वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 115
From जैनकोष
कोहं खमया माणं समइवेणज्जवेण मायं च।
संतोसेण य लोहं जयदि खुए चउविहकसास ।।115।।
कषायविजय का कर्तव्य- पूर्व गाथा में यह बताया गया था कि क्रोध, मान, माया, लोभ आदिक विभावों के क्षय की भावना में रहने का नाम निश्चय-प्रायश्चित्त है अथवा जिस प्रकार उन कषायों का विलय हो उसी प्रकार पुरुषार्थ करने का नाम प्रायश्चित्त है। इस उपदेश श्रवण के बाद यह जिज्ञासा होनी स्वाभाविक है कि कैसे इन कषायों का विजय हो? इन्हीं चारों कषायों के विजय के प्रतिपादन में यह गाथा आयी है। क्रोध को क्षमा से जीतो, मान को मार्दव से जीतो और लोभ को संतोष से जीतो। इस प्रकार चारों प्रकार के कषायों को योगी पुरुष जीतते हैं।
जघन्य क्षमा- क्षमा तीन प्रकार की होती है- जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट। कोई पुरुष अकारण ही खोटा बोलने वाला हो, मिथ्या अभिप्राय वाला हो, किसी प्रकार का संक्लेश का वातावरण उपस्थित करे, झूठ बोले अथवा गालीगलौज की वाणी कहे, उस समय यह कुछ विपदा अनुभव करने को तैयार हुआ हो और कुछ विपदा का परिणाम बना लिया हो उस काल वह पुरुष अनिष्ट जंचने लगता है। उसही समय वह चला जाय, दूर हो जाय तो उस काल में ऐसा परिणाम आता है कि चलो टला यह और उसके प्रति कोई बदले का भाव नहीं रखे, उसको किसी प्रकार सताने के लिए या प्रत्यपकार करने के लिए कोई मंसूबे नहीं रखे, किंतु इतना ही मात्र संतोषक भाव हो कि चलो यह चला गया, छुट्टी पायी। अब उसके सताने का कोई भाव नहीं रखे, उसे क्षमा कर दे, जीव सुख से रहे- इस प्रकार का क्षमारूप परिणाम हो सो यह जघन्य क्षमा है।
मध्यम क्षमा- मध्यम क्षमा है उस प्रसंग में कि कोई पुरुष अकारण कोई त्रास कर रहा हो, मुझे ताड़ रहा हो, पीट रहा हो अथवा प्राणघात कर रहा हो, प्राणघात के लिये उद्यमी हुआ हो, ऐसे समय में इसका कुछ और विशेष संक्लेश होना प्राकृतिक है। यह दु:खी होता है, उसे अनिष्ट मानता है, क्लेश अधिक है, बदला लेने का भाव भी कर सकता है। ऐसे ही प्रसंग में वह अपने आप निकल जाय, हट जाय, दूर हो जाय तो वहाँ एक संतोष की सांस ले लेना और उसे कुछ जताने का या बदला लेने का कोई परिणाम न रखना, इतना ही मात्र भाव रखना, चलो यह चला गया छुट्टी पायी, जान बची, लाखों पाये। अब उस पुरुष के प्रति कोई बदले का भाव न रखना, यह मध्यम दर्जे की क्षमा है।
भैया ! बात तो दोनों में यद्यपि एकसी है लेकिन वातावरण का अंतर है। एक पुरुष केवल बाहर खड़ा हुआ अप्रिय वचन ही बोल रहा था, अपयश, उपवाद या गालीगलौज दोष लगाना आदि ही कुछ कह रहा था, पीट नहीं रहा था ऐसे पुरुष के प्रति अल्प संक्लेश होता था और अल्प अनिष्टता जँची थी, उसके प्रति क्षमाभाव आ जाना यह जघन्य क्षमा है और जो पीट भी रहा था, अनेक संत्रास दे रहा था ऐसे परिणाम के प्रति भी उसी प्रकार बदले का भाव नहीं आना और उसके चले जाने पर संतोष करना, यह परिणाम हुआ है। यह मध्यम क्षमा है।
उत्कृष्ट क्षमा- उत्कृष्ट क्षमा उस भावशुद्धि में होती है, जहां ताड़े, पीटे, मारे जाने पर भी यह चिंतन रहता है कि मैं आत्मा अमूर्त हूं, परमब्रह्मस्वरूप हूं, आकाशवत् निर्लेप मात्र ज्ञानप्रकाशरूप हूं, इससे मुझ आत्मा का कुछ अपकार नहीं होता है, कोई विनाश या विच्छेद नहीं होता है, इस प्रकार शुद्ध स्वरूप का चिंतन करके अध्यावाध सर्वसंकटों से मुक्त शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूप आत्मतत्त्व में स्थिर होना, परमसमता रसका पान करके तृप्त रहना- यही कहलाती है उत्तम क्षमा। यहां किसी परजीव पर दृष्टि भी नहीं है। ऐसी क्षमावों के द्वारा क्रोधकषाय को जीतो।
जैसे गर्मी और ठंड- इन दोनों का परस्पर विरोध है। जहां गर्मी है, वहां ठंड नहीं और जहां ठंड है, वहां गर्मी नहीं। इसी प्रकार क्रोध का और क्षमा का परस्पर विरोध है। जहां क्रोध उबल रहा है, वहाँ क्षमा का नाम नहीं और जिस उदारचित्त में क्षमा का भंडार है, वहां क्रोध का नाम नहीं। क्रोध को जीतने का उपाय क्षमा परिणाम ही है।
क्षमा का अर्थ ज्ञानी का विवेक- जगत् में सभी जीव स्वतंत्रस्वरूप वाले हैं। उनका उनमें उनकी योग्यता से परिणमन चलता रहता है। कोई पदार्थ किसी दूसरे पदार्थ में अपनी कुछ कला नहीं बना सकता है। फिर मेरा बिगाड़ करने वाला लोक में कौन है? हम ही कल्पनाएँ करके व्यर्थ का विकल्प मचाकर दु:खी हुआ करते हैं। सभी दु:ख कल्पना से ही अपने विकल्प के कारण होते हैं। दूसरा कोई किसी को दु:ख पहुंचा ही नहीं सकता। कोई क्या करे? अपने मन, वचन, काय की प्रवृत्ति ही तो करेगा और कदाचित् मान लो कोई पुरुष हाथापाई भी करने लगे, शस्त्रों से, लाठियों से ताड़ना भी करने लगे तो उस समय तो मैं शरीर नहीं हूं। कुछ यह पुद्गलस्कंधों का निमित्तनैमित्तिक भाव चल रहा है तो चल रहा है, किंतु मैं आत्मा अमूर्त हूं, ज्ञानानंदपुंज हूं। इस अमूर्त आत्मा में तो अग्नि तक का भी प्रवेश नहीं है। यह आत्मा न अग्नि से जल सकता है, न पानी से गल सकता है, न हवा से उड़ सकता है और न किसी के कूटे से कुट सकता है। यह सद बाधारहित है।
क्लेश का कारण अपना ज्ञान- कोर्इ पुरुष इस शरीर को ताड़ रहा है तो यह कल्पना बनाता है कि हाय, मैं मरा, अब क्लेश होने वाला है, मेरा सब कुछ सब मिट जाने वाला है- ऐसी कल्पना की तो उसका क्लेश है, न कि किसी पुरुष को मारा-पीटा उसका क्लेश है। जब सभी जीव अपने-अपने कषाय भाव के अनुसार अपना परिणमन करते हैं तो हम यहां किस बात पर क्रोध करें? क्रोध करें तो अपने विभावों पर करें। मेरा बैरी, मेरा विनाश करने वाला मेरा अज्ञान परिणाम है। भव-भव में रुलाने वाला मेरा मोहभाव है। इस मोहभाव को नष्ट करें तो यह है सच्ची बुद्धिमानी और बाह्यपदार्थों पर क्षोभ का परिणाम आना, यह कोरी अज्ञानता है, अविवेक है।
ज्ञानी के अंतर में क्षमा का रूप- भैया ! ज्ञानी गृहस्थ को भले ही किसी परिस्थिति में मारने-ताड़ने वाले से गुजारा करने के लिए मुकाबला करना पड़ता है, इतने पर भी ज्ञानी जीव का दूसरे के प्रति अकल्याण करने का भाव नहीं रहता है। कदाचित् किसी गृहस्थ को किसी चोर-डाकू के मुकाबले में कोई शस्त्र भी चलाना पड़े और उन शस्त्रघात से वह प्राणी, वह डाकू प्राणांत भी कर जाए तो भी यदि यह ज्ञानी गृहस्थ है तो उस परिस्थिति में इसके प्रत्याक्रमण करने के बावजूद भी उसके संकल्पी हिंसा नहीं हुई, अनंतानुबंधी क्रोध नहीं लगा। ज्ञानी का यह स्पष्ट ध्यान है कि किसी भी अन्य पदार्थ से मेरे में परिणमन नहीं होता है और स्वभावत: क्षमाशील ज्ञानानंद रसमय अपने आत्मतत्त्व में ही तृप्त रहा करता है। यों यह प्राणी क्रोधकषाय को क्षमापरिणमन से जीतता है।
मार्दव परिणाम से मानकषाय की विजय- मानकषाय को ज्ञानी मार्दव परिणाम से जीतता है। मानी पुरुष को लोग कहा करते हैं कि यह बड़े कड़े दिल का है, यह बड़ा कठोर आदमी है। यह कठोर परिणाम मार्दवभाव से ही दूर हो सकता है। मार्दव का अर्थ है कोमलता। परिणामों में नम्रता आना, सो मार्दवभाव है दूसरों का आदरभाव रखना, दूसरों से अपने आपको बड़ा न मानना, दूसरा भी बड़ा है, खुद भी बड़े हैं, इस चेतन का जो शुद्धस्वरूप है, ज्ञानानंदस्वभाव है, उस रूप ही निरखना, सब जीवों के साथ समानता का भाव रखना- ऐसी मित्रता को नम्रता कहते हैं। नम्रता से इस मानकषाय को जीतो।
क्रोध और मान की द्वेषरूपता- ये क्रोध और मान दोनों द्वेष कहलाते हैं। क्रोध में आकर यह प्राणी अनर्थ करता है और दूसरे को भी बरबाद करता है। क्रोध में आकर यह जीव दूसरे जीव पर भी वार करता है, लेकिन इस वार के कारण खुद तकलीफ पाता है। जैसे कोई किसी को क्रोध में आकर किसी चीज से या चाकू आदि से प्रहार कर दे तो प्रहार तो कर देता है, पर उसके फल में वह तुरंत गिरफ्तार होता है और उसे सजा हो जाती है, दु:ख भोगना पड़ता है, पर क्रोध के समय उसकी यह बुद्धि थी कि मैंने अपने हित के विरोधी का विनाश कर दिया है, अब मैं निष्कंटक बन गया हूं, पर कंटक उस पर बड़ा विकट अन्य अन्य आ जाता है।
क्रोध से स्वकार्यहानि- एक ऐसी कथा सुनी जाती है कि साधक योगी नायक महादेव ने क्रोध में आकर कामदेव को भस्म कर दिया था और कामदेव को भस्म करके उस भस्म को अपने शरीर पर लपेट लिया था। उस पर कवि की यह कल्पना हो सकती है कि काम नाम है दुर्भावना का। विषयभोग मैथुन प्रसंग करने की जो चित्त में वांछा रहती है और उस वांछा की पूर्ति का जो उद्यम रहता है, वह सब कामविकार कहलाता है, उसका ही नाम कामदेव है। काम तो अपने चित्त में रहा करता है। इसका नाम मनोज है, यह मन से प्रकट होता है। तो यह काम मनोज है, मन से प्रकट होता है, इस बात को तो न जाना और बाहर में किसी को यह कामदेव है- ऐसी बुद्धि करके उसे जला दिया। जला दिया इसलिये कि निर्भयता आ जावे, अब स्वतंत्र हो गये, अब उस कामशत्रु का भय नहीं रहा, उस पर विजय कर ली- ऐसी स्वच्छंदता में फिर काम-विह्वलता की दशा उत्पन्न हो गई। विवाह किया, पार्वती का पाणिग्रहण किया तो फिर पीछे एक सांसारिक दशा प्रकट हो गयी। क्रोध करने से ऐसी प्रवृत्ति हो जाती है कि उसके फल में जिस रास्ते को साफ समझ लिया है वह रास्ता और विषम हो जाता है। क्रोध के उदय में किसके कार्य की हानि नहीं होती? वह क्रोधवेष कहलाता है।
मानकषाय से विवाद- मान भी द्वेष परिणाम है जिसके मानकषाय प्रकट हुई है वह अपने को बड़ा जानता है, और अपने को बड़ा तब ही मान सकता है जब दूसरों को तुच्छ मानेगा। जहां दूसरों को तुच्छ मानने की बुद्धि हुई, वहीं तो क्लेश होगा। द्वेष-भाव में ही मानकषाय उदित होता है। मानकषाय से भी इस जीव को बड़ी बरबादी होती है। मानकषाय के विषय में बहुत प्रसिद्ध उदाहरण एक बाहुबली का प्रसिद्ध है, यद्यपि बाहुबली स्वामी-परमतपस्वी थे और वे सर्वप्रथम इस युग में मोक्ष पधारे, किंतु उनकी दीक्षा का योग किस कारण से मिला था, उस कारण पर यदि विचार करें तो मानकषाय का रूपक समझ में आयेगा। भरत चक्रवर्ती दिग्विजय करके जब अपने नगर में प्रवेश करने लगे तो चक्ररत्न नगर में प्रवेश न कर सका। यह कायदा है कि क्षेत्र के छहों खंडों पर विजय प्राप्त न की जा सके तो चक्ररत्न नगर में नहीं प्रवेश करता है, तब सोचा गया कि कौनसा राजा और जीतने के लिए शेष रह गया है, विदित हुआ कि अभी बाहुबली चक्रवर्ती शरण में नहीं आया है। भरत और बाहुबली ऋषभदेव भगवान के जब ऋषभदेव गृहस्थावस्था में थे तब के जुदी-जुदी माता के पुत्र थे। भरत ने संदेश भेजा तो बाहुबली ने संदेश को ठुकरा दिया। भाई के नाते से भरत बड़े हैं, पर राज्य के प्रसंग में वह मुझे शरण रखना चाहें तो यह न होगा। उनका युद्ध हुआ। चक्रवर्ती का तो नियोग ही होता है और बाहुबली के मानकषाय प्रकट हुआ। युद्ध किया। भाग्य की बात है कि युद्ध में बाहुबली की सब प्रकार से जीत हुई।
मानकषाय से स्वकार्य हानि और मानविजय से उद्धार- उस जीत के बाद ही उन्हें वैराग्य आया कि धिक्कार है इस राज्य लक्ष्मी को जिसके कारण बड़े भाई का अपमान करना पड़ा है। विरक्त हो गए वह। विरक्त होने के बाद यह प्रसिद्ध है कि बाहुबली के चित्त में फिर से मानकषाय कोई की तरंग उठी कि ओह ! मैं भरत की भूमि पर तप कर रहा हूं। भरत की भूमि छोड़कर किसी जगह तप करता होता तो विकल्प न होता। उस समय सारा क्षेत्र भरत चक्रवर्ती का था। इस मानकषाय के विकल्प में घोर तपश्चरण करके भी मुक्ति न प्राप्त कर सके थे, किंतु भरत चक्रवर्ती ने जब आदिनाथ भगवान के सभामंडप में यह बात जानी कि बाहुबली को इस प्रकार का मान परिणाम दु:ख दे रहा है तो भरत गए, चरणों में नमस्कार किया और कहा- महाराज यह पृथ्वी किसकी हुई है? मेरी नहीं है। यह तो कोरा विकल्प है। उनका विकल्प शांत हुआ और मोक्ष पधारे। मानकषाय में यह जीव अपना ही बुरा करता है।
मायाकषाय के विजय का अनुरोध- मायाकषाय एक महान् गर्त है जिसमें मिथ्यात्व वासना का घोर अंधकार बना रहता है, जिसमें क्रोध आदिक विषम सर्प बसे रहते हैं, वे लक्ष्य में नहीं आ पाते। मायाचारी पुरुष अपने गुणों का समूल घात कर लेता है। इस मायाकषाय को सरलता के परिणाम से जीतो।
लोभकषाय से अपनी बरबादी- लोभकषाय को परतत्त्व की दृष्टि करके उत्पन्न हुए महान् लाभ की शांति से जीतो। लोभकषाय में यह प्राणी अपने आपका अपने आप घात करता है। जंगल में एक सुरागाय होती है जिसकी पूँछ बहुत सुंदर होती है, जिसके कुछ लोग चमर बनाया करते हैं। वह गाय अपनी पूँछ से बड़ी प्रीति रखती है, कदाचित् कोई शिकारी उस गाय को पकड़ने के लिए दौड़े तो गाय भागती है अपनी जान बचाने के लिए और किसी जगह किसी बेल में वह पूँछ उलझ जाय तो चूँकि उसे अपनी पूँछ की सुंदरता पर बड़ा लोभ है तो यह पूँछ बिगड़ न जाय, इस लोभ के कारण वही खड़ी रहती है। यदि वह दौड़कर चल दे तो उसकी जान बच जाय, पर शिकारी आता है और उसे पकड़ लेता है। यों लोभ में सभी पुरुष अपना विघात कर डालते हैं। कुंद-कुंद प्रभु का यह उपदेश है आत्मकल्याण के लिए कि क्रोधकषाय को क्षमा से, मान को मार्दव से, माया को आर्जव से और लोभकषाय को शुचि परिणाम से जीतो।