वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 74
From जैनकोष
रयणत्तयसंजुत्ता जिणकहियपयत्थदेसया सूरा।
णिक्कंखभावसहिया उवज्झाया एरिसा होंति।।74।।
उपाध्याय परमेष्ठी―इस गाथा में उपाध्याय परमेष्ठी का स्वरूप कहा गया है। जो रत्नत्रय संयुक्त हैं, जिन कथित पदार्थों के उपदेशक हैं, अपने आत्महित के मार्ग की प्रगति में शूर हैं, निष्काम भावना करि सहित है ऐसे साधु संत उपाध्याय होते हैं। उपाध्याय परमेष्ठी में ज्ञान की विशेषता है और ऐसे विशिष्ट ज्ञानी साधु को जो आचार्य यह घोषित कर दें कि ये मेरे संग के उपाध्याय हैं तो वे उपाध्याय परमेष्ठी कहलाते हैं।
रत्नत्रय―रत्न कहते हैं सारभूत को, रत्न नाम पत्थर का नहीं है किंतु शब्दार्थ से यह विदित है कि जो सारभूत हो उसे रत्न कहते हैं। लोगों की निगाह में सारभूत हीरा माणिक लगा इसलिए उसे रत्न कहा―क्योंकि ऐसी कीमती वस्तु परिणाम में छोटी और मूल्यवान् होनी चाहिए। सो वह माणिक ही ऐसा कीमती है। सो लोग उन माणिकों को रत्न बोलने लगे। पर रत्न नाम है सारभूत वस्तु का। अध्यात्म में सारभूत वस्तु है सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र। इसलिए इनका नाम रत्नत्रय है। और किसी-किसी मनुष्य को भी तो कह देते हैं कि इन साहब का क्या कहना है? ये तो रत्न है अर्थात् आप श्रेष्ठ हैं, उपादेय हैं। कहीं उस रत्न का यह अर्थ नहीं है कि वह पत्थर है। तो रत्न का अर्थ है सारभूत रत्नत्रय मायने सारभूत तीन बातें। इन माणिकों से भी सारभूत चीज हैं आत्मा का विश्वास, आत्मा का ज्ञान, आत्मा का चारित्र।
सर्वोत्कृष्ट सारभूत परिणाम―आत्महित की यह बात मात्र कहने सुनने की बात नहीं है, दिल में लगाने की बात है। माणिक में क्या सार है? माणिक ज्यादा सारभूत गेहूं चना है। गेहूं चना में भी सार नहीं है, गेहूं चना को खाते रहें तो यह कुछ नियम है क्या कि जब तक यह मनुष्य रहेगा तब तक इसे गेहूं चना मिलते रहेंगे? रोग भी न होगा, स्वस्थ रहेगा, संपन्न रहेगा? सर्वोत्कृष्ट सारभूत है वह परिणाम जिसमें लबालब आनंद भरा है, रंच आकुलता नहीं है, वह परिणाम है आत्मानुभव का, ज्ञान का, चारित्र का। ऐसे जो रत्नत्रय करि के सहित है वह उपाध्याय है।
उत्कृष्ट रिश्ता―दुनिया में सबसे ऊंची सर्वोत्कृष्ट रिश्तेदारी है गुरु शिष्य की। जिसका सौभाग्य हो सो पहिचाने। वेतन लेकर मास्टरी करने वाले गुरु की यहाँ चर्चा नहीं कर रहे हैं। जिनका संबंध ऐसे राह पर लगा दे कि जिससे अनंतकाल तक के लिए संसार के संकट मिट जाये, वह संबंध उत्कृष्ट है। एक कोई कथानक है कि एक गुरु शिष्य थे। जंगल में ध्यान करते थे। गुरु ने एक बार देखा कि एक भयंकर विषधर सांप आ रहा है। वह कई भवों का बैरी होगा गुरु ने जान लिया। गुरु ने जान लिया कि यह कभी न कभी शिष्य की जान लेगा। शिष्य सो रहा था। गुरु ने क्या किया कि अपने उस निवासस्थान के निकट चारों ओर कुंडली रेखा कर दी और उस शिष्य की छाती पर बैठकर उसके शरीर से थोड़ा खून निकाला और वह खून सर्प के आगे डाल दिया। सर्प खून पीकर वापिस लौट गया। उस समय शिष्य ने जग कर देखा कि गुरुजी छाती पर बैठे हैं और खून निकाला तो ऐसी स्थिति में शिष्य तो यही सोचेगा कि गुरु हमारी छाती पर बैठे हुए हमारे प्राण ले रहे हैं, परंतु वह शिष्य गुरु के गुणों से भरा पूरा था। उसके मन में रंच भी शंका न हुई कि गुरु मेरा अनर्थ कर रहे हैं और वहीं वह शिष्य हाथ जोड़े पड़ा रहा। गुरु ने जो कुछ करना था सो किया। इतना विश्वास होता है शिष्य का गुरु के प्रति।
शिष्यों का गुरु पर अगाध विश्वास―आप लोगों का नाई पर कितना विश्वास होता है, वह बाल बनाता है तो आप अपनी गर्दन उसे सौंप देते हैं। वह तो बड़ा पैना छुरा लिए हुए रहता है। आप अपने दोनों हाथ भी पीछे ले जाते हैं, प्रेम से आप उस नाई को अपनी गर्दन सौंप देते हैं। कितना विश्वास है आपको नाई के प्रति? क्या नाई बराबर भी विश्वास न हो गुरु के प्रति और वह शिष्य कहलाये। अतुल विश्वास गुरु के प्रति शिष्य का होता है। पूर्व समय में शिष्य गुरुजनों को अपना सर्वस्व मानते है। तब गुरुजनों का ऐसा प्रसाद मिलता था कि शिष्यों को वे सब बातें जो बड़ी तपस्या, बड़ी साधना के बाद प्राप्त होती हैं मिल जाती थीं। वे सब विनय के कारण, उस अप्रसन्न गुरु के मुख से निकले हुए प्रसन्न वचनों के कारण संसार के संकट हरने वाले मर्म को विदित कर लेते थे। उपाध्याय कहो, प्रोफेसर कहो, पाठक कहो, शिक्षक कहो, अध्यापक कहो सब एक ही बात है, किंतु आचार्य जिसके संबंध में घोषणा करे ये अपने संघ के उपाध्याय हैं वे उपाध्याय कहलाते हैं।
उपाध्यायों में ज्ञानी की विशेषता―उपाध्याय परमेष्ठी जीवादिक समस्त तत्त्वों के, पदार्थों के उपदेश देने में शूर हैं। उपाध्याय के मूल गुण 25 बताये हैं, 11 अंग 14 पूर्व यों 25 उनके गुण हैं। उपाध्याय परमेष्ठी का कितना विशाल ज्ञान होता है? आज के समय में आचार्य तो ज्यादा हो गए उपाध्याय एक भी नहीं रहा जबकि उपाध्याय से बड़ा पद है आचार्य का। इससे ज्ञान करो कि आचार्य कौन बन सकता है? जिसमें उपाध्याय से भी बढ़कर योग्यता हो वह आचार्य है। न हो समान, न हो 11 अंग 14 पूर्व का ज्ञान, मगर वर्तमान ज्ञानियों के हिसाब से कुछ विशिष्ट ज्ञान तो रखते हो तब वे आचार्य कहला सकते हैं। अब बतलावो साधारण गृहस्थ के बराबर भी ज्ञान न हो और आचार्य बनने की धुन बनाये तो उसमें कितनी ही विडंबनायें हो रही है जो आज समाज भुगत रहा है। जो आज के हिसाब में कुछ विशिष्ट ज्ञान रखता हो वह आचार्य है, ऐसी स्वीकारता होनी चाहिए।
उपाध्याय परमेष्ठी की निर्दोष देशना―उपाध्याय परमेष्ठी जो कुछ उपदेश देते हैं वे सब उपदेश जिनेंद्र देव की परंपरा से चले आये हैं स्वरुचिनिमित्त, कपोलकल्पित उनके उपदेश नहीं है, जिसने इस निश्छल अखंड अद्वेत निज परमस्वभाव का श्रद्धान किया, ज्ञान किया, उसमें ही रमण किया, एकता रूप निश्चय रत्नत्रय में जो परिणत हो और उसके फल में जिसके अनंत चतुष्टय प्रकट हो, ऐसे आप्त देव की दिव्यध्वनि की परंपरा से चला आया हुआ जो समस्त पदार्थों का विवरण है उस विवरण का उपदेश करने में वे कुशल है। उपाध्याय परमेष्ठी ने निश्चयधर्म और व्यवहार में दोनों का उपदेश किया है। निश्चय तो हैं वस्तु के स्वभाव का नाम अथवा आत्मा के स्वभाव का नाम और इस स्वभाव के अवलोकन के बल से जो मोह क्षोभ रहित निर्मल परिणाम हुआ है धर्म उसका भी नाम है। निश्चय धर्म और जो इस निश्चयधर्म को प्रकट करने में परंपरा कारणभूत हो वह व्यवहारधर्म है, निश्चयधर्म के प्रकट होने का वास्तविक कारणभूत एक देश शुद्धोपयोग है, उसके रहते हुए जो शुभोपयोग की प्रवृत्तियां चलती हैं वे सब व्यवहार धर्म कहलाती हैं।
अंतस्तत्त्व में उपादेयता के भाव की प्रयोजकता―धर्मधारण करने के लिए यह परिज्ञान सहायक है कि निज शुद्ध आत्मतत्त्व, ज्ञानमात्र, ज्ञायकस्वरूप यह तो उपादेय है और परद्रव्य व परभाव हेय हैं। किसी भी वर्णन का कोई एक ध्येय हुआ करता है। मोक्षमार्ग का प्रयोजक जितना भी उपदेश है उस उपदेश का प्रयोजन केवल एक यही है निज शुद्ध आत्मतत्त्व उपादेय है और सब परभाव हेय हैं। कुछ भी व्यवहार धर्म करें उसमें यह बात आनी चाहिए, ऐसी जिसकी धुन बन जाती है वह उच्च पुरुष है। सम्यग्दृष्टि भी पूज्य माना गया है। पुरुष पूज्य नहीं है सम्यक्त्व पूज्य है। सम्यग्दर्शन की अतुल महिमा है। अविरति सम्यग्दृष्टि भी मोक्षमार्ग में लगा हुआ है, किंतु निर्ग्रंथ भेष का धारण करने वाला यदि निज सहजस्वभाव का अनुभव नहीं कर सका है तो वह मोक्षमार्ग में लगा हुआ नहीं है। उसके सारे काम लौकिक हैं, अलौकिक नहीं रहे। मात्र वह सब दिल बहलाने की बात है। किसी के तीव्र कषाय है उसका दिल बहल रहा है विषयों में किसी के मंद कषाय है तो उसका दिल बहल रहा है व्रत में, संयम में, तप में, उसने भी दिल बहलाया और इस भेष धारी साधु ने भी अपना दिल बहलाया, किंतु सम्यक्त्व के अनुभव बिना न वहाँ सांसारिक संकट टलते हैं और न यहाँ कोई परमार्थ में वृद्धि होती है।
उपाध्याय की व्युत्पन्नता―उपाध्याय शब्द का अर्थ क्या है। उसका अर्थ है समीप में, ‘‘यस्य समीपे शिष्यवर्ग: अधीते स: उपाध्याय:।’’जिनके समीप शिष्यजन अध्ययन करें उन्हें उपाध्याय परमेष्ठी कहते हैं। यह उपाध्याय परमेष्ठी निष्काम भावना करिके सहित हैं, ये शिष्यजनों को शिक्षण देकर उनसे कोई सेवा शुश्रूषा नहीं चाहते हैं, उनसे कोई अपनी वैयावृत्ति नहीं चाहते हैं किंतु शिष्य स्वयं भक्ति में ओतप्रोत होकर सेवा शुश्रूषा करते हैं। यह शिष्यों का कर्तव्य है किंतु उपाध्याय परमेष्ठी निज परमात्मतत्त्व की भावना में उपयुक्त हुआ करते हैं और इस सहज ज्ञायक स्वभाव की भावना से उत्पन्न हुआ जो वीतराग शाश्वत आनंद है उस आनंदामृत का पान किया करते हैं।
अध्यात्मनिर्णय की प्रयोजकता―भैया ! यह आनंद कैसे मिलेगा? अपने स्वरूप को निहारें। इसके लिये अध्यात्मज्ञान चाहिये यह आत्मा सिवाय जानने के और कुछ नहीं करता है। बाकी प्रसंगों में जितने भी काम होते हैं वे निमित्तनैमित्तिक भाव में होते हैं। यह आत्मा बोलता भी नहीं है। आपको सुनाई दे रहा है, कुछ देख रहे हो कि ये ओंठ चल रहे हैं, जीभ चल रही है, हाथ चल रहे हैं, वाणी निकल रही है, तुम सुन रहे हो किंतु आत्मा बोल ही नहीं रहा है। यह आत्मा तो ज्ञान कर रहा है और इच्छा कर रहा है, साथ में इच्छा भी तो लगी है। इस जीव के होने वाले ज्ञान में तो आफत है नहीं। ज्ञान तो जीव का स्वभाव है, वह तो जानेगा ही, किंतु इच्छा का जो विकार हो गया है उससे भीतर में ऐसी खलबली मच गई कि आत्मा के प्रदेश हिल उठे, प्रदेशों में परिस्पंद हो गया। अब आत्मा के प्रदेशों में जो परिस्पंद हुआ, योग हुआ उसका निमित्त पाकर शरीर में भरे हुए जो वातादि तत्त्व हैं, वात, पित्त, कफ। शरीर में जो वायु तत्त्व हैं इन वायु तत्त्वों में फड़कन हुई और जहां वायु तत्त्व में फड़कन हुई तो जैसा मूल निमित्त था, इच्छा थी उसके अनुकूल योग हुआ, उसके अनुकूल वायु फड़की और उसके अनुकूल ये ओंठ जीभ कंठ हिल उठे।
आत्मा द्वारा शब्दादि का अकर्तृत्व―मुख जैसा यंत्र यदि कोई वैज्ञानिक बना सके वैसी ही वायु चले तो ऐसे यंत्र से ऐसा ही बुलवा लो, ऐसे ही जीभ, हाथ आदि चलवा लो। उन शब्दों का निर्माण नियत है। कंठ में जोर आये बिना क, ख, ग, घ आदि शब्द नहीं बोले जा सकते हैं तालु के स्पर्श बिना च, छ, ज, झ आदि शब्द नहीं बोले जा सकते हैं, मूर्धा को छुये बिना ट, ठ, ड, ढ आदि शब्द नहीं बोले जा सकते हैं। जैसे हारमोनियम में जो शब्द दबायें वैसी ही आवाज निकलती है, इसी प्रकार गले से लेकर इस मुख तक के इस हारमोनियम बाजे में जैसे अंग चलेंगे वैसी आवाज निकलेगी। दांतों में जीभ लगाये बिना त, थ, द, ध, न नहीं बोला जा सकता है, ओंठ में ओंठ मिलाए बिना प, फ, ब, भ, म, नहीं बोला जा सकता है। तो यह मुख तो एक बाजा है, जैसे अंग चलावो तैसी बात निकलेगी। इस आवाज को बोलने वाला यह आत्मा नहीं है तब फिर इस आत्मा ने क्या किया? केवल परिज्ञान किया और इच्छा की तो जब हम मात्र ज्ञान ही कर सकते और इच्छा ही कर सकते, इससे आगे बाह्यपदार्थों में कुछ नहीं कर सकते तब फिर कुछ विवेक बनायें ना, हम ऐसा वस्तु का परिज्ञान करें, ऐसा तत्त्व का परिज्ञान करें कि जिस परिज्ञान में संसार के सारे संकट टल सकें, वह तत्त्व है निज कारणसमयसार।
उपाध्याय परमेष्ठी का अभिनंदन―जो निरंजन है, परभाव के लोगों से रहित है, सर्व प्रकार के बाह्य परिग्रहों के त्यागरूप है, ऐसे निज परमात्मा की भावना ये उपाध्याय परमेष्ठी करते हैं और इस भावना के फल में उनको जो सहज परम शाश्वत आनंद प्राप्त होता है, वे तो उससे तृप्त हैं, फिर भी करुणा के कारण शिष्य वर्गों को अध्ययन कराते हैं, ऐसे ये उपाध्याय परमेष्ठी जैनों के उपास्य हैं अर्थात् रागद्वेष को जीतने वाले भाव में श्रद्धा रखने वाले साधु संतजनों के उपासक हैं। ऐसे रत्नत्रयमय शुद्ध भव्य रूप कमलों को करने वाले सूर्य के समान प्रकाशमान् उपाध्याय पवित्र ज्ञानपुंज ज्ञान ही जिसका एक क्रीड़ा स्थान है ऐसे उपाध्याय परमेष्ठी को बार-बार मेरा नमस्कार हो।