वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 48
From जैनकोष
भावेण होइ लिंगी ण हु लिंगी होइ दव्वमित्तेण ।
तम्हा कुणिज्ज भावं किं कीरइ दव्वलिंगेण ꠰꠰48।।
(87) भावलिंग से ही वास्तविक साधुता―भावलिंग से मुक्ति है और वही वास्तव में एक पूज्य पदवी है । द्रव्यलिंग से लिंग नहीं कहलाता मायने साधु मुद्रा नहीं कहलाती इस कारण भावलिंग को धारण करना । केवल द्रव्यलिंग को धारण करने से क्या प्रयोजन? उसमें से गुजरना और भावलिंग से कर्मत्व का हटाना । जैसे कोई पुरुष बंबई जाना चाह रहा रेलगाड़ी से तो रास्ते के बहुत से स्टेशनों से गुजरते जाते हैं । सारे स्टेशन गुजरे बिना बंबई न आयेगा । अगर किसी स्टेशन को सजी-सजाई देखकर वहीं उतर जाये, उसी में मस्त हो जाये तो फिर बंबई नहीं पहुंच सकते, ऐसे ही जिनके भाव बढ़ते हैं वे निष्परिग्रह हुए बिना नहीं बढ़ पाते । निष्परिग्रह होने का नाम ही द्रव्यलिंग याने नग्न शरीर है । सर्व परिग्रहों से रहित ऐसी शरीर की मुद्रा बने, ऐसी मुद्रा आये बिना भावों में उच्चपन नहीं बढ़ता । अगर कोई इस शरीर के भेष को ही, इस साधु सन्यासी की मुद्रा को ही सब कुछ मानकर उसमें ही तृप्त रहे तो वह तो उस मूर्ख की तरह है जो किसी स्टेशन को सजा हुआ देखकर वहाँ उतर जाये और गाड़ी से हट जाये, लाइन से हट जाये । तो द्रव्यलिंग याने शरीर का भेष, साधु सन्यासी का भेष, इससे प्रयोजन नहीं बनता, किंतु भाव में ज्ञानज्योति, ज्ञानस्वभाव की दृष्टि रहे और उस ही के उपयुक्त रहे उससे मोक्षमार्ग बनता, लेकिन जो ऐसा करना चाहेगा उसकी उल्टी मुद्रा न रहेगी कि खूब घर भी बनाये, खूब वस्त्र से भी लदा रहे, मित्र परिजन से भी लदा रहे और भावों में उच्चता बढ़ जाये, यह नहीं होता । इससे भावलिंग ही प्रधान है । अपने ज्ञानस्वरूप में उपयोग को लगावें ꠰