वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 113
From जैनकोष
वदसमिदिसीलसंजय परिणामो करणणिग्गहो भावो।
सो हवदि पायछित्तं अणवरयं चेव कायव्बो ।।113।।
प्रायश्चित्त अधिकार का संदर्भ- इस जीव के साक्षात् आकुलता के कारण राग, द्वेष, मोह भाव हैं और उन राग, द्वेष, मोह भावों के उत्पन्न होने में निमित्त कारण द्रव्यकर्म है और यह द्रव्यकर्म रागादिक भावों को उत्पन्न करने का निमित्त बन सके, इसके लिये आश्रयभूत नोकर्म है। नोकर्म में प्रधान शरीर है। इस प्रकार हम आप जीवों के लिये दु:ख के कारण शरीर, कर्म और रागादिक भाव- इनका संपर्क है, दूसरा और कोई दु:ख का कारण नहीं है। अब दन दु:ख के कारणों के त्याग के लिये शुद्ध निश्चय प्राश्श्चित नाम का अधिकार कहा जा रहा है।
संसरण के अपराध का प्रायश्चित्त- भैया ! हम आप संसारी प्राणियों ने दोष किया है अनादि से। अभी तब मोह, राग विरोध के अपराध करते चले आये हैं और उन अपराधों के कारण आज व्याकुलचित्त हैं। किसी भी पद में, किसी भी स्थिति में चित्त नहीं रमता, हम टिक नहीं पाते, स्थिर नहीं हो पाते, बाह्य की ओर दृष्टि भटक रही है, कहीं चैन नहीं पड़ता। ऐसे अपराधों का जब तक कठिन प्रायश्चित्त न लिया जाये, तब तक ये अपराध दूर नहीं हो सकते हैं। इन अपराधों का अमोघ प्रायश्चित्त व्रत, तप, शील, संयम आदि के परिणाम हैं, जिन्हें अज्ञानी जीव बड़े परिचय और आदर के योग्य, पालन के योग्य निरखते हैं- ऐसे व्रत, तप, संयमशील को ज्ञानी प्रायश्चित्त के रूप में देखता है। मोह, राग, द्वेष के जो अपराध बन रहे हैं, उन अपराधों को दूर करने के लिये यह कड़ा प्रायश्चित्त लिया जा रहा है। इस व्यवहारचारित्र को पालकर अपने आंतरिक शुद्ध स्वभाव की दृष्टि करना और इस चैतन्यस्वभाव में मग्न होना- यह निश्चय प्रायश्चित्त है।
प्रायश्चित्त का अभाव- प्रायश्चित्त का अर्थ है ‘प्राय: यानी प्रचुरता से निर्विकार चित्त करना’ । कोई विकार उत्पन्न होता है तो विकार को दूर करने के लिये निर्विकार भाव ही समर्थ है। जैसे कोर्इ पुरुष किसी का अपराध करे तो वह हाथ जोड़कर क्षमा चाहता है- ‘‘भाई मुझे माफ करो, मैंने गलती की है’’ इस तरह इस जीव ने रागादिक विकार किये हैं, महान् अपराध किया है। सिद्ध प्रभु की तरह अनंत ज्ञान, अनंत ऐश्वर्य का धारी है यह आत्मा। इस निजप्रभु पर कितना अन्याय किया है इन विकारों ने? इन रागादिक भावों के माध्यम से हमारे अनंत ज्ञान और अनंत आनंद की निधि बराबर हो रही है। किसी के 10-20 हजार रुपये भी कोई बरबाद कर दे तो उसे अपराधी मानते हैं कि इसने बड़ा कसूर किया है, इसने दस बीस हजार रुपयों का नुक्सान पहुंचाया है। अरे, जो रागादिक भाव अपने अनंत ज्ञान और अनंत आनंद में दखल दे रहे हैं, बाधा पहुंचा रहे हैं, अपराधी तो वास्तव में ये विभाव हैं। ये विभावों ने इस आत्मप्रभु पर बड़ा अन्याय किया। अब उस सकल विकार अपराध का प्रायश्चित्त निर्विकार परिणति है, उसे करो।
स्वापराध व उसके निवारण का उपाय- हे आत्मन् ! तुम अब किसी भी परजीव को अपना अपराधी मत समझो, किसी को अपना अपराधी समझना ही अपने आप पर अन्याय करना है। कौन किसका अपराधी है? सभी जीव अपनी-अपनी कषाय के अनुसार अपना-अपना स्वार्थ सिद्ध करने में लगे हुए हैं, तुम्हारा कोई बिगाड करने पर नहीं तुला है। यह सबकी आदत है कि अपना ही काम बनाएँ। सब अपना ही काम बना रहे हैं। मित्र हों, रिश्तेदार हों, परिजन हों, कोई भी हो, सरकार हो- सभी अपना काम बनाना चाहते हैं। तू उन्हें बाधक समझता है। अरे, तेरा बाधक तेरा रागपरिणाम है। तुझे संपदा में जो राग लगा हुआ है, वह राग ही तेरा दुश्मन है, दूसरा दुश्मन नहीं है। तो जो भी विकारभाव उत्पन्न होते हैं, महान् अपराध होते हैं, उनकी माफी कैसे हो सकेगी? उनकी क्षमा मांगने का कोई तरीका भी है क्या? वह तरीका यही है कि अब मैं विकार न करूँगा, मैं अपने निर्विकार स्वभाव में ही प्रसन्न रहूंगा, इस प्रकार के संकल्प से विकारों को न होने देना, यही विकारों के अपराधों का प्रायश्चित्त है। मुझमें ये रागादिक अपराध न हों, इसका उपाय भी है क्या कुछ? हाँ है उपाय। निश्चय से तो विकाररहित चिदानंदस्वरूप आत्मतत्त्व का दर्शन करना, यह उपाय है और व्यवहार से व्रत, समिति, शील और संयम का परिणाम बने जिससे विषय-कषायों के आने का अवसर न हो, ऐसी प्रवृत्ति को व्यवहार-उपाय कहते हैं।
पाप का प्रायश्चित्त- जैसे हम आप लोग प्रतिदिन मंदिर में दर्शन करने आते है, क्यों आते हैं दर्शन करने? हम अपराध कर रहे हैं रातदिन बहुत, उन अपराधों की माफी मांगने के लिए मानो दर्शन करने आते हैं। सभी की ईश प्रार्थनाएँ इस ही मर्म को लिए हुए हैं। मुसलमान लोग तो नमाज पढ़ते हुए में उठते, बैठते, कान पकड़ते, टेढ़े होते, कितनी ही प्रवृत्तियां करते हैं, वह इस बात का प्रतीक है कि नमाज में अपने माने हुए प्रभु से माफी मांग रहे हैं, मैंने अपराध किया है मुझे माफ करो। भले ही उनकी चर्या-पद्धति किसी प्रकार की हो, उसको नहीं कह रहे हैं किंतु जो पुरुष अपराध करते हैं उनको सब अपराध की शुद्धि करनी पड़ेगी व्रत, नियम पालन करने पड़ेंगे। आप कुछ अपराध न करें तो दर्शन की कोई जरूरत नहीं है किंतु कोई पुरुष झूठा ही यह समझ ले कि मैं कुछ अपराध नहीं करता हूं, अपने घर रहता हूं, 200 रू. महीना किराया आता है, उसी में सारा काम चलाते हैं, किसी पर कोई अन्याय नहीं करते हैं तो अब मुझे दर्शन करने की क्या जरूरत है? सो बात नहीं है। वह अपराध निरंतर कर रहा है, शरीर में ममता हैं, पैसे में ममता है, विषयों के साधन जुटाये जा रहे हैं, विषयों का सेवन कर रहे हैं, यह क्या कम अपराध हैं? इस ही विभाव विपदा से तो इस प्रभु का प्रताप रुद्ध हो गया है। हम अपने आत्मस्वरूप से बहिर्मुख हो रहे हैं यह महान् अपराध है, और इस अपराध को दूर करने के लिए व्रत, तप, संयम सब कुछ पालन करना होगा।
ज्ञानी के निर्विकल्प शुद्ध ध्येय की दृष्टि- ज्ञानी पुरुष व्रत को पालकर भी यह नहीं मानते कि मैं सर्वथा योग्य काम कर रहा हूं और इसके आगे अब मुझे कुछ नहीं करना है। वह तो इस व्रत तप को अपने अपराध का प्रायश्चित्त समझता है। यह मैं प्रायश्चित्त कर रहा हूं उन अपराधों का जो अनादि के विभावों में रमा आया हूं। मुझे करने योग्य काम अभी बहुत पड़ा है और अनंतकाल करते ही रहना चाहिए ऐसा काम पड़ा है, वह काम है ज्ञाताद्रष्टा रहना, निर्विकार ज्ञायकस्वरूप में मग्न रहना और प्रतिसमय अनंतआनंद भोगते रहना। व्रत और तप का मुझे काम नहीं पड़ा है। इन्हें तो करना पड रहा है, क्योंकि मैंने विकार और अपराध बहुत किया हैं।
प्रतपन द्वारा दोष का दूरीकरण- इस अधिकार में शुद्ध निश्चय प्रायश्चित्त का वर्णन है। अपराध कैसे शुद्ध हों उसका उपाय कहा जा रहा है। जो मलिन स्वर्ण है, जिसमें आना दो आना तांबा मल मिला हुआ है, उस विकारी स्वर्ण को निर्दोष करने का क्या उपाय है? अग्नि में कितने ही बार तपाया जाय और उसको क्षार द्रव्य में गलाकर शोधन किया जाय तो वह निर्दोष होता है। ऐसे ही ये आत्मविकार हुए हैं, इसमें कितना ही मल लगा हुआ है क्रोध, मान, माया, लोभ और काम का, और सीधी बात यह है कि अपने स्वरूप के अतिरिक्त किसी भी परद्रव्य में उपयोग फंसाना, उसे हितकारी मानना, उसमें राग करना ये सब अपराध हैं। ऐसे इस विकारी आत्मा को निर्दोष बनाने का क्या उपाय है कि ये व्रत, तप, शील, समिति, संयम, इत्यादि तपश्चरण अग्नि में इस उपयोग को तपायें, इसमें उपयोग दें तो यह अपने स्वरूप को पाकर निर्दोष हो जायेगा। यह है शुद्ध निश्चयनय से प्रायश्चित्त।
अहिंसा महाव्रत का ध्येय व परिणाम- इस प्रकार से इस जीव से हिंसाएँ हुई हैं। भव-भव में कितना पापों का ढेर जमा हो गया है, उन सब पापों को टालने के लिए अहिंसा महाव्रत का महान् संकल्प किया है ज्ञानी संत पुरुष ने। मैं अब 6 काय के जीवों की हिंसा का सर्वथा परित्याग करता हूं। देखिये, जैसे किसी को धन का अधिक लोभ सताये हो, धनिक भी हो और बड़े आरंभ के कार्यों में धुन लगी हो, कुछ द्रव्य भी मिल रहा हो तो ऐसे पुरुष को भूख की वेदना नहीं सताती है, वह सह लेता है, एक आध दिन खाने को न मिले तो भी प्रसन्न रहता है, क्योंकि उसे चाहिये रुपयो का ढेर। जैसे वह अपनी धुन के माफिक कार्य में व्यस्त होने से भूख-प्यास को भी सह लेता है, दूसरे की गाली-गलौच को भी सह लेता है। इसी तरह आत्मकल्याण की धुन वाले ज्ञानी संत हैं, उन्हें चाहिये शुद्ध ज्ञान का अनुभव। वे इस ज्ञानानंदस्वरूप की मग्नता की धुन में रहते हुए अंत:तपश्चरण किया करते हैं। उन्हें दो-चार दिन, पंद्रह दिन, महीनाभर अंतराय आने के कारण भोजन न मिल सके तो भी वे परवाह नहीं करते हैं, क्योंकि वे जो चाहते हैं, उसकी सिद्धि बराबर चल रही है। तब वे हिंसा का सर्वथा त्याग करने का संकल्प कर पाये हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति-इनका भी रंच घात न करेंगे। त्रस जीवों की हिंसा का तो श्रावकावस्था में भी त्याग हो जाता है। ऐसे हिंसा महाव्रत का संकल्प हिंसारूप अपराध को धोने के लिये किया जा रहा है और इसके फल में अहिंसामय स्वरूप प्रकट होगा, जिसमें अनंत आनंद का अनुभव हुआ करेगा।
सत्यमहाव्रत का ध्येय व परिणाम- इस ज्ञानी पुरुष ने सत्यमहाव्रत का नियम लिया है। उसकी समझ यह है कि मुझे भूतकाल में जब-जब संज्ञी पर्याय प्राप्त हुई, तब-तब वचनों का दुरुपयोग किया, असत्य बोला। असत्य बोलना संज्ञी होने से पहिले नहीं बोला जा सकता है। यद्यपि वचन दोइंद्रिय प्रकट होना शुरू हो जाता है, क्योंकि रसना इंद्रिय मिली ना, किंतु वे सब अनुभय वचन हैं। असत्य वचन संज्ञीपंचेंद्रिय ही बोल सकते हैं। मैंने जब-जब संज्ञीपंचेंद्रिय पर्याय पाया, तब-तब वचनों का दुरुपयोग किया, जिससे संसार में अब तब रुलना पड़ रहा है। अब मैं असत्य वचनों का सर्वथा परित्याग करता हूं। कोई गृहस्थ बड़ी सच्चाई से दुकान चलाये, एक भी बात झूठ न बोले, साफ लेन-देन रखे, नियत मुनाफा ले, प्रत्येक बात स्पष्ट करे और उन सब व्यवहारों में सच्चाई के वचन बोले जायें, वे भी अध्यात्म संत पुरुष की दृष्टि में झूठे बोल हैं, जो आत्मा का ही हित कर सकने वाले वचन हैं, वे ही सत्य वचन हैं और जो बाह्यपदार्थों से संचय के लिये वचन बोले जाते हैं, वे सब अध्यात्मदृष्टि में असत्य वचन हैं। अब साधु होने पर आरंभ संबंधी कोई भी वचन नहीं बोले जाते हैं। यों सत्य वचनों का संकल्प किया है। यह असत्य के अपराध का प्रायश्चित्त लिया गया है।
अचौर्य महाव्रत का ध्येय और परिणाम- अचौर्य महाव्रत में चोरी के अपराध का पूर्ण प्रायश्चित्त लिया गया है। ज्ञानी चिंतन करता है कि मैंने भविष्य में अनेक विधियों से चोरी का पाप किया है। चोरी केवल धन चुराने को ही नहीं कहते हैं। किसी पुरुष से बचकर जाना हो, वह मुझे न जान पाये कि मैं जा रहा हूं और कदाचित् सामने या कहीं बैठा हुआ मिल जाये तो मुँह छुपाकर जाना या बचा करके जाना- यह भी चोरी है। या किसी का यश बढ़ रहा हो तो कुछ ऐब लगाकर उसके यश को लूटना- यह भी चोरी है। अनेक विधियों से इस जीव ने पाप किया है। अब उन सब अपराधों को दूर करने के लिये अचौर्य व्रत का संकल्प करता हूं। मैं किसी भी प्रकार की चोरी न करूँगा।
ब्रह्मचर्यव्रत का ध्येय और परिणाम- इस ज्ञानी साधु ने दुर्धक ब्रह्मचर्यव्रत का दृढ़ संकल्प किया है। ज्ञानी का यह ध्यान हो रहा है कि मैंने भव-भव में अनेक प्रकार से इस ब्रह्मचर्यव्रत का घात किया। कभी पशु था, पक्षी था, मनुष्य था, उन सभी भवों में कामवासना की पूर्ति थी और एकेंद्रिय, दोइंद्रिय जैसे भवों में भी जहाँ कि कुछ साधन भी नहीं हैं, वहाँ अंतरंग में कामवासना का अनुभव किया- ऐसे अनंत अपराधों का प्रायश्चित्त करने के लिये अब मैं ब्रह्मचर्यव्रत का सर्वथा पूर्णरूप से निरतिचार पालन करने का संकल्प करता हूं। बुद्धि का शुद्ध होना एक बहुत बड़ी संपदा है। जिस मनुष्य के शुद्ध ज्ञान नहीं है, धर्मबुद्धि नहीं है, आत्मचिंतन नहीं है, पवित्रता नहीं है, वह पुरुष ज्ञानशून्य समझा जाता है। वह दीन है, गरीब है, भिखारी है, इस संसार में रुलने वाला है। शील से, ब्रह्मचर्य से बुद्धि शुद्ध रहती है। इस ज्ञान में जो प्रसन्नता है, उसकी अनंतवीं भाग भी प्रसन्नता विषयभोगों में नहीं प्राप्त हो सकती है। यह स्थानीय आनंद है, शुद्ध आनंद है, सुगम आनंद है। अब यह ज्ञानी पुरुष ब्रह्मचर्य के भंग करने का, कामविकार में घुसे रहने का जो महान् अपराध पहिले हुआ था, उसके प्रायश्चित्त में ब्रह्मचर्यव्रत को धारण कर रहा है।
परिग्रहत्याग महाव्रत का ध्येय व परिणाम- वह शुद्धनय प्रायश्चित्त के अधिकार की बात चल रही है। इस जीव ने भव-भव में परिग्रहों में ममत्वबुद्धि की है। जब भी जो कुछ मिला, शरीर ही मिला सही, तो इस शरीर में ही ममत्व किया। एकेंद्रिय आदिक जीव भी आहार में ममत्व रखा करते हैं। कीड़ा-मकोड़ा, पशु-पक्षी हुए, वहां भी आहार, निद्रा, भय, मैथुन, परिग्रह संबंधी वांछाएँ की तो चार संज्ञावों के ज्वर से पीड़ित होकर महाक्लेश सहे। उन विकट अपराधों का प्रायश्चित्त अब परिग्रहत्याग में हो रहा है। एक सूतमात्र भी जिसके परिग्रह नहीं रहा, नग्न दिगंबर वन में विचरने वाले मात्र का भी जिन्हें कुछ परिग्रह नहीं है- ऐसी दिगंबरी दीक्षा का आग्रहण उन सब अपराधों का प्रायश्चित्त है। ज्ञानी इन सब व्रत और तपस्यावों का मर्म जानता है और इससे भी बढ़कर जो साध्य दशा है, उसका इसे खूब परिचय है। वह उस साध्य की सिद्धि के लिये ही इस साधन को बनाये हुए है।
ईर्या, भाषा, एषणासमिति का ध्येय व परिणाम- 5 समिति भी शुद्धनय प्रायश्चित्त हैं। अटपट चले, उससे जो पाप उपजा, उसके फल में जन्म-मरण के दु:ख सहे। अब उन अपराधों को दूर करने के लिये ईर्यासमिति का आचरण चल रहा है। अहित, अप्रिय, सीमारहित वचन बोल-बोलकर दूसरों का चित्त दुखाया, अपनी मौज मानी, रौद्रध्यान में बसे रहे, अब उन अपराधों के प्रायश्चित्त में भाषासमिति का निरतिचार पालन किया जा रहा है। भोजन की ममता तो बहुत विकट अपराध है। यथा-तथा भोजन करना, भक्ष्य-अभक्ष्य का भी विवेक न रखना, जो स्वादिष्ट लगे, उसे ही रुचिपूर्वक खाये, कोई विवेक नहीं और कदाचित् भी शुद्ध भोजन करे, उसमें भी आसक्ति रहे तो वह भी अविवेक और अपराध है। इस भोजन संबंधी भव-भव के किये गये अनंत अपराधों को दूर करने के लिये चाहिये तो यह था कि निराहार आत्मस्वरूप का स्मरण करके आहार का सर्वथा परित्याग किया जाता, किंतु अभी उस पवित्र स्थिति के लायक योग्यता नहीं है तो उस निराहार स्वभाव की शुद्धि के लिये विधिपूर्वक शुद्ध भ्रामरी वृत्ति से चर्या की जा रही है। यों इसने एषणासमिति नामक शुद्धनय का प्रायश्चित्त किया है।
आदाननिक्षेपण व प्रतिष्ठापनासमिति का परिणाम एवं शुद्धनयप्रायश्चितपना- किसी प्रयोजनवश चीजों का धरना-उठाना इसमें इस जीव ने किसी भी भव में विवेक नहीं किया, उन अपराधों के प्रायश्चित्त में अब आदान निक्षेपण समिति का पालन किया जा रहा है। यों ही जहाँ चाहे बिना देखे जमीन पर जंतुसहित भूमि पर मलमूत्र का क्षेपण किया जाता रहा वह भी कितना विकट प्रमाद है, उस अपराध को दूर करने लिए प्रतिष्ठापनासमिति का पालन किया जा रहा है। ये व्रत, समिति, शील, संयम आदि ये सब अपराधों को दूर करने के लिए शुद्धनय की दृष्टि से प्रायश्चितस्वरूप हैं। इस प्रायश्चित्त के कारण यह ज्ञानी अपने अपराधों को दूर करेगा, और शुद्ध, स्वाधीन, आत्मीय आनंदरस का अनुभव करता रहेगा।
शुद्धनयप्रायश्चित में वचनसंयम- वचन, मन और काय का नियंत्रण रखना संयम कहलाता है। वचन खोटे न निकलें, दूसरों को हित पैदा करें और प्रिय हों ऐसे ही वचन निकल सकें अथवा वचनों का पूर्ण निरोध रहे अंतर्जल्प और बहिर्जल्प दोनों तरंगों का अभाव रहे, यह है वचन संयम, इस जीव ने वचनसंयम न करके अनर्गल बकवाद किया और उससे व्यर्थ पापों का बंध हुआ, अब उन्नति की अवस्था भी इस जीव ने प्राप्त की तो वहाँ वचनों के अनर्गल प्रवर्तन से उस उत्कृष्ट समागम का लाभ न उठा पाया। अब उन सब अपराधों के प्रायश्चित्त में यह वचनसंयम ग्रहण किया जा रहा है। नाम इसका प्रायश्चित्त है, किंतु अर्थ है उन्नति का मार्ग। जितने भी तप, व्रत, संयम हैं वे सब संसार के अपराधों को दूर करने के लिए हैं। इस कारण संसाररूपी अपराधों का प्रायश्चित्त मोक्षमार्ग है।
मन:संयम- मन का निरोध करना, मन:संयम है। यह मोही जीव मन की कल्पनावों से कैसे-कैसे विचार उत्पन्न करके कितने विकल्पजालों में फँसा हुआ है जिससे कुछ प्रयोजन नहीं, न आजीविका की सिद्धि है, व आत्मकल्याण की सिद्धि है, फिर भी उन विकल्पों को यह जीव कर रहा है और अनर्थ ही पापों का बंध किया करता है। उन समस्त मन की उद्दंडतावों के अपराध को दूर करने के लिए यह मन:संयम, मनोगुप्ति का धारण किया गया है।
कायसंयम- काय का नियंत्रण करना कायसंयम है। इस व्याकुल, मोही, अज्ञानी प्राणी ने इस शरीर के द्वारा अनेक कुचेष्टाएँ की, इंद्रिय विषय-भोगों में दूसरों के घात करने की अनेक कुचेष्टाएँ की। उन कायकृत अपराधों से यह जीव संसार में अब तक रुलता चला आया है। मन तो संज्ञी जीव के ही होता है। वचन दो इंद्रिय से ही प्रारंभ होता है तो भी दोइंद्रिय जीव से लेकर असंज्ञी पंचेंद्रिय तक के जीवों में वचन-संयम का माद्दा ही नहीं है। काय का अपराध संसार के समस्त जीवों द्वारा हो रहा है। एकेंद्रिय हों अथवा पंचेंद्रिय हों सभी संसारी जीव कायवान् हैं और काय का तो संसार अवस्था तक कभी वियोग नहीं होता। इस भव में मरण हो जाय, इस शरीर को छोड़कर जाए तो भी सूक्ष्म काय इसके साथ रहेगा। अनंत शरीरों को छोड़कर गया यह जीव तब भी सूक्ष्म काय इसके साथ रहा आया। स्थूल शरीर को छोड़कर सूक्ष्म शरीर की यह स्थिति अधिक से अधिक तीन समय तक पर्यंत रहती है। बाद में स्थूल शरीर इस संसारी प्राणी को अवश्य मिल जाता है। काय के द्वारा जो अपराध किए गये हैं अब उन अपराधों के निराकरण के लिए प्रायश्चितस्वरूप शुद्धनय की पद्धति से काय-संयम किया जा रहा है।
शुद्धनयप्रायश्चित में स्पर्शनेंद्रिय निरोध- मन, वचन, काय के संयम विकारों को दूर करने में समर्थ हैं। उसके गर्भ में यह भी बात आ गई कि पंचेंद्रिय का निरोध भी शुद्धनय प्रायश्चित्त है, स्पर्शनेंद्रिय का खोटा विषय कामसंबंधी है। एकेंद्रिय से लेकर पंचेंद्रिय तक सभी संसारी प्राणियों में, श्रेणी में उच्च योगियों को छोड़कर सबमें व्यक्त अव्यक्त रूप से कामविकार बना रहता है और इस काम की कलुषता के कारण इस जीव के अशुभ कर्मों का बंध होता रहता है। उसके ही फल में यह संसारभ्रमण चल रहा है। ज्ञानी संतों ने अपना अपराध परखा और इन अपराधों को दूर करने के लिए अब स्पर्शनइंद्रिय के निरोध का संकल्प किया है कि स्पर्शनइंद्रिय के विषयों में प्रवृत्ति न रक्खूँगा। स्पर्शनेंद्रिय का विषय सुहावने पदार्थ का स्पर्श भी है। जैसे ठंड के दिनों में गर्म वस्तु का स्पर्श, गर्मी के दिनों में शीतल वस्तु का स्पर्श आदिक सुहावने लगते हैं, वे स्पर्शनइंद्रिय के विषय हैं। इन विषयों में भी यदि प्रवृत्ति रहे, अनर्गल झुकाव रहे तो कामविकार विषय का रंग हो सकता है। इस कारण ज्ञानी पुरुष स्पर्शनइंद्रिय के सभी प्रकार के विषयों में अपनी प्रवृत्ति और आसक्ति नहीं रखता है।
रसनेंद्रियनिरोध- रसना इंद्रिय के लोभ में इस जीव ने अपने ब्रह्मस्वरूप का भी ख्याल नहीं किया। भला यह रस का स्वाद किस वस्तु से आता है सो बतावो? आत्मा को, जीव को जो सुहावना रस लग रहा है वह रस पुद्गल से प्रकट नहीं होता है। यद्यपि पुद्गल उस रस से युक्त हैं जिसके संबंध में ज्ञान हो रहा है, किंतु रस का स्वाद ज्ञानरस का आनंद पुद्गल वस्तु से नहीं प्रकट होता और इस रस का स्वाद आत्मवस्तु से भी नहीं प्रकट होता है क्योंकि आत्मा में रस कहाँ है? फिर भी यह अशुद्ध जीव जब इन रसीले पदार्थों का संपर्क करता है अपनी जिह्वा से तो कैसा इंद्रजाल है कि स्वाद प्रकट होने लगता है, वह भी मायारूप है, इंद्रजाल है, इस इंद्रजाल के चक्र में आकर यह जीव कभी रस का लोभी हो जाता है। इसे अपने इस अमूर्त ज्ञानानंदस्वरूप आत्मा की भी सुध रहती है। इस रसना इंद्र्रिय के वश होकर इस जीव ने बड़े अपराध किये, अब उन अपराधों को दूर करने के लिए ज्ञानी संत रसनाइंद्रिय का निरोध कर रहा है। रस का परित्याग कर दिया, नीरस भोजन कर दिया। रस का आगे पीछे कुछ संपर्क न रखना, ख्याल ही न करना आदिक रूप से अब यह रसना इंद्रिय का निरोध चल रहा है। यह भी शुद्धनय की दृष्टि से प्रायश्चित्तरूप है।
घ्राणेंद्रियनिरोध- घ्राणेंद्रिय का विषय जो कि बिल्कुल व्यर्थ सी चीज है। इत्र, पुष्प, सुगंधित वस्तुवों को सूँघना और उनकी सुगंध पाकर अपने में मौज मानना, इन विषयों के उपयोग में इस जीव ने अपना समय व्यर्थ गुजारा है और व्यर्थ की लालसा, तृष्णा से कर्मों का बंध किया है। अब उन अपराधों को दूर करने के लिए यह ज्ञानी संत घ्राणेंद्रिय के विषयों की लिप्सा का परित्याग करता है। यों यह घ्राणेंद्रिय का निरोध भी घ्राणेंद्रिय के विषय में लगने रूप अपराध का प्रायश्चित्त है।
नेत्रेंद्रियनिरोध- यह जीव सुहावने रूप के अवलोकन में उद्दंड होकर प्रवृत्ति कर रहा है। खेल, सिनेमा, थियेटर आदि अनेक खेलों की बातें और सुहावनी भी बातें, विरोधभरी लड़ाईयों की घटनाएँ- ये सब निरखी जा रही हैं और इनके निरखने में यह जीव मौज मानता है, अपनी नींद खो देता है, अपना समय भी बरबाद कर देता है। इस रूपावलोकन के फल में मिला क्या इस जीव को? धन की, समय की, बुद्धि की- सभी की बरबादियाँ कर ली जाती हैं। नेत्रेंद्रिय के इन अपराधों से जो बरबादी होती है, जो कर्मबंध होता है और विकार संस्कार लगे हैं, उन सब अपराधों को दूर करने के लिए अब नेत्रेंद्रियनिरोध का यत्न किया जा रहा है।
श्रोत्रेंद्रियनिरोध- कर्णेंद्रिय के सुहावने शब्द सुनने में आते हैं। कलाएँ भी कैसी-कैसी विचित्र हैं? संगीत की कला, गायन की कला- इन कलापूर्ण गायनों में, ध्वनियों में यह जीव मौज मानता है। हाँ कदाचित् उनको सुनकर इसमें ज्ञान और वैराग्य आये, तब तो कुछ भला साधन भी कहा जा सकता है, किंतु प्राय: मोही जीव इन संगीतों और गीतों को सुनकर अपना राग ही पुष्ट करते हैं। शरीरबल, मनोबल इन सबका विनाश करते हैं, इस कर्णइंद्रिय के अपराध के निराकरण के लिए अब यह श्रोत्र इंद्रिय के विषय का निरोध करना, यह शुद्धनय प्रायश्चित्त ज्ञानी ने उचित समझा है। यों यह ज्ञानी-संत अपने अपराधों को दूर करने के लिए प्रायश्चितरूप में इन समस्त साधनावों को साध रहा है।
परमसमाधि की अभिमुखता- ये योगीश्वर, जो मोक्षमार्ग में प्रगति कर रहे हैं ये अपने आत्मा के अंतर्मुख बने रह सकते हैं। परमसमाधि इसी का नाम है कि रागद्वेष के विकल्पजालों से मुक्त होकर अपने आपमें समतामृत का पान करके तृप्त रहना यही परमसमाधि है। समाधि शुद्ध आनंदस्वरूप होती है। समाधि का उल्टा भाव है विषयवृत्ति। किसी भी विषय में प्रवृत्ति न रहे, मन, वचन, काय का निरोध रहे वहीं परमसमाधि प्रकट होती है। ऐसे उत्कृष्ट परमसमाधि से युक्त योगीश्वरों ने व्रत, तप, शील, संयम आदिरूप शुद्धनय प्रायश्चित्त किया है।
निष्परिग्रहता- आत्मोद्धार के लिए इस पुण्यात्मा पुरुष ने समस्त परिग्रहों का त्याग किया, केवल शरीर मात्र ही समझो परिग्रह रह गया। वह भी परिग्रह नहीं है क्योंकि शरीर में ममतापरिणाम नहीं है, पर निमित्तनैमित्तिक बंधन को क्या करें, आज यह आत्मा शरीर में जकड़ा है, इस शरीर को छोड़कर अलग नहीं बैठ सकता। शरीर के साथ इसकी भी क्रिया चलती है। इसके योग के साथ शरीर में भी चलन होता है ऐसा निमित्तनैमित्तिक बंधन है, तिस पर भी जिसने वस्तुस्वरूप का यथार्थ परिचय किया है ऐसे पुरुष को यह आत्मतत्त्व इस शरीर से न्यारा स्वतंत्ररूप वाला नजर आ रहा है। यह शरीर जड़ है, भिन्न है, इसका वियोग होगा। मैं आत्मतत्त्व अपने स्वरूप हूं। ऐसा स्वतंत्र वस्तुस्वरूप का भान जिस ज्ञानी जीव के है, उसे इस शरीर का भी परिग्रह नहीं है। जो शरीर का भी परिग्रह नहीं करता है, वह शरीर के विषयों में क्या पड़ेगा? इंद्रिय के फैलाव से रहित शरीरमात्र ही जिसका परिग्रह है- ऐसे निर्ग्रंथ दिगंबर समाधियुक्त परमयोगीश्वर संसार के इन पाप के अपराधों का प्रायश्चित्त कर रहे हैं। कठिन तपस्याएँ, व्रत की साधनाएँ- ये सब अपराधों को दूर करने के लिये यत्न हैं, जिनके फल में ज्ञानानंदस्वरूप यह आत्मतत्त्व प्रकट होगा।
परमवैराग्य- ये योगी पुरुष मानों वैराग्य के महल पर ठहरे हुए पारस की मणि की तरह हैं। जैसे बड़े विशाल महल की शोभा महल के ऊपरी हिस्से की कला पर निर्भर रहती है। वहां मणि लगी हो, शिखर उठा हुआ हो, अच्छे कंगूरे लगे हों तो उस महल की शोभा होती है। महल तो बना दिया जाए चार-छ: खंडों का और ऊपर की छत मुंडेररहित भी हो और अटपट बनी हो तो उसकी भी शोभा नहीं रहती है। यों ही जो सज्जन पुरुष, ज्ञानी पुरुष, परोपकारी कितनी ही साधना कर रहे हों, पर वैराग्य का पद यदि नहीं है, यश का लोभ है, नामी चाह है, अन्य-अन्य प्रवृत्तियां है तो फिर उस मनुष्य की क्या शोभा है? वह अपने कल्याण से भी वंचित है। वैराग्यरूपी महल के शिखर में लगी हुई मणि की तरह यह परम योगीश्वर शुद्ध नय प्रायश्चित्त किया करता है।
परमागमनेत्र- योगीजनों के नेत्र शास्त्र हैं, लौकिक जनों के नेत्र चमड़े के हैं। लौकिक जन जो कुछ करते हैं, इन चमड़े के नेत्रों से निरखकर करते हैं और ज्ञानी पुरुष जो कुछ करते हैं, शास्त्रों को निरखकर करते हैं। शास्त्रों में ऐसा है तो करना है और नहीं है तो नहीं करना है? उन्हें क्या करना है, किस कर्तव्य से चलना है, कौनसी चर्या का पालन करना है? यह सब बताने वाले शास्त्रनेत्र हैं। ज्ञानी पुरुष इस शुद्ध परमागम के इतने सेवक हैं कि उनके लिये इस परमागम की सेवा के मुकाबले यह पाया हुआ धन वैभव भी कुछ नजर नहीं आता है। समस्त वैभव भी लुटे तो लुट जाए, किंतु अपना ज्ञान, अपना वैराग्य, अपना शुद्ध परिणाम, अपनी श्रद्धा, देव, शास्त्र, गुरु की सेवा- इनमें भंग न हो सके- ऐसा ज्ञानी पुरुष का यत्न रहता है।
ज्ञानप्रकाश से मोहांधकार का विनाश- योगीजन शुद्ध सहज स्वात्मा का चिंतन किया करते हैं। यही उनका प्रायश्चित्त है। जो भी दोष होते हैं, उन दोषों का निराकरण गुणमय स्वरूप का आलंबन लिए बिना नहीं हो सकता है। जैसे रात्रि के अंधकार का विरोधी जो दीपप्रकाश है, सूर्यप्रकाश है, ज्योतिर्मय वस्तु का प्रकाश है, वह जब तक न आये, तब तक अंधकार रहता है। ज्यों ही प्रकाश आया कि अंधकार नहीं ठहर सकता है। इसी प्रकार यह दोषरूपी अंधकार, विकार- ये जीव में जब तक ठहर रहे हैं, तब तक ज्ञानप्रकाश नहीं आया है। जब कुछ विदित ही नहीं है कि यथार्थतत्त्व मैं क्या हूं और ये दृश्यमान समस्त पदार्थ हैं, इन पदार्थों से मेरा क्या संबंध है, मेरा क्या कर्तव्य है, कहां से आया, कहां जाऊँगा, इस समागम से क्या लाभ होगा इत्यादि कुछ भी विवेक नहीं जगा है और आत्मा का जो सहज चिदानंदस्वरूप है, उसका अनुभव नहीं हुआ है तो यह विषयों की प्रवृत्ति, कषायों के प्रवर्तन- ये सब चलते रहेंगे। इस अंधकार का विनाश ज्ञानप्रकाश से होता है। सो उस ज्ञानमय आत्मतत्त्व का चिंतन करना ही इन सब अपराधों का प्रायश्चित्त है।
साधुवों की साधुता- ज्ञानीजन इन प्रायश्चितों को निरंतर किया करते हैं। मोक्षमार्ग इसी में है- अपराधों को दूर करना और गुणत्वरूप आत्मतत्त्व का विकास करना। मुनिजनों को अपने आत्मा के चिंतन के अतिरिक्त अन्य कुछ चिंता नहीं रहती है। योगी, मुनि परमेष्ठियों में शामिल हैं। परमेष्ठियों में अरहंत सिद्ध परमात्मा नाम है और परमेष्ठियों में साधु का भी नाम है। अब समझ लीजिये कि साधु पुरुष कितना उत्कृष्ट आत्मा है? यदि वह परमात्मा के निकट रहता है, परमात्मा के समान नहीं तो परमात्मा के अनुरूप परमात्मा के बताये हुए शुद्ध मार्ग पर चल सकता है, जिनका केवल शुद्ध ज्ञानस्वरूप का ही चिंतन चलता है, जिनका संसार के झगड़े-वगड़े से कोई संबंध नहीं है- ऐसे पुरुष ही साधु कहला सकते हैं। साधु पुरुष को सिवाय आत्मकल्याण के, आत्मचिंतन के, आत्मज्ञान के अन्य कोई काम नहीं रहता है। यदि अन्य कुछ काम रहे तो वह साधुपद के योग्य नहीं है। अन्य चिंताएँ करना, आरंभ परिग्रह में लगना, इंद्रियविषयों में प्रवृत्ति करना, खाने-पीने में मौज मानना- यह संसारी प्राणियों की आदत है। जो संसार में रुलने वाले हैं, जिनका मोक्ष निकट नहीं आया है, जो विमूढ़ हैं, कर्मों से पीड़ित हैं- ऐसे पापी पाप को उत्पन्न करते हैं। मुनिजनों को तो केवल एक आत्मोद्धार की चिंता है।
संसरणापराध का प्रायश्चित्त शुद्धनयात्मक आचरण- अहो ! अनादि से अब तक कितने अपराध यह जीव करता चला आया है? जो शरीर पाया, जो समागम पाया, उसमें ही आसक्त रहा और उसके फल में 84 लाख योनियों में भ्रमणरूप महान् संसार इसे प्राप्त हुआ। अब शुद्ध दृष्टि करके आत्मा के एकत्वस्वरूप को निहारकर एक ज्ञानप्रकाशस्वरूप अपने को अनुभव करके इस शुद्ध आनंद का अनुभव किया जाये, बस यही इन अपराधों का प्रायश्चित्त है। इस प्रकार इस गाथा मे व्रतपालन, समितिपालन, शीलपालन, संयम की प्रवृत्ति, इंद्रियों का निरोध आदिक जो कुछ भी मोक्षमार्ग है, उस मोक्षमार्ग को अपराधहारी शुद्ध नय प्रायश्चित्त कहा गया है। इस शुद्ध निश्चय प्रायश्चित्त के परिणाम से यह जीव अवश्य ही मोक्ष पायेगा। अपराध को दूर करना उन्नतिशील पुरुष का कर्तव्य है। यों शुद्ध नय प्रायश्चित्ताधिकार की प्रथम गाथा में संग्रहरूप से यह बता दिया है कि शुद्ध श्रद्धान, ज्ञान और आचरणरूप रत्नत्रय ही संसार के अपराधों को दूर करने में समर्थ है।