वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 148
From जैनकोष
आवासयेण हीणो पब्भट्टो होदि चरणदो समणो।
पुव्बुत्तकमेण पुणो तम्हा आवासयं कुज्जा।।148।।
शुद्धोपयोग की अभिमुखता की शिक्षा―जो श्रमण आवश्यक कार्य से रहित होता है वह चारित्र से भ्रष्ट कहा गया है। इस कारण जो पहिले क्रम बताया है उस पद्धति से आवश्यक कर्म को अवश्य ही करना चाहिए। इस गाथा में साधुवों को शुद्धोपयोग के अभिमुख होने के लिए शिक्षा दी गई है।
व्यवहार से भी चारित्रभ्रष्टता का रूप―जो साधु व्यवहारनय के आवश्यक कर्मों को भी नहीं कर पाता है, उसमें भी त्रुटि रखता है, उससे रहित होता है वह तो व्यवहार से भी चारित्रभ्रष्ट है। जो अपने इंद्रियविषयों के पोषण में हों, खानेपीने के स्वाद में ही संतुष्ट रहा करते हैं और कुछ लोगों से मिलजुलकर एक यश कीर्ति प्रशंसा की बात सुनकर तृप्त रहा करते हैं वे भ्रष्ट साधु हैं। वे भली प्रकार से जो व्यवहार षट् आवश्यक बताये है,उन्हें भी नहीं कर सकते हैं। व्यवहार के 6 आवश्यक ये हैं―समता, वंदना, स्तुति, प्रत्याख्यान, स्वाध्याय और कायोत्सर्ग।
समतानामक आवश्यककर्म से भ्रष्टता-समता नाम है रागद्वेष न करना। ऐसे जीव जो विषयलोलुपी हैं,अपने यशकीर्ति के उद्देश्य से और अपना जीवन मौज में व्यतीत हो, इतने मात्र से जिन्होंने साधु भेष रखा है वे तो साधु रागद्वेष के वशीभूत स्वयं है, उनके कहां चारित्र रह सकता है? जो साधुभेष रखकर अपने आपको दोषमय बनाता है वह पतित पुरुष है। गृहस्थजन तो गृहस्थी में रहते हैं, उनके कलंक कलुषताएँ लगती रहती हैं, फिर भी गृहस्थ को ऊपर उठने की मन में इच्छा बनी रहती है, सो वे अपने पद से भ्रष्ट नहीं कहे जाते, किंतु जो साधुपद ग्रहण करके अपने कर्तव्य से च्युत रहता है वह तो पतन की ओर ही जा रहा है। जो साधु चारित्र से गिर गया है वह पतित है और जो साधु चाहे बाह्य चारित्र को भी पाल रहा हो, लेकिन श्रद्धा से गिरा है, अपने आचार्यजनों पर श्रद्धा नहीं है, वहाँ त्रुटियां ही त्रुटियां निरखता है, कल्पना करकरके उनकी रचनावों को झूठी साबित करता है और उनको बदलबदलकर उसी रचना के नाम से प्रचार करता है वह तो महापतित है। जो चारित्र से भ्रष्ट हुआ है वह तो अपने लिए ही भ्रष्ट हुआ है किंतु जो आचार्य की कृतियों को झूठी कहकर हम उनकी गलती सुधारने के लिये पैदा हुए हैं, यों मान करके नये-नये ग्रंथ बनाकर जगत में प्रचार करता हो तो वह जगत के लोगों का भी अकल्याण करता है। उसके व्यवहार आवश्यक ही कहां रहा है?
भ्रष्ट श्रमण से जनता का अलाभ―व्यवहार आवश्यक में प्रथम आवश्यक है समतापरिणाम रखना, रागद्वेष न करना। जिसे अपने शरीर में भी परिग्रहबुद्धि नहीं है वह बाह्यपरिग्रहों का क्या लाभ करेगा? जो समता से च्युत है वह चारित्र से भ्रष्ट है। साधुजन लोकों के मार्गदर्शन के लिए आदर्शरूप होते हैं। जनसमूह साधुवों की चर्या, साधुवों की निष्ठा, साधुवों का उपदेश पाकर अपना कल्याण करते हैं। साधुजन इसी कारण वंदनीय हैं कि जनसमूह उनसे अपनी उन्नति का मार्ग पाते हैं। जो स्वयं ही समता से च्युत हो, रागद्वेष पक्षों से जो स्वयं ही भरा हुआ है वह तो अपने कल्याण से भी भ्रष्ट है। साधुपद में ज्ञान,ध्यान और तपस्या―ये तीन मुख्य कर्तव्य बताये गये हैं, इनकी ओर तो दृष्टि भी न हो व जो अन्य कुछ विडंबनाएँ पेश करके समाज में फूट डाले अथवा अपने आत्मकल्याण की ही दृष्टि न रख सके, न आत्मकल्याण का अवसर पा सके, मौजों में ही अपना समय गुजारे, वह चारित्र से भ्रष्ट है।
वंदनानामक आवश्यककर्म से च्युत होने में चारित्रभ्रष्टता―द्वितीय आवश्यक है वंदना। विषयलोलुप, कीर्तिलोलुप साधु किसी अन्य आत्मा को, देव को अथवा गुरु को महान् नहीं मान सकता है। वह तो अपने ही गर्व में फूला रहता है, वह चारित्र से भ्रष्ट है। अपने देव,शास्त्र,गुरु में अपना तन,मन,धन न्यौछावर कर देना, यह उनसे ही बन सकता है जिनका होनहार अच्छा है। यह सारा जगत असार और अहित रूप है। यहाँ जो कुछ भी समागम मिला है वह अभिमान के योग्य नहीं है। किस पर अभिमान करना? कौनसी वस्तु सारभूत है? ये बाह्य जड़ संपदा तो प्रकट भिन्न हैं, छूट जाने वाले हैं। ये सब मायारूप हैं, थोड़े समय में ही छूट जाने वाले हैं। जैसे नाटक में भेष धारण करते हैं पात्र,थोड़ी-थोड़ी देर में अपना भेष बदलते हैं,ऐसे ही संसार के सभी जीव भेष बदलते रहते हैं। हम आप आज मनुष्य भेष में हैं, कुछ समय बाद उस भेष को छोड़कर नया भेष रक्खेंगे। ये सब मायारूप हैं, इन पर क्या इतराना?
विनेयता में ही लाभ―भैया ! आपने ज्ञान भी क्या पाया है? केवलज्ञान के समक्ष तो गणधरों का भी ज्ञान न कुछ है और उन गणेशों के ज्ञान के सामने तो अन्य विद्वान् साधुवों का भी ज्ञान न कुछ है। जहाँ द्वादशांग का निरूपण किया गया है उसे जब सुनते हैं, जब विचारते हैं तो ऐसा लगता है कि आज कोई अनेक भाषावों का भी विद्वान् हो जाय, अनेक ग्रंथों का, विषयों का विद्वान् हो जाय तो भी वह ज्ञान द्वादशांगसमुद्र में बूँद बराबर है। यह तो श्रुतज्ञान की ही बात कही जा रही है। कौनसा ज्ञान ऐसा पाया है जो गर्व करने के लायक हो? जो अपनी कला पर गर्व करते हैं उन्हें अपने आपकी सुध नहीं है। गर्व करने से कहीं उन्नति नहीं होती है, वह तो अमनोज्ञ हो जाता है, लोक में प्रिय नहीं रहता है। अपने में अधिक से अधिक नम्रता बतावो, अपने को न कुछ समझो और न दर्शावो। और कुछ समझो तो सबसे महान् स्वभावरूप में अपने को समझो। केवल पायी हुई परिणति के कारण अपने को महान् मत समझो। ये तो मिट जाने वाले तत्त्व हैं। जिनमें नम्रता होगी वही वंदना कर सकता है। वंदना करने में अनेक पापों का क्षय हो जाता है।
स्तुतिभ्रष्टता में चारित्रभ्रष्टता-प्रभु की स्तुति वह पुरुष क्या करे जो स्वयं अपनी स्तुति का अभिलाषी बना हुआ है। जिसे अपने ही वर्तमान भेष पर नखरा हो रहा है वह साधु व्यवहार से भी चारित्र से भ्रष्ट है, वह स्तुति नहीं कर सकता। जिसमें पवित्रता हो, नम्रता हो, गुणों की दृष्टि हो, गुणग्राहिता का स्वभाव हो, वही साधु स्तुति कर सकता है। जो व्यवहार स्तुति से भी भ्रष्ट है वह व्यवहार से भी चारित्र से भ्रष्ट है।
प्रतिक्रमणभ्रष्टता में चारित्रभ्रष्टता―प्रतिक्रमण अथवा प्रत्याख्यान―परवस्तुवों का त्याग है। एक शुचि,संयम,ज्ञान के उपकरण के सिवाय अन्य किसी उपकरण को न रखना, हिंसासाधक खटपट साथ में न रखना और अपने भाव में भी त्यागपरिणाम बनाये रहना, यह है प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान। जो इस त्याग से भी पतित हो गया है, लोकरंजना के अर्थ अथवा अपनी महत्ता जाने के अर्थ नाना आडंबर साथ रखे हो, नाना संग हो तो वह साधु व्यवहारचारित्र से भी भ्रष्ट है।
स्वाध्यायभ्रष्टता―स्वाध्याय भी बहुत आवश्यक कार्य है। जो इतनी झंझटों में पड गया हो कि स्वाध्याय न कर सके, उसके लिए अवकाश ही नहीं है, वह केवल बाह्य जगजाल प्रपंच में ही अपना समय बिता रहा है, ऐसा साधु व्यवहारचारित्र से भी भ्रष्ट है।
कायोत्सर्गभ्रष्टता में चारित्रभ्रष्टता―कहां तो यह कर्तव्य बताया है कि शरीर तक के भी ममत्व न रक्खो। यही है कायोत्सर्ग नाम का आवश्यक कर्म। शरीर की तो बात जाने दो, उसका तो राग बना ही हुआ है, अपना घरपरिवार छोड़कर जनता में एक अपनी पार्टी का परिवार बनाए और उनको राग का विषय बनाकर अपना मौज माने,ऐसा साधु व्यवहार से भी चारित्र से भ्रष्ट है। यह बात इसलिए कही जा रही है कि आत्मा की उन्नति की कामना यदि है तो हमें परमावश्यक पुरुषार्थ का सुपरिचय होना चाहिये। करने योग्य वास्तविक क्या काम है, इसका जब तक परिचय न आये तब तक उन्नति नहीं कर सकते हैं। निश्चय से तो निर्विकल्प समाधिभावरूप वर्तना ही परमआवश्यक काम है, अन्य कुछ आवश्यक नहीं है। शेष सब अनावश्यक हैं। जैसे किसी को कोई मकान बनवाना है तो उस प्रसंग में सीमेन्ट, नौकर, परमिट आदि के अनेक प्रसंग करने होते हैं, पर उद्देश्य केवल एक है कि मकान बनवाना है। तो उसका मूल उद्देश्य एक है और शेष है मूलसाधक उद्देश्य। यों ही साधुसंत जनों का मूल उद्देश्य एक निश्चय परम आवश्यक भाव है, इस भाव की साधना के लिए व्यवहार में समता आदिक 6 आवश्यक बताये गए हैं।
निश्चयचारित्रभ्रष्टता―भैया ! व्यवहार चारित्र में रहकर व्यवहार चारित्र से अतीत निश्चय चारित्र की दृष्टि हो तो वहाँ मोक्षमार्ग चलता है। जैसे जो व्यवहार के षट् आवश्यक से परिहीन है उसे व्यवहार से भी चारित्रभ्रष्ट कहा है। ऐसे ही जो साधु निश्चय से निर्विकल्प समाधिभाव में रहनेरूप, शुद्ध ज्ञाताद्रष्टा रहनेरूप, रागद्वेष न करके केवल जाननहार बने रहने रूप परमआवश्यक से रहित है वह श्रमण निश्चयचारित्र से भ्रष्ट है। तीर्थंकर प्रकृति के बंधक भावों में एक आवश्यकापरिहाणि भावना कही गयी है। चतुर्थगुणस्थानवर्ती मनुष्य भी तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर सकते हैं, उसके भी आवश्यकपरिहाणि भावना है। जब अविरत सम्यग्दृष्टि के भी निर्दोष भावना बन रही है, फिर पुरुष श्रमण होता है उसे अपने आवश्यकपरिहाणि की इच्छा नहीं होती हो, वह स्वच्छंद रहे, अपना यह अमूल्य समय यों ही खो दे तो उसे चारित्रभ्रष्ट कहना युक्त ही है।
श्रमण की द्विजता―श्रमण का नाम द्विज है। द्विज नाम साधु का है। जो दूसरी बार उत्पन्न हो उसे द्विज कहते हैं। पहिली बार तो वह अपनी माँ से उत्पन्न हुआ है जिससे उमर का हिसाब लग रहा है, पर जो पुरुष परमवैराग्यबल से समस्त परिग्रहों को त्यागकर, आरंभ को छोड़कर, सब प्रकारकी ममतावों का परिहार करके, देह तक की भी ममता न रखकर केवल आत्मसाधना के लिए दीक्षित हुआ है उसका दूसरी बार जन्म हुआ है। और जैसे शरीर का दूसरी बार जन्म हो जाय तो पहिले जन्म का संस्कार,वासना,करतूत,आदत नहीं रहती है। कोई मनुष्य है और वह मरकर बन गया घोड़ा तो,घोड़ा बनकर अब उसकी आदत में,उसके संस्कार में मनुष्य जैसी क्रियाएँ कैसे हो सकती हैं? कोई घोड़ा मरकर आज मनुष्य हो गया है तो वह मनुष्य घोड़ा जैसा हिनहिनाए, चार टांगों से चले,ऐसा नहीं हो सकता है। तो जैसे दूसरा जन्म होने पर पहिले जन्म की प्रवृत्ति नहीं रहती है और इस ही प्रकार साधु हो जाने पर गृहस्थावस्था की प्रवृत्ति नहीं रह सकती है। उसका तो दूसरा जन्म हो गया है। ऐसे द्विज,साधु,श्रमण के अब सर्वप्रकार के मोहरागद्वेष आदिक दूर हो गए हैं और यह परमावश्यक परिणति में चल रहा है, ऐसा जो स्ववश मुनि हो, अपने आत्मवश हो, किसी भी परद्रव्य के अधीन न हो वह श्रमणश्रेष्ठ जगत में वंदनीय है।
निरपेक्षता में साधुता व सापेक्षता में चारित्रभ्रष्टता―साधु को किसी भी परद्रव्य की अपेक्षा में नहीं रहती है। वे साधु ऐसा नहीं सोचते कि मेरे विहार का साधन ठीक नहीं है। अरे ! वे तो विहार के मामले में चिड़ियों की तरह हैं, आखिर अकेले ही तो हैं, जैसे चिडियां के चित्त में जब आया तो पंख पसारकर उड़ गयी और कहीं जाकर बैठ गई, ऐसे ही साधु के चित्त में जब आया तो ईर्यासमिति से चल दिया। उसके कुछ अपेक्षा नहीं है, किंतु यदि ममता बसी हुई है अब अपेक्षा आ जाती है। संग में रहने वाले जो लोग हैं वे साधु की परवाह करें या साधु उनकी परवाह करे?हाँ, संग में रहने वाले चूंकि वे साधुभक्ति से रह रहे हैं इसलिए वे साधु की परवाह करते हैं, किंतु कोई साधु अपने संग के लोगों की ही चिंता रखे, उनका ही परिग्रह अपने सिर पर यदि लादे फिरता है तो उस साधु का व्यवहारचारित्र भी भ्रष्ट कहा गया है। अरे ! साधु तो हुए हैं स्वात्माश्रित धर्मध्यान के लिए, लेकिन अभी अपने नाम की वासना का संस्कार बना है ऐसा साधु व्यवहारचारित्र से भी भ्रष्ट कहा गया है। जो अपने आत्मा के आश्रय से होने वाले निश्चयधर्मध्यान और निश्चयशुक्लध्यान को करता है, जो परम ज्ञातृत्वरूप पुरुषार्थ में उद्यमी है,वही परम मुनि है।
यथार्थ मुनि―मुनि उसे कहते हैं जो अपने आत्मा का मनन करता रहे। केवल भेष मात्र से मुनि नहीं कहलाता। हाँ, जो मुनि होगा, परममुनित्व पायेगा, उसको निर्ग्रंथ अवस्था में तो आना ही पड़ेगा। उसके चित्त में जब किसी भी परवस्तु की ममता नहीं रही तो कहां उसके वस्त्र रहेंगे, कहाँ घर रहेगा, कहां किसी अन्य विषयसाधनों का समागम रहेगा। उसकी स्थिति निर्ग्रंथ दिगंबर की होगी ही। लेकिन कोई जानबूझकर विषयसाधना की दृष्टि रखकर यह दिगंबर भेष रखकर माने कि मैं मुनि हूँ तो वह आत्मदर्शन नहीं कर सकता है,तब तक उसके मुनित्व नहीं होता है। मुनिजन अंतर्मुहूर्त बाद छठे और सातवें आते जाते रहते गुणध्यान में हैं। छठा गुणस्थान है एक शुभ विकल्प वाला, जिसमें धर्मविषयक विकल्प चलते हैं और सातवां गुणस्थान निर्विकल्प है,जिसमें कोई भी विकल्प नहीं होता है,निर्विकल्प अवस्था होती है। अंतर्मुहूर्त याने इन दोनों गुणस्थानों के प्रसंग में मिनट-मिनट में वे निर्विकल्प बनते हैं। जो ऐसी प्रमत्त और अप्रमत्त दशा में झूला करता है वह श्रमण साधु पुरुष आत्ममनन किया करता है। वह परम मुनि है।
प्रकृत शिक्षा-यहाँ आचार्यदेव की यह शिक्षा है कि हे मुनिजनो !आत्मवश बनो। तुमने अध्यात्मयोग का सत्य आग्रह किया है, अपने आपमें अपने उपयोग को जोडने का दृढ़ निश्चय किया है, अब इस निश्चय आवश्यक का जो क्रम है, पद्धति है उस पद्धतिपूर्वक अपने आत्मा का ही ध्यान बनाकर धर्मध्यान और शुक्लध्यानपूर्वक इस आवश्यक कर्म को करो।इस आत्मा का करने योग्य कार्य केवल एक यह ही है, अपने को देखनाजानना और अपने आपमें समा जाना, इस ही का नाम मोक्षमार्ग है, शांति है, परम संतोष है।
उपासक का कर्तव्य―श्रावकजन जो ऐसा भी नहीं कर पा रहे हैं उनकी भी दृष्टि यही करने की रहती है अन्यथा वे उपासक नहीं कहला सकते हैं। गृहस्थ का नाम उपासक है। गृहस्थ का नाम श्रावक भी है। उपासक उसे कहते हैं जो इस परमतत्त्व की उपासना करे। परमतत्त्व जहाँ प्रकट होता है ऐसा मुनि पद पाने की भावना बने, उसे उपासक कहते हैं और श्रावक कहते हैं। अपने इस गृहस्थपद में जो करने योग्य कार्य हो उसमें सावधान बना रहे उसे श्रावक कहते हैं। इस आत्मा को करने योग्य आवश्यक काम केवल एक यह आत्मज्ञान, आत्मदर्शन और आत्मरमण है। यही समस्त पापसमूहों को हरने वाला है, मोक्ष का कारणभूत है। जो जीव अपने आपकी संभाल कर लेता है वह अपने इस ज्ञानरस की उपासना से पवित्र होता हुआ ऐसे शाश्वत शुद्ध आनंद को प्राप्त करता है जो वचनों के अगोचर है, वाणी जिसको कहने में असमर्थ है। पूर्ण निराकुल शांतस्थिति को प्राप्त हो जाता है शांति के अर्थ करने योग्य काम यही आत्मानुभव का है।
धार्मिक प्रयत्नों में मूल पुरुषार्थ-भैया ! हमारे सब धार्मिक प्रयत्नों का उद्देश्य एक आत्मानुभव के लिए होना चाहिए। अपना कर्तव्य है कि इस मोहजाल को ढीला करके ज्ञानार्जन की दशा में हम अपना कदम बढायें। मैं क्या हूं? जो सहजस्वरूप वाला है उसकी चर्चा करें, उसकी ही दृष्टि के लिए अपनी परिणति बनाएँ, यह काम एक ठोस काम है आत्मा की भलाई के लिए। इस विशुद्ध और अमोघ पुरुषार्थ के लिए हम अपना मनुष्य जीवन समझें। विषयों के भोगने के लिए अपना जीवन कतई न मानें। वह तो विपत्ति है, विडंबना है। विषय भोगों के लिए हमने मनुष्य जीवन नहीं पाया है किंतु अपने उद्धार के लिए पाया है, ऐसा निर्णय करके अपने ज्ञानस्वरूप के ज्ञान का ही उपयोग बनायें, इससे ही अपने आपकी वास्तविक भलाई है।