वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 152
From जैनकोष
पडिकमणपहुदिकिरियं कुव्वंतो णिच्छयस्स चारित्तं।
हेण हु विरागचरिए समणो अब्भुट्ठिदो होदि।।152।।
विरागचारित्र में अभ्युत्थान―जो श्रमण निश्चय से प्रतिक्रमण आदिक क्रियावों को करता रहता है, अपने निश्चयचारित्र में प्रगतिशील रहता है वह श्रमण वीतराग चारित्र में अभ्युत्थित रहता है। इस गाथा में ऐसे परमतपस्वी का स्वरूप कहा गया है जो परमवीतराग चारित्र में रहा करता है। अभ्युत्थित नाम है अपने आपमें सब प्रकार से उत्कृष्टरूप से वर्तते रहने का। अभ्युत्थित में तीन शब्द हैं, अभि उत् और स्थित। अभि और उत् तो उपसर्ग हैं और स्थित ‘ष्ठा गतिनिवृत्तौ’ धातु में प्रत्यय लगाकर बनता है। स्थित का अर्थ है ठहर जाना, उत् का अर्थ है उत्कृष्टरूप से, अभि का अर्थ है सर्व ओरसे। अपने आपके आत्मप्रदेश में सर्व ओर से सर्वप्रकार उत्कृष्टरूप से ठहर जाना―इसका नाम है अभ्युत्थित।
अपुनर्भव की आकांक्षा व प्रयत्न―जो वीतराग श्रमण निश्चयप्रतिक्रमण आदिक क्रियावों में रहता है वह वीतराग चारित्र में ठहरा हुआ होता है। यह परमतपोधन समस्त ऐहिक व्यापारों से विमुख है, इस जीवनसंबंधी, इस लोकसंबंधी जो आरंभ,परिग्रह आदिक चेष्टाएँ हैं उन सब चेष्टावों से दूर है। वह साक्षात् मोक्ष का आकांक्षी है, अपुनर्भव की स्थिति का ही अभिलाषी है। मोक्ष नाम छूट जाने का है। देह के बंधन से, कर्म के बंधन से छुटकारा होने का नाम मोक्ष है। अपुनर्भव नाम फिर से जन्म न लेने का है। न: पुन: भव:, ये तीन शब्द है। न का अ हो गया। फिर से भव न हो उसका नाम अपुनर्भव है। सिद्धि नाम शुद्ध यथार्थ केवल आत्मा की प्राप्ति हो जाना है। निर्वाण का अर्थ है समस्त विपत्ति, विडंबना,संकटजाल इन सबका बुझ जाना, नष्ट हो जाना। जो पुरुष इस मोक्षस्थिति का अभिलाषी है वह पुरुष निश्चयप्रतिक्रमण आदिक सत् कार्यों को करता हुआ रहता है।
निश्चय प्रतिक्रमण का अधिकारी―निश्चयप्रतिक्रमण आदिक वही पुरुष कर सकता है जिसने समस्त इंद्रियों का व्यापार त्याग दिया है। जो इंद्रियविषयों का लोभी है वह निर्दोष आत्मतत्त्व में कहाँ ठहर सकता है? अपने आपमें रीते होकर बाहर में आशा बनाकर यह जीव इंद्रियविषयों में तेज दौड़ लगा रहा है, यह अपने आपको भूल गया है, इसने समस्त इंद्रिय व्यापारों को ग्रहण कर लिया है, कहाँ इसके निश्चयप्रतिक्रमण संभव है? प्रतिक्रमण का अर्थ है अपने आपके दोषों को दूर कर देना, यहाँ प्रश्न हो सकता है जब दोष दूर हो जाते हैं तब प्रतिक्रमण की क्या जरूरत है और प्रतिक्रमण फिर किसका नाम है? दोष दूर हो जाना, यह तो धर्म का फल है। दोष दूर कैसे किए जायें, इसका उपाय यह है कि आत्मा का जो शुद्धस्वरूप है, जिसमें किसी प्रकार के दोष नहीं हैं, ऐसे निर्दोष अंतस्तत्त्व का उपयोग करना, यही निर्दोष होने का उपाय है।
शुद्ध कुल का स्मरण―जैसे किसी बालक में सज्जनता और सभ्यता से रहने,उठने,बैठने का कारण यह बनता है कि उस बालक की यह बुद्धि बनी है कि मैं बड़े कुल का हूँ,सज्जन घराने का हूँ,मुझे ऐसा ही करना योग्य है और कदाचित् कभी वह बालक कुछ उद्दंडता करता है तो समझने वाले लोग उसे यों ही समझाते हैं कि देख तू बड़े घराने का है, उच्च कुल का है, तुझे उद्दंडता न करनी चाहिए, तो वह उद्दंडता नहीं करता। इसही प्रकार जोमुझमें रागद्वेष वर्त रहे हैंये मुझमें न आयें, इसका मूल उपाय यह है कि में अपने को दोषरहित समझ सकूँ। यह मैं आत्मा जो अपने स्वरूप से सत् हूँ,अपने स्वरूप के कारण केवल ज्ञानप्रकाशमात्र हूँ,इसका व्यापार केवल ज्ञाताद्रष्टा रहने का है, इसमें रागद्वेष कोई कलंक नहीं हैं, ऐसा अधिकाधिक उपयोग द्वारा स्वीकार करे तो ये दोष इसमें ठहर न सकेंगे।
स्वभाव का आत्मसात्करण―प्रतिक्रमण में यह साधक पुरुष अपने को शुद्ध ज्ञायकस्वरूप निरख रहा है। मैं तिर्यन्च नहीं, मनुष्य नहीं, देव नहीं, नारक नहीं, मैं तो केवल जाननहार ज्ञायकस्वरूप हूँ,यह मैं अपने आपको सहज चैतन्यविलासमात्र ही अनुभव करता हूँ,मैं अपने को अमुक नाम वाला अथवा अमुक जाति कुल का नहीं पाता हूँ, हूँ ही नहीं मैं अन्य किसी रूप, ये सब परतत्त्व हैं, पौद्गलिक चीजें हैं, मायारूप हैं, मैं तो शुद्ध ज्ञानमात्र हूँ,जो ऐसा स्वीकार करता है उसमें सम्मान,अपमान,विषय-कषाय इत्यादि कोई कलंक नहीं बस सकते हैं। निश्चयप्रतिक्रमण में व्यवहार क्रियाकांडों का कोलाहल नहीं है। भले ही विषयकषायरूप बाधा में संभावना तक ये बाह्य क्रियाकलाप चलते हैं और चलना चाहिए, किंतु जिसकी दृष्टि केवल क्रियापलाप तक है, इस ओर दृष्टिनहीं है कि मुझे निर्विकल्प ज्ञायकस्वरूप का आश्रय लेना चाहिए तो उसके क्रियाकांड मोक्ष का फल नहीं दे सकते हैं।
शांति का एकमात्र उपाय―प्रतिक्रमण का अर्थ है प्रतिक्रांत कर देना, दूर हटा देना। यह आत्मा जो अनादिकाल से रागद्वेषों से सनता चला आया है उसे रागद्वेष हटाने के लिए पुरुषार्थ करना होगा, अपने स्वरूप का यथार्थ भान करना होगा। शांति का तरीका एक ही है, विभिन्न नहीं होते हैं और वह उपाय इस निर्दोष ज्ञायकस्वरूप शुद्ध परमब्रह्म का आश्रय है। इसको छोड़कर अन्य जितने भाव हैं उनमें यदि कोई शांति समझता है, सुख जानता है तो उसका अर्थ यह लेना चाहिए कि किसी विशिष्ट उपयोग के कारण कुछ बड़ी आकुलताएँ दूर हुई हैं। शांति तो वस्तुत: शांत स्वभाव के आलंबन बिना नहीं प्रकट होती है। जैसे किसी पुरुष के 104 डिग्री बुखार है और उतर कर 100 डिग्री रह जाय तो तबीयत का हाल किसी के पूछने पर वह कहता है कि अब तबीयत अच्छी है। वस्तुत: अभी बुखार है, पर उस बड़ी वेदना की अपेक्षा अब कम वेदना है इसे वह कहता है कि अब तबीयत अच्छी है, ऐसे ही यहाँ किसी को शांति नहीं है, पर वह शांति मानता है तो उसका मतलब है कि उसने किसी बड़ी आकुलता से विराम पाया है।
आत्मा की प्रत्याख्यानमयता―यह श्रमण एक शुद्ध अंतस्तत्त्व का अनुभव होने के कारण नित्यप्रतिक्रमणरूप रहाकरता है और जो प्रतिक्रमणरूप रहता है वह निश्चय प्रत्याख्यानरूप भी सदा रहता है। प्रतिक्रमण में जैसे अतीतदोष का स्वीकार नहीं है इस ही प्रकार इस भावना में यह भी भरा हुआ है कि मुझमें भविष्य में कदाचित् भी कोर्इ दोष नहीं आ सकता है। यह मैं सदा काल ही ज्ञायकस्वरूप रहूंगा। यों भविष्य काल के समस्त दोषों का प्रत्याख्यान इस स्वभाव की आराधना करने वाले के सहज चल रही है। उसकी यह दृढ़ श्रद्धा है। जो चीज मेरे स्वरूप में नहीं है वह कभी भी मुझमें नहीं आ सकती है और जो मेरे स्वरूप में है वह कभी अलग नहीं हो सकता है। केवल उपाधिजन्य जो परभाव की भावभासना है उसे अपना यह उपयोग अंगीकार करता है तब इसकी विचित्र दशाएँ हो जाया करती हैं। वस्तुत: यह जीव न रागद्वेषादिक मलिनतावों से सहित है और न कभी हो सकेगा। ये पुराण पवित्र पुरुष अपने आपको सर्वत्र एकांकी ज्ञानस्वरूप ही निरखते रहे हैं। ये व्रत करें, ध्यान करें, सभी साधनावों में इनका लक्ष्य केवल एक शुद्ध ज्ञानस्वरूप का आश्रय करना रहा है। व्यवहार प्रतिक्रमण में अतीत दोषों के छोड़ने की भावना की जाती है, किंतु यह जानना कि सर्वस्थितियों में मूल औषधि,मूल आलंबन अपने ज्ञानस्वरूप का आश्रय लेना है।
श्रामण्यभाव-इस श्रमण के समस्त जीवों में समता परिणाम रहता है, किसी के प्रति भी बैरविरोध की इसके भावना नहीं जगती है। यह श्रमण जो प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान करने में सफल हो रहा है उसका साधन है परमआलोचना। आलोचना नाम है जो नहीं है उसे अलग करना और जो है उसे ग्रहण करना। ऐसी ही दृष्टि का, चेष्टा का नाम आलोचन है। आँख से लोचन शब्द बना है। लोचन का अर्थ है आँख। आँख क्या करती है? जो बात नहीं है उसे हटा देती है और जो बात है उसे स्वीकार कर लेती है याने जो नहीं है उसे हटाती है और जो है उसे देखती है। यह आत्मतत्त्व अपने स्वरूप से अपने सत्त्व के कारण अपने स्वभाव में यह केवल निराकुल ज्ञानमात्र है। कर्मों के उदय का निमित्त पाकर होने वाले विभावों से यह आत्मतत्त्व न्यारा है, यह प्रज्ञा द्वारा छेदन हो रहा है। यद्यपि वर्तमान में विभावों का परिणमन इस आत्मा में तन्मयरूप से है फिर भी स्वभाव की दृष्टि करके निरखा जाय तो यहाँ भी भेद हो जाता है। इन समस्त विभावों से भिन्न अपने आपके ज्ञायकस्वरूप का आलंबन करना सो आलोचना है। इस ही आलोचना के आधार पर निश्चयप्रतिक्रमण और निश्चयप्रत्याख्यान होता है।
शुद्धनयप्रायश्चितरूप आत्मक्रांति―भैया ! यह चल रहा है अंतरंग चारित्र का वर्णन। यह ज्ञानमात्र आत्मा ज्ञानरूप परिणमता रहता है। इसका करना सब कुछ ज्ञान द्वारा होता है। यह तो अमूर्त ज्ञानप्रकाशमात्र है। तो इस निज ज्ञानस्वरूप में ज्ञान द्वारा ही वर्तते रहना, यही इसका काम है। इस निश्चय आलोचना में यह जीव अपने आपको समस्त विभावों से रहित निरख रहा है। यों भूत विषय और वर्तमान के दोषों से अत्यंत दूर रहने वाले आत्मतत्त्व के निरखने में ये निश्चयप्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और आलोचना के पुरुषार्थ होते हैं। कुछ इसमें क्रांति जगती है तो वह शुद्ध निश्चय प्रायश्चित्त का रूप ग्रहण कर लेती है। भेदविज्ञान के प्रबलसाधन से और शुद्धस्वरूप की प्रबल आराधना से इन क्रोधादिक विषयकषायों का निग्रह कर देना, दूर कर देना, यह हैनिश्चयप्रायश्चित। क्षमा से क्रोध को हटा देना, नम्रता से मान को खत्म करना, आर्जव से सरलता से कपट को दूर करना और निर्दोष आत्मस्वभाव के आश्रय से,संतोष परिणाम से लोभ को समाप्त कर देना, यह है शुद्धनय प्रायश्चित्त का क्रांतिपूर्ण कदम।
उत्कृष्ट बोध में निश्चय परमावश्यक―जिस मुनि के परम उत्कृष्ट बोध होता है, जो अपने चित्त को अपने उपयोग में जोड़ता है उसके यह प्रायश्चित्त स्वयं होता है। इसमें आत्मस्वरूप का तो आलंबन है और समस्त परभावों का परिहार है। मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति से अपने आपके स्वरूप में निश्चल स्थित होना इसमें सब अपराधों का प्रायश्चित्त हो जाता है। यों यह श्रमण निश्चयप्रतिक्रमण आदिक षट् क्रियावों के द्वारा अपने आपको उपयोग में ठहराता हुआ रह रहा है और ऐसी वर्तना ही निश्चय परमावश्यक है। निश्चय से परमार्थ से,मेरे करने योग्य काम क्या है, इसके वर्णन में कहा जा रहा है अपने दोषों को दूर करना और गुणों का स्वीकार करना यही है परमावश्यक काम। इस परमावश्यक काम के फल में इस जीव के परमसमता प्रकट होती है और समतापरिणाम में ही परमनिर्वाण की योजना बसी हुई है।अपने आपके शुद्धस्वरूप का मनन कर लेना, यही है परमभक्ति। इन सब सत् क्रियावों का फल सर्वसंकटों से पृथक् हो जाना है। जो पुरुष निश्चयप्रतिक्रमण आदिक सत् क्रियावों को करता हुआ रहता है उस पुरुष का वीतराग चारित्र में ठहरना हो जाता है। अपने स्वरूप में विश्राम ले लेना यह ही वीतराग चारित्र है।
स्वरूपविश्राम का पुरुषार्थ―स्वरूप में विश्राम लेने वाला पुरुष भेदविज्ञान की छेनी से इन रागादिक भावों से अपने को न्यारा करता है, फिर उस निजस्वरूप में निज उपयोग को बसाता है। उस समय इसकी एक अभेद स्थिति होने लगती है। ध्यान, ध्याता, ध्येय का भी विकल्प नहीं रहता, गुण गुणी की भी कल्पना नहीं रहती। जैसे धर्मादिक द्रव्य परिणमते हैं, परिणम रहे हैं ऐसे ही यह पवित्र आत्मा भेदभाव न लेकर अपने शुद्ध चैतन्यस्वरूप मेंस्थित रहता है। यों स्वरूप में विश्राम लेने रूप परमवीतराग चारित्र में यह परम तपोधन ठहरता है, इसके ही निश्चय से परम आवश्यक काम होता है। जिस पुरुष ने मोह को दूर किया है, दर्शनमोह और चारित्रमोह दोनों प्रकार की बेहोशियां जिसके नहीं रही, जो अपने ज्ञानस्वरूप में सजग निरंतर समरूप से बना रहता है वह आत्मा संसार को उत्पन्न करने वाले, संसार भव से उत्पन्न होने वाले जो इंद्रिय सुख हैं, काल्पनिक विषय सुख हैं उनसे हटा हुआ है और उन सुखों के कारणभूत इन पुण्यकर्मों से भी हटा हुआ है। जो क्रियाकांडों से निवृत्त हुआ केवल एक ज्ञानक्रिया को करता है वह निर्मल चारित्र में स्थित है।
परमगुणग्रहण―यह आत्मा ज्ञान का पुंज है और इसका ज्ञानरूप ही वर्तते रहने का स्वभाव है इस कारण चारित्र का भी पुंज है। जो पुरुष इस समतारस को निरंतर विकसित करता रहता है, इस समरस पान से निरंतर तृप्त रहा करता है ऐसे योगीश्वर महात्मा को हमारा भावपूर्वक वंदन हो। हम जितना गुण ग्रहण का भाव रक्खेंगे उतना ही हम उन्नत हो सकेंगे। दोषग्रहण का भाव रखकर अपने उपयोग को दूषित करने में कोई लाभ नहीं है। योगी श्रमण निरंतर अनुग्रहण करने में ही निरत रहा करते हैं। अभेद चैतन्यस्वभाव भी एक परमगुण है, इसकी दृष्टि में यह परम आवश्यक कार्य हो रहा है जिसके प्रताप से यह समस्त संकटों से अवश्य ही दूर होगा।