वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 93
From जैनकोष
झाणणिलीणो साहू परिचागं कुणइ सव्वदोसाणं।
तम्हा हु झाणमेव हि सव्वदिचारस्स पडिकमणं।।93।।
ध्यान की उपादेयता का निर्देशन- इस गाथा में एक ध्यान ही उपादेय है इस बात पर बल दिया है। चूँकि ध्यान में लीन साधु ही समस्त दोषों का परित्याग करता है। इस कारण ध्यान ही समस्त अतिचारों का प्रतिक्रमण है। यह आत्मा जानने देखने के अतिरिक्त और करता ही क्या है? इसके रूप, रस, गंध, स्पर्श नहीं, इसके हाथ पैर इत्यादि अंगोपांग नहीं, यह किसी से भिड़ता नहीं, छिदता नहीं। यह तो केवल भावप्रधान तत्त्व है। ज्ञानदर्शन भाव ही यह कर सकता है। जब यह अपने ज्ञानभाव को एक आत्मतत्त्व में स्थिर करता है तब वह उत्तम ध्यान है। कोई परम जिन योगीश्वर जब-जब निज आत्मतत्त्व का आश्रय करके आत्मतत्त्व में ही अपने ज्ञान को स्थिर करता है तो यह है ज्ञान के एक ओर लगने की उत्कृष्ट अवस्था। इस ध्यान द्वारा ही सर्व प्रकार के दोषों का निराकरण होता है। यह आत्मा स्वभाव से निर्दोष है। इसका स्वरूप केवल जाननदेखन मात्र है। यह उपयोग जब केवल जाननस्वरूप निर्दोष आत्मतत्त्व में लगता है तो यह है उसका परम ध्यान। इस निश्चय धर्मध्यान में लीन हुआ साधु अभेदरूप से जब ज्ञानप्रकाशमात्र परिणमता हुआ बर्तता है तब सर्वप्रकार के दोषों का निराकरण होता है।
दोषग्रहण का महादोष- मोही जीव दोष करता जाता है और दोषों को पकड़े रहता है। दोषों को यदि वह न पकड़े तो दोष करने में भी अंतर आ जायेगा। एक तो दोष होना और दूसरे दोष होने में, करने में अपनी भलाई मानना यह भूल पर भूल है अथवा यों कहिये भूल की भूल है। जो दोष करने में भलाई मानता है उसके दोष नहीं छूटते हैं। जो दोष में अपनी बरबादी मानता है उसके दोष छूट जाते हैं।
अभेदध्यान में निश्चय उत्तमार्थप्रतिक्रमण- यह आत्मतत्त्व निश्चयशुक्लध्यान द्वारा ही गोचर है। यह निश्चय परम शुक्लध्यान ऐसी स्थिति है जहां समस्त क्रियाकांडों का आडंबर नहीं है। बाहर से लोग कुछ पहिचान नहीं सकते हैं, वहां अंतर में ही साधक अपने ज्ञान सुधारस को ज्ञानमुख से पीता रहता है और अलौकिक आनंद में मग्न रहा करता है। ऐसा साधु ज्ञानस्वरूप का ही उपयोग बनाये रहता है। जो साधु व्यवहारनयात्मक ध्यान ध्येय के भेद से निर्मुक्त हो गए हैं, किसी प्रकार का संकल्प विकल्प जिनमें नहीं रहा है, परम शांत हो गये हैं, परमतत्त्व में शुद्ध अंतस्तत्त्व में अभेदरूप से जो बर्त रहे हैं, ऐसे संतों के निश्चय उत्तमार्थप्रतिक्रमण होता है।
अंतर्मुखता का अभाव- भैया ! मोही जीव के दोषों को करते रहने की तैयारी रहती है, किंतु ज्ञानी जीव के पूर्वकृत दोषों पर प्रायश्चित्त पछतावा करने की तैयारी रहा करती है। उन मोहियों के रौद्रध्यान में, विषयों की दाह में, अंदर में अनंत आकुलता भरी हुई है और इस ज्ञानी जीव के उस अतीत दोषों के रूदन में, पछतावा में भी अंतर में अनंत अनाकुलता की बात भरी पडी़ हुई है। ऐसे प्रतिक्रमण के द्वार से जो जीव सर्वप्रकार से अपने आत्मस्वरूप के अंतर्मुख होते हैं और शुभ अशुभ समस्त मोह रागद्वेष का परित्याग करते हैं। इस कारण यह स्वाधीन निश्चय धर्मध्यान और निश्चय शुक्लध्यान सर्व अतिचारों को दूर कर देता है।
दोष दूरीकरण का यत्न- यह जीव अनादिकाल से दोषों का पिटारा बना हुआ चला आ रहा है। वे दोष दूर हों तो इसे शांति मिले। दोषों की प्रकृति अशांति उत्पन्न करती है। उन दोषों का दूरीकरण होने का उपाय सर्वप्रथम यह है। वह क्या कि इन दोषों से दूर होकर आत्मा निर्दोष भी रह सकता है, ऐसा श्रद्धान होना। जिसको यह श्रद्धान ही नहीं है कि मैं दोषरहित भी हो सकता हूं, मैं राग, द्वेष, मोह रहित भी हो सकता हूं, जिसे यह श्रद्धा ही नहीं है वह रागादिक रहित कैसे हो सकेगा? मैं रागद्वेष रहित हो सकता हूं ऐसा श्रद्धान बनाने के लिए यह श्रद्धान प्रथम आवश्यक है कि मेरा स्वरूप राग, द्वेष, मोह से परे है, मेरे स्वरूप में राग, द्वेष, मोह नहीं है। यह तो केवल ज्ञानप्रकाशमात्र है। ऐसे निर्दोष आत्मस्वरूप की श्रद्धा हो तो यह श्रद्धा हो सकती है कि मैं इन रागादिक भावों से विमुक्त हो सकता हूं। रागादिक भावों से मुक्त हो सकने की श्रद्धा हो तो उसका यह यत्न हो सकता है कि वह कभी रागादिक भावों से सर्वथा मुक्त होकर अनंत आनंद का पात्र होगा।
मूल में अल्प अंतर का विस्तार- यह जीव स्वयं आनंद का भंडार है, किंतु आशा लगा लगाकर इसने अपना ज्ञान खोया और अपना आनंद नष्ट किया। व्यर्थ ही ऐसी आशा ही निराशा है। जो आशा करता रहेगा उसे निरंतर निराश रहना पड़ेगा। जो किसी भी परद्रव्य की आशा नहीं रखता है वह अपने अंदर में आनंदतृप्त रहेगा। मेरा स्वरूप तो सिद्ध के समान अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतशक्ति, अनंत आनंद का भंडार है किंतु यह अंतर किस बात का हो गया है कि जो द्रव्य मैं हूं, वही द्रव्य भगवान है, चैतन्यस्वरूप एक है, फिर भी यह इतना महान अंतर कि वह तो सकलज्ञेय ज्ञायक है और निजानंदरस में लीन है किंतु ये हम आप जन्म मरण के दु:ख भोग रहे हैं, भूख प्यास, ठंड गरमी के क्लेश सह रहे हैं और कल्पना कर करके नाना विकल्प बनाकर झूठे मान के लिए मोह के स्वप्न देखा करते हैं। यह अंतर किस बात का आ गया है? यह अंतर मूल में बहुत थोडी सी विधि का अंतर है, वह क्या कि यह उपयोग जो आत्मप्रदेशमय है, आत्मा से बाहर जिसका अस्तित्त्व नहीं है इस उपयोग को अपने आत्मा से बाहर कर दिया है और जिन साधु संतों ने, ज्ञानी पुरूषों ने अपने उपयोग को अपने अंतर की ओर किया है उनको मोक्षमार्ग है।
बहिर्मुखता में अशांति- इन बहिरात्मा पुरूषों को चूँकि वे बहिर्मुख हैं अत: शांति का मार्ग नहीं मिल सकता है। मोक्षमार्ग कहो या शांतिमार्ग कहो दोनों ही एक बात है। संसारी लोग विषयों के भोगने में शांति का नाम लिया करते हैं, पर वास्तव में वहां शांति है कहां? वहां आकुलता है, बेचैनी है। इसका प्रमाण यह है कि यदि आकुलता न होती तो विषयों में प्रवृत्ति क्यों की जाती? जिसके फोड़ा फुंसी नहीं है वह क्या कभी मलहमपट्टी करता फिरता है? जिसको जाड़ा, बुखार नहीं है वह क्या रजाइयों को लादता फिरता है कोई वेदना है इसलिए इलाज करना पड़ता है। इसी प्रकार अज्ञानभाव में मोही जीव को कितनी विचित्र वेदना उत्पन्न होती है, जिस वेदना को शब्दों से भी नहीं कहा जा सकता। ऐसे विचित्र क्लेश कई प्रकार के होते हैं। जिस वेदना को दूर करने के इलाज में यह जीव पंचेंद्रियों के विषयों को भोगने की प्रवृत्ति करता है। स्वयं यह स्वभावत: शांत है, किंतु अपने शांत स्वभाव को छोड़कर अशांतभाव में पहुंच गया है। ऐसा यह दोष इस जीव को परेशान किए हुए है। जब तक उन दोषों का निराकरण न किया जायेगा तब तक शांति न मिलेगी।
आज के दुर्लभ उत्कृष्ट समागम का अज्ञान में दुरूपयोग- आज बडे़ सौभाग्य से हम आप सबने मनुष्य जन्म पाया हैं, मनुष्यभव में भी उत्तम जाति उत्तम कुल पाया है, वहां भी उत्तम धर्म पाया है, धर्म के साधनों का समागम पाया है, अब सोचो कि ये कुटुंब के मोह, धन वैभव की तृष्णायें, ये कितनी गंदी प्रवृत्तियां हैं? इन गंदी प्रवृत्तियों में अपने उपयोग को फँसाया तो इतने ऊँचे लाभ से गिरकर दुर्गति में पहुंचेंगे। आत्मा तो यही रहेगा, आज जो यहां मनुष्य है यह आत्मा जब कीडा़ मकोड़ा पेड़ वनस्पति में पहुंच जायेगा तब इसकी क्या दशा होगी? आज सब कुछ पाया है तो कुछ गम नहीं खाता है। चारों कषायों में कितने वेग से दौड़ रहा है कि मानों यह ही निश्चय कर चुका यह कि जितना हम धन एकत्रित कर लें उतना हमारा हित होगा, उतना ही बड़प्पन होगा और इस धन के लिए हम जितना मायाचार कर सकें उतनी ही तो हमारी चतुराई की कला है और ऐसी ही बुद्धि के कारण यह शरीर से धन वैभव से अपना मान समझता है, इन्हीं झंझटों के कारण पद-पद पर इसके क्रोध भी उमड़ता है चार कषायों में कोई भी एक कषाय हो उस ही से दुर्दशा हो जाती है, फिर जो चारों कषायों में मस्त हो रहा है उसकी दुर्गति की कहानी कौन कहे?
स्पर्शनेंद्रियवशता में क्लेश-विषयों की भी बात देखो- एक-एक विषय के आधीन होकर जीव अपने प्राण गँवा देता है। स्पर्शन इंद्रिय के वश होकर हाथी जितना बड़ा जानवर भी अपने प्राण गँवा देता है अथवा पर के आधीन हो जाता है। हाथी को पकड़ने वाले शिकारी लोग जंगल में एक गड्ढा खोदते हैं, उस गड्ढे पर बांस की पंचें बिछाकर पाट देते हैं और कागज से मढ़कर उस पर एक झूठी हथिनी बनाते हैं और कोई 100 हाथ दूर उस हथिनी के सामने एक झूठा दौड़ता हुआ हाथी बनाते हैं। ऐसी स्थिति में कोई सच्चा हाथी फिरता हुआ वहां आये तो इस झूठी हथिनी को निरखकर उससे प्रेम करने के लिए दौड़ता हुआ आता है, इतने में झूठा हाथी जो बना हुआ है जो दौड़ता हुआ नजर आ रहा है, उसे देखकर यह हाथी यह चाहता है कि मैं सबसे पहिले इस हथिनी के पास पहुंचूँ। तो विवेक अब खत्म हो गया। उस हथिनी के नजदीक पहुंचता हैं कि बांस टूट जाते हैं और यह हाथी उस गड्ढे में गिर जाता है। क्या था? न हाथी की उस हथिनी से प्रीतिविषयक कल्पना होती और न वह फंसता। यह तो स्वच्छंद जंगल में ही आनंद से विचरता रहता। कौनसी कमी थी?
रसनेंद्रियवशता में क्लेश- रसना इंद्रिय के वश होकर यह मछली अपना कंठ नुकीले लोहे की फांस में फंसा लेती है, ढीमर लोग जो मछली पकड़ने वाले हैं वे तालाब के तट पर बैठकर बांस की डंडी में डोर बांधकर पानी में लटकाते हैं और लोहे की फांस में मांस लटकाकर डाल देते हैं। यह मछली कुछ आगा पीछा नहीं देखती है और इतना उसका मन है कि चाहे तो वह सम्यक्त्व पैदा करले, इतना श्रेष्ठ मन मिला है फिर भी वह कुछ विवेक नहीं करती। मांस के खाने के लोभ से एकदम मुँह फाड़कर टूट पड़ती है और उसके कंठ में वह लोहे का फांस फंस जाता है, ढीमर लोग पानी से निकालकर बाहर कर देते है। बाहर वह कुछ देर बाद मर जाती है या कोई निर्दयी तो उस जिंदा मछली को ही धधकती हुई आग में डाल देता है, मछली अपने प्राण गँवा देती है रसना इंद्रिय के वश होकर।
रसनेंद्रियवशता में मनुष्य की विडंबना- मछली की क्या कथा कहें- मनुष्य की ही कथा देख लो। बीमार चल रहे हैं और मिठाई या चाट जो कुछ पसंद है उसे खाये बिना नहीं रहते हैं। बीमार हो गये, डाक्टर का बड़ा खर्च चल रहा है, दूसरे के आधीन होकर हाथ जोड़ रहे हैं पर इतना साहस नहीं है कि हम एक बार ही खायें अथवा अमुक चीज ही खायें तथा अपने मन से कुछ स्वस्थ रहते हुए भी कभी-कभी उपवास कर ले, यह साहस नहीं होता है। इस साहस के फल में डाक्टर में जो पैसा खर्च होता है वह भी बंद हो सकता है, शरीर भी स्वस्थ रह सकता है और धर्मसाधना के योग्य भाव चलेगा किंतु व्यामोह में यह बात नहीं सूझती है, मरे जा रहे हैं पर रसना का विषय नहीं टूट सकता है और उनके परिचायक भी उस रोगी से पूछते हैं कि तुम्हारा मन किस पर चलता है? अरे इस चीज पर चलता है। जो बहुत नहीं तो थोड़ा तो दे ही दो। रसना इंद्रिय के विषय के वश होकर यह मनुष्य भी क्या अच्छी जिंदगी से जी रहा है?
घ्राणेंद्रियवशता के क्लेश- घ्राणेंद्रिय वश होकर भँवरा भी अपने प्राण त्याग देता है। संध्या के समय कमल के फूल की गंध में मुग्ध होकर भँवरा फूल के अंदर छुप जाता है, रात्रि शुरू होते ही फूल बंद हो जाता है। जिस भँवरे में यह ताकत है कि काठ को भी छेदकर आरपार निकल सकता है वही भँवरा विषयवासना के वश होकर उस कमल के पत्ते को भी छेदकर नहीं निकलना चाहता है। श्वास घुट जाने से वह भ्रमर मर जाता है अथवा किसी हाथी आदि ने आकर उस फूल को चबा लिया तो यों बुरी मौत मर जाता है। एक घ्राणेंद्रिय के विषय के लोभ क ही तो फल है।
नेत्रेंद्रियवशता से विडंबना- नेत्रइंद्रिय के वश होकर ये पतंगे दीपक की लो पर गिरकर अपने प्राण गँवा देते हैं पर नेत्रेंद्रिय के वश होकर प्राण गँवा देने में यह मनुष्य क्या कम है? एक बार गुरूजी ने सुनाया था कि बनारस में एक हसीन नाटक हो रहा था। उसमें उनके दोस्त उन्हें भी दिखाने ले गये थे। वहां कोई स्त्री रूपवान कलावान पार्ट कर रही थी। किसी बनारस के एक रईस के मन में कुछ विभाव आया, काम वासना जगी, प्रीति का भाव हुआ, एक पर्चे पर कुछ शब्द लिखकर उस पर्चे को स्टेज पर फेंक दिया इस ध्येय से कि यह स्त्री इस पर्चे को खोलकर बांच ले, लेकिन उसने क्या किया कि उस पर्चे को पैरों से बुरी तरह रौंदकर जुगुप्सा भरी सूरत बनाकर उसका तिरस्कार कर दिया। उस रईस के पास कोई चाकु या कटार थी, निकालकर उसने अपने पेट में भौंक लिया और मर गया। यह मनुष्य क्या उन पतंगों से कम है? एक नेत्रेंद्रिय के वश होकर यह जीव अपने प्राण भी गँवा देता है।
कर्णेंद्रियवशता के क्लेश व मनुष्य की पंचेंद्रियवशता- कर्णेंद्रिय के वश होकर सांप हिरन आदि जो संगीत के शौकीन हैं ये पकड़ लिए जाते हैं। जब एक-एक इंद्रिय के वश होकर ये जीव अपने प्राण गँवा देते हैं तो यह मनुष्य तो पंचेंद्रियों के वश हो रहा है। इन जीवों में ऐसी प्रकृति है कि मुख्यता से वे एक-एक इंद्रिय के वश होते हैं पर यह मनुष्य मुख्यता से पांचों इंद्रियों के वश हो रहा है।
शांतिमार्ग का विधिविधान- ऐसे विषयकषायों के दोषों से भरे हुए जीवों को शांति का मार्ग तब तक नहीं मिल सकता है जब तक इन दोषों को दूर नहीं कर देते। अपने दोषों को दूर करने का साधन है ध्यान। यह मैं आत्मा निर्दोष हूं, केवल ज्ञानज्योतिमात्र हूं, आनंद का निधान हूं, ऐसा स्वभाव में अभेद ध्यान करके जिसके यह निश्चय परमशुक्लध्यान अलौकिक प्रकाश प्रकट होता है वह परमार्थज्ञान योगी है और उन्हें यह निर्दोष शुद्ध आत्मा स्वयं प्रत्यक्ष होता है। इस कारण परमात्मतत्त्व की भेंट में ऐसा प्रताप है कि समस्त दोष विलीन हो जाते हैं और इसके शांति का मार्ग प्रशस्त होता है परमार्थप्रतिक्रमण के अधिकार में शुद्ध आत्मा होने की यह विधि बतायी है, जो इस विधि पर चलेगा उसके सांसारिक समस्त संकट दूर हो जायेंगे।