वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 156
From जैनकोष
णाणाजीवा णाणाकम्मं णाणाविहं हवे लद्धी।
तम्हावयणविवादं सगपरसमयेहिं बज्जिज्जो।।156।।
वचनविवाद के परिहार का आदेश―पूर्व गाथा में यह बताया गया था कि जिनेंद्रदेव के परमागम में संसारमुक्ति के लिए जो प्रतिक्रमण आदिक निश्चय पुरुषार्थ बताये गये हैं उन परमावश्यक कार्यों को मौन व्रत सहित साधते रहना चाहिये। ऐसा सुनकर यह एक जिज्ञासा होती है कि मौन व्रत पर जोर क्यों दिया गया है? उस जिज्ञासा के समाधानरूप यह वर्णन चल रहा है। लोक में नाना तो जीव हैं और नाना प्रकार के उनके कर्म हैं, नाना प्रकार की लब्धियां हैं, इस कारण साधर्मीजनों के भी साथ और परधर्मी जनों के साथ भी वचन-विवाद तज देना चाहिए। समस्त वचन-व्यापारों को तज देने में कारण क्या है, उसका इसमें उपन्यास किया गया है।
वचनविवाद का परिहार करने का मुख्य कारण―जब जीव नाना प्रकार के हैं और उनके कर्मों के उदय भी नाना प्रकार के हैं और उनके जानने की योग्यताएँ भी नाना प्रकार की हैं तब फिर विवाद से कुछ सिद्धि ही नहीं है, विवाद से फायदा क्या मिलेगा? उनसे वचन-विवाद करने में अपने को लाभ कुछ नहीं है। इस कारण से सबके ही साथ वचनविवाद को त्याग देना चाहिए। किसी भी प्रसंग में विवाद करना लाभदायक नहीं होता है। जो श्रमण अपने आत्मकल्याण के साधनों में निरत हो रहे हैं उनका तो यह कर्तव्य है कि जिस वचन में राग अथवा द्वेष बढ़े ऐसे वचन यदि धर्मचर्चा के भी हों तो भी त्याग देने चाहिये। अन्य वचनों की तो बात ही क्या?
पर की संभाल में संभाल की असंभवता―जगत् के जीव नाना तरह के हैं। इस प्रसंग में जीवों को नाना प्रकार के कहने का मर्म यह हे कि प्रत्येक पदार्थ में उनका अपने-अपने उदय के अनुसार परिणमन होता है और ये परजीव मुझसे जुदा परिणमन करने वाले हैं। सभी पदार्थ यदि एकसा ही परिणमन करने वाले रहें तो भी अपनीकुछ गुंजाइश निकाल सकते हैं कि भाई चलो इसके अनुकूल ही चलने लगें, किंतु ये जीव तो नाना हैं और उनके परिणमन भी नाना हैं, तुम किस-किसके परिणमनों को संभालोगे? अपनी संभाल में ही सब संभाल होती है। दूसरे जीवों की संभाल करते रहने में कोई संभाल नहीं होती है। कैसे संभालोगे। जैसे जिंदा मेंढकों को कोई तराजू पर तौलना चाहे तो कैसे तौल सकेगा? एक रक्खे तो दूसरा फुदक जायेगा, उससे भी कठिन जगत् के जीवों की संभाल करना है। उन्हें अपने मन के अनुकूल बनाना और प्रसन्न रखना, यह बहुत कठिन बात है। कठिन क्या असंभव है, भले ही अपनी जैसी कषाय है वैसी ही कषाय दूसरे की मिल जाय, लेकिन ऐसी कषाय का मिलना कब तक रहेगा? सब जुदे-जुदे द्रव्य हैं, जुदी-जुदी परिणतियां हैं, भिन्न परिणमन हैं फिर तुम किसको अधीन बना हुआ कहोगे?
स्वयं की संभाल से वास्तविक संभाल―भैया ! खुद को ही यदि निर्मल बना सके, सदाचार रख सके तो जगत् के जीव भी तुम्हारे अनुकूल चल सकेंगे। पर खुद तो रहें शून्य, विषयकषायों से लदे हुए और चाहें कि दूसरे जीव इस तरह परिणम जायें, यों बन जायें तो यह असंभव बात है। जीव नाना प्रकार के हैं। उनका परिणमन जुदा-जुदा है, तुम किसी के परिणमन के स्वामी नहीं हो। इस कारण दूसरों से वचनों का विवाद मत करो, अपनी-अपनी बात संभाल लो और अपनी संभाल के लिए जितना बोलना आवश्यक है उतना दूसरों से बोलो। धर्म की बात में भी धर्म की चर्चा करते हुए भी यदि ऐसी स्थिति आती है कि दूसरों को भी कुछ रोष होने लगे या अपने में ही रोष होने लगे तो तुरंत बोलना बंद कर दो, धर्मचर्चा भी न करो,यदि रागद्वेष हो रहा है तो। अन्य वचनों की बात तो दूर जाने दो।
विवाद का कारण अधर्मभाव―धर्मचर्चा करते हुए जब कभी भी कलह विवाद होने लगता है तो उसका कारण धर्मचर्चा नहीं समझें, किंतु धर्मचर्चा की ओट में अपने पक्ष की पोषणा का आशय है। मैं जो कहता हूँ वह ठीक कहता हूँ,ये जो चार आदमी सुन रहे हैं ये यह न महसूस करें कि हमारी बात गिर गयी। हम जिस बात का समर्थन करना चाहते हैं वह बात न गिर जाय, और कभी-कभी तो इस पर्यायबुद्धि में इतना बह जाते हैं कि मन से मान भी लेते हों कि मैं गलत बोल गया था, लेकिन जाहिर वह यही करेगा कि जो मेरा पक्ष है, जो मेरा कर्तव्य है वह ही यथार्थ है, रागद्वेष यहाँ तक बढ़ जाता है। धर्मचर्चा के मामले में भी यदि ऐसा द्वेष बढ़ता है तो इस प्रसंग में भी सधर्मी जनों को वचन-विवाद न करना चाहिए।
दुर्विपाक कषाय―धर्मचर्चा के प्रसंग में क्रोध होता है तो वह क्रोध उसका बड़ा अनर्थकारी है। धर्मप्रसंग में अभिमान करना सब अभिमानों से भी भयंकर है। धर्म के मामले में यदि छलकपट का परिणाम जगे तो दुकान या अन्य व्यवहारों में जो छलकपट होता है उससे भी अधिक भयंकर है और धर्म के प्रसंग में यदि लोभ जग रहा है तो वह लोभ अन्य लोभ के प्रसंगों से भी ज्यादा भयंकर है। जो उद्धार का उपाय है उसमें ही हम कषाय करने लगें तो उद्धार होगा कहाँ से? इसे तो अनंतानुबंधी कषाय कहते हैं। गृहस्थ पुरुष जो विवेकी हैं, घर दुकान व्यवहार के मामले में क्रोध भी कर लें, मान, माया, लोभ भी अपने-अपने समय में चलते हैं, उनके सामने धर्म के मामले में किए हुए क्रोध, मान, माया, लोभ यद्यपि छोटे जँचते हैं, लेकिन आत्मघातक शक्ति इनके अंतर में अधिक निहित है। धर्म में कषाय करने वाला विवेकी सम्यग्दृष्टि न होगा और घरगृहस्थी में बड़े-बड़े कषाय करके भी सम्यग्दृष्टि रह सकते हैं। जीव नाना प्रकार के हैं, उनका परिणमन उन उनके अधीन है, इसलिए किसी भी मनुष्य से वचन का विवाद मत करें।
अविवाद में दूरदर्शिता―मान लो आप कहीं घूमने जा रहे हैं, संकरा रास्ता है,एक ओरअच्छा और एक ओरकम चला रास्ता है। कोई देहाती मूड्ढ़ आपके सामने से आ रहा है, तो आप समझते हैं कि यह देहाती है, ना समझ है, अपढ़ है,इसे उस गंदे रास्ते से जाना चाहिए और ऐसे ही वह देहाती भी समझ ले कि इन बाबू जी को इस रास्ते से जाना चाहिए, ऐसा ही यदि दोनों हठ कर लें तो काम तो न बनेगा। विवेकी पुरुष तो दूरदर्शी होता है। वह दूर से ही रास्ता काटकर चल देगा। यदि न चले वह विवेकी रास्ता काटकर तो उसका कितना नुकसान है? उसका तो जबरदस्त अपमान हो जायेगा। वह सीधे साधे सरल स्वभाव से बचकर निकल गया तो इसमें उसका कुछ नुकसान नहीं है। यदि वहाँ वादविवाद हो जाय तो अपमान बना बनाया है। दूसरी बात समय खराब हो गया, तीसरी बात हृदय में कलुषता बढ़ गयी, चौथी बात यह बदला देने का अथवा नुकसान पहुंचाने का आगामी काल में भी वासना बन बैठेगी। वचनविवाद में नुकसान ही नुकसान है और एक थोड़ी दूरदर्शिता के कारणबचकर निकल जाय तो लाभ ही लाभ है।
वचनविवाद का अनवसर―भैया ! किससे वचनविवाद करते हो, जो हीन हैं, तुच्छ हैं उनसे तो वचनविवाद ऐसे ही न करना चाहिए। जो बड़े हैं उनसे वचनविवाद करना ही न चाहिए और जो अपने समान हैं उनसे वचनविवाद करने की चोट बड़ी गहरी बनेगी, फिर किससे विवाद करते हो? ये नाना जीव हैं, इनका परिणमन भिन्न है, हमारा उन पर कोई अधिकार नहीं है। हमने मनुष्य जन्म पाया है तो अपने आपमें अपने आपको संभालकर अपने कल्याण का काम बन जाना ही तो कर्तव्य है। इसी कारण इन योगीश्वरों को मौन व्रत के साथ आत्मकार्य की साधना के लिए कहा गया है।
सर्वपरितोषकर उपाय का अभाव―इन नाना जीवों के नाना प्रकार के कर्मों का उदय है, जिन उदयों से ये जीव भिन्न-भिन्न प्रकार की वांछाएँ रखते हैं, जब इच्छा न्यारी-न्यारी जुदी-जुदी है तो तुम किसको खुश कर सकोगे? एक ही समय है। माली चाहता है कि खूब पानी बरस जाय ताकि हमारा बाग़ खूब हरा भरा रहे और कुम्हार चाहता है कि खूब बादल साफ रहें, कड़ी धूप रहे ताकि हमारे बर्तन सूख जायें। अगर पानी न बरसे तो माली का बाग़ सूखा और अगर पानी बरस गया तो कुम्हार के मिट्टी के बर्तन फूटे। तो जिसके मन माफिक न हुआ वह परेशानी में पड़ जाता है।वहाँ तो निमित्तभूत से जैसा जो होना है हो जाता है।
सर्वपरितोषकर्ता के अभाव का एक दृष्टांत―एक बच्चों की कहानी प्रसिद्ध है कि बाप बेटा घोड़े को लिए जा रहे थे तो पहिले तो घोड़े पर बेटा बैठा। जिस गाँव से वे बाप बेटे निकले उस गाँव के लोग कहने लगे कि यह हट्टाकट्टा बैठा घोड़े पर चढ़ रहा है और बाप को पैदल चला रहा है। आगे चलकर बेटा बाप से बोला कि घोड़े पर आप बैठो हम पैदल चलेंगे क्योंकि लोग हमारा नाम धरते हैं। जब दूसरे गाँव से घोड़े पर बाप बैठा हुआ निकला तो लोग कहने लगे कि बाप तो हट्टाकट्टा बैठा है घोड़े पर, सुकुमाल बेटे को पैदल चला रहा है। आगे चलकर विचार किया कि चलो दोनों बैठकर चलें क्योंकि लोग नाम धरते हैं। तीसरे गाँव से दोनों उस घोड़े पर बैठे हुए निकले तो लोग कहते हैं कि मालूम होता है कि यह घोड़ा मांगे का है क्योंकि दोनों के दोनों हट्टेकट्टे इस पर बैठे हैं। आगे चलकर दोनों उतरकर पैदल चलने लगे तो चौथे गाँव के लोग कहते हैं कि ये दोनों बेवकूफ हैं, यदि पैदल ही जाना था तो घोड़े को लेकर क्यों चलते? अब बतावो वे और क्या काम करें? चार काम तो कर लिए। अब 5 वां काम क्या करें? क्या घोड़े को अपने कंधों पर ले जायें? तो किस किसको तुम खुश करोगे?
स्वहितदर्शन का कर्तव्य―यह बुद्धि तो बिल्कुल तज दो कि हम दूसरों को खुश करने के लिए काम करें। अपना धर्म देखो, अपनी शांति का उपाय देखो, जैसे में शांति मिले वैसा कार्य करो। हमारे ये रागद्वेष,विषयकषाय हट जायें, शुद्ध ज्ञानप्रकाश की प्राप्ति हो, वह काम करने का कर्तव्य है। इन जीवों के नाना इस प्रकार के कर्मों के उदय हैं तब भिन्न-भिन्न कर्मोदय के कारण उनमें भिन्न-भिन्न इच्छा होना अनिवार्य ही है, इस कारण भी तुम दूसरे जीवों से वचनविवाद करके अपना भला नहीं कर सकते हो।
सर्वतोषक वचनों का अभाव―और फिर देखो―जीव में नाना प्रकार की लब्धियां हैं जिससे यह जीव भिन्न-भिन्न प्रकार का ज्ञान रखता है। क्षयोपशम सबका जुदा-जुदा है। कोई किसी प्रकार जानता है,कोई किसी प्रकार जानता है,जीव के जानने की जातियां भी नाना प्रकार की हैं। जो कुछ भी आप दूसरों को समझावोगे वह उनके लिए फिट नहीं हो सकता। सबकी जुदी-जुदी योग्यता है। कभी-कभी तो कोई श्रोता वक्ता को यों परेशान कर देते कि आप कठिन बहुत बोलते हैं, कुछ सरल कीजिए और कोई लोग कहते हैं कि आप कहानी किस्से आदि ही कहते हैं, कोई तत्त्व की ठोस बात कहो। अब बतावो वक्ता क्या करे? जिसकी जैसी योग्यता है, जिसका जैसा क्षयोपशम है, कर्मों का उदय है वैसा परिणमन होता है। वचनविवाद करना व्यर्थ की चीज है। इस कारण जो परमार्थवेत्ता पुरुष हैं उनको न तो सधर्मीजनों से विवाद करना चाहिए और न अन्य धर्मात्मावों के साथ विवाद करना चाहिए।
साधर्मीहीलन की निर्जराहेतुता―कभी कोर्इ साधर्मीपुरुष अपना कितना ही अपमान करें तो समझो कि वह प्रसंग भी हमारे भले के लिए है। शास्त्रों में आया है कि सधर्मीजनों के द्वारा यदि हीलन, पराभव होता है तो वह कर्मनिर्जरा का कारण है। यदि कुछ समतापरिणाम हो सके तो कितना ही पराभव हो तो वह निर्जरा का ही कारण है। इसलिए जो विवेकी पुरुष होते हैं वे अपने-अपने विभाव की प्रकृति माफिक धर्मकार्यों को कर रहे हैं, अन्य जन तो कहने वाले नाना प्रकार के हैं, दोष देने वाले बहुत हैं। आप कोई सा भी काम करिये,किसी संस्था का कोई पद संभाले हो या किसी स्कूल,मंदिर आदि का कार्य करते हो तो इसमें दोष देने वाले बहुत मिलेंगे और कहीं-कहीं तो उनका पराभव भी होता रहेगा लेकिन यह पराभव, यह तिरस्कार, यह हीलन आदि समतापूर्वक सहने की क्षमता बन गयी और धर्मात्मावों में यह क्षमता रहती भी है तो वह तो कर्मों की निर्जरा करने वाली है।
परोपकार में भी स्वहित का लक्ष्य―भैया ! कुछ भी करो,वह आत्महित की दृष्टि से करो। मुझे अपना उपयोग विशुद्ध रखना है। घर,गृहस्थी,कुटुंबजनों के मोह में हमारा उपयोग विशुद्ध नहीं रह सकता। इस कारण दूसरे जीवों काउपकार करने लगें। जिनमें मोह है ऐसे घर की सेवा, स्त्रीपुत्र की सेवाखुशामद कौन मूढ़ नहीं करता है? उसमें पाप ही लगता है। उस पाप को धोने के लिए यह कर्तव्य है कि जिनमें हमारा मोह नहीं है, जिन्हें हम अपना कुटुंबी नहीं मानते ऐसे जनों की भी सेवा करने लगें, इससे वह पाप कटेगा। अन्य जनों की सेवाशुश्रूषा से इसने कितना आत्महित किया और जिनमें मोह बसा है उनकी सेवाशुश्रूषा से इसने अपना कितना अहित किया है, इस मर्म को विवेकी पुरुष ही समझ सकते हैं। तत्त्वज्ञानी पुरुष न तो सधर्मीजनों के साथ विवाद करते हैं और न अन्य धर्मी पुरुषों के साथ विवाद करते हैं। इस गाथा में जो तीन बातें कही हैं कि नाना जीव हैं, नाना कर्म हैं और नाना लब्धियां हैं उसके इस प्रकरण में यह भाव है कि वचनविवाद उनसे इस कारण नहीं करना चाहिए।
जीव, कर्म व लब्धियों का नानापन―अब भेदअभेद की दृष्टि से इसका अर्थ देखो। जीव नाना हैं, कोई मुक्त हैं, कोई संसारी हैं, अभव्य हैं, त्रस हैं, स्थावर हैं, दो इंद्रिय, तीनइंद्रिय, चारइंद्रिय, असंज्ञी पंचेंद्रिय, संज्ञी पंचेंद्रिय हैं, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति, नाना प्रकार के जीव हैं, इनमें कोई भव्य कहलाते हैं, जो भविष्यकाल में अपना स्वभाव अनंतचतुष्टयात्मक सहज ज्ञानादिक गुणों का विकास करने के योग्य हो वह भव्य होता है और जो अपने ज्ञानादिक विकास करने के योग्य न हो उन्हें अभव्य कहते हैं। कर्म भी मूल में 8 हैं, भावकर्म को भी कर्म कहते हैं, शरीर को भी नोकर्म कहते हैं। उन 8 कर्मों को द्रव्यकर्म कहते हैं। उनके उत्तरभेद 148 हैं और उनमें भी तीव्र फल देने की शक्ति, मंद फल देने की शक्ति की नाना डिग्रियों से अनेक भेद हैं। जीव के सुख आदिक की प्राप्ति की लब्धियां भी अनेक हैं, क्षयोपशम अनेक हैं, अथवा काललब्धियां, विशुद्ध लब्धियां देशनालब्धि, प्रायोग्यलब्धि आदिक अनेक लब्धियाँ हैं किंतु इन सबमें चूँकि वचनविवाद न करने का शिक्षण किया है तो हमें तो यों देखना चाहिए कि जब जीव के नाना व्यक्तियां हैं, उनकी नाना इच्छाएँ हैं, उनमें नाना ज्ञान की योग्यताएँ हैं तो हम वचनविवाद करके कुछ लाभ नहीं उठा सकते हैं, इस कारण हमें जीवों के साथ वचनविवाद न करना चाहिए।
वचनविवाद से हानि होने के कारण मौनव्रत से आत्मसाधना का उपदेश―सधर्मीयों से विवाद करने में धर्म की हानि है और अन्य धर्मीजनों के साथ विवाद करने में कष्ट की संभावना है,इस कारण अपने आपको शांत रखने के लिए वचनविवाद का परिहार करना और कोई यदि जिज्ञासु है, भली प्रकार उसकी परीक्षा में सफलता पायी है तो केवल हितकामना से आप कुछ बोलें, यहाँ योगीश्वरों को मौन व्रतसहित निज परम आवश्यक काम करने का उपदेश दिया गया है। उससे हमें भी यह शिक्षा लेना चाहिए कि हम भी वचनविवाद न किया करें और अपने वचनों को संयमित करके हितमित प्रिय वचन बोलें। जिससे आत्महित हो, इस प्रकार बोलने का यत्न करें।