वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2028
From जैनकोष
पवित्रितधरापृष्ठं समुद्धृतजगत्त्रयम् ।
मोक्षमार्गप्रणेतारमनंतं पुण्यशासनम् ।।2028।।
प्रभु की पूतविश्वता―जब कि यहाँ ही किसी निष्पक्ष पुरुष का सन्निधान मिलता है, किसी ग्राम को ऐसा सौभाग्य मिलता है तो उस ग्राम के वासी उस उदारचेता गंभीर निःस्वार्थ पुरुष के प्रति महान आदर होता है और उसके प्रति वे ग्रामवासी अपने को पवित्र मानते हैं, फिर तो जो इन पुरुषों में से आत्मज्ञानी होकर परम नैर्ग्रंथ्य अवस्था को अपने जीवन को धारकर आंतरिक उस विशुद्धि से पवित्र होकर जो वीतराग हुए हैं, सर्वज्ञ हुए हैं, परमात्मा हुए हैं, ऐसे परमात्मा जहाँ विराजे हैं वहाँ के आसपास के सौ-सौ दो-दो सौ योजन के चारों तरफ के लोग अपने को पवित्र मानते हैं । और इतना ही नहीं स्वर्गवासी, भवनेंद्र आदि भी अपने को पवित्र मानते हैं, सो ठीक ही विशेषण दिया है कि जिसने इस धरापृष्ठ को पवित्र किया है । यह लोक, यह संसार, ये प्राणी मोहांधकार से पीड़ित हैं । जो चित्त में आता है उसकी ही कषाय बनाते हैं और उसके अनुरूप करने को अंध होकर तैयार हो जाते हैं । जिसके फल को इतिहास में सुना, अब भी सुन रहे हैं । युद्ध की तैयारी होती रहती है, किसीने किसी पर चढ़ाई कर दी, कितने ही प्रकार के लोगों को भय रहा करते हैं, पर है क्या उनका? जिन्होंने इस लोक में शासन किया, बड़ा चैन माना, न्याय अन्याय न गिना, ऐसे भी बादशाह हुए हैं, उनका भी अब कोई नाम लेता है क्या? उनकी भी अब कोई बात पूछने वाला है क्या? केवल उनके कुकर्मों से रंगे हुए इतिहास के पृष्ठ मात्र शेष हैं । तो किन के लिए अन्याय किया जा रहा है? लेकिन इन मोहियों को कुछ भी सुध नहीं है । ऐसे मोहांध से पीड़ित इस लोक में यदि कोई आत्मज्ञानी है, वीतराग सर्वज्ञ है तो समझिये कि वह धरापृष्ठ उनसे पवित्र हो जाता है ।
पतितोद्धारक प्रभु का स्मरण―ऐसे प्रभु का स्मरण करो जिसने तीनों लोकों का उद्धार कर दिया है । हम जिन परिवार जनों में बसते हैं, जिनसे रागभरी वाणी सुना करते हैं वे क्या हमारा उद्धार कर सकने में समर्थ हैं? जो वास्तविक बंधु हैं, परमार्थ मित्र हैं ऐसे साधु संतों से मोहियो का अनुराग नहीं जगता । जिनका राग करने से नरक निगोद का पात्र बनना पड़ता उनको ही अपना सर्वस्व समझते हैं, ये ही हैं मेरे सब कुछ। जिन साधु संत पुरुषों की वाणी सुनकर अपने आप में अपने आपका अवलोकन कर परमशांति प्राप्त होती है वे ही हम आपके निरपेक्ष बंधु हैं किंतु उन्हें ये मोही जन मित्र और हितकारी नहीं मानते हैं । वे तो जो राग बढ़ाने के कारण हो रहे हों उन्हीं में प्रेम करते हैं । देखिये मनुष्यों का राग होता है चेतन अचेतन पदार्थों से । कोई अचेतन पदार्थ भी यदि सुंदर है तो उसमें भी प्रेम जगता है, मगर इसमें यह गनीमत है कि ये अचेतन पदार्थ (कपड़ा घड़ी, आदिक) अपनी ओर से राग नहीं दिखाते हैं, पर हम ही अपनी तरफ से इन अचेतन पदार्थों में राग करके मूढ़ बन गए, बेवकूफ बन गए । अब चेतन के राग की बात देखो, हम राग करते हैं तो वे रागभरे वचन बोलते हैं, ऐसे मूढ़ और बेवकूफ तो अपनी तरफ से हम थे ही, अब वे जीव भी राग की बात सुनाते हैं―तुम ही मेरे सब कुछ हो, तुम्हारे बिना हमारा जीवन नहीं, मरण हो जायगा, यों अनेक बातें ऐसी राग और स्नेही करते हैं तो इसे यों समझिये कि यह जीवन दुहरा आक्रमण है । अब फिर उनसे तो वे अचेतन भले कि जहाँ हम अपनी ही ओर से ख्याल बनाकर अपने पर आक्रमण करें । वे बेचारे कुछ चेष्टा नहीं करते हैं हम को मूढ़ बनाने के लिए । तब देखिये कि यहाँ इस चराचर जगत में मोह करने से इस जीव को फल क्या मिलता है, पर मोही इस ही में राजी हैं । जो दुःख का हेतु है उस ही में ये अपना सर्वस्व मानते हैं ।
उदाहरणपूर्वक प्रीति की असारता का दिग्दर्शन―हुआ है एक देवरति राजा । पुरानी कथा है । वह अपनी रानी में बड़ा मुग्ध था, दोनों ही एक दूसरे से बड़ी प्रेमभरी बातें करते थे । रानी सदा यही कहा करती थी कि हे राजन् ! जिस दिन आप नहीं होंगे तो उस दिन मेरे लिए सारा संसार सूना हो जायगा । यों बड़ा प्यार जताती थी वह रानी । यों रानी में आसक्त होने के कारण राज्य का काम ढीला पड़ गया, सो मंत्री लोग आकर राजा से कहते हैं कि हे राजन् ! या तो आप राज्य को ठीक-ठीक चलाइये या आप अपनी रानी को लेकर राज्य से बाहर चले जाइये । हम मंत्री लोग राज्य का काम सम्हाल लेंगे । तो राजा ने अपनी रानी को लेकर राज्य से बाहर ही जाना स्वीकार कर लिया । राज्य से बाहर जाकर किसी गांव के निकट बसे । राजा तो चला गया भोजन सामग्री लेने, वहाँ क्या हुआ कि एक कुबड़ा जो कि एक खेत की मेड़ पर पड़ा हुआ गीत गा रहा था, उसका स्वर मधुर था, रानी उस पर आसक्त हो गई । कुबड़े के पास जाकर उससे कुछ कहती है तो कुबड़ा कहता है कि अरे यदि राजा को विदित हो गया तो वह हमें भी मार डालेगा और तुम्हें भी । तो रानी कहती है कि कुछ भी हो, आप हमें अपने संग रख लीजिए, इस काम को हम बना लेगी । अब वह राजा जब भोजन सामग्री लेकर आया तो उस रानी को उदास देखा अव वे राजा और रानी तो न रहे, अब तो भिखारी हो गए । खैर, वह राजा अपनी रानी से उदासी का कारण पूछता है, तो उस रानी ने बताया कि पतिदेव आज आपका जन्म दिन है, यदि महलों में होते तो मैं बहुत-बहुत आपका स्वागत करती । ....तो क्या करें अब ?....बहुत से फूल लावो, मैं माला गूथूँगी, हार बनाऊँगी और यहीं पर आपका स्वागत करूंगी । वह राजा बहुत से फूल ला देता है । वह रानी बड़ा लंबा एक हार बनाती है, उस राजा को एक बड़ी ऊँची पहाड़ी पर ले गई, वहीं पर उस हार से उसे कसकर बाँध दिया, और बाद में एक ऐसा धक्का दिया कि वह राजा लुढ़कता-लुढ़कता उस पहाड़ी के किनारे की नदी में जा गिरा, बह गया । कुछ दूर पर जाकर किसी पेड़ की डालों में टकराकर रुक गया । बाहर निकला । पास के शहर में गया । उन्हीं दिनों उस शहर का राजा मर गया था, सो मंत्रियों ने यह तय किया था कि यह हाथी जिस किसी के गले में यह माला डाल देगा और अपनी सूंड से उठाकर अपनी पीठ पर बैठा लेगा उसे राजा बनाया जायगा । सो हाथी ने उसी राजा के गले में माला डालकर सूंड से उठाकर अपनी पीठ पर बैठाल लिया जो कि नदी में से निकलकर किनारे लगा था । लो वह पुन: राजा हो गया । इधर क्या होता है कि वह रानी उस कुबड़े के संग हो गई थी । उसे एक डलिया में बिठाकर अपने सिर पर वह डलिया रखकर सभी जगह जाती, वह कुबड़ा गाता, वह नाचती, और जो पैसे मिल जाते उससे पेट भरते । सभी से यह भी कहती कि मैं पतिभक्ता हूँ, अपने पति को अपने सिर पर बैठाकर चलती हूँ । खैर, इस तरह नाचते गाते, मांगते खाते एक बार उस जगह भी पहुंची जहाँ कि राजा देवरति राज्य करता था । पता लगा कि कोई नाचने गाने वाले आज इस नगरी में आये हैं, सो राजदरबार में बुलाया गया । वहाँ पर उस राजा ने जब उस स्त्री को देखा तो पहिचान गया । उसे देखकर उसके संसार से वैराग्य जगा । ओह ! यह हालत है इस संसार की । कैसी अपनी वेदना, कैसा अपना मोह और कषाय । ओह ! इसने अपनी क्या हालत कर ली? तो किसी से कुछ न कहा, दूसरों को राज्य देकर वह राजा दीक्षित हो गया । अब आप देखिये कि कैसे कर्मों का प्रेरा यह जीवलोक है? यहाँ किसकी शरण गहें, किसे अपना मानें? ये कोई भी हमारा हित न कर देंगे ।
प्रभु का मोक्षमार्ग प्रणेतृत्व―हमारे निरपेक्षबंधु परममित्र जो सच्चे देव शास्त्र गुरु हैं उनकी शरण गहें, अन्य से अपना लगाव छोड़े । सच्चे देव, शास्त्र, गुरु और धर्म ये चार ही हमारे शरण हैं । व्यवहार में सच्चे दैव, शास्त्र, गुरु और परमार्थ से धर्म ये ही हमारे शरण हैं । तो जिनकी वाणी ने हमें इस प्रकार का ज्ञान प्रकाश दिया उन्होंने तो तीनों लोके का उद्धार कर दिया । सो ये मोक्षमार्ग के प्रणेता हैं, नेता हैं, अर्थात् ले जाने वाले हैं । वहाँ मोक्ष में? खुद मोक्ष जायेंगे और दूसरों को भी उसी मार्ग का उपदेश करने वाले हैं । जो स्वयं उत्कृष्ट हो और उसी उत्कृष्ट पथ में ले जाय उसे कहते हैं प्रणेता । तो ये प्रभु मोक्षमार्ग के प्रणेता हैं अर्थात् संसार के संकटों से छुटकारा कराने वाले हैं । जो उनके उपदेश को मानता है, उनके आदर्श को तकता है और उस पर चलता है वह संसार के संकटों से छूट जाता है । ये प्रभु अनंत हैं, अविनाशी हैं, अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत आनंद और अनंत शक्ति ऐसे अनंत चतुष्टय से संपन्न हैं, जिसके कारण सर्व प्रकार वे अमीर ही कहे जाते हैं । देखिये अमीर हैं प्रभु और गरीब हैं मिथ्यादृष्टि । और जिनके तारतम्य पड़े जो कुछ मध्यम दर्जे के लोग हैं वे हैं बीच के गुणस्थान । चौथे से 12 वे तक के ज्ञानियों में चारित्र का तारतम्य है, ये छोटे अमीर हैं, ये बड़े अमीर हैं, ये और अधिक अमीर हैं और जो सबसे अधिक अमीर हैं वे प्रभु हैं, जिन में तारतम्य नहीं है और गरीब हैं वे हैं मिथ्यादृष्टि । गरीब कौन? जिसको आशायें सताती हों । धर्मपंथ की दृष्टि से विचारो तो प्रभु अनंत चतुष्टय से संपन्न हैं । सर्व के अधिपति हैं, देवाधिदेव हैं, ऐसे उस परमानंदमय प्रभु का स्मरण करो ।
प्रभु की पुण्यशासनता―प्रभु पुण्यशासन हैं, जिनका शासन पवित्र है । देखो कितना शांति का स्थान है? थोड़े से लोगो का समूह हो तो उनको सही ढंग से चलाना कठिन हो जाता है, शांति के वातावरण में रखना कठिन हो जाता है । लेकिन प्रभु के शासन का जिन्होंने आलंबन लिया है उनकी शांति तो देखिये । हजार मुनि आचार्य के संघ में रहा करते थे, लेकिन आचार्य को शासन करने की जरूरत न रहती थी, वे सब साधु अपने हित की अभिलाषा के कारण स्वयं शासित रहा करते थे । क्रोध न करना यह समस्त मुनियों का संकल्प था क्योंकि क्रोध में जरा भी आ गए तो हमारा आत्मा पतित हो जायगा, हम अपना उद्धार न कर सकेंगे । तो वहाँ कौन कहने वाला कि शांत रहो, गुस्सा न करो? किसी को कुछ कहने की जरूरत न थी, सभी के सभी हजारों मुनि आत्महित के अभिलाषी थे, स्वयं शांत रहते थे, नम्र रहते थे, किसी दूसरे से अप्रेम न करते थे, वात्सल्यभाव उनके बहुत रहता था, वे दूसरों का आदर करना अपना योग्य व्यवहार समझते थे । सभी के सभी मुनि अपने आप अपना कर्तव्य जानकर स्वयं उस प्रकार चलते थे, सो वे हजारों मुनि प्रभु के शासन से शासित होकर शांत रहा करते थे । यह तो है मुनियों की कथा । यही बात श्रावकों में न होना चाहिए क्या? यदि प्रभु के शासन में शासित हैं श्रावक तो उनमें भी यही वातावरण होना चाहिए । यदि परस्पर में विरोध है, अप्रेम है, द्वेष की भावनायें हैं तो समझो कि वे प्रभु के शासन में शासित ही नहीं हैं । हजारों मुनियों में यदि परमशांति का वातावरण मिलता तो यहाँ कुछ तो मिले । परस्पर में इतना विरोध तो न जगे, तो प्रभु का तो शासन पुण्य ही है, और जो उस शासन का अवलंबन लेते हैं वे पवित्र बन जाते हैं । प्रभु पुण्यशासन है ।