वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 422
From जैनकोष
समयादिकृतं यस्य मानं ज्योतिर्गणाश्रितम् ।व्यवहाराभिध: काल: स कालज्ञै: प्रपंचित: ॥422॥
व्यवहार काल का वर्णन ― पूर्व छंद में निश्चयकाल का स्वरूप कहा गया था । इस छंद में व्यवहार काल का वर्णन किया गया है । जिस काल का परिमाण ज्योतिषी देवों के समूह आश्रित हैं अर्थात् ज्योतिषी विमानों की गति के आधार पर है वे व्यवहार नामक काल कहे गए हैं । निश्चयकाल तो कालाणु हैं जो लोकाकाश के एक एक प्रदेश पर ठहरा है और उसकी असली पर्याय अर्थात् जो पर्याय में अपना एकत्व रखता हो, पर्यायों का पिंडरूप नहीं किंतु कालद्रव्य का एक परिणमन है वह है समय । और उन समयों का जो समूह है वह है पर्यायों का पिंडरूप व्यवहारकाल पर्याय । वह विशेष व्यवहार बनता है जो व्यवहार में समय माना गया है रात दिन घंटा तो घंटे के भी हिस्से हो जाते हैं 60 मिनट और मिनट के भी हिस्से हो जाते हैं 60 सेकेंड । जैसे उसमें कोई निमित्त होना और उसके भी हिस्से हो जाते हैं । तो हिस्से होते होते जो आखिरी निरंश हिस्सा है, जिसका दूसरा भाग न किया जा सके वह है समय और वह समय है कालद्रव्य का परिणमन । फिर उन समयों के समूह का नाम घड़ी घंटा के पीछे सभी रखे गए हैं । तो यह व्यवहारकाल सिर्फ उस गति पर आधारित है क्योंकि सूर्य की गति एक नियमित गति है और चंद्र की भी नियमित गति है । कहीं चंद्र के हिसाब से लोग महीना मानते हैं और कहीं सूर्य की गति से महीना मानते हैं । सूर्य की गति से जो महीना मानते हैं उनके यहाँ कभी भी 13 माह का वर्ष नहीं पड़ता है । जो चंद्र के हिसाब से महीना हैं वह सुदी 1 से बदी अमावस्या तक है । अमावस्या में 30 लिखते हैं तो वे 30 शब्द चंद्र के महीने के हिसाब से हैं । तो किसी हिसाब से सही, समय इन सूर्य चंद्र आदि ज्योतिष मंडल की गति के आधार पर हैं । इसके अतिरिक्त अन्य में भी कल्पनाएँ चलती हैं । जैसे सुबह तारा बड़ा उग आता है तो लोग कहते हैं कि अब चार बज गए, जब एक तारा बिल्कुल ऊपर आता है तो लोग कहते हैं कि 12 बज गए । तो छोटे-छोटे तारावों की गति पर भी समय जाना जाता है । यह सब व्यवहारकाल है । सब द्रव्यों का वर्णन इस सम्यग्दर्शन के प्रकरण में इसलिए कहा जा रहा है कि हमारे आसपास के समस्त पदार्थ और वस्तुवों का सही ज्ञान हो तो एक समाधानचित रहता है और इस समाधानचितता के कारण निराकुलता शांति सम्यक्त्व इन सबका उदय होता है ।