वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 75
From जैनकोष
वावारविप्पमुक्का चउव्विहारायणासयारतत्ता।
गिग्गंथा णिम्मोहा साहू दे एरिसा होंति।।75।।
साधुपरमेष्ठी―जो व्यापार से विमुक्त है, चार प्रकार की आराधनावों में सदा लीन रहता है, निर्ग्रंथ एवं निर्मोह है ऐसा ज्ञानीपुरुष साधु परमेष्ठी होता है। साधु शब्द का अर्थ है ‘स्वशुद्धात्मानं साधयति इति साधु:।’जो शुद्ध आत्मा को साधे उसे साधु कहते हैं। साधु 10 प्रकार के होते हैं―प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण उपशमक, अनिवृत्तिकरण उपशमक, सूक्ष्मसांपराय उपशमक, उपशांतमोह, अपूर्वकरण क्षपक, अनिवृत्तिकरण क्षपक, सूक्ष्मसांपराय क्षपक और क्षीणमोह। सयोगकेवली अरहंत परमेष्ठी में है और अयोगकेवली भी अरहंत परमेष्ठी में है। अभी जो 10 के नाम बताये गए हैं उनमें जो क्रम होता है उसमे यह जानना कि पहिले नंबर से अगले नंबर के साधु का परिणाम विशेष निर्मल होता है। 11 वें गुणस्थान वाले उपशांत मोह साधु जितनी कर्मनिर्जरा करते हैं उससे असंख्यातगुणी निर्जरा क्षपकश्रेणी में रहने वाले अपूर्वकरण गुणस्थान वाले साधु करते हैं। देखिये वे कषायरहित है, और इसके अभी कषायों का विनाश नहीं हुआ है, किंतु कर्मों के क्षय करने का जो कदम है परिणाम है वह बड़ी विशिष्ट जाति का होता है। साधु परमेष्ठी निरंतर निज शुद्ध स्वरूप के अवलोकनरूप चैतन्यप्रतिपन में निरत रहा करते हैं।
साधुवों की निरारंभता―साधुजन समस्त बाह्य प्रकार के श्रमों से रहित क्यों हो जाते हैं? इसका कारण यह है कि वे परमसंयमी साधुपुरुष नित्य शुद्ध निज परमपारिणामिक भाव की भावना में परिणत रहते हैं। मैं क्या हूं―इसका स्पष्ट निर्णय और इसकी स्पष्ट झलक साधुवों में बनी रहा करती है। यह परमपारिणामिकभाव त्रिकाल निरावरण है। जीव का जो शुद्ध ज्ञायकस्वरूप है उस पर यदि आवरण हो तो जीव का अभाव ही हो जायेगा। यह पारिणामिक भाव सहजसत्त्व रूप है, सर्व पर और पर-भावों के लेप से रहित है, ऐसे साधु चैतन्यस्वरूप की भावना में परिणत साधुजन रहा करते हैं, इस कारण साधुजन बाह्य व्यापारों से रहित होते हैं, वे आरंभ और परिग्रह नहीं करते हैं, आरंभ करने को उनका चित्त ही नहीं चाहता, यद्यपि साधुजनों के जब तीव्र क्षुधा होती है, भूख लगती हे तो आगमोक्त विधि के अनुसार अपनी मुद्रा सहित नगर में जाते हैं और कोई पड़गाह ले विधि सहित, आदर सहित तो वहाँ आहार कर लेते हैं। इतनी क्रियाएं तो वे कर लेते हैं परंतु भोजन में इतना अनुराग नहीं है कि वे अपने हाथ से बनावें। ऐसी रुचि, आसक्ति साधुवों में भोजन की नहीं होती है। भिक्षा भोजन करने में और अपने आप भोजन बनाकर खाने में रुचि का अंतर अवश्य होता है। यों 6 कायों की हिंसा से विरक्त साधुजन भोजनविषयक आरंभ भी नहीं करते हैं।
साधु की निरारंभता के संबंध में शंका समाधान―एक शंका यहाँ यह कही जा रही है कि वे आरंभ नहीं करते, आरंभ की हिंसा से विरक्त हैं तो ऐसे यदि विरक्त हैं तो जो आरंभ करके भोजन बनाएं उनका भी भोजन न करना चाहिए। यह क्या बात है कि खुद तो बन गए बड़े उजले और दूसरे आरंभ करें, उनके यहाँ आहार करने जायें तो क्या उसमें आरंभ का दोष नहीं लगता है? इसका समाधान यह हैं कि श्रावकजन एक नियम ले रखते हैं कि मैं प्रत्येक दिन शुद्ध भोजन करूंगा और भोजन करने से पहिले साधुसंतों को पड़गाह कर, आहार कराकर भोजन करूंगा। किसी के रोज का नियम होता है, किसी के एक दिन का नियम होता है। साधुजन उस घर यह देख लेते हैं कि यह आहार केवल मेरे लिये ही बना है तो वे आहार नहीं लेते हैं। श्रावक रोज आरंभ करते हैं, उन्हें रोज भोजन बनाना पड़ता हैं, खाते हैं, कदाचित् शुद्ध भावना करके, सावधानी सहित भोजन बना लें तो श्रावकों ने गुण किया या अवगुण किया? न बनाएं शुद्धतापूर्वक भोजन किसी दिन तो असावधानी और अशुद्धता से ही तो वह भोजन बनायेगा, उसकी अपेक्षा तो श्रावक ने गुण किया है, साधुजन यदि यह देख लें कि केवल मेरे लिए भोजन बनाया है तो उसे वे ग्रहण नहीं करते हैं। भूख रोग की शांति के लिए इतना प्रतिकार तो उनका हो जाता है, पर स्वयं बनाएं तो उसके लिए सामान जोड़ेंगे और फिर सामान की रक्षा करना पड़ेगी, तो जहां इतनी बातें बढ़ जायें फिर वहाँ आत्मसाधना का अवसर ही कहां मिलेगा? इससे साधुजनों में भिक्षा भोजन की पद्धति होती है।
साधुवों की मनोगति के संबंध में शंका समाधान―शंका जब बाह्य में कुछ श्रम तो करने को रहा नहीं, न रोजगार करना है, न भोजन के साधन जुटाना है, न कोई बर्तन रखना है, वही है एक पिछी और कमंडल जो कि संयम और शुद्धता के उपकरण के लिए आवश्यक है। फिर भी वे करते क्या रहते है? गृहस्थजन तो बेकार होने पर एक घंटा भी समय नहीं गुजार पाते हैं और वे साधुजन 24 घंटा समस्त व्यापारों से विमुक्त हैं, ऐसे ठलुवा बेकार, जिनको शरीर से किसी भी प्रकार का आरंभ नहीं करना होता है वे साधुसंत जन क्या किया करते हैं? समाधान, वे चार प्रकार की आराधना में लीन रहा करते हैं। करता तो कोई भी बाहर में कुछ नहीं है, जो गृहस्थजन हैं वे भी बाहर में कुछ नहीं किया करते हैं, वे अपने आपमें अपना परिणाम बनाया करते हैं। किसी न किसी बात की आराधना गृहस्थ भी किया करते हैं, आराधना के सिवाय गृहस्थ भी कुछ नहीं किया करते हैं, तो साधु भी आराधना के सिवाय और क्या करें? गृहस्थों की आराधना हैं साधुवों से विचित्र विलक्षण धन की आराधना, इज्जत की आराधना, मकान दुकान की आराधना। वे विषय के साधनों की आराधना को करते हैं। वे भी किसी न किसी ओर उपयोग बनाए रहते हैं। साधुसंत ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप, इन चार की आराधना में रहा करते हैं। मैं ज्ञानस्वरूप हूं, कैसा यह सहजज्ञान प्रकाश है? यह ज्ञानप्रकाश ही मेरे निरंतर रहा करे, यही समस्त आनंद का श्रोत है―ऐसे परम शरणभूत निज ज्ञायकस्वभाव की आराधना में वे साधु रहा करते हैं।
साधु संतों की आराधना―परम ज्ञानस्वरूप निजतत्त्व की श्रद्धा हो उसे कहते हैं सम्यग्दर्शन। उसकी आराधना में अथवा निज सहजस्वरूप जो अंतर्मुखतया अवलोकन है, जो अंतर्मुख चित्प्रकाश है वह है दर्शन इस दर्शन में आत्मा को कोई झंझट ही नहीं रहा, ऐसे दर्शन की आराधना में साधुजन रहा करते हैं। ज्ञान और दर्शन की स्थिति मेरे निरंतर बनी रहा करे, ऐसी हम आपकी भावना रहनी चाहिये। केवल ज्ञाता द्रष्टा रहने में शुद्ध आनंद जगता है। आनंद ही इस जीव का चरम ध्येय है। ऐसे ज्ञाताद्रष्टा रहने की भावना में साधुजन लीन रहा करते हैं। इन तीनों की आराधना की साधना के लिए, उन साधनों के बाधक विषय-कषायों की मुक्ति के लिए वे नाना प्रकार के तपश्चरण करते हैं। उन तपश्चरणों में इसे अलौकिक लाभ प्राप्त होता है। उस लाभ के लिए साधुसंतजन तप की आराधना किया करते हैं।
साधुवों की निर्ग्रंथता―ये साधु परमेष्ठी निर्ग्रंथ होते हैं, ग्रंथ नाम परिग्रह का है, ग्रंथि नाम गांठ का है। जैसे डोरों में गांठ लगा दी जाती है, वह जकड़ जाती है उससे फिर रस्सी मुक्त नहीं हो पाती है यों ही जो भावों में गांठ रहती है वह ग्रंथि है। परिग्रह का नाम भी गांठ है। इसमें जकड़ा हुआ प्राणी संकट से मुक्त नहीं हो पाता। जो चारों ओर से ग्रहण कर ले उसे परिग्रह कहते हैं। ये परिग्रह 24 प्रकार के होते हैं, 10 तो बाह्य परिग्रह और 14 आभ्यंतर परिग्रह। साधु परमेष्ठी 24 प्रकार के परिग्रहों से विरक्त रहते हैं, दूर रहते हैं, जिन्हें केवल आत्मसाधना से ही प्रयोजन रह गया है ऐसे पुरुष कैसे खेत मकान, धन धान्य, दास दासी, वस्त्र बर्तन रखेंगे, कहां लादे फिरेंगे? उन्हें तो अपने शरीर का लादना भी नहीं सुहाता है, पर शरीर कहां मिटाया मिटता है? यों प्राणघात करके मिटा दिया तो नया शरीर मिलेगा। शरीर सदा के लिए मिट जाय इसके उपाय में प्राणघात की उतावली नहीं की जाती है, किंतु मैं देहरहित हूं, ऐसे देह रहित निज ज्ञानस्वरूप की भावना के बल से कभी यह देह आत्मा से सदा के लिए दूर हो जाता है। किसी दुष्ट से पाला पड़ा हो तो उतावली में काम बिगड़ जाता है। वहाँ तो धीरे-धरे धीरता से गंभीरता से काम लिया जाता है। ये साधुपरमेष्ठी 10 प्रकार के बाह्य परिग्रह और 14 प्रकार के आभ्यंतर परिग्रह से विमुक्त है। 10 प्रकार के परिग्रह हैं ये मकान, धन, रुपया, पैसा, रकम वगैरह धान्य, अनाज, दास, दासी, सोना, चाँदी वस्त्र और बरतन भांडे-इन 10 प्रकार के बाह्यपरिग्रहों से साधुवों का कोई प्रयोजन ही नहीं रहा।
साधुवों की निर्विकारता―वे साधुजन निर्विकार होते हैं। जो साधुवों के गुणों को पहिचानते हैं वे साधु के परम उपासक हो जाते हैं। अज्ञानीजन तो उनके रूप को देखकर निंदा किया करते हैं। ये नग्न रहते हैं, इन्हें लाज भी नहीं आती है। पर जो साधु के अंतरंग गुणों में प्रवेश कर गये हैं वे ही इनका महत्त्व आंक सकते हैं―ओह ये मंद कषायी है, इनकी दृष्टि शुद्ध सहज ज्ञायकस्वरूप पर रहा करती है। ये साधु ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व की प्रतीति रखते हैं, इन्हें किसी भी विषयों की आशा नहीं रही है, विषयों की इच्छा नहीं रही है। ये साधु मोक्षमार्ग की आराधना किया करते हैं। ज्ञानी भक्त की दृष्टि साधु के गुणों पर रहती है। ये परमेष्ठी 10 प्रकार के बाह्य परिग्रहों से तो अत्यंत दूर रहते हैं ही, साथ ही विशेषता आभ्यंतर परिग्रह मुक्ति की है। आभ्यंतर 14 परिग्रह हुआ करते हैं, मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद। इन 14 प्रकार के परिग्रहों के व्यक्तरूप छठे गुणस्थान में भी नहीं रहता है। कषायों का इतना मंद परिणमन रहता है कि जिससे उनके सम्यक्त्व में, संयम में बाधा नहीं आती है। और फिर वे इस शुद्ध आत्मतत्त्व की भावना के बल से रहे सहे गंदे परिणमनों को भी समाप्त कर देते हैं। ये साधु परमेष्ठी इन 24 प्रकार के परिग्रहों से विमुक्त हैं।
वास्तविक कृत्य और वैभव―भैया ! इस लोक में करने योग्य काम क्या है खूब परखिये। मकान बनवाकर क्या करोगे? दुकान बनवाकर क्या करोगे? करना पड़ता है सो करिये। पर अंतरंग में यह श्रद्धा तो रखिये कि ये जड़ पौद्गलिक ही मेरे लिए सब कुछ नहीं हैं, इनसे इस आत्मा का कुछ भी लाभ न होगा। कविजन कहते हैं कि लक्ष्मी का नाम दौलत इसलिए रक्खा गया कि इसके दो लातें होती हैं। सो जब लक्ष्मी आती है तो यह छाती पर लात मारकर आती है, जिससे छाती कड़ी और गर्व वाली हो जाती है और जब लक्ष्मी जाती हे तो पीठ में लात मारकर जाती है जिससे फिर वह दीन झुकी कमर वाला, कांति रहित हो जाया करता है। वास्तविक लक्ष्मी तो आत्मा की ज्ञानलक्ष्मी है। निज शुद्ध स्वरूप का परिज्ञान रहा करे उससे बढ़कर वैभव लोक में अन्य कुछ नहीं है। ये साधुपरमेष्ठी इन सर्व प्रकार के बाह्य झंझटों से, व्यापारों से, परिग्रहों से मुक्त रहा करते हैं।
निर्मोहता―साधु परमेष्ठी अत्यंत निर्मोह हैं। मोह हुआ करता है अपने आपके परिणामों में, परवस्तु में कोई मोह कर ही नहीं सकता। अज्ञानीजन, मिथ्यादृष्टि पुरुष जो भी मोह कर रहे हैं वे परवस्तु में मोह नहीं कर रहे हैं, परवस्तु तो उसके मोह परिणाम का विषय बन रहा है। मोह तो सब अपने आपकी भावना में कर रहे हैं। मिथ्यात्व श्रद्धा गुण का विपरीत परिणमन है। श्रद्धागुण आत्मप्रदेश में ही है। अपने श्रद्धागुण का जो भी परिणमन हो वह आत्मप्रदेश से बाहर कहां रह सकेगा? वहाँ तो आधार ही नहीं है। श्रद्धा गुण का विपरीत परिणमन भी आत्मप्रदेश में रहता है। और वहाँ भी वास्तव में यह चारित्र मोह के विकारों को अपनाता है, यही मिथ्यात्व परिणमन है। चारित्र के विकार हैं रागद्वेष, क्रोध, मान, माया लोभ, इच्छा, तृष्णा, असंतोष इन सब भावों को अपनाते रहना, यह मैं हूं, इनसे ही मेरा हित है ऐसा उनको अपना स्वरूप बनाया करना, यही जीव का मिथ्यात्व परिणमन है। बाहर में कहां मोह है किसी से? तब यों कहो कि अपने आपके स्वरूप के संबंध में मिथ्या श्रद्धान् हो, मिथ्याज्ञान हो और मिथ्या आचरण हो, अथवा विषय कषायरूप परिणमन हो यही मोह हुआ। साधु संतों के ये अज्ञान परिणाम नहीं होते हैं, इस कारण उनके मोह नहीं है, वे निर्मोह हैं।
शुद्ध विकास का उपाय―मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र से हितपना कैसे बना जाता है? उसका सीधा उत्तर है कि सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन सम्यक्चारित्ररूप परिणमन हो। जहां यह रत्नत्रयरूप परिणमन होता है वहाँ यह मिथ्यात्रय रहता ही नहीं है। यह विशुद्ध परिणमन परभावों से शून्य निज कारणसमयसार स्वरूप अंतस्तत्त्व के अवलोकन, परिज्ञान और आचरण की स्थिति से हुआ करता है। ये साधुपुरुष निजसहज स्वभाव के ग्रहण से सर्व प्रकार के मोह से अत्यंत विमुक्त हैं, ऐसे ये साधु परमेष्ठी हम आप सबके वंदनीय हैं।
साहू और साहूकारी―साधुवों की दृष्टि परम निर्माण की ओर रहती है। जैसे लौकिक जनों की रुचि अनेक शोभावों से सज्जित कामनी की ओर रहती है, वे लौकिक पुरुष जैसे सुंदर रूप के देखने के कौतूहली रहा करते हैं, उसके विपरीत ये साधुजन परम निर्माण की शोभा कला के कौतूहली रहा करते हैं। श्रमणों की केवल एक ही धुन है सदा मुक्त निज शाश्वत स्वभाव की उपासना करना और इस उपासना के फल में निर्वाण का आनंद प्राप्त करना। साधुसंत का जीवन इसी कारण सार्थक है, जो आत्मस्वभाव को साधे उसे साधु कहते हैं। साधु शब्द बड़ा मनोज्ञ शब्द है। साधु शब्द का पर्याय है साहु और श्रेष्ठ पुरुषों में साहु शब्द की प्रसिद्धि हो गई। साहू, साह, साहूकार। साहूकारी नाम किसका है? आत्मस्वभाव को सिद्ध करने वाले पुरुषार्थ को साहूकारी कहते हैं। लोक में उसे साहूकार माना जाता है जिसके धन वैभव हो, लेन देन होता हो, ब्याज की बड़ी आमदनी हो। पर साहूकारी का सही अर्थ यह है कि निज आत्मस्वभाव के दर्शन करने वाली दृष्टि का रहना, स्वभाव का आश्रय करना, विषय विकारों से परे रहना, अपने आपके गुणों का शुद्ध विकास करना, आत्मसमृद्धि पाना अर्थात् साधु का कर्तव्य। जो साधु का कर्तव्य है वही वास्तविक साहूकारी है।
समृद्धि और समृद्धि के अर्थ प्रयोग―सर्वोत्कृष्ट समृद्धि है परमनिर्वाण। द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म से सदा के लिए छुटकारा पा लेना, इसे कहते हैं परमनिर्वाण। ऐसे साधुपुरुष नित्य आत्मस्वभाव की आराधना में लीन रहते हैं। साधु पुरुष का आशय इतना विशुद्ध होता है कि वहाँ रागद्वेष की कणिका नहीं रहती है। वे संसार के सुखों को त्यागकर सर्व संगों के संबंध से मुक्त रहकर निरंतर आनंदमय आत्मतत्त्व में विभोर रहा करते हैं। सिद्ध परमेष्ठी से तो हम लोगों का कुछ व्यवहार ही नहीं चलता, पर उनके गुणों का स्मरण कर हम लाभ प्राप्त करना चाहें तो प्राप्त कर सकते हैं। अरहंत परमेष्ठी जिस समय में अरहंत हुआ करते हैं उस क्षेत्र में जो जीव हों उनको दर्शन और दिव्यध्वनि श्रवण मात्र का व्यवहार रहता है। ऐसे भी अरहंत परमेष्ठी का सदा समागम नहीं रहता है, आचार्य परमेष्ठी, उपाध्याय परमेष्ठी और साधु परमेष्ठी―इन तीन परमेष्ठियों को समागम विशेष रहा करते हैं। हम अपने चारित्र को प्रयोजनात्मक प्रगतिशील तब कर सकते हैं जब हम इन परमेष्ठियों के सत्संग में रहते हैं। इस कारण सुगम शीघ्र उपकार की दृष्टि से हमें इन गुरुवों की उपासना बहुत लाभदायक है। ऐसे साधु पुरुष सदा वंदनीय हैं। अब यहाँ तक व्यवहार चारित्र के पालन के प्रताप से कैसा-कैसा आत्मा का विकास हुआ है, इस प्रसंग में पंचपरमेष्ठी का स्वरूप कहा गया है। अब अंतिम गाथा में जो व्यवहारचारित्र से और आगे चलकर निश्चयचारित्र की संधि करने वाली है ऐसी गाथा को आचार्यदेव कह रहे हैं।