वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1691
From जैनकोष
न तत्र सुजन: कोऽपि, न मित्रं न च बांधवा:।
सर्वे ते निर्दया: पापा: क्रूरा भीमोग्रविग्रहा:।।1691।।
निर्दय, पापी, क्रूर नारकियों की वराकता―उन नरक भूमियों में कोई भी सज्जन पुरुष नजर नहीं आते। बड़ी भयानक पृथ्वी है वह, जहां गरमी है तो इतनी अधिक है कि लोह का पिंड भी गल जाय, ऐसी कठिन गरमी को भी वे नारकी जीव सहन करते हैं। ऐसे ही ठंड की वेदना भी वहाँ ऐसी है कि लोह पिंड भी पिघल कर पानी जैसे बन जाते हैं इस तरह की तीव्र ठंड की वेदना भी वे नारकी जीव सहन करते हैं। बड़े-बड़े भयानक देहधारी क्रूर पशु हैं (हैं वे वैक्रियक शरीरधारी नारकी ही) जो कि दूसरे नारकी जीवों को सताते हैं, एक नारकी जीव दूसरे नारकी जीव पर टूट पड़ता है, खंड-खंड कर देता है। तो वे नारकी जीव निरंतर दु:खी रहा करते हैं, उनको कभी भी किसी भी प्रकार का चैन नहीं है। वे नारकी जीव पाप के उदय के वशीभूत होकर यों दु:ख सहते हैं। वे सभी नारकी पापी है―गम खाने वाले कोई नहीं हैं। वे निर्दय हैं, क्रूर हैं, भयानक तीक्ष्ण उनके देह है, उग्र नारकी जीवों को कभी किसी प्रकार का किसी से कोई सहारा नहीं मिलता। देखिये यह जीव भूल तो जरासी करता है और कष्ट कितने भोगने होते हैं? जो अपना स्वरूप नहीं है उसे माना कि यह मैं हूं, की इतनी सी भूल और फल कितना भोगना पड़ा कि चौरासी लाख योनियों में इस जीव को जन्म–मरण करना पड़ता है। इस प्रसंग में एक बात और विलक्षण देखो कि जिन गतियों में सुख के बड़े साधन है उन गतियों से जीव को निर्वाण नहीं होता। जैसे देवगति, भोगभूमिया के लोग जिनको कोई कष्ट नहीं है उनको निर्वाण प्राप्त करने का अवसर नहीं मिलता है, नारकी जीव यद्यपि घोर दु:ख सहते हैं पर ऐसा उदय है कि उन्हें दु:खी ही होना पड़ता है, ऐसा कठिन पाप है। सबसे महान पाप तो मोह है, मिथ्यात्व है, इनका आश्रय करके दु:खी होता और खूब उदय भर वे अपना फल भोगते।