ने हँसते हुए कहा कि हमारी हँसने की आदत है, कहो हँसी न आये उस जगह पर, यही सोचकर मैं न आया था। उसका हँसना देखकर सेठ मूलचंद भी हँसने लगे। तो किसी-किसी की हँसने की प्रकृति होती है। और कोई-कोई लोग रति बहुत करते हैं। जैसे कहते हैं कि यह बड़े सुकुमार हैं पर राग बराबर बना हुआ है, किसी के रति की प्रकृति रहती है। दूसरों से द्वेष करना, ईर्ष्या करना, घृणा करना सो अरति प्रकृति का उदय है, जिसके उदय में आत्मा में शोक प्रकृति का उदय हो वह शोक प्रकृति है। किसी-किसी की आदत है कि उनका चेहरा प्रसन्नता में नहीं रह पाता। किसी को बड़ा भय बना रहता है। कोई कल्पना बना लिया उससे भय की अवस्था बनी रहती है। इसी प्रकार किसी चीज को देखकर घृणा करे, जुगुप्सा बनी रहे तो वह जुगुप्सा प्रकृति का उदय है। अपने को पुरुषलिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसकलिंग रूप मानना यह पुरुषलिंग, स्त्रीलिंग तथा नपुंसकलिंग प्रकृति का उदय है। इस प्रकार चारित्रमोह की 25 कषायें हैं जिनके कारण यह जीव चारित्र धारण नहीं कर पाता, और कदाचित् इनमें से कुछ कर्मों का मंद उदय हो गया तो ऐसी स्थिति में यह कभी चारित्र भी धारण कर ले, पर ऐसा वेग आता है कि वह इस चारित्र से गिर जाता है। तो यह चारित्र मोहनीय कर्म के कारण जीव की ऐसी अवस्थाएँ हैं, जो अब तक चली आयी हैं। इससे शिक्षा लेनी है कि चारित्र मोह के उदय में ये त्रुटियाँहो रही हैं। लेकिन सत्य बात वहाँ भी यही है कि कर्म अपनी परिणति से उन त्रुटियों को नहीं कर रहा किंतु कर्म का उदय निमित्त मात्र है। जीव अपनी परिणति से उसके निमित्त सन्निधान से अपने विभाव परिणाम कर रहा है।