वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 116
From जैनकोष
उक्किट्टो जो बोहो णाणं तस्सेव अप्पणो चित्तं।
जो धरइ मुणी णिच्चं पायच्छित्तं हवे तस्स ।।116।।
ज्ञानस्वभाव की स्वीकारता में निश्चयप्रायश्चित- अनंत धर्मात्मक अपने आपका जो उत्कृष्ट बोध है अथवा ज्ञान है, उसको जो मुनि नित्य धारण करता है, उसके प्रायश्चित्त होता है। जो अपने आपके स्वरूप को शुद्ध ज्ञानरूप से स्वीकार करता है, उसके प्रायश्चित्त होता है। प्रत्येक जीव अपने को किसी न किसी रूप से स्वीकार कर रहा है। स्वीकार का अर्थ है स्व बना देना। ‘स्वं इव करोति इति स्वीकर्ता, स्वीकरणं स्वीकार:।’ जो स्व की तरह कर दे, उसे स्वीकर्ता कहते हैं, स्व की तरह करने को स्वीकार कहते हैं। प्रत्येक जीव अपने को कुछ न कुछ स्वीकार कर ही रहे हैं। कोई अपने को परिवार वाला, कोई धनी, कोई नेता, कोई साधु, कोई गृहस्थ- अनेक प्रकार से अपने को स्वीकार कर रहे हैं, किंतु एक उत्कृष्ट ज्ञानस्वरूप की स्वीकारता के बिना जितनी भी स्वीकारताएँ हो रही हैं, वे सब अपराध हैं। अपराध का फल नियम से भोगना पड़ेगा। अपना ज्ञान इतना निर्मल होना चाहिये कि अपराध न बन सकें।
मोह में आत्महानि- मोही जीव कल्पनाएँ करके मौज मानते हैं- मेरे ऐसा परिवार है, इतना धन है, ऐसी इज्जत है, इतना बड़ा सुख है। अरे, कहां सुख है? कल्पना में, रागद्वेष की तर्कणावों में तो निरंतर डूब रहा है। चैन कहां है? किंतु ज्ञानस्वभाव से चिगकर बाह्यपदार्थों में कहीं भी भटकने से यहां चैन कभी हो ही नहीं सकती है। एक शुद्ध ज्ञानस्वरूप अपने को अनुभवना- यह तो है अपराधरहित शुद्ध धर्म और अपने को किसी भी पर्यायरूप, किसी भी परसंगरूप मानना- यह है अपराध, अपने आपके प्रभु पर अन्याय। यह मोही अपने आप पर ही अन्याय करता हुआ भटक रहा है। अंतरंग के नेत्र खोलकर अंतरंग से निहारो। किसी भी स्त्री, पुत्रादिक से कुछ संबंध भी है क्या? यों तो निद्रा में स्वप्न आये तो उस स्वप्न में भी संबंध मान लिया जाता है। जैसे स्वप्न में देखा हुआ संबंध, संबंध नहीं है, केवल कल्पना ही है, इसी प्रकार मोह की कल्पना में माना हुआ संबंध, संबंध नहीं है, यह भी कोरी कल्पना ही है। इस व्यर्थ की कल्पना का दु:ख कौन भोगेगा? मनमानी कल्पनाएँ बढ़ाते जाने में कौनसा लाभ है? इन सब अपराधों का प्रायश्चित्त केवल शुद्ध ज्ञानस्वरूपमात्र मैं हूं- ऐसा स्वीकार करना, ऐसा उपयोग बनाना, यह ही प्रायश्चित्त है। इसी उपयोग परिणमन का नाम परमबोध है।
यथार्थसूझ में शांतिमार्ग का लाभ- भैया ! जिसे उल्टा सूझे और चाहे कितना ही ज्यादा निरखता जाये, उसे दुर्गति ही मिलेगी। जिसे चाहे कम सूझे, किंतु सीधा यथार्थ सूझे तो उसका कल्याण हो सकता है। एक आत्मा के ज्ञान को छोड़कर अन्य वैज्ञानिक के कामों का अधिक परिज्ञान हो जाए तो वह भी शांति और मुक्ति का मार्ग नहीं है। थोड़ा भी जिसे सूझे, किंतु अपना ज्ञानस्वभाव सूझे और शांतिसमता से रहने की बुद्धि जगे तो उसे शांति और मुक्ति का मार्ग मिल सकता है।
यथार्थसूझ में लाभ का एक दृष्टांत- एक बुढ़िया के दो बालक थ। एक बड़ा और एक छोटा। दोनों की आंखों में कुछ विकार था। छोटे को कम दिखता था, किंतु सफेद हो तो सफेद, पीला हो तो पीला अर्थात जैसा का तैसा यथार्थ दिखता था और बड़े को दिखता अधिक था, पर सब कुछ पीला दिखता था। दोनों लड़कों को यह बुढ़िया किसी वैद्य के पास ले गई। वैद्य ने उन दोनों लडकों का एक ही इलाज करना उचित समझा और एकसी दोनों को दवा दी। कोई सफेद मोती भस्म सी दवा लेकर वैद्य कहता है कि देखो मां, यह दवा चाँदी के गिलास में गाय के दूध में दोनों लड़कों को दे देना। दोनों का एक ही इलाज है। इससे दोनों की आंखें ठीक हो जायेंगी। लड़कों ने भी सुन लिया। घर पर जब बुढ़िया पीलिया रोग वाले को दवा देने लगी तो लड़का बोलता है कि मां, मैं ही तुम्हारा दुश्मन हुआ। इस पीतल के गिलास में गाय के मूत्र में यह हरताल डालकर मुझे पिला रही हो। उसे तो सब कुछ पीला ही दिखता था। और जो कम देखने वाला था, जिस यथार्थ दिखता था, उसने समझ लिया कि ठीक दवा दे रही है मां, तो उसने उस दवा को पी लिया। अब कम दिखने वाले का तो इलाज ठीक हुआ और जिसे अधिक दिखता था, उसका इलाज न हो सका।
यथार्थ सूझ और लाभ का विवरण- ऐसे ही मनुष्यों में जिन्हें बहुत अधिक तेज विद्या आती है, जो कई भाषाएं जानते हैं, कई प्रयोग भी किए है, इंजीनियर भी हो गये हैं, ऊँचे-ऊँचे अनुसंधानों के नायक बने हुए हैं, लेकिन परवस्तुविषयक जिनकी दृष्टि निरंतर बनी रहती है, उन लोगों को शांति और मुक्ति का मार्ग नहीं मिल पाता है। आत्मा में जो आकुलता की बीमारी लगी है, वह बीमारी दूर नहीं हो पाती। यों यह बड़े तेज ज्ञान में बढकर भी विपरीत ज्ञानी होने के कारण रोगी ही रहता है और दूसरा कोई पुरुष जो लौकिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक अनेक विद्यावों को नहीं जानता है, किंतु परमविश्राम और समाधि के उपाय द्वारा सहज ही जिन्हें आत्मा के यथार्थस्वरूप का दर्शन हुआ है, वे एक अपने आपके ज्ञानबल से शांति प्राप्त करते हैं और मुक्तिपथ में बढ़ते हैंभ्रम में शांतिमार्ग का अनवसर- भैया ! कितना ही कुछ हो जाए, किंतु जीव को शांति मिल सकेगी तो एक भेदविज्ञान के द्वारा ही मिल सकेगी। परपदार्थ की दृष्टि लगाकर शांति मिलने का कोई उपाय ही नहीं है। पर तो पर ही है, भिन्न है, चतुष्टय न्यारा-न्यारा है, न पर का मुझ में द्रव्य है, न पर का प्रदेश है, न पर की शक्ति है, न पर का परिणमन है। प्रत्येक पदार्थ अत्यंत स्वतंत्र है। अब हम किसी परपदार्थ को भला मानें, सुखदायी मानें और उससे अपना बड़प्पन समझें तो कैसा पूरा पड़ सकता है? हम सोच रहे हैं मेरा, वह मेरा है नहीं। हम सोच रहे हैं कि यह परपदार्थ हित उत्पन्न करेगा और वह परपदार्थ केवल अपना परिणमन ही कर पा रहा है, अपने से बाहर कहीं कुछ परिणति ही नहीं कर पाता। फिर कैसे हित हो? हम मानते हैं पर के संग से बड़प्पन, किंतु पर के संग से हमारे में बड़प्पन अथवा उत्कर्ष होता ही नहीं हैं, परपदार्थ पर हैं, जहाँ हैं तहाँ हैं। उनके संग से बड़प्पन होने की पद्धति है कहाँ, और मानता है यह पर से बड़प्पन, होता है नहीं, तब क्लेश ही पाता है।
मोह में विषयविष की रुचि- इस मायामयी दुनिया में मायामय पुरुष मायामय रूपों को देखकर मायामय कल्पनावों की रचना किया करते हैं, पर सारभूत बात यहाँ कुछ नहीं है। परमार्थस्वरूप के ज्ञान में जो प्रकाश है, आनंद है वह प्रकाश और आनंद अन्य बात में है ही नहीं। इस संसार से मुक्त हो सकने वाले बिरले ही हो सकते हैं। तत्त्व की बात बिरले ही ज्ञानी पुरुष में समाती है। सब कैसे ज्ञानमय हो जायें? कर्मों के प्रेरे हैं, उन्हें वही रुचता है विषय-विष। वे अमृत को पीने का साहस ही नहीं कर पाते हैं।
मोह की विडंबना पर एक दृष्टांत- जैसे कोई भिखारी 5-7 दिन की बासी रोटियाँ अपने झोले में रखे हुए रोटियाँ मांग रहा है, कोई दयावान् उस भिखारी से यह कहे कि अरे ! तू इन बासी रोटियों को फेंक दे, मैं तुझे ताजी पुड़ियाँ दूँगा, पर उसे विश्वास नहीं होता है। वह सोचता है कि बड़ी कठिनाई से कमाई हुई रोटियाँ हैं। यदि इनको फेंक दे और कुछ न मिले तो गुजारा कैसे चलेगा? ऐसे ही ये परपदार्थ के भिखारीमोही प्राणी कितना चेतन और अचेतन परिग्रह का संचय किए हुए हैं, इंद्रिय के भोग-उपभोग के कितने साधन अपने उपयोग की थैली में भरे हुए हैं? इन मोही भिखारी पुरुषों को आचार्यदेव बार-बार समझाते हैं कि तू इन जूठे पुराने भोग साधनों को त्याग दे, तुझे अद्भूत आनंद प्राप्त होगा, पर यह मोही, इसको कल्पना में नहीं आता कि मैं इन असार भिन्न परिग्रहों को छोड़ दूँ और परमविश्राम से रहूं, निज सत्य आत्मीय आनंद की परीक्षा करूँ, देखूँ, ऐसी कल्पना ही नहीं जगती है।
धर्मी के धर्म की स्वीकारता- अज्ञानी तो सोचते हैं कि धर्म की बातें तो कहने-सुनने की हैं, एक पद्धति है धर्मपालन की, पर धर्मपालन में मिलता क्या है, रखा क्या है, और यहाँ परिवार में, धन-वैभव में, इज्जत में यहां सब कुछ मिलता है। आचार्यदेव कहते हैं कि यह सब तुम्हारी भूल है। मोहनींद के ये सब स्वप्न हैं, इनके ही वश होकर इस जगत् में भटकना बना रहता है। यदि सर्वसंकटों को मिटाना है तो एक ही उपाय है, अपने को शुद्ध ज्ञानरूप स्वीकार कर लो। यही इस धर्मी आत्मा का प्रायश्चित्त है। प्राय: मायने प्रकर्षरूप से, चित्त मायने ज्ञान। अज्ञान के अपराध को दूर करने के लिए प्रायश्चित्त ही समर्थ है अर्थात् उत्कृष्ट ज्ञान ही समर्थ है। प्रायश्चित्त का अर्थ उत्कृष्ट ज्ञान है।
प्रायश्चित्त का अर्थ उत्कृष्ट ज्ञान- भैया ! पछतावा प्रायश्चित्त नहीं कहलाता है, क्योंकि पछतावा में विभाव परिणति बस रही है, पछतावा का नाम प्रायश्चित्त नहीं है। यद्यपि अपराध के करने पर ज्ञानी पुरुष को पछतावा होता है और उस पछतावा का उपाय करके फिर आगे ज्ञानपथ में बढ़ता है, पर पछतावा स्वयं उन्नति का मार्ग नहीं है, यह सहायक तो है पर उन्नति का साक्षात् मार्ग उत्कृष्ट ज्ञान है। प्राय: मायने उत्कृष्ट, चित्त मायने ज्ञान। उत्कृष्ट बोध ही मुनि का प्रायश्चित्त है। इस उत्कृष्ट ज्ञान को जो मुनि अपने उपयोग में धारण करता है उसके ही वास्तव में शुद्धनय प्रायश्चित्त होता है।
उत्कृष्ट ज्ञान का स्वरूप- वह उत्कृष्ट ज्ञान क्या है जिसके आश्रय से संकट दूर होते हैं? ये रागद्वेष विभाव तो ज्ञान हैं ही नहीं। ये तो विभाव परिणतियाँ हैं, अचेतन हैं, इनमें चेतने की सामर्थ्य नहीं है, अचेतन गुण की परिणति है, अचेतन में है, पर रागद्वेष का प्रवाह जिन गुणों में हुआ है वह गुण स्वयं अचेतक है। रागद्वेष परम बोध नहीं है और जो हम आप जाना करते हैं यह चौकी है, यह मंदिर है, यह घर है, यह वैभव है, यह ज्ञान भी उत्कृष्ट बोध नहीं है, यह ज्ञान मायारूप है, मायारूप का ज्ञान हो रहा है। जिनको भी इन इंद्रियों द्वारा जाना जा रहा है वे सब मायास्वरूप है, परमार्थ द्रव्य नहीं हैं, जो दिख रहे हैं, ये सब स्कंध हैं, अनंत परमाणुवों से मिलकर बने हुए हैं। परमाणु बिखर गए कि स्कंध का ढांचा मिट जायेगा। इन स्कंधों में कुछ आता है, कुछ जाता है और इस आवागमन के कारण जीव को ये नित्य से प्रतीत हो रहे हैं, पर ये सब मायास्वरूप हैं, परमार्थभूत तो इन पुद्गलों में परमाणु हैं। परमाणु का ज्ञान करें तो समझो परमार्थ का ज्ञान किया है। बाह्य में स्कंधों का ज्ञान मायारूप का ज्ञान कहलाता है।
ज्ञान में उत्कृष्ट ज्ञान- ऐसे ही आत्मा के बारे में जो ये संसारी प्राणी जानकारी रखते हैं, इन सब मायारूप पर्यायों को आत्मा जानकर प्रवृत्ति करते हैं उनको जीव आत्मा समझकर व्यवहार बनाता है, पर यह आत्मा नहीं है, आत्मा तो अमूर्त है, वह इंद्रिय और मन के भी विषय में नहीं आता है। यह हमारा जो कुछ चल रहा हुआ ज्ञान है यह भी परमबोध नहीं है, यह भी अपराध है।
अपराध में चतुराई की मान्यता- संसारी प्राणी अपराध को करते हुए अपनी चतुराई मानते हैं। मुझमें बड़ी कला है, मैं घर की अच्छी व्यवस्था बना लेता हूं, मैं काफी पैसा कमा लेता हूं। अरे ! अपराध को करते हुए अपनी शान मानना यह तो अशांति का ही मार्ग है, उद्धार का मार्ग नहीं है। इन सब परिस्थितियों में रहकर मानना तो चाहिए था खेद कि मैं क्यों इन परपदार्थों में फँस रहा हूं, ये परद्रव्य कुछ भी मेरे साथ न जा सकेंगे, इसका विषाद मानना था, पर यह मोही प्राणी परपदार्थ का उपयोग कर करके चतुराई समझ रहे हैं।
परमबोध प्रायश्चित्त- भैया ! वास्तविक चतुराई तो परमबोध में है, इन सब ज्ञान प्रवृत्तियों का स्रोतभूत जो शुद्ध ज्ञानस्वभाव है, चैतन्यशक्ति है, वह ज्ञानस्वभाव ही उत्कृष्ट बोध है, उसका उपयोग ही वास्तविक प्रायश्चित्त है, जो परमसंयमी साधु निरंतर ऐसा ही चित्त बनाते है। अर्थात् ज्ञान किया करते हैं उन साधुवों के निश्चय प्रायश्चित्त होता है। आत्मा एक धर्मी पदार्थ है, धर्मस्वरूप है, स्वयं धर्मात्मा है, और इस आत्मा का जो परमज्ञानस्वभाव है वह इस आत्मा का उत्कृष्ट धर्म है। आत्मस्वभाव से ही आत्मा में प्रायश्चित्त बना हुआ है अर्थात् उत्कृष्ट ज्ञानस्वभाव सहज ही शाश्वत प्रकाशमान् रहता है, ऐसे ही प्रायश्चित्त का परम उत्कृष्ट बोध जो संयमी पुरुष श्रद्धा में लाते हैं और इस ही प्रायश्चितरूप आत्मा के परमस्वभाव में लीन रहते हैं उन मुनिजनों के ही शुद्धनय प्रायश्चित्त होता रहता है। जो योगिराज शुद्ध आत्मतत्त्व की, ज्ञानमय पदार्थ की यथार्थ भावना करते हैं, इस शुद्ध ज्ञानस्वरूप का सम्यक् श्रद्धान, इसका ही सम्यक् परिज्ञान और इसमें ही सम्यक् रूप से अनुष्ठान करते हैं जो साधु, उनके स्वभावत: शुद्धनय प्रायश्चित्त होता है।
वंदनीय योगिराज- जिसने पापों को नष्ट कर दिया है, जिसका ज्ञान सदा निर्मल, जागरूक रहता है ऐसे योगिराज जिनकी धुन केवल परमात्मा की शुद्ध भक्ति में रहती है ऐसे योगींद्र सबके निरपेक्ष बंधु हैं। संसारी जीव का उद्धार इन गुरुवों के प्रसाद से ही हो सकता है। शुद्ध स्वरूप के परिज्ञान के समान लोक में कुछ वैभव नहीं है। केवल यही एक पुरुषार्थ ही सत्य वैभव है। जो पुरुष इस ज्ञानस्वभाव के ज्ञान में बर्तता है वह योगिराज है, ऐसे योगिराज की उपासना में, सेवा में जो पुरुष रहा करते हैं वे धन्य हैं। उन योगिराजों में जो गुण-विकास हुआ है उन गुण विकासों की प्राप्ति के ध्येय से मैं उन योगिराजों को वंदन करता हूं।