वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 159
From जैनकोष
वाग्गुप्तेनस्त्यिनृतं न समस्तादानविरहत: स्तेयम् ।
नाब्रह्यमैथुनमुच: संगो नांगेऽप्यमूर्छस्य ।꠰159।꠰
प्रोषधोषवासी की सकारण निष्पापता का वर्णन―शिक्षाव्रत में सामायिक शिक्षाव्रत, प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत,―इन दो का वर्णन हो चुका, अब तीसरे शिक्षाव्रत का नाम है भोगोपभोग प्रमाण, उसका वर्णन कर रहें है कि जो देशव्रती श्रावक हैं उनके भोगोपभोग के निमित्त से स्थावर जीवों की हिंसा होती है किंतु जितना उन्होंने भोग और उपभोग का त्याग किया है उससे हिंसा का लेश भी नहीं होता । यहाँ अभी भोगोपभोग प्रमाण नाम के शिक्षा की बात न कहकर उपवास में गर्भित करके कह रहे हैं कि प्रोषधोपवास के समय में उस देशव्रती श्रावक ने भोग और उपभोग का त्याग किया, न आहार ले रहा, न भोग उपभोग की कोई साधना रख रहा, तो भोगोपभोग की साधना का त्याग करने से उसकी हिंसा बची । इसलिये प्रोषधोपवास में वह पुरुष अहिंसक है, इसी प्रकार प्रोषधोपवास के समय वचनगुप्ति का ध्यान रखना चाहिये । मौनव्रत पालना चाहिये । बोले भी तो धर्म के प्रयोजन से बोले, वह भी बहुत कम बोले । तो मौनव्रत रखने से देखो उसके झूठ बोलने का भी पाप नहीं लगा । तो प्रोषधोपवास में जैसे हिंसा पाप का अवसर नहीं रहा उसी प्रकार झूठ का भी अवसर नहीं- रहा । चूंकि कोई आरंभ नहीं कर रहा, इस लिये चोरी का भी पाप उसके नहीं लग रहा है ꠰ जो आरंभ परिग्रह करते हैं उनके किसी न किसी प्रकार का चोरी का दोष लगता है ꠰ कितनी भी सावधानी रखे पर परिणाम लोभकषाय का उत्पन्न होता है तो उसी में चोरी का दोष लगता है । यद्यपि कोई मोटी चोरी नहीं की जा रही है मगर आरंभ और परिग्रह का संबंध ऐसा सावद्य का संबंध है कि उस प्रसंग में किसी न किसी ढंग से चोरी का अतिचार लगता है । तो प्रोषधोपवास करने वाले ने चौर्य का भी सर्वथा त्याग किया इसलिये उसके अहिंसाव्रत लग रहा है । इसी प्रकार उसने मैथुन का भी परित्याग किया है, पूर्ण ब्रह्मचर्य का नियम लिया है इसलिये उसके कुशील का भी दोष नहीं है, और उस प्रोषधोपवास के व्रती श्रावक के शरीर में भी मूर्छा नहीं है फिर अन्य और में तो ममता क्या हो? वह आत्मा के अनुभव की उत्सुकता रख रहा है उसको हिंसा नहीं लगती । इस प्रकार प्रोषधोपवास व्रत का नियम रखने वाले पुरुष के पाँचों पापों का त्याग है ।